सफ़ेद कीड़े / कहानी / गोविन्द सेन

SHARE:

खोदरा देख उसे सहसा कीड़े याद आने लगे थे। कीड़े...बिलबिलाते सफ़ेद कीड़े । लगता है जैसे सफ़ेद चावल के दाने सहसा जीवित हो उठे हों । खोदरा-जो अपन...

खोदरा देख उसे सहसा कीड़े याद आने लगे थे। कीड़े...बिलबिलाते सफ़ेद कीड़े लगता है जैसे सफ़ेद चावल के दाने सहसा जीवित हो उठे हों

खोदरा-जो अपने तीव्र जल प्रवाह से जमीन को खोद दे। शायद खोदने की उसकी इसी क्षमता के कारण ही लोग इसे खोदरा कहने लगे होंगे। पत्रकार इसे भले ही अख़बार में बयड़ी नदी अर्थात् पहाड़ियों से निकलने वाली नदी लिखते रहें, लोग तो खोदरा ही कहते हैं

वह बरसों बाद गाँव आया था

जनवरी की शाम थी वह इधर खोदरे की तरफ घूमने चला आया था। इस बहाने खोदरे से जुड़ी बचपन की यादों को ताजा करने का लालच भी जुड़ा था यूँ तो कई बार गाँव छोड़ने के बाद गाँव आया है, लेकिन खोदरे की तरफ बरसों बाद उसका आना हुआ था।

खोदरे की ओर जाने वाला रास्ता बेहद तंग हो चुका थापहले इधर से बैलगाड़ियाँ भी आराम से गुजर जाती थीं लेकिन अब पैदल चलना भी मुश्किल हो रहा है। गाँव के इस पूर्वी भाग की आबादी पश्चिमी भाग की अपेक्षा बहुत बढ़ गई है। टापरियों की बाढ़ सी आ गई है लगता है जैसे एक टापरी दूसरी टापरी पर सवार होने की कोशिश कर रही हो। जमीन कम पड़ने लगी है। इसलिए कई टापरियों ने खोदरे से जुड़ी खोदरी पर भी कब्ज़ा कर लिया है। खोदरी लुप्तप्राय सी हो गई है

खोदरी पार करते ही दाहिनी ओर झीरा पड़ता है। झीरा तो अब भी था लेकिन ऐसे जैसे कोई बूढ़ा अपने अंतिम दिन गिन रहा हो। उसके जीवन से अच्छे दिन निकल गए थे । नीम का पेड़ भी बूढ़ा हो चुका है। झीरा जब भी कल्पना में उभरता है तो नीम अपने-आप उसके साथ ही चला आता है। झीरे को नीम से अलगाया नहीं जा सकता। झीरे और नीम की जुगलबंदी थी तब नीम की आधी से अधिक छाँव झीरे पर रहती थी। नीम की निम्बोरियाँ झीरे में टपकती रहती थीं। बाल्टी से जब पानी निकाला जाता था तो उसमें असंख्य निम्बोरियाँ तैरती मिलती थीं। झीरे के पानी में भी निम्बोरियों की गंध और कसैला स्वाद उतर आता था

नीम को देखते ही उसे पीत्या की याद हो आई। गाँव के प्रसिद्ध दारूड़ियों में से एक था पीत्या लोग उसे पीत्या नाम से कम छटाँगसिंग के नाम से अधिक जानते थे। उसकी छोटी सी चाय-सेंव-चिवड़े की दुकान थी। भजिये और सेंव हाथ से बनाकर बेचा करता था। दारू उसकी प्राणाधार थी। आगे-पीछे रोकने-टोकने वाला कोई था नहीं। फक्कड़ अखाड़ा दारू के लिए भी उसे दूर नहीं जाना पड़ता था। पास ही कलाली थी। कलाली चलाती थी कमली और उसकी बेटी साथ ही किराना का सामान भी वहाँ मिलता था। वह केवल सामान ही नहीं बेचती, गल्ला भी खरीदती-बेचती थी। कुछ लोग तो बताते हैं कि पैसे के लिए तो वह अपना शरीर भी बेच देती थी कमली के यहाँ जो चीज नहीं मिलती, वह गाँव में फिर कहीं नहीं मिलती थी। यह पक्का था।

कमली पीत्या की हमउम्र थी। वह कमली की दुकान पर सुबह छटाँकभर दारू पीता था, लेकिन देर तक ऐसा हंगामा करता मानो पूरी बोतल ही पी गया हो। कमली की ही माँ-बहन एक कर देता था। एक ही गाली वह कई बार दुहराता रहता था । कमली भी उसे जी भर कोसती थी । लेकिन शाम ढलते ही वह फिर कलाली में पहुँच जाता था। उससे ऐसे घुल-मिलकर बातें करता जैसे सुबह कुछ हुआ ही नहीं। फिर छटाँकभर दारू पीता। दारू के थोड़ा चढ़ते ही फिर कमली की माँ-बहन एक करने लगता। छटाँकभर पीना और पूरी बोतल का नशा बताना उसका नित्य का नियम बन गया था यही कारण है कि गाँव वालों से उसे छटाँगसिंग जैसा सार्थक नाम मिला था।

वह दारू का इतना आदी हो गया था कि चौबीसों घंटे नशे में धुत्त रहता। दारू वह उतरने ही नहीं देता था। धीरे-धीरे उसकी आँतें और लीवर गल गए थे। उसका शरीर तक दारू से गंधाने लगा था। उसकी गोरी चमड़ी सफेद हो गई थी। उसे कोढ़ फूट गई थी। चेहरा विकृत गया था। उँगलियाँ गलने लगी थीं । लोग उसके हाथ के बने भजिये, चाय और सेंव से परहेज करने लगे थे। दुकान बंद होने के कगार पर आ गई। फिर बंद ही हो गई थी । जब कोढ़ का प्रकोप ज्यादा हो गया तो लोग उसे चारपाई सहित झीरे पर इसी नीम के नीचे छोड़ गए थे मरने के लिए। झीरा और पीत्या दोनों ही एक साथ मर रहे थे। झीरे की झीरें सूख रही थीं और पीत्या का जीवन जल भी।

अंत समय में पीत्या के शरीर में कीड़े पड़ गए थे। वह दर्द से छटपटाता रहता था। कीड़े उसे जिन्दा खा रहे थे। वह दर्द से कराहता हुआ ढसल-ढसल रोता था। सहायता के लिए पुकारता रहता था । उसके हाथ के बने सेंव-भजिये लोग चटखारे ले-लेकर खाते थे लेकिन अब उसके पास कोई फ़टकता भी नहीं था। वह ऊँची जाति का होकर भी अछूत था। आखिर पीत्या इसी नीम तले रोता-छटपटाता मर गया था। नीम पीत्या की पीर का प्रत्यक्षदर्शी था।

उसे बालू दादा ने बताया था कि उनसे पीत्या की यह दुर्दशा देखी नहीं जाती थी । वे हिम्मत करके बदबू को झेलते हुए भी उसके घावों में से कीड़े निकालते थे। पता नहीं इसमें कितना सच है और कितना झूठ। लेकिन यह सच था कि गाँव में बालू दादा की एक साफ-सुथरी छवि थी। उन्हें ईमानदार,जागरूक और सेवाभावी आदमी माना जाता था, जिसका फायदा उन्हें बाद में मिला भी। लोगों ने उन्हें सरपंच चुना। वर्तमान में बालू दादा ही गाँव के सरपंच हैं। पहले भी वे हमेशा साफ और सफेद कमीज-पजामा पहना करते थे, आज भी उनका पहनावा वही है। उन्हें सफ़ेद के अलावा और कभी किसी दूसरे रंग के कपड़ों में देखा ही नहीं गया। बालू दादा भील हैं । आम भीलों की तरह उनका रंग काला जरूर है लेकिन शरीर दुबला-पतला नहीं है। गोल चेहरा, घुँघराले बाल और भरा हुआ बदन है उनका।

जब झीरा जिन्दा था, यहाँ खूब चहल-पहल रहती थी। इसका पानी पीने योग्य तो नहीं था लेकिन नहाने, कपड़े धोने, ढोरों की प्यास बुझाने जैसे कामों के लिए सहज उपलब्ध और उपयोगी था।

गर्मी के दिनों में तेज धूप से बचने के लिए पानी और छाँव की बहुत जरूरत होती है। झीरा और नीम दोनों ही जरूरतें पूरी करता था। गाँव के लोग यहाँ नहाते रहते थे। बच्चे इसमें ऊपर से कूद-कूद कर नहाते रहते थे। दोपहर को औरतें यहाँ कपड़े कूटती रहती थी। झीरे से लगा हलाव था जिसमें ढोरों के पीने के लिए पानी भरा रहता था। किसान यहाँ अपने ढोरों को पानी पिलाने आते थे । अब सारा वैभव ख़त्म हो चुका है। पानी की झीरें सूख चुकी हैं। झीरा अब एक मरा हुआ कुआँ है। वह एक बड़े से कूड़ेदान में बदल चुका है । ज़माने भर की गन्दगी और कचरा इसमें डाला जा रहा है।

खोदरी के दाहिनी ओर गोठान थी। जहाँ ढोर इकठ्ठा होते थे। अब वह गोठान भी गोठान कम, गोठान का छल अधिक लग रही थी। गोठान के बीच उदाबाबा का लगाया गया बरगद बहुत संकुचित होकर ऐसे खड़ा है, जैसे वह अपने बरगद होने पर ही शर्मिंदा हो। परिस्थितियाँ उसे अधिक फैलने की इजाजत ही नहीं दे रही थी। उसका आधार ही खिसक गया था।

गोठान खोदरे के किनारे लगी थी। किनारा हर साल पानी के तेज बहाव में कटता रहा था। दूसरी ओर गोठान के नीचे की पीली मिट्टी को लोग लीपने के लिए खोद-खोद कर ले जाते थे। जिससे बरगद की जड़ें मिट्टी से बाहर आ गई थीं। खोदरे में आने वाली बाढ़ भी गोठान को हर साल काटती रही थी। जो बरगद पहले गोठान के बीचोंबीच था, अब खोदरे के किनारे आ लगा है और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करता सा प्रतीत हो रहा है

वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता जा रहा था। बदबू के भभके उसके नथुनों में घुसते जा रहे थे।

उसका बचपन और किशोरावस्था इसी गाँव में गुजरे थे। घर में शौचालय नहीं था। वैसे भी शौचालय के बारे में तब कोई सोचता भी नहीं था। सबको बाहर जाने की आदत थी। दूसरा कोई विकल्प ही न था। शौच के लिए इसी खोदरे की शरण लेनी पड़ती थी। खासकर ठण्ड और बारिश में जब मौसम खुला होता, तब इधर का रूख करना अच्छा लगता था। खुली हवा के साथ गुनगुनी धूप का आनंद भी मिल जाता था। दूसरों की तरह वह भी लठ्ठे की चड्डी खिसका कर बैठ जाता था। इधर पेट खाली होता जाता और उधर निगाह दूर-पास के मल के ढेरों पर टिकी रहती थी। कहीं कोई ढेर गुम्बदाकार, कोई कुंडलाकार तो कोई गुल्ली के आकार का। अक्सर मल के ढेरों पर सफेद कीड़ों का बिलबिलाता हुजूम दिखाई देता था जो मल को निपटाने में जुटा रहता था। आसपास विभिन्न कालावधि के मल के ढेर और कुंडल पड़े रहते थे। पुराने मल पर अधिक बड़े, अधिक सफेद और अधिक पुष्ट कीड़े दिखाई देते थे। जबकि ताजा मल पर छोटे, कमजोर और पीले कीड़े नजर आते थे। उसे अचरज होता था कि कैसे एक प्राणी का मल दूसरे प्राणी का भोजन बन जाता है ! वे मल भोजी कीड़े बहुत उजले और साफ-सुथरे दिखाई देते थे। हालाँकि उनके पेट में तो मल ही भरा रहता।

उसे उन दिनों के कुछ दृश्य याद आने लगे। एक दृश्य में उसे देखता है कि खोदरे में बैठा वह मल त्याग रहा है। दूर या कुछ पास में कोई और भी मल त्याग रहा है। अपने-आप में ध्यानस्थ। अपने-आप में गुम। आसपास से असम्पृक्त। मल त्याग के बाद उसी खोदरे के पानी से वह हाथ धो रहा है। फिर घर आकर उसने अच्छे पानी से हाथ धोये हैं।

उसे यूँ खुले में मल त्यागना बहुत ख़राब लगता था। खोदरे से लगा घिस्या पंडित का खेत था। खेत में जब कोई काम चलता तो खेत में कोई न कोई रहता ही था। ऐसे में बेशर्म होकर बैठना ही होता या दबाव को रोके रखना पड़ता था। वह सोचता रहा है कि ऐसी स्थितियों में लड़कियों और महिलाओं की क्या हालत होती होगी। वे कैसे निपटती होंगी! कई औरतें तो बेचारी एकांत न मिलने के कारण पानी ढोल कर ही चली जाती थीं या घाघरे से आड़ बना मल त्याग लेती थीं।

खोदरे में सुबह-सुबह कुछ अधिक ही भीड़ होती थी। उसने खोदरे में एक-दो स्थान ऐसे नियत कर रखे थे, जहाँ अधिक आड़ होती और इत्मीनान से निपटा जा सकता था। लेकिन जब वे स्थान खाली नहीं मिलते तो कोई और स्थान ढूँढना पड़ता था। तब दबाव बढ़ता जाता था और झुंझलाहट भी।

उसने देखा, खोदरे पर बने स्टॉप डेम की पाल पर गू के घिनौने रेले बने हैं। लगता था जैसे मोमबत्ती के बुझने के बाद नीचे की ओर बहते मोम के रेले जम गए हों। वहाँ मक्खियाँ भिनक रही थीं। तेज बदबू उठ रही थी। इस पाल पर उन अनाम हगने वालों पर उसे क्रोध आया। क्या यही जगह बची थी हगने के लिए ! उसे उबकाई आने लगी।

डेम में पानी से ज्यादा लिलपी [काई] जमी थी। लगता था पानी ने शर्मिंदा हो काई से अपना मुँह ढँक लिया हो। वह इतना गन्दा था कि किसी को मुँह दिखाने के काबिल न था। खेतों में सिंचाई के लिए पानी को खींचने के लिए ढेरों मोटर पम्पों के असंख्य पाइप अन्दर डूबे थे। जैसे उनमें पानी खींचने की जबरदस्त होड़ लगी हो। आसपास खूब बबूल और झाड़ियाँ बेतरतीब उगी हुई थीं। इन झाड़ियों में प्लास्टिक की रंग-बिरंगी पन्नियाँ-थैलियाँ उलझी-अटकी हुई थीं। कहीं-कहीं दारू की फैंकी गई प्लास्टिक की खाली बोतलें लुढ़की हुई दिखाई दे रही थीं। खोदरे का सारा पानी डेम ने रोक रखा था मानो बैल के मुँह पर मुसका बाँध दिया गया हो। आगे खोदरा सूखा था जिसमें रेत ही रेत थी और बीच-बीच में इक्का-दुक्का कँटीले पौधे और गू के कई ढेर।

उसे याद आया कि उनका यह गाँव निर्मल गाँव घोषित हो चुका है। वह मन ही मन हँसा। कागज पर निर्मल और हकीकत में मल ही मल।

खोदरे से जुड़े कई दृश्य आज भी उसकी स्मृति से जुड़े है। उसे फिर याद आया एक और दृश्य। उस दृश्य में वह और उसका छोटा भाई खोदरे में नहा और कपड़े धो रहे हैं। खोदरे में घुटने-घुटने तक कल-कल साफ पानी बह रहा है। छोटा भाई सनलाइट साबुन को कमीज पर खूब रगड़ रहा है। मैल निकालने में उनकी रुचि कम है। उन्हें झाग बनाने में खूब मजा आ रहा है। दोनों झाग से खेल रहे हैं। बड़े-बड़े बुलबुले बन रहे हैं और फूट रहे हैं। उसी समय कनु माँ भी वहाँ कोरे पानी से नहा रही हैं। कनु माँ याने बालू दादा की माँ। कनु माँ ने देखा कि वे झाग से खेल रहे हैं तो वे झाग उठा-उठा कर अपने बालों में उड़ेलने लगीं। वे झाग को व्यर्थ जाने नहीं देना चाह रहीं हैं । आज-उसे लग रहा है कि वे अपने शरीर पर कहीं सफेद कीड़े तो नहीं उड़ेल रही थीं। तो दूसरे ही पल लगता है कि नहीं वे झाग ही उड़ेल रही थीं। इधर झाग बनाया जा रहा था और उधर कनु माँ उसे बदन पर मलती जा रही थीं । वे इतने आनंद विभोर हो नहा रही थीं, जितना आनंद सौन्दर्य साबुन से नहाने वाली फ़िल्मी सुंदरियों ने भी अनुभव नहीं किया होगा। कनु माँ के शरीर ने कभी साबुन का स्पर्श भी नहीं किया होगा। लेकिन उस दिन वे साबुन के झाग से नहाने का सुख उठा रही थीं।

कनु माँ के चेहरे पर हमेशा बाल सुलभ मुस्कान रहती थी। वे अक्सर लोगों से हँसी-मजाक करती रहतीं थीं। हालाँकि उनका चेहरा झुर्रियों से भरा था। मुख पोपला हो चुका था। छाती की एक-एक पसली गिनी जा सकती थी। वे बकरियाँ चराया करती थीं। उनका घाघरा, लुगड़ा और पोलका अक्सर मैले-कुचैले रहते थे। छठे-चौमासे ही उनकी धुलाई होती होगी।

गाँव में अभी तक जितने भी सरपंच हुए हैं, उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी ही नहीं, बढ़िया हो गई है। शायद उन्हें सरपंची के जरिए जादू की कोई छड़ी मिल गई थी। उनके बड़े-बड़े दुमंजिले मकान बन गए थे। मोटर साइकिलें आ गई थीं। बालू दादा ने भी देखते ही देखते सर्व-सुविधा युक्त तीन मंजिला मकान खड़ा कर लिया है। हर कमरे के साथ लेट-बाथ अटैच, एलईडी, गैस चूल्हा, वाशिंग मशीन, फ्रीज़ सब। घर के सामने बुलेरो खड़ी रहने लगी है। कुआँ पक्का बन गया है। एक खेत और खरीद लिया है। खेत में सिंचाई के लिए ड्रिप लाइन डाल ली है। उन्होंने कभी पीत्या के शरीर से कीड़े निकाले थे। लेकिन अब शायद खुद एक कीड़े में बदल गए हैं। राजनीति ने उनकी कायापलट कर दी थी। अब वे सरकारी कागज पर बालूसिंह डाबर हैं। गाँव में लोग उन्हें आदर से बालू दादा या बालू सरपंच कहने लगे हैं।

लेकिन कनु माँ के नसीब में यह सुख नहीं था। वह तो कब की गुजर चुकी थीं। मुँह अँधेरे शौच के लिए बाहर गई थीं। साँप पर पाँव पड़ गया। साँप ने तुरंत उसे डस लिया और इस तरह कनु माँ की जीवन लीला समाप्त हो गई थी।

गाँव का खोदरे के किनारे वाला यह पूर्वी हिस्सा गाँव का तलछट है। यहाँ अधिकतर भील-मानकर रहते हैं-छोटी-छोटी टापरियों में। इस भील अवार में नंगे-अधनंगे, मैले-कुचले कपड़ों में लिपटे गंदे बच्चों की फ़ौज धमाचौकड़ी करती नजर आती। जगह-जगह बकरियों की मींगनियाँ और मुर्गियों की हगार बिखरी रहती। छोटे बच्चे टापरियों के आसपास ही हगते नजर आते। मुर्गियाँ और उसके ढेर सारे चूजे चीं-चीं करते गू को छितराते-चुगते नजर आते। कोई मुर्गी पानी के लिए इधर-उधर लुढ़के लोटे और गिलास में मुँह डालती रहती। कहीं कोई मुर्गी खुले मटके के मुँह पर चढ़कर अपनी हगार ही पानी में डाल जाती। हर तरफ चीजें बिखरीं और अस्त-व्यस्त। हर तरफ भन-भन करती मक्खियाँ-मच्छर।

कमली की टापरी अब दुमंजिला मकान में बदल गई है। पीत्या की दुकान और जमीन पर कमली का कब्ज़ा हो चुका है। उसके पास अब ढेर सारी खेती-बाड़ी है। अब उसकी एक बस चल रही है और एक कलाली भी। लेकिन आधुनिक ढंग से। अब वहाँ कोई पीत्या जैसी चिल्ला-चोट करने की हिम्मत नहीं कर पाता।

अन्दर गाँव में तो कई दुमंजिला-तिमंजिला बड़े-बड़े मकान हैं लेकिन इस भील अवार में अभी सीमेंट-कांक्रीट के वैसे केवल दो ही मकान बने हैं, एक कमली का और दूसरा बालू सरपंच का। ये मकान आसपास की टापरियों से मेल नहीं खा रहे हैं । इनके आसपास गारे की दीवारों वाली और कवेलू की छतों की टापरियों का बड़ा सा गुच्छा है। सभी गरीब खेत में मजदूरी करने, बड़े किसानों के यहाँ वरसूद बनकर जीविका चलाने वाले। एक-एक टापरी में आठ-आठ, दस-दस सदस्य एक साथ बिलबिलाते कीड़ों की तरह रहते हुए। अवार में पहले की ही तरह दिन-रात आपस में गाली-गलौच और मारपीट चलती रहती है। जनसंख्या के साथ हर चीज बढ़ रही है। पेड़ों के नीचे जुआ चलता रहता। महुए की गंध उड़ती रहती।

उसे याद आया। जून में वह अपने एक अमीर रिश्तेदार के बेटे की शादी में गया था। उसका राजनीति में भरपूर दखल है। उसे यह समझ में नहीं आ रहा था, उसका वह रिश्तेदार राजनीति में होने से अमीर है या अमीर होने से राजनीति में है। बहरहाल उसकी अमीरी का सम्बन्ध कहीं न कहीं राजनीति से जरूर था।

पंगत चल रही थी। तभी सफ़ेद कार से विधायकजी और उनके साथी उतरे थे। उनके आते ही पता नहीं कहाँ-कहाँ से कार्यकर्ता और नेतागण उसके चारों तरफ इकठ्ठा हो गए, एक निश्चित दूरी और सौजन्य बरतते हुए। कोई उनके चरण छू रहा था। कोई हाथ मिला रहा था। विधायकजी झकाझक सफेद कुरता-पजामा पहने थे। उससे मिलने वाले भी सभी सफेद कपड़ों में दिखाई दे रहे थे। केवल गन-मेन ही खाकी वर्दी में था। लगता था कि बहुत सारी सफेदी और उजलापन एक जगह इकट्ठा हो गया हो। सफेदी और उजलेपन का एक संकुल बन गया हो जैसे। कहीं वे सफ़ेद कीड़े तो नहीं थे।उसे बेतरह सफ़ेद कीड़े याद आने लगे।

यदि ऊँचाई से देखना संभव हो तो यह गाँव धरती पर उभरे गू के एक वृत्ताकार ढेर जैसा दिखाई देगा। ऊँची, सफेद, उजली बिल्डिंगें गू में पनपते कीड़ों की तरह नजर आएगी।

खोदरे से बदबू के भभके निरंतर उठ रहे हैं। लगता था खोदरा एक खुले शौचालय में बदल गया है। जैसे उसके शरीर पर भी पीत्या की तरह कोढ़ फूट गई हो। उसका पूरा शरीर फसफसा गया है। लगता है पूरा खोदरा ही मल और बिलबिलाते कीड़ों से भर गया हो। असहनीय सड़ांध उठ रही है।

वह नाक बंदकर खोदरे से जल्दी-जल्दी वापस लौट रहा था। अँधेरा बढ़ता जा रहा था और गू से पाँवों के लथपथ होने का डर भी।

 

-193 राधारमण कॉलोनी,

मनावर, जिला-धार [म.प्र.] पिन-454446

मोब.09893010439

 ईमेल-govindsen2011@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: सफ़ेद कीड़े / कहानी / गोविन्द सेन
सफ़ेद कीड़े / कहानी / गोविन्द सेन
https://lh3.googleusercontent.com/-rAGS-q1Bwx0/Vuqwl_pS9pI/AAAAAAAAsYQ/f0TsNXbYy44/image_thumb.png?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-rAGS-q1Bwx0/Vuqwl_pS9pI/AAAAAAAAsYQ/f0TsNXbYy44/s72-c/image_thumb.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/05/blog-post_83.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2016/05/blog-post_83.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content