राकेश मिश्र / अपेक्षा तो सामाजिक बदलाव की ही है / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1

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कथा-कसौटी (लेखक) राकेश मिश्र अपेक्षा तो सामाजिक बदलाव की ही है बड़ा ही कठिन सवाल पूछा है आपने कि मैं अपनी कहानियों से क्या अपेक्षा रखता...

कथा-कसौटी (लेखक)

राकेश मिश्र

अपेक्षा तो सामाजिक बदलाव की ही है

बड़ा ही कठिन सवाल पूछा है आपने कि मैं अपनी कहानियों से क्या अपेक्षा रखता हूँ? मेरे ख़्याल से इस सवाल का जवाब तो बेहतर तरीके से पाठक और आलोचक ही दे सकते हैं कि वे मेरी और मेरे जैसे अन्य साथी कथाकारों की कहानियों से क्या अपेक्षा रखते हैं?

लेकिन चूँकि आपने मुझसे पूछा है तो बहुत सी चीज़ें जेहन में आ रही हैं। एक तो अपना वह शुरूआती परिवेश जिसमें कहानी लिखने के कीड़े ने पहली बार काटा था। मैंने अत्यन्त्र भी लिखा है कि मेरा शहर जमशेदपुर कहानीकारों का शहर था और जिस समय अपने रचनात्मक परिवेश में मैं अपनी आँख खोलने की कोशिश कर रहा था कहानीकार जयनंदन हमारे शहर में निर्विवाद स्टार थे। शहर में वामपंथी धड़े के दो लेखक संगठन थे- प्रलेस और जलेस। ख़ूब कार्यक्रम होते थे और तमाम लेखकों की एक दूसरे में आवाजाही थी। जयनंदन उस समय किसी ख़ास संगठन के सदस्य नहीं थे लेकिन उनका सम्मान कुछ कुछ प्रगतिशील लेखक संघ की ओर था। यह उतना वैचारिक नहीं था जितना तात्कालिक परिस्थितियाँ और समीकरण इसके कारक थे। दरअसल इन दो लेखक संगठनों के अलावा एक और संस्था साहित्यिक हलचल का केन्द्र हुआ करती थी- ञसहभूम जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन/तुलसी भवन। जयनंदन इस संस्था के साहित्यिक कार्यक्रमों के मास्टरमाइंड थे और उन्होंने 'कथा मंचन' जैसा भव्य और उल्लेखनीय कार्यक्रम करवा कर शहर में जैसे धूम मचा दी थी। कई कारणों से जनवादी लेखक संघ इस संस्था में आने-जाने से परहेज करता था और प्रगतिशील लेखक संघ के साथी जयनंदन के आयोजनों के सहभागी थे। स्थानीय स्तर पर उस समय प्रगतिशील लेखक संघ के चाहे जो भी कर्ता-धर्ता रहे हों यह संगठन कथाकार शंकर से अपनी ऊर्जा ग्रहण करता था। शंकर उस समय सासाराम से अपने दो कथाकार मित्रों- अभय और नर्मदेश्वर के साथ 'अब' जैसी महत्त्वपूर्ण लघुपत्रिका

निकालते थे जो मूलतः कहानियों की ही पत्रिका थी। उनके प्रोत्साहन और सहयोग से एक दुर्धष संस्कृतिकर्मी 'राघव आलोक' न सिर्फ जमशेदपुर से 'दस्तक' जैसी पत्रिका निकालने लगे बल्कि उस ढलती उम्र में 'कहानी' की दुनिया में भी दस्तक देने का हौसला जुटाने लगे। ;यह अफसोसनाक रहा कि राघव आलोक असमय ही हमें छोड़ गये और कहानीकार के तौर पर उनका निखरा स्वरूप हमारे सामने आने से रह गया। कुल मिलाकर जयनंदन का स्टारडम और शंकर का कहानियों के प्रति एक मिशनरी भाव ही वह प्रारंभिक आकर्षण और जुनून का कारण बना कि लिखना तो 'कहानी' ही है। शायद 'कहानी' के छपने, दूर तक इसके पहुँचने और देर तक इसकी चर्चा होते रहने के प्रारंभिक असर ने भी 'कहानीकार' के तौर पर ही जीवन बिताने के लिये उकसाया हो। यहाँ यह प्रसंग तनिक विस्तार से लिखने का आशय यही है कि शुरूआत में 'कहानी' से कोई बड़ी अपेक्षा नहीं थी सिवाय इसके कि मेरी भी कहानी कहीं छपे, लोग उसे पढ़ें और पढ़कर मुझे चिट्ठियाँ लिखें। वैसे ही जैसे जयनंदन को लिखते थे। यहाँ यह बता दूँ कि जयनंदन को उस समय उनकी कहानियों पर इतने पत्र आते थे कि उन्होंने बाकायदा एक पोस्टबॉक्स ही अपने नाम पर ले रखा था। कभी-कभी मैं भी उनके साथ उनके पोस्ट बाक्स तक जाता था और हर बार वह लगभग भरा ही मिलता था। लेकिन जयनंदन की अपेक्षा कहानियों को लेकर एक अतिरिक्त सजगता और चिंता शंकर जी के पास थी। शंकर स्वयं तो कहानीकार थे ही। कहानियों की पत्रिका भी निकालते थे, और इस लिहाज से कहानियों से 'अपेक्षा' वाला भाव उनके पास ज्यादा था। शंकर अपने आरंभिक दिनों से ही प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रिय कार्यकर्ता थे और अपने बड़े सरकारी ओहदे और रुतबे को कभी-भी उन्होंने अपने साहित्यिक व्यक्तित्व पर हावी नहीं होने दिया था। कहानियों की गोष्ठियों सम्मेलनों में वे संजीदगी से उपस्थित होते, स्टारडम से बचते लेकिन बहुत ही सुचिंतित और तर्कपूर्ण व्याख्या उनके पास कहानियों की थी। कहानियाँ या कोई भी रचना उनकी दृष्टि में, सामाजिक सोद्देश्यता का वायस थी और इस लिहाज से कहानी के 'रूप' पर वे अक्सर कहानी की 'अन्तर्वस्तु' को महत्त्व देते थे। कहानी कहाँ खत्म होती है और वह क्या संदेश देती है, वह किसके पक्ष में खड़ी होती है, कहानीकार अपनी कहानी में किस विषयवस्तु का चुनाव कर रहा है, यह सब उनकी चिन्ता के केन्द्र में होते थे। 'रूप' और 'अन्तर्वस्तु' का द्वंद्व उनके पास इतना ज्यादा था कि संभवतः अभी भी कहानियों को वे इसी आग्रह से देखते हैं। 'परिकथा' जैसी चर्चित पत्रिका के संपादक के तौर पर उन्होंने हाल-हाल तक इसी बहस को आगे बढ़ाया और अपने जिद और जुनून में उन्होंने मजबूत अन्तर्वस्तु की अनगिनित कहानियाँ छापीं और उन पर अपने तरीके से चर्चा भी करवाई। कहानियों को लेकर 'फुलझड़ी' और 'दीपक' का उनका रूपक भी खासा चर्चित रहा कि वे फुलझड़ी की तरह ही चमक- दमक वाली कहानियों की तरफ नहीं देखते, बल्कि कहानियों से उनका मकसद 'दीपक' की तरह से है, जो अँधेरे के खिलाफ देर तक निर्णायक लड़ाई करता हुआ दिखता है।

उनके संग और सोहबत में प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में हिस्सेदारी करता हुआ 'दीपक' की तरह निर्णायक असर की कहानियाँ लिखने की सोचता हुआ मैं कहानी की दुनिया में आया। पच्चीसों प्रयास करने के बाद उस समय मेरी दो कहानियाँ छप भी गईं। एक तो राघव आलोक की पत्रिका 'दस्तक' में और दूसरी शंकर जी की 'अब' में। मेरी अपनी कहानियाँ से पहली अपेक्षा कि वे किसी पत्रिका में छपे, पूरी हुई। अन्य अपेक्षाएँ कि लोग उस पर चर्चा करें और मुझे चिट्ठियाँ लिखें, अधूरी ही रही। क्योंकि उन कहानियों को संभवतः उन्हीं लोगों ने पढ़ा जिसे मैंने स्वयं जबर्दस्ती पढ़वाया होगा। लेकिन शंकर जी सचमुच 'गंधी' की संगत थे, उनसे बात करके कलेजा चौड़ा हो जाता था। उन्होंने उन दो साधारण कहानियाँ से ही मेरे मन में यह विश्वास जमा दिया था कि मैं अब जल्दी ही साहित्य की दुनिया में जाना पहचाना नाम हो जाऊँगा और जब मैं 'इंटर' पास करके आगे की पढ़ाई के लिये बी.एच.यू., बनारस आया तो अपने आपको 'बाकायदा' कहानीकार मानते हुए ही आया। मई-जून की तपती दोपहरी में प्रवेश परीक्षा का इम्तहान देकर बी.एच.यू. में जब मैं ढूढ़ता हुआ गुरुदेव काशीनाथ सिंह के आवास पर पहुँचा और उनके सवाल कि 'मुझे कैसे जानते हो?' जवाब में यही कह गया कि 'मैं भी कहानियाँ लिखता हूँ।' हिन्दी कहानी में 'वटवृक्ष' की हैसियत रखने वाले विरल और विलक्षण कहानीकार काशीनाथ सिंह के सामने एक इंटर पास निमुच्छा लड़का अपने कहानीकार होने का दावा कर रहा था, यह बात आज भी किसी के लिये भयानक हँसी का दौरा ला सकता है, लेकिन पता नहीं क्यों 'गुरुदेव' यह सुनकर संजीदा हो गये। उन्होंने कुछ एक मामूली सवाल किये और पता नहीं क्यों इतने आश्वस्त और चिंतित हो गये कि मैं बनारस में बिना किसी और को जाने हुए भी ठीक से एक दो दिन रह लूँगा। पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही उन्होंने जाने दिया और सख्त ताकीद की यदि मेरा चयन इस विश्वविद्यालय में हो जाता है, तो नामांकन से पहले उनसे जरूर मिलूँ। और परिणाम आने के बाद जब मैं हिन्दी साहित्य पढ़ने की बलवती इच्छा से साथ उनके सामने उपस्थित था तो उन्होंने बहुत जोर देकर मुझे किसी अन्य विषय का चुनाव करने को कहा। मैं रुआँसा होकर लगभग गिड़गिड़ाने लगा, तो उन्होंने पूछा कि आखिर हिन्दी पढ़ने को लेकर मैं इतना जिद्दी क्यों हूँ? मैंने बताना चाहा कि आप हिन्दी के विभागाध्यक्ष हैं, इतने बड़े कथाकार हैं, आपसे पढ़ना चाहता हूँ, आपकी तरह बनना चाहता हूँ। तो उन्होंने अपने अंदाज में समझाते हुए कहा कि बी.ए. वालों को विभागाध्यक्ष नहीं पढ़ाते हैं और कथाकार हिन्दी साहित्य पढ़े बिना भी बना जा सकता है, बल्कि उन्होंने आगे जोर देकर यही कहा कि जरूरी है कि अच्छा कथाकार हिन्दी साहित्य न ही पढ़े। उन्होंने तमाम कहानीकारों के उदाहरण दिये, जो कोई अन्य विषय पढ़कर 'कहानी' के क्षेत्र में आये, और उनके अनुसार, उन्होंने ही ठीक-ठाक कहानियाँ लिखीं। उन्होंने यह आश्वस्त किया कि सीखने समझने के लिये मैं कभी भी उनके पास आता जाता रह सकता हूँ। इस तरह मैं इतिहास का विद्यार्थी होकर कहानीकार होने का भ्रम पाले बनारस में रम गया।

कोई-कोई शहर होता है, जहाँ जाकर आपको लगता है, जैसे आप इसी शहर के लिये बने हैं। बनारस मेरे लिये ऐसा ही था, मैं अपने अंदाज, अपने व्यवहार, अपने लगन और ठसक मैं किसी भी बनारसी से ज्यादा बनारसी बनता गया और बनारस आपसे सबसे पहले आपकी महत्त्वाकांक्षा ले लेता है। इस शहर में महत्त्वाकांक्षियों के लिये, अपेक्षा पालने वालों के लिये कोई जगह नहीं थी। बड़े-बड़े समाजशास्त्री गणितज्ञ, वैज्ञानिक, कलाकार, चित्रकार सब अपनी उपलब्धियों को एक 'बाल' पर तौलने के लिये तैयार बैठे थे। ऐसे में बनारस को जीते हुए मैं सब कर रहा था। नेतागिरी, गुंडागर्दी, इश्क, मोहब्बत, फाकामस्ती, शराबनोशी। केवल कहानी नहीं लिख पा रहा था, लेकिन एक मन को बहलाने जैसी आश्वस्ति जरूर थी कि इन सब बरबाद होते समय की विलक्षण और बेजोड़ कहानियाँ मैं ही लिखूँगा। ये सब मेरे भविष्य के कहानीकार को विस्तार देने के ही 'कर्म' हैं। जब कहानी की 'क्रिया' में उतरूँगा तो ये कर्म ही काम आएँगे। कभी-कभी क्रिया की 'हवस' जोर मारती थी, लेकिन 'कर्म' के आकर्षण से निकलना इतना आसान नहीं था।

यह हमारे समय का सबसे तेज बदलाव का समय था। हम मनुष्यता के इतिहास में उन चुनिंदा खुशनसीब लोगों में थे, जो अपनी भरी जवानी में शताब्दी बदलते हुए देखते हैं, लेकिन शायद सबसे अभागे लोगों में भी थे जो भविष्य के लिये किसी 'यूटोपिया' से हमेशा के लिये हाथ धो लेने वाले थे। हम सबसे तेज बदलते हुए समय में सबसे स्थिर किन्तु बहुत ही विचलित जीवन जी रहे थे। इस समय को पकड़ना, उसे अपने अनुभवों में ढालना और उसे अपनी भाषा में सँवारना, हमारे समय की संभवतः, सबसे बड़ी चुनौती थी। रूप और अन्तर्वस्तु का सवाल बहुत ही स्थूल और उथला किस्म का सवाल हो गया था। कहानियों की दुनिया भी तेजी से बदलती हुई दुनिया के साथ बदल रही थी। 'पाल गोमरा का स्कूटर' और 'वारेन हेंस्टिंग्स का साँड़' इन दो कहानियों ने हिन्दी कहानियों का पारंपरिक ढाँचा बदलकर रख दिया था। संजीव, जयनंदन, शंकर सब की कहानियाँ जैसे गये ज़माने की बातें हो गई थीं। तो सिर्फ उदयप्रकाश की एक सम्मोहक उपस्थिति। मुझे याद है कि जब मैं 'वारेन हेंस्टिंग्स का साँड़' पढ़कर गुरुदेव के पास गया, तो उन्होंने लगभग बुदबुदाते हुए कहा था- 'जरूर उदयप्रकाश के मस्तिष्क पर पूर्णिमा के चाँद की तरह समुद्र का ज्वार भाटा का प्रभाव पड़ता होगा। साधारण मस्तिष्क से ऐसी कहानियाँ नहीं लिखी जा सकतीं।

अपनी ज़िन्दगी, परिवेश और लगातार बदलती दुनिया को देखने की 'उदयप्रकाशीय' दृष्टि से मैंने भी एक लंबी छलांग लगाई और उस समय की अपनी सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी कहानी 'तुमने जहाँ लिखा है प्यार, वहाँ सड़क लिख दो' लिख डाली। मेरे अपने हिसाब से यह विलक्षण कहानी थी और मैं इसे कहीं भेजकर छपने का इंतजार नहीं कर सकता था। मेरी अपेक्षा थी, अपेक्षा क्या ज़िद थी कि यह कहानी 'हंस' में छपे, और रातों रात मुझे भी अग्रिम पंक्ति के युवा कथाकारों में शामिल कर लिया जाय। यह कारनामा देवेन्द्र 'क्षमा करो हे वत्स' लिखकर हमारे ही समय में कर चुके थे।

मौका लगते ही मैं दिल्ली में था। 'हंस' के दफ्तर में राजेन्द्र यादव के सामने था, इस जिद और जल्दबाजी में कि मेरी कहानी पढ़कर तुरंत उस पर निर्णय दे दिया जाए।

राजेन्द्र जी असमर्थ थे, चूँकि उनके आँखों का ऑपरेशन हुआ था लेकिन मुझमें इतना धैर्य नहीं कि मैं उनके पास कहानी छोड़ जाऊँ। मैंने किसी तरह उन्हें राजी किया कि वे मेरी कहानी सुन लें। मैंने बेझिझक उन्हें कहानी सुनानी शुरू की, इस बात से बिल्कुल बेखबर कि हंस का वह दफ्तर राजेन्द्र जी के मुलाकातियों की आवाजाही से हमेशा गुलजार रहता था। जाहिर है, ऐसे में लंबी कहानी सुनने-सुनाने का कोई अनुकूल माहौल वहाँ नहीं बनना था, नहीं बना। राजेन्द्र जी लगभग बोर हो चुके थे। कहानी सुनकर उन्होंने कहा तुमने कहा था, कि यह एक प्रेम कहानी है, इसमें प्रेम कहाँ है?

मैंने भी उसी अंदाज में कहा- आजकल इसी को प्रेम कहते हैं। राजेन्द्र जी सहमत नहीं हुए। मुझे याद है उस समय दफ्तर में कविता जी ;हमारी पीढ़ी की महत्त्वपूर्ण कहानीकारद्ध भी चुपचाप उस कहानी को सुन रही थीं। उन्होंने मेरी तरफ से कहानी पर बहस की और जबरस्त तरीके से कहानी का पक्ष लिया। इस पर राजेन्द्र जी का मन थोड़ा बदला और वे इस बात पर सहमत हुए कि यदि मैं इस कहानी का लगभग आधा हिस्सा कम कर दूँ तो वे इसे छापने पर विचार कर सकते हैं। अब मैं सहमत नहीं था। मैं अपनी कहानी लिये दिये वापस आ गया। बाद में यह कहानी भी 'अब' में ही छपी। लेकिन अपनी लंबाई की वजह से वह भी 'अब' के शताब्दी अंक में नहीं जा पाई। संभवतः एक नये लेखक को इतने ज्यादा पृष्ठ दे पाना किसी लघुपत्रिका के संपादक के लिये तब संभव न रहा हो।

समकालीन कथा-परिदृश्य में अपना जरूरी नाम बना लेने की मेरी महत्त्वाकांक्षा तो खैर इस कहानी से पूरी नहीं हुई, लेकिन इस कहानी ने अपने दोस्तों परिचितों के बीच एक कहानीकार के रूप में मेरी साख बना दी और तब से पाँच सात साल तक चाहे मैंने कोई और कहानी न लिखी हो, मेरे दोस्तों के बीच मेरी साख अच्छे कहानीकार की ही रही। वे मुझे कहानीकार जैसा ही तवज्जो देते, मेरे नखरे उठाते और मेरे वाहियात शायराना आदतों को बरदाश्त करते। यह सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है। बनारस के अपने आखिरी दिनों में जब वह शहर हमें बुरी तरह डराने लगा था और उम्मीद की किरण कहीं थी नहीं, हम सबको वहाँ से कहीं न कहीं चले ही जाना था। अधिकांश की तरह दिल्ली ही और दिल्ली में भी अपने भय और हताशा को छुपा कर अपनी ज़िन्दगी को एक शक्ल देनी थी, तब भी मेरे दोस्तों का यकीन मुझ पर कभी कम नहीं हुआ। वो यदि बेरोजगार थे तो वे सिर्फ बेरोजगार थे, उनकी नज़र में मैं कहानीकार था और इस लिहाज से बेरोजगार नहीं था। अपने दोस्तों का यह यकीन ही रहा कि मैंने अभी भी अदृश्य पाठकों के लिये कहानियाँ नहीं लिखीं। और न ही कभी इस बात की भी जरूरत महसूस हुई कि मैं कहानियों से प्लॉट और चरित्र के लिये कभी दूर की कौड़ी लाऊँ। 'कला के सिद्धांत' के जानकार इस तथ्य से भली भांति परिचित होंगे कि इसी अदृश्य कला मर्मज्ञ और पारखी के चक्कर में 'कला कला के लिय' सिद्धांत का जन्म हुआ था। मेरे साथ हमेशा सहूलियत रही कि मैं जिनके लिये कहानियाँ लिखता था या लिखता हूँ, लिखने की प्रक्रिया में ही उनकी प्रतिक्रिया भी जानता चलता हूँ। बाद में मैंने जाना कि विलक्षण कहानीकार और उपन्यासकार मार्खेज का भी यही मानना था कि वे भी सिर्फ अपने दोस्तों के लिये ही कहानियाँ लिखते हैं, यदि उनको पसंद हो तो सबको पसंद आएगी ही।

लेकिन अभी ज़िंदगी में 2004 आना बाकी था। यूँ तो यह जरूरत तमाम पत्रिकाएँ महसूस कर रही थीं कि कहानियों के परिदृश्य से हाशिये पर एक बड़ी संख्या जमा हो रही थी जो पारंपरिक कथा प्रतिमानों से भिन्न संवेदना और सोच रखते थे। 'नवलेखन' अंक के बहाने पहले हंस और बाद में कथादेश ने इनको मुख्यधारा में लाने की कोशिश की थी परंतु जिसे एक घटना की तरह हिन्दी साहित्य में महसूस किया गया वह 2005 के वागर्थ का युवा कहानी विशेषांक था। इस विशेषांक में अधिकांश वे लोग ही थे जो 2004 के वागर्थ के ही नवलेखन अंक में शामिल थे। दूसरी पत्रिकाएँ जहाँ 'नवलेखन अंक' निकालकर ही संतुष्ट थीं कालिया जी (रवीन्द्र कालिया) और वागर्थ ने जैसे इसे आंदोलन का स्वरूप दे दिया और हिन्दी कहानी में 'समकालीन' कहानी या युवा कहानी का एक दौर ही प्रारंभ हो गया। आज इस घटना परिघटना की चाहे जितनी प्रशंसा या निंदा की जाय इस बात से इंकार तो कोई नहीं कर सकता कि समकालीन कहानी का एक बड़ा परिदृश्य वागर्थ के उस युवा कहानी अंक और बाद में नया ज्ञानोदय के रवीन्द्र कालिया संपादित विशेषांक के कहानीकारों से ही बनता है।

इस दौर में 'कहानी' ने जैसे विधागत केन्द्रीयता हासिल कर ली थी। हमें हमारे पूर्ववर्ती कथाकारों में उदयप्रकाश, अखिलेश, संजीव, सृंजय, मनोज रूपड़ा, योगेन्द्र आहूजा जैसे मजबूत कथाकार मिले हैं, इसलिये हमारे सामने चुनौतियाँ भी बड़ी हैं। आप देखेंगे कि इस समय कई स्थापित कवियों ने भी कहानियाँ लिखनी शुरू कीं और कुछ एक ने तो कुछ महत्त्वपूर्ण कहानियाँ लिखी थीं। 'कहानी' इस दौर की सबसे महत्त्वाकांक्षी विधा हुई और इसे 'आरंभ मध्य अंत' की कसौटी पर कसकर इसकी उपेक्षा करने वालों की लगभग बोलती बंद हो गई। इस दौर में मेरे साथ कहानीकारों को अपनी कहानियों की ताकत का बखूबी अंदाजा था। कहानियाँ अब एक पण्य वस्तु की तरह नफा-नुकसान के साथ किसी पत्रिका को दी जा सकती थी, या उसे मना किया जा सकता था। जब प्रगतिशील वसुधा के युवा कहानी अंक के लिये जयनंदन ने मुझे अपना सहयोगी बनाया, और मैंने अपने मित्रों से रचनात्मक सहयोग माँगा, तो उनमें से एक ने स्पष्ट कहा कि यदि इस संयोजन में आपकी केन्द्रीयता हो तो हम विचार कर सकते हैं, वर्ना हमारी कोई रुचि नहीं है। हालाँकि उस संयोजन में हमारे सभी साथी शामिल हुए, लेकिन स्व. कमला प्रसाद की अपनी 'साख' के कारण ही।

मैं यह स्पष्ट मानता हूँ कि मेरे साथ के कुछ कहानीकारों में कहानियों को लेकर मारी अपेक्षाएँ हैं। इन अपेक्षाओं की टकराहट में कुछेक दुर्घटनाएँ भी हुईं। हमारे साथी आलोचक कृष्ण मोहन तो इन घटनाओं से तंग आकर समकालीन कहानियों पर लिखने से परहेज ही करने लगे। चंदन पांडेय की पहली किताब के छपने के समय हुआ विवाद जिसमें कुणाल सिंह पर घनघोर आरोप थे और जिसमें करीब-करीब कालिया जी को भी दुखी होना पड़ा, ये अति अपेक्षाओं के ही अनुत्पाद माने जा सकते हैं। संयोग या सोद्देश्य जो भी कहें मेरे भीतर ऐसी कोई आकांक्षा या अपेक्षा, नहीं रही। मैंने अपने तईं कई कोशिशों से अपने समय की कहानियों के विलक्षण चरित्र की पहचान करने की कोशिशें कीं। इसमें 'हिन्दी का दूसरा समय' 'कथा परिसंवाद' जैसे आयोजन थे जो हमारे विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति उपन्यासकार विभूतिनारायण राय के प्रोत्साहन से संभव हो सके। इन आयोजनों में मैंने अपने समय की चिन्ताओं और कहानियों को ही केन्द्र में रखकर बात करने-करवाने की कोशिशें कीं। ऐसे ही एक आयोजन में गुरुदेव ने हँसते हुए टोक ही दिया कि मैं भी अपनी पीढ़ी में अपने मित्रों को आगे बढ़ाकर वही गलती कर रहा हूँ जो उन्होंने अपनी पीढ़ी में अपने एक साथी कथाकार को लेकर की थी। मैं मुस्करा कर रह गया। लेकन उनकी आँखों में चिंता की स्पष्ट लकीरें थीं कि कहीं मैं भी नेपथ्य में रहकर छला न जाऊँ। वे गुरु हैं, उन्हीं के सामने पहली बार कहानी का ककहरा तुतला कर पढ़ा था। उनकी चिंता वाजिब ही रही होगी।

लेकिन क्या नेपथ्य और क्या रंगमंच जो बनारस में रह कर आया हो, जिसकी ट्रेनिंग वामपंथी संगठन के स्कूलों में हुई हो, जो खुद भी एक वामपंथी पार्टी का बाकायदा कार्ड होल्डर सदस्य हो उसके लिये ये सब बातें शायद बहुत मायने नहीं रखतीं। मैं सोशल मीडिया से वाकिफ∙ हूँ और इसकी ताकत की जानकारी भी मुझे है, लेकिन इसका उपयोग जिस तरीके से आत्मप्रचार और आत्ममुग्धता के दायरे में हो रहा है उसने इस माध्यम से तो मेरा भरोसा ही डिगा दिया है। मैं किसी आभासी यथार्थ में शायद बहुत यकीन नहीं कर पाता। अपनी कहानियों को मैं बहुत विशिष्ट भी नहीं मानता और न ही यह मानता हूँ कि कहानी लिखकर मैं कोई विलक्षण काम कर रहा हूँ। शंकर जी से आज मैं चाहे जितना असहमत होऊँ, लेकिन अपने प्रारंभिक सरोकारों से जानता हूँ कि 'कला के ये सारे उपक्रम समाज की बेहतरी के लिये ही होने चाहिये। सिर्फ कहानी लिखकर ही कोई बड़ा बदलाव नहीं लाया जा सकता। मुख्य कोशिश है एक ईमानदार पारदर्शी और न्याय पर आधारित समाज बनाने की। इसके लिये जिस भी तरीकों से हो कोशिश की जानी चाहिये। इन कोशिशों में यदि बतौर रचनाकार शामिल होते हों, तो एक ईमानदार साहस का होना बहुत जरूरी है। हमारे पूर्ववतीं रचनाकार सिर्फ इसलिये हमारे हीरो नहीं हैं कि उन्होंने सिर्फ बहुत उम्दा कहानियाों लिखी बल्कि इसलिये भी हैं कि उन्होंने अपनी शर्तों जीवन जीने के लिए टुच्चे समझौतों से परहेज किया, उन्होंने झुकने की शर्त पर टूटना पसंद किया। मुझे लगता है कि मेरे कई साथी कथाकारों में थी यही कूवत और हनक है।

मैंने अपनी कहानियों में इस तेज बदलाव के अंधड़ में पीछे छूट गये नायकों को तलाशने की कोशिश की है। वे परेशान हैं, स्तब्ध हैं, और लगभग पराजित से दिखते हैं, लेकिन उनके पास वो आग है, वो तेज है, जो तमाम सफल और विजेता जैसे दिखने वालों के पास एक असंभव कल्पना है। जब कोई पाठक कोई आलोचक उन पात्रों से प्यार करता है, उससे अपना जुड़ाव महसूस करता है और धीरे से व्यक्तिगत बातचीत में ही सही जब कहता है- 'गुरु, क्या जबर्दस्त कहानी लिखे हो, तो आप ही बताइये, ऐसी और क्या अपेक्षा रखूँ, जो पूरी न हो गई हो। एक बात जो पहले कहने से शायद रह गई कि मेरी कहानियों के पात्र बहुत बौ(िक लगते हैं और मेरी भाषा भी थोड़ी अकादमिक और उद्धरणों से भरी लगती है। तो किसन पटनायक से एक बात मैंने सुनी थी कि कोई भी सिद्धांत तब तक असली नहीं हो सकता जब तक उसे ज़िन्दगी में घटा कर न देख लिया जाय। अपनी अधिकांश कहानियों से मेरी यही अपेक्षा रही है। कुछ लोग जरूर इसे सेरेब्रल कहते होंगे, लेकिन अधिकांश पाठकों ने इसे वैसे ही स्वीकारा है, जैसी की मेरी अपेक्षा थी।

फिलहाल तो यही सब बातें ध्यान में आईं वैसे हिन्दी साहित्य इतना विराट है। और इतना कुछ करने के लिये है कि अभी लगता है कि जैसे शुरू ही किया है। योगेन्द्र आहूजा अपनी कहानी में कहते हैं न कि साहित्य के इतने विशान और भव्य प्रांगण में यदि अपना कोई स्टूल लेकर बैठने की भी इजाजत दे दे तो यह जीवन धन्य, सारी अपेक्षाएँ पूरी। कोई शिकायत नहीं और कोई पछतावा भी नहीं।

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संपर्कः

अहिंसा एवं शांति अध्ययन विभाग,
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय
हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा - (महाराष्ट्र)
मो. 9970251140

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: राकेश मिश्र / अपेक्षा तो सामाजिक बदलाव की ही है / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
राकेश मिश्र / अपेक्षा तो सामाजिक बदलाव की ही है / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
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रचनाकार
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