कथा कसौटी (लेखक) प्रियंवद मृत्यु के बाद कहानी मुझे रचेगी जिस तरह मनुष्य के जीवन में उसका अन्य मनुष्यों के साथ संबंध होता है, लगभग उसी तर...
कथा कसौटी (लेखक)
प्रियंवद
मृत्यु के बाद कहानी मुझे रचेगी
जिस तरह मनुष्य के जीवन में उसका अन्य मनुष्यों के साथ संबंध होता है, लगभग उसी तरह, उसी स्तर पर, लेखक का अपनी रचनाओं के साथ संबंध होता है। अपनी कहानियों के जन्म से आज तक, मेरा उनसे कितना प्रगाढ़, अंतरंग और जीवंत संबंध रहा है, इस पर पहले कभी सोचा नहीं था। समय बीतने के साथ पुरानी कहानियों से अब कितनी संलग्नता शेष रह गई है और कितना कुछ विस्मृत हो गया है, इस पर भी ध्यान नहीं दिया था। पर आज जब सोच रहा हूँ, तो लगता है अपनी कहानियों से मेरा संबंध लगभग उसी तरह जटिल व अपरिभाषेय है, जिस तरह जीवन के अन्य संबंध हैं। इस नूतन भावबोध और विचार ने रचनात्मक संबन्धों की इन गुत्थियों में प्रवेश करने की उत्तेजना और उत्सुकता तथा समझने की जिज्ञासा बढ़ा दी है।
कहानियों से मेरा संबंध उसी क्षण शुरू हो जाता है, जिस क्षण उसका भ्रूण जन्म लेता है। भ्रूण यानी कहानी का पहला विचार, पहला बीज! इस भ्रूण का जन्म दो स्थितियों में होता है। ‘एकांत के आत्मालाप’ या फिर ‘अव्यक्त की चीख’ से। ‘एकांत का आत्मालाप’ वस्तुत: स्मृतियों का पुनर्सृजन या उनसे मौन संवाद होता है। ‘अव्यक्त की चीख’ किसी भी दमन के विरुद्ध मेरी अपनी असीमित स्वतन्त्रता और प्रश्नविहीन स्वच्छंदता की आकांक्षा का लालसामयी निनाद होती है। स्मृतियाँ जीवन का सर्वाधिक मूल्यवान प्राणतत्व होती हैं। निरंकुश स्वतन्त्रता मेरा मानवीय अधिकार भी है, मेरी उद्दाम लालसा भी और अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य भी। मेरी कहानी इन्हीं दो मनोवेगों से जन्म लेती है। स्मृतियों और लगभग अराजक स्वतन्त्रता के तंतुओं से। मेरी चेतना, मेरा अस्तित्व भी इन दो मनोवेगों से ही गुंथा-बुना है। इस तरह स्वत: ही, अत्यंत तर्कसंगत ढंग से, भ्रूण अवस्था में आते ही मेरी कहानियाँ मेरी सम्पूर्ण चेतना और अस्तित्व के साथ सघनतम, प्रगाढ़तम धरातल पर जुड़ जाती हैं। अपनी कहानियों से मेरे संबंध का यह प्रथम चरण होता है।
इस संबंध का दूसरा चरण इस भ्रूण को काया रूप में लाने तक की अवधि का होता है। भ्रूण से सम्पूर्ण काया बनाने तक यानी कहानी लिखने का यह कालखंड कितना
भी लंबा हो सकता है। महीनों का, वर्षों का भी। पर यह थकाता नहीं। उबाता नहीं। सर्दियों की धूप में हल्की आँच देने जैसा सुखद होता है। इस अवस्था से जल्दी मुक्त होने की इच्छा भी नहीं होती। जब यह अवस्था स्वत: समाप्त होती है, तो एक गहरी संतुष्टि, सार्थकताबोध, बर्फ की सिल्ली सा जमा सुख देर तक आत्मा पर बैठा रहता है। यही सुख कहानी से मेरे संबंध को शक्ति व स्थायित्व देता है। कहानी से मेरे संबंध का यह दूसरा चरण होता है।
इसके बाद इस संबंध का तीसरा चरण शुरू होता है। यहाँ कहानी एक कथित साहित्यिक जगत में प्रवेश करती है। अनेक लोगों के संपर्क में आती है। इस जगत में पत्रिकाएँ हैं, पाठक हैं, संपादक, आलोचक, प्रकाशक हैं। यहाँ पुरस्कार, शोध, यश-अपयश आदि संज्ञायें नक्षत्रों की भांति निरंतर गतिशील रहती हैं। यहाँ कहानी का वर्तमान, भविष्य सब तय होने का दावा किया जाता है। उसकी आयु, स्वीकृति, व्याप्ति, प्रभाव तय होता है। शुरू से ही यह जगत मुझे मायावी, छद्म भरा लगता रहा है। क्रूर और अक्सर हत्यारा भी लगता है। यहाँ कहानियों की, लेखकों की हत्याएं भी हो सकती हैं। किसी को भी अमरता देने के छद्म दावे किए जाते हैं। मैं अपनी कहानी को इस दुर्दांत जगत की देहरी पर अनाथ छोड़ कर लगभग निस्संग सा वापस लौट जाता हूँ, यह मानते हुये, कि कहानी से मेरा संबंध, मेरी भूमिका यहीं तक है। यह भी मानते हुये, कि मेरी कहानी में यदि सामर्थ्य होगी, शक्ति होगी, प्राण तत्व होगा, प्रभाव होगा, तो वह अपना भविष्य स्वयं रचेगी, सुरक्षित करेगी। यदि कहानी में ये सब नहीं होगा, तो उपर्युक्त जगत के किसी भी सूरमा में, रेत-कण के बराबर भी हैसियत नहीं है कि किसी कहानी को जीवित रख सके। इस जगत को लगभग महत्त्वहीन माननेवाला मैं नया नहीं हूँ। रचनाकारों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा रहा है जिसने इस जगत को सदैव तिरस्कार और उपेक्षा से देखा है। इसके विवेक, इसकी ग्रहणशीलता इसकी सच्चाई पर शंका की है। महाभारतकार ने कहा था कि मैं दोनों हाथ उठाकर बार-बार कह रहा हूँ पर मेरी कोई नहीं सुनता। भवभूति ने कहा था कि अभी मुझे कोई न समझे, पर धरती बहुत बड़ी है और काल निरावधि। कभी कहीं कोई तो मुझे समझने वाला होगा। गालिब ने न किसी ‘सताइश की तमन्ना’ की थी न किसी ‘सिला की परवाह’। गालिब ने तो ऊब कर यह भी कह दिया था कि मेरे अशआर में अगर मानी नहीं हैं तो न सही। काफ्का ने अपने मित्र से कहा था कि उसका लिखा एक-एक शब्द जला दे। हेमिंग्वे ने इसीलिए आत्महत्या की थी कि वह कुछ रच नहीं पा रहे थे। यह सूची बहुत बड़ी है। बावजूद सारे फतवों, दावों और छलावों के, यह कथित साहित्यिक जगत किसी को लेखक नहीं बना सकता, अलबत्ता एक सीमा तक कहानी को समाप्त करने का प्रयास अवश्य कर सकता है। हालांकि वह इसमें भी सफल नहीं हो पाता। अपनी कहानी को इस देहरी पर निहत्था और अकेला छोडक़र मैं इसलिए भी लौट जाता हूँ, कि पाठक, पठनीयता, स्वीकृति, पुरस्कार आदि मुझे बहुत आश्वस्त या आकर्षित नहीं करते। मेरे और मेरी कहानी के अंतरंग सम्बन्धों में इनकी उपस्थिति लगभग नहीं है। भूमिका नहीं है। इनका स्वागत भी नहीं है।
इस जगत में कहानी को छोड़ देने के बाद उससे मेरा संबंध लगभग विराम की स्थिति में पहुँच जाता है। तब कहानियों के इस जीवन से मेरे संबंध का चौथा चरण शुरू होता है। यह संबंध कहानी की अपनी शक्ति से और मेरी अपनी शर्तों से, अपनी पसंद से निर्मित होता है। यह पुस्तक रूप में कहानियों का संग्रहीत होना है। पुस्तक रूप में कहानियों को लाने का उद्देश्य, सार्थकता व आवश्यकता इतनी ही भर होती है कि बिखरी स्मृतियाँ, आत्मालाप और चीखें एक जगह गठरी में बंध जाती हैं। सुरक्षित हो जाती हैं। मैं जब चाहूं इस भंडार में प्रवेश कर सकता हूँ। समान विचारों और भावनाओं के लोगों के साथ उसमें रहने का सुख पा सकता हूँ। बीते हुए समय में फिर यात्रा कर सकता हूँ। एक जीवन के साथ ही अतीत के जीवन का दुर्लभ सुख जी सकता हूँ।
कहानी से मेरे सम्बन्ध का पाँचवाँ और आकर्षक चरण कभी-कभी और उस समय संभव होता है, जब किसी कहानी को दोबारा रचना पड़ता है। ‘खरगोश’ फिल्म की स्क्रिप्ट लिखते समय पूरी कहानी फिर एक बार, दूसरे रूप में कुछ परिवर्तनों के साथ लिखी। यह नया और रोचक अनुभव था। लगभग 15 वर्षों बाद उन्हीं पात्रों, स्थितियों, परिवेश से फिर गुजरते हुए, उन्हें उन्हीं मनोवेगों के साथ दुबारा लिखा था। यहीं पर पहली बार एक पाठक की शक्ति और सामर्थ्य का अनुभव भी हुआ था जब निर्देशक ने उस कहानी के अपने कुछ ऐसे पाठ प्रस्तुत किए थे जो कभी मैंने सोचे भी नहीं थे। उसने कहानी से अनेक अर्थ निकाले थे। उद्धरणों के साथ, तर्कों के साथ। लेखक का कहानी से लगभग इकहरा संबंध होता है। कहानी लिखते समय वह एक साथ कई अर्थों या स्तरों पर कहानी नहीं लिखता। पर पाठकों की दुनिया में पहुँचने के बाद कहानी के अनंत पाठ हो जाते हैं। कृष्ण बलदेव वैद ने मुझे बताया था कि ‘वेटिंग फॉर गोदो’ के अनेक पाठ हुए थे। पर एक जेल के कैदियों ने उस नाटक को खेलते हुए उसका जो पाठ किया वह उसका सर्वश्रेष्ठ पाठ था। रचना का यह आंतरिक तिलिस्म सिर्फ पाठक खोलता है, लेखक नहीं और यह पाठक धरती के किसी भी छोर पर किसी भी चेतना वर्ग व मानस का हो सकता है। कोई लेखक कभी नहीं जानता कि उसे समझने और सार्थक करने वाला पाठक कहाँ है, कौन है ? कहानी जब दूसरी विधा से जुड़ती है, तब अर्थ व पाठ के साथ उसका रूप और आकार भी बदल जाता है। यह बहुधा फिल्म और रंगमंच के क्षेत्र में होता है। यदि वहाँ मेरी कोई भूमिका होती है, तो अपनी कहानी से मेरा एक नया संबंध जुड़ता है। यहीं कहानी से मेरे संबंध का पांचवाँ चरण होता है।
क्या प्रत्येक कहानी से मेरा संबंध सदा के लिए और अंत तक समान बना रहता है? नहीं, सभी कहानियों से अंत तक समान संबंध नहीं रहता। । कुछ सदैव जीवंत बनी रहती हैं, कुछ धूमिल हो जाती हैं, कुछ विस्मृति में चली जाती हैं। ऐसा भेद इसलिए होता है कि यह इस पर निर्भर करता है कि कहानी रचते समय उसमें कितना आवेग, कितना स्वत्व, कितना श्रम लगा। कितनी स्मृतियाँ उधेड़ी गईं और आत्मलाप या चीख की नोक कितनी पैनी थी? सब कहानियों में यह समान नहीं होता। इसलिए विभिन्न कहानियों के साथ संबंध भी विभिन्न स्तरों पर होते हैं। क्या किसी कहानी के साथ संबंध हमेशा के लिए खत्म हो जाता है? नहीं, ऐसा कभी नहीं होता। वास्तव में जीवन का कोई संबंध सदा के लिए खत्म नहीं होता, यदि एक बार वह स्मृतियों और अनुभूतियों में चला जाये। वह धूमिल हो सकता है, राख में दब सकता है, रूप बदल सकता है, पर मृत नहीं होता। जो कहानियाँ लिख कर फाड़ दी गईं, जो अधूरी छोड़ दी गईं, जो अभी लिखी जानी हैं, जो उपेक्षित होकर लगभग लुप्त सी हो गईं, उनका भी एक अलग संसार है। यहाँ उनके साथ अपने सम्बन्धों पर विचार नहीं किया है क्योंकि यह संसार सुखद नहीं है। इसमें असफलताएँ हैं, यातना है, न रच पाने का असंतोष है, अस्वीकृति का बोध है, असफलता के दंश हैं।
जीवन अभी गतिशील है, चेतना में संवेदन है। स्मृतियाँ, स्वप्न, आवेग, अनुभव, विचार प्रज्ज्वलित हैं। मकड़ी जैसे अपने अंदर के रस से अपना जाल बुनती है, उसी तरह अपने ‘स्व’ से मैं अभी कहानियाँ बुनूंगा। एकांत के आत्मालाप से, अव्यक्त की चीख से। हमारे बीच कोई नहीं होगा। न कोई माया न कोई काया। कहानियों से यह संबंध जीवन भर तो शरण देता ही है, मृत्यु के बाद भी यह मुझे सहेजे रहेगा। यह एक विलक्षण उपलब्धि और अकल्पनीय स्थिति है। जीवन के अन्य किसी संबंध में यह संभव नहीं है। काया खत्म होते ही संबंध भी खत्म हो जाते हैं। पर कहानी के साथ यह नहीं होता। यदि कहानी बाद में जीवित रह जाती है, तो काया विहीन मैं भी उसमें जीवित रहता हूँ। उसका अस्तित्व मेरा अस्तित्व भी होता है। किसी भी संबंध की गरिमा, निष्ठा, सार्थकता, उपलब्धि और अमरता का यह सर्वोत्कृष्ट आख्यान है जो मेरे और मेरी कहानी के सम्बन्धों में अनंत ऊर्जा और उल्लास के साथ उद्घोषित है कि मृत्यु तक मैं कहानी रचता हूँ, मृत्यु के बाद कहानी मुझे रचेगी।
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कानपुर-208001
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