कथा कसौटी (संपादक) अरुण देव इब्दिता फिर उस कहानी की यह समय कहानी से कुछ और मांगता समय है। वह शिष्ट रहे, संतुलित रहे पर वह कहीं अंगुली न ...
कथा कसौटी (संपादक)
अरुण देव
इब्दिता फिर उस कहानी की
यह समय कहानी से कुछ और मांगता समय है। वह शिष्ट रहे, संतुलित रहे पर वह कहीं अंगुली न धरे तो आज किस काम की। उसे आगे बढक़र अपनी विवेकी भूमिका निभानी है। यह समय प्रेमचंद से बहुत आगे का समय है। यहाँ विवरण इतने सघन और बहुवर्णी हैं कि हठात ठिठक जाना पड़ता है। मनुष्य विरोधी और प्रतिगामी शक्तियाँ इतने चेहरे और इतनी आवाजों के साथ मौजूद हैं कि उन्हें अलग-अलग विलगाना और पहचानना दुरूह है। इतने मोर्चे हैं कि आज कहानी किसी एक सीमा पर भी मुठभेड़ कर ले तो मैं उसे सार्थक समझूंगा। आज विवरण में गुम जाने का अवकाश नहीं किसी पाठक के पास। उसे शब्दों की किसी सृजनात्मक यात्रा से ही संतोष नहीं होता है वह तो इस बनैले समय में कुछ कठिन चाहता है।
समाज के पारम्परिक मोर्चे आज और भी धारदार हुए हैं- जातिवाद दिमाग में घुसकर नसों में बहने लगा है। साम्प्रदायिकता की नंगई समक्ष है। स्त्री-पुरुष के रिश्ते और जटिल हुए हैं। प्रताड़ऩा के दैनंदिन प्रयोग संवेदना को कुंद कर रहे हैं। राजनीति और गिरी है तथा पूंजीवाद अपने सर्वग्रासी रूप में हमारे सामने हैं। वह लगातार अपने मुनाफे के हिसाब से हमारी आवश्यकताएं निर्मित कर रहा है। शहर में कई संसार एक साथ बसे हुए हैं एक दूसरे की कीमत पर। भाषा से लगातार मनोरंजन की मांग की जा रही है। उसे बस सजावट के लिए सहेजा जा रहा है। उसे सिर्फ कामकाजी बनाकर छोड़ दिया गया है।
ऐसे में कहानी अपने सुथरेपन से अब आश्वस्त नहीं करती। उसे खौलते, खदबदाते कथानकों से जूझना है। अगर वह कई स्तरों पर एक साथ जूझते हुए कहीं पहुंचे तो और अच्छी बात।
कथानक जब कहानी में ढले तो उसे अपनी बुनावट में एकतान होना पड़ता है, नहीं तो पाठक बीच में रुक जाएगा और फिर दुबारा पढ़ऩा या पढ़ऩे की कोशिश करना कमजोरी ही कही जायेगी. अगर कथाकार किसी रूपक को लेकर चलता है तो वह
रूपक पूरी कथा में एकसार दिखना चाहिए. कई बार कुछ अच्छी कहानियां रूपकों के निर्वाह न हो पाने पर अधूरी रह जाती हैं और उनका अर्थात खंडित हो जाता है। आज अगर कोई कहानी सम्पूर्णता में पढ़ा ले जाती है तो कहानीकार के प्रति मैं मन ही मन आभार व्यक्त करता हूँ। कहानी को कहानी की शर्त पर ही सबकुछ पाना है।
दृश्य इतनी तेजी से हमारे समाने से गुजर रहे हैं और इतने प्रकार की आकृतियों में अब हम रह रहे हैं कि कहानी से भी इस बदलते दृश्यों को देखने की मांग की जाती है। उसके समक्ष तरह-तरह की चुनैतियां हैं। कहानियों में अब सिर्फ समानांतर रेखाएं नहीं चाहिये। एक दूसरे को काटते तिरछे संसार हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अनेक गतिशील बिम्बों से भरी हुई कहानियाँ लिखी भी जा रही हैं।
कहानी से अब रोचक होने की मांग बेमतलब की मांग है। वह टीवी पर चलते अंतहीन कथाभासों से अधिक रोचक (सतही) कभी नहीं हो सकती। सिनेमा के लगातार प्रयोगों के सामने भी नहीं टिक सकती। उसे जिन्दा रखेगी नैतिकता और बोध। वह जीने की नैतिकता अगर नहीं सीख रही है तो उसकी अद्वितीयता भी नहीं टिक पाएगी। उसमें व्यक्ति की गरिमा का बोध और निजता का सम्मान होना चाहिए। व्यक्ति ही क्यों- इस खगोल में जो कुछ भी है उसके प्रति संवेदनशील बोध वह पैदा करे। उसे प्रतिपक्ष की अपनी भूमिका से ही जीवनदान मिलेगा।
कहानी हर पाठक के लिए अद्वितीय है क्योंकि उसका आधा अर्थ वह अपने जीवनानुभव से भरता है। इस लिहाज से प्रत्येक कहानी जब तक आपने उसे पढ़ा नहीं है आपके लिए नई है। साहित्य इसलिए पुराना नहीं पड़ता। अगर इसी कहानी पर फिल्म बन जाए तो वह एक उभयनिष्ठ सिनेमाई बिम्ब श्रृंखला में बदल जाएगी और अनन्यता नष्ट हो जाएगी. अर्थों की बहुलता खत्म हो जाएगी।
विषय भले ही पुराने हों या जिसे शाश्वत कहते हैं जैसे - सौन्दर्य, प्रेम, काम, मृत्यु, मोह, विद्रोह, ईष्र्या, अलगाव आदि, देखना यह है कि उसमें नया अर्थ भरा गया है कि नहीं। जबसे भाषा में लिखना शुरू हुआ - प्रेम पर भी लिखना शुरू हुआ। फ्रायड तो यहाँ तक कहते हैं कि सभी रचनात्मकतायें हमारी काम -चेतना की प्रस्फुटन हैं। फिर भी हर कथाकार प्रेम को अपने लिए अलग से स्वायत्त करता है, खोजता है और रचता है। इसलिए हर समय की अपनी प्रेम कथा है। उसकी नव्यता झरती नहीं है। फिराक ने ठीक ही लिखा है - ‘हजार बार ज़माना इधर से गुजरा है/ नई नई सी है तेरी रहगुजर फिर भी।’
प्रयोगों और कला के ‘जादू -टोनों’ के दलदल से उसे बचना है. हालाँकि अनस्र्ट फिशर कला को जादू ही कहते हैं- जो यथार्थ में संभव नहीं है उसे आप कला से सर्वसुलभ करते हैं। दूसरों के अनुभव बिना जोखिम के आप के हो जाते हैं। पर यह तभी संभव है जब आपका कथानक मजबूत हो। जादूगर अगर यह अहसास करा दे कि आप जादू देख रहे हैं तो फिर जादू का तिलिस्म टूट जाता है।
उसे अब मॉल और बाजार के सामने दिये बेचते कुम्हारों की कथा लिखनी है जो जाने अनजाने एक विराट सत्ता के सामने निहत्ता खड़ा है। हजारों रुपये के सजावटी चीज खरीदने वाले उस पुश्तैनी कारीगर से एक रुपये में दो दीये के लिए भी मोलभाव करते आपको मिल जायेंगे। बाजार का वशीकरण मन्त्र केवल मॉल में चलता है जहाँ खरीदते वक्त न आप रकम देखते हैं न उसकी जरूरत।
उसे नगरों में बिखर गयीं उन स्त्रियों की कथा लिखनी है जो अपनी खानदानी सामन्ती मर्दवादी दुनिया में नहीं लौटना चाहतीं पर उस नगर में भी उनके गर्दन पर एक छुरा लटका है जो कभी भी गिर सकता है। वह अपनी देह पर अपनी सत्ता की सतत लड़ाई लड़ रही हैं। वहां उनपर हिंसक हमलें हो रहे है पर फिर भी अब वे वापस लौट नहीं सकतीं।
अगर कोई लिख सके तो लिखे प्रधानी के लिए खड़ी उस स्त्री के लिए एक कथा जिसे प्रधान पति से बाहर निकलकर अपनी सत्ता पहचाननी है वह भी मर्दवादी सत्ता की शैतानी आंत से गुजरते हुए। अनुभव और सरोकार के इतने प्रसंग हैं कि एक लिहाज से यह कथा के लिए सबसे उर्वर समय है। कथानक से जुड़ऩा और जूझना जरूरी है। अगर नकली कहानी लिखेंगे तो उसका सतहीपन दिख जाएगा। कथानक खुद अपनी आवाज खोजता है। अगर वह आवाज आपने सुनी है तो वह आवाज सजेगी। अगर शब्द आपने सुने न होंगे तो आवाज पाठकों को खटकेगी और संपादक भी पाठक ही होता है प्रथमत:।
एक संपादक बस इतना ही कर सकता है कि वह किसी कथा को पढ़ऩे से पहले अपने पूर्वग्रह से मुक्त होकर पाठ शुरू करे। किसी लेखक को दस बार लौटाया गया हो पर जरूरी नहीं कि ग्यारवीं बार भी वह लौटे। ठीक उसी तरह से आपके नामी लेखक भी किसी कमजोर रचना के साथ इस बार आपके सामने हो सकते हैं।
अगर सुधार की कहीं कोई गुंजाइश दिखती है तो मैं लेखक को इंगित करना बुरा नहीं समझता। आिखरकार संपादक की भी अपने पाठकों के प्रति जिम्मेदारी होती है। चिली के मशहूर उपन्यासकार रोबेर्तो बोलानियो ने एक बार कथाकारों को सलाह देते हुए कहा था कि कभी भी एक समय में एक कहानी पर काम नहीं करना चाहिए इनकी संख्या तीन से पांच तक आदर्श है। और खूब पढ़ऩा चाहिए।
कहानी की शुरुआत महत्त्वपूर्ण है। गैब्रिएल गार्सिया मार्केज कहानी के पहले वाक्य को बहुत महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके अनुसार वह शैली और स्वरूप को जांचने की प्रयोगशाला जैसा है।
हिंदी का बल उसकी बोलियों (अब इसे भाषाएँ कहें) का बल है। देशज भंगिमा की कहानियां बड़ी ही रवानगी भरी होती हैं। लोक-भाषा का जो लचीलापन है वह उल्लास और मलिनता दोनों को सघन बनाता है। रेणु प्रेमचंद की औपनिवेशिक हताशा को देशज उम्मीद तक ले आये, भाषा के उल्लास की रक्षा करते हुए। एक तरह से यह आजादी का महोत्सव है पर गौर करने वाली बात यह है कि उनका ध्यान जातियों के बीच होने वाली स्थानीय राजनीति से कभी हटता नहीं है। एक तरह से यह हिंदी कहानी के विस्तृत और बहुवर्णी होने का दौर था। हिंदी की कुछ अच्छी कहानियाँ देशज कहानियां हैं। ऐसी कहानी में देखना यह होता है कि लेखक देशज में सम्पृक्त सामन्त को अलगा पाता है कि नहीं।
जिन कहानियों में शिल्प पर जोर है, वे भी दरअसल अपने जटिल अनुभव को व्यक्त करने के लिए आकार खोजती कहानियाँ हैं। भाषा माध्यम होने के साथ ही एक स्वायत्त शक्ति भी है। भाषा के प्रति असावधानी कहानी के प्रति भी असावधानी है। अकेलापन, अलगाव, आत्मनिर्वासन, आत्महत्या, अतिरेक और अनन्यता जैसे अनुभवों को व्यक्त करने वाली शिल्प अन्तस् की यात्रा करने वाली भाषाओं का ही पैटर्न है। अपने को बाहर से देखने की चुनौती जब कथाकार स्वीकार करता है तब उससे कुछ अच्छी कहानियों की उम्मीद बनती है। भाषा का उदात्त और शिल्प का उन्मेष आपको बांधता है, आपको निमंत्रित करता है पर कहानी तो कहानी ही है, उसकी जान तो कथानक में बसती हैं।
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