कथा-कसौटी (संपादक) अर्चना वर्मा काल सापेक्ष और काल निरपेक्ष की हदों के पार प्रिय राकेश, ऐसा अगड़म-बगड़म सवाल पूछ कर तुमने यह किस झंझट मे...
कथा-कसौटी (संपादक)
अर्चना वर्मा
काल सापेक्ष और काल निरपेक्ष की हदों के पार
प्रिय राकेश,
ऐसा अगड़म-बगड़म सवाल पूछ कर तुमने यह किस झंझट में फँसा दिया है मुझे? सम्पादक की हैसियत से कहानी में क्या खोजती हूँ मैं? इससे तो अच्छा कि गड्डी भर कहानियाँ दे दो मुझे, चुनकर निकाल दूँगी, ये वाली। लेकिन अब अगर सवाल भी पूछो, ये वाली ही क्यों? तो यही तो झंझट है जिसमें फँसाई गयी हूँ।
पाठक की हैसियत से मुझे मालूम है कि इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मालूम। जब अपनी रुचि और समझ को पहले से किसी वाद या विचार या परिभाषा के चौखटे में बाँध कर नहीं बैठी हूँ तब तो और भी खास तौर से। और इस किस्म के किन्हीं औपचारिक निर्धारित मुहाविरों का प्रयोग करके उसे परिभाषित करना भी नहीं चाहती; जैसे परिवर्धित पूँजीवाद के जगत में उपभोक्तावाद की लम्पट लीलाओं पर आक्रमण करने वाली कहानियाँ; या कि ग्लोबल दबावों से चरमराते लोकल जीवन के आख्यान; याकि सार्वभौमिक सत्य को बीज की तरह अपनी मिट्टी में दबाये समसामयिक सामाजिक यथार्थ की तलाश करने वाली कहानियाँ वगैरह वगैरह; हालाँकि जो कहानियाँ मैंने चुनी होंगी उनमें यह सब होगा भी लेकिन इनका वहाँ मौजूद होना भर यह बताने के लिये काफी नहीं होगा कि ये वाली ही क्यों? क्योंकि इस तरह परिभाषित हो सकने वाली अन्य अनेक कहानियाँ चुनाव के क्रम में बाहर निकाल कर भी रख दी गयी होंगी।
हाँ, पाठक की हैसियत से पढक़र अपनी पसन्द की कहानियाँ चुन देना आसान है मेरे लिये; और चूँकि अपनी रुचि और समझ को पहले से किसी वाद या विचार या परिभाषा के चौखटे में बाँध कर नहीं बैठी हूँ, हर बार गड्डी भर कहानियाँ पढऩे और चुनने के क्रम मेँ उसे पहले की अपेक्षा और अधिक विकसित और निरूपित होते हुए देखना चाहती हूँ, अप्रत्याशित 'कुछ' को पहचान कर विस्मित हो उठना चाहती हूँ इसलिये ऐसे भी कोई लक्षण या नियम नहीं बता सकती जिसके बाहर पडऩे वाली कहानियाँ मुझे शर्तिया नापसन्द होंगी।
फिर भी सच है कि सारी कोशिश के बावजूद अपनी रुचि या समझ को पूरी तरह से तरल, अनिर्धारित या अपरिभाषित नहीं रखा जा सकता। कि चाह कर भी कहानी के नाम पर लिखित भाषा के हर टुकड़े को मैं पहली बार के आविष्कार का अनुभव नहीं बना सकती। बरसों-बरस कहानियाँ पढऩे और पढ़ते रहने का काम खोपड़ी को पका कर ठोस और अभ्यस्त कर ही देता है फिर भी, यथासम्भव में कहानी को यह सोच कर पढऩा शुरू नहीं करती कि में इसमें क्या खोजने जा रही हूँ। असल में तो कहानी ही मुझे खोजती है, कि वह कहाँ मुझे छुए, कैसे मुझे पकड़े। में तो कुल इतना ही करती हूँ कि अपनी तरफ से उसकी इस खोज में कोई बाधा नहीं डालती। पढऩे का मतलब मेरे लिये इतना ही होता है कि देखती चलूँ कि इस कहानी ने अपनी परतों में मेरे लिये क्या तहाकर रखा है, कहीं कोई परत - अगर वह है तो - पलटे बिना तो नहीं छूट गयी?
लेकिन यहाँ तक पहुँचने के पहले भी कुछ हो चुका होता है। कहानी मुझे इतना तो पकड़ ही चुकी होती है कि में उसके सामने अपनी तरफ से निर्बाध प्रस्तुत हो पाऊँ। कैसे? कहना मुश्किल है। वह शायद कहानी के आरंभिक पृष्ठों में उसकी भाषा और योजना का कर्म होता है। इसीलिये कहानी का 'आरंभ' महत्त्वपूर्ण है, बहुत!
पाठक की हैसियत से कोई हद नहीं मेरे लिये। वस्तु की नहीं। दिशा की नहीं। नैतिकता की नहीं। संस्कार की नहीं। सोच की कोई सीमा नहीं। और रचना को, तदनुसार कहानी को भी, सोच की मुक्ति की तलाश / संभावना / आविष्कार / प्रमाण मानते हुए मैँ कहती हूँ, भाषा जहाँ तक भी ले जा सके, वहाँ तक। भाषा ही है जो वस्तु-जगत को मनुष्य-जगत में बदलती है। उसे अर्थ और मूल्य प्रदान करती है। भाषा के साथ किसी व्यक्ति का रिश्ता जितना गहरा और व्यापक होता है, भाषा पर उसका अधिकार जितना मजबूत होता है, भाषा पर उसकी पकड़ जितनी पेचीदा होती है, जीवन और जगत की उसकी समझ भी उतनी ही गहरी, व्यापक, मजबूत और पेचीदा होती है। आलोचक और रचनाकार की हैसियत से भी मेरी हदें इसी 'बेहद्द' की संभावनाओं से तय होती हैं। उस मानसिक वितान में किसी भी निषेध या मर्यादा या वर्जना या नैतिकता या मूल्य को प्रश्न और परीक्षा का, चीर-फाड़ और उल्लंघन का विषय बनाया जा सकता है। इस संक्रमण-समय में खास तौर से हमारे सांस्कृतिक निषेधों को निरस्त होते हुए, परिचित वर्जनाओं को निर्मूल्य होते हुए देखा जा सकता है और अगर अपने सदियों के मानसिक अभ्यास से तनिक परे जा खड़े हो सकें तो, शायद एक हद तक औचित्यपूर्वक भी। लेकिन वह पाठक की हैसियत से मेरी निजी रुचि और समझ की बात है।
लेकिन सम्पादन!
क्या होती है सम्पादक की जिम्मेदारी? या हैसियत? मुझे अहसास था तो नहीं लेकिन कराया गया तो हुआ कि इसका मतलब ताकत है; साहित्य-जगत की सरकार में हिस्सेदार होने की ताकत है; आप में अगर बूता और मंशा है तो न सिर्फ हिस्सेदार बल्कि अधीश्वर भी होने की ताकत है, तब इसका मतलब साहित्यकारों को बनाने बिगाडऩे की ताकत हो जाता है, न सिर्फ इतना, बल्कि अपने समय के रचना-प्रवाह की दिशा, रचनाकार की दृष्टि, विषय-वस्तु को तय करने की, मोड़ देने की ताकत भी।
ताकत तो होती ही होगी, आप सजग भाव से उसका इस्तेमाल न कर रहे हों तो भी, आपके काम की प्रकृति की वजह से होती होगी, या समझी जाती होगी कि है। इस मामले में अपने एक अनुभव का किस्सा सुनाऊँ वरना बात शायद बेवजह गंभीर हुई जा रही होगी। हुआ यूँ कि 'हंस' से अलग होकर 'कथादेश' में शामिल हो जाने के बावजूद राजेन्द्र जी के आग्रह बल्कि जिद से 'हंस' के 'क्रेडिट्स' में सम्पादन सहयोग के लिये मेरा नाम दिया जाता रहा। 'कथादेश' में तो दिया ही जा रहा था। कोई दोस्ती, कोई साथ, कोई रिश्ता कायदे से न निबाहने की राजेन्द्र यादव की ख्याति तब तक बाकायदा स्थापित हो चुकी थी और लोग-बाग अपनी लोगबागोचित कौतूहलवृत्ति के मारे भीतर का किस्सा निकलवाने को तत्पर थे जो कि वहाँ था ही नहीं। लेकिन हंस के साथ तब तक चूँकि 22 बरस बीत चुके थे इसलिये जाहिर सा लगता था कि वजह तो कोई न कोई होनी ही चाहिये। वजह थी, लेकिन किस्सा नहीं था। किस्सा कहीं और घटित हो रहा था - बाकी के हिन्दी जगत में लेकिन मेरी जो पकड़-पहुँच के बाहर की सुदूर एकान्त सी प्रकृति है उसके फासले को पार कर मुझ तक पहुँच नहीं पा रहा था। चार पाँच महीने बीत चुके तो सप्रयास मुझ तक पहुँचाया भी गया। पहले तो हरिनारायण जी ने ही अपने संकोची स्वभाव के बावजूद पता नहीं किस दबाव के तहत अपना संकोच तोड़ते हुए अनुरोध किया कि अब मैं 'हंस' और 'कथादेश' के बीच कोई चुनाव और फैसला कर ही लूँ तो बेहतर! जाहिर है, उनसे किन्हीं लोगों ने कुछ कहा ही होगा। 'किसने' ? ‘क्या' ? वह बात मेरी और हरिनारायण जी दोनों की ही प्रकृति के अनुरूप न पूछी गयी, न बताई गयी। राजेन्द्र यादव से मैंने हंस के क्रेडिट्स में से अपना नाम हटाने के लिये कहा तो उन्होंने सुनने से इंकार कर दिया। बल्कि बैठे बैठे चार पाँच लोगों के नाम गिनवा दिये जिनके नाम पाँच सात पत्रिकाओं के परामर्श-मण्डल पर एक साथ मौजूद थे तो फिर मेरी नानी दो ही पत्रिकाओं में क्यों मरी जा रही थी? राजेन्द्र यादव उन दिनों चारों तरफ से इतना घिरे हुए थे कि अपनी ख्याति का उल्लंघन करके यह स्थापित करना उनके लिये जरूरी था कि अर्चना के हंस छोडऩे के पीछे कोई झगड़ा या मन-मुटाव नहीं है। था भी नहीं। लेकिन जैसा पहले कहा, लोगबागोचित कौतूहल और किस्साप्रेम! या फिर जिस वजह से 'हंस' छोड़ा गया था, वह मेरा नाम वहाँ रहने से भी बाधित हो रही हो, या बहरहाल जिस भी वजह से जो भी हो रहा हो, मेरे सिरे तक तो बस इस किस्म के संदेश ही आ पहुँचते रहे कि हंस और कथादेश दोनों जगह बने रह कर अर्चना वर्मा अपनी कुटिलता और धूर्तता का प्रमाण दे रही हैं। लहर चलाई जाती रही और राजेन्द्र यादव की जिद बदस्तूर, अर्चना वर्मा का नाम भी हंस के क्रेडिट्स में जाता रहा। चार पाँच महीने और बीते। यहाँ तक कि उन संदेशों से मेरे कान बजने लगे। नाक में दम हो गया। इससे ज्यादा और इसके अलावा तो मेरा कुछ जाना था नहीं। कनबहरई से भी काम चल ही जाता। पर जो भी इस काण्ड के पीछे था उस किसी बेचारे जीव या जीवों को दुख देकर रखने से मुझे मिलना भी क्या था? चूँकि हंस में मेरा नाम दफ्तर में कुर्सी की पीठ पर कोट टाँग कर हाजिरी लगाने और खुद गायब हो जाने वाले बाबू की तरह मौजूद था और मुझे वह खयाल असहज भी बना रहा था इसलिये आखिरकार राजेन्द्र जी को उनकी पूर्वलब्ध ख्याति के खतरे में छोडक़र मैंने हंस से विदा लेने की जिद ठान ही ली।
लगभग तेइस बरस 'हंस' के सम्पादन से जुड़े रहने के बाद इस घटना से पहली बार मुझे अहसास हुआ था कि यह एक 'पावर-पोजिशन' है और इसको हथियाने के लिये लोग तख्त पलटने की युक्तियाँ बनाते और नीतियाँ आजमाते हैं। राजेन्द्र यादव को भी खुद अपने 'हंस' में अपने आखिरी दिनों में बेहद अकेला, परेशान और घिरा हुआ देखा था। अब पूरा पूरा अहसास है, कि यह एक 'पावर पोजिशन' है। लेकिन पता नहीं क्यों, ताकत की तरह उसका इस्तेमाल करने में एक तरह की वितृष्णा, लगभग जुगुप्सा का अनुभव होता है। डाक में और ईमेल में अपने आप आई हुई कहानियाँ खोलना, उनमें से चुनना, छापना और उन्हें पाठक-जन से प्रशंसा पाना अच्छा लगता है। 'कथादेश' की कहानियों के चुनाव में मेरी रुचि और समझ शायद एक तरह के 'पावर-स्टेटमेण्ट' की हैसियत अख्त्यार भी कर लेती है। अच्छा लगता है।
कथादेश में कहानी छपने में देर लगती है, स्वीकृत होने के बाद अक्सर साल भर तो लग ही जाता है वरना आठ दस महीने की तो कोई बात ही नहीं। कहानी स्वीकृत होने पर हरिनारायण नम्बर डाल कर उसको फाइल में रख देते हैं और वह क्यू में अपने नम्बर के हिसाब से ही छपती है। यह 'कथादेश' का जनतंत्र है, इस खयाल से उपजा है कि जिस की भी कहानी यहाँ स्वीकृत रखी है, वह हर व्यक्ति अपनी रचना को छपा हुआ देखने के लिये बेताब होगा। एक की बेताबी दूसरे की बेताबी से ज्यादा बेताब कैसे? इसके बावजूद लोग कम से कम एक बार कथादेश में छपने के लिये उत्सुक होते हैं और साल भर इन्तजार करने को तैयार रहते हैं। अच्छा लगता है। बाकी सम्पादन करते हुए भी मैं खुद को समसामयिक रचनात्मक परिदृश्य के पर्यवेक्षक और विश्लेषक की हैसियत में ही पाती हूँ और शिक्षा, निर्देश या पथ प्रदर्शक जैसी हैसियत अख्त्यार नहीं करना चाहती। रचनाकार की स्वच्छंदता का विचार - चाहें तो उसे 'रोमाण्टिसिज्म' के काव्यान्दोलन की अवशिष्ट देन कह लें या फिर अपने परम्परागत कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू: की अनुगूँज मान लें, मुझे प्रिय है। चेतना के सीमान्तों को थाहती भाषा उसी क्षमता की उपज है।
तो पिछले तकरीबन तीस वर्षों में मैं हिन्दी की दो पत्रिकाओं के सम्पादन में सहयोगी की हैसियत से जुड़ी। पहले 'हंस' के साथ, लगभग बाईस वर्ष। फिर पिछले सात आठ वर्ष से 'कथादेश' के साथ। दोनों दो अलग मिजाज की पत्रिकाएँ हैं। 'हंस' का मोटो है " जनचेतना का प्रगतिशील कथामासिक"। हंस ने अपनी इस परिभाषा में अपनी विचारधारा के जनवाद और प्रगतिशील धड़ों में विभाजन को पाटने की मंशा प्रकट की है। सन 1986 में हंस की शुरुआत से लेकर अबतक 30 बरस बीत चुके हैं। "डाइवर्सिटीज" नाम के अमरीकी (या कह दें संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्यक्रम से प्रेरित) सामाजिक न्याय के वितरण का विचार अस्मिता-विमर्शों के सूत्रपात का कारण बना। जनवाद और प्रगतिवाद की पुरानी बहसें सम्पूर्णता तक जा पहुँचने के बाद अप्रासंगिक हुईं। 'हंस' ने अपना मोटो कायम रखते हुए ही अपने कलेवर में विमर्शों को समेटा। 'चेतना' और 'शील' वाद के दायरों में अँटाकर नहीं रखे जाते, चाहे जन का वाद हो, चाहे प्रगति का, और आसानी से उनको लाँघ भी जाते हैं। 1995 का बाद का हंस प्रमुख रूप से विमर्श केन्द्रित बना।
'कथादेश' के मुखपृष्ठ पर छपा होता है "साहित्य संस्कृति और कला का समग्र मासिक"। यह मोटो अपने "समग्र" विशेषण में लगभग वैसा ही खुलापन और तरलता धारण करता है जैसा कि मुझको अपनी समझ और चयन की दृष्टि के बारे में सोचना अच्छा लगता है। विमर्श उसमें भी मौजूद रहते आये हैं। बजरंग के निरीक्षण में दलित-विमर्श का स्तंभ निरन्तर जारी और सुधा अरोड़ा की देख-रेख में 'औरत की दुनिया' भी वर्षों तक नियमित चला। अब भी चलता है पर थोड़ा अनियमित। और प्रगतिशीलता का वह वाला ब्राण्ड जो वादों-विवादों की परिभाषा के बाहर भी रचना में मौजूद रहता ही है। लेकिन 'कथादेश' को उस अर्थ में विमर्श केन्द्रित नहीं कहा जा सकता, जिस अर्थ में हंस को।
मोटो की चर्चा इसलिये कर रही हूँ कि इससे दोनों पत्रिकाओं के अलग अलग मिजाज परिभाषित होते हैं। उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कौन सी पत्रिका किस पाठक समुदाय को सम्बोधित है। पहले मैं दोनों पत्रिकाओं के विमर्शों की चर्चा कर आई हूँ। दोनों का अन्तर 'विमर्श में साहित्य' और 'साहित्य में विमर्श' की तरह सूत्रबद्ध किया जा सकता है। उसके उदाहरण से शायद समझा जा सके कि एक व्यक्ति की पाठकीय रुचि और सम्पादकीय दायित्त्व कई बार कैसे एक दूसरे से अलग अलग दिशाओं में भी जा सकते हैं और शायद व्यक्तित्व में एक विभाजन भी पैदा कर सकते हैं।
साहित्य में अस्मिता-विमर्श सामाजिक न्याय की राजनीतिक लड़ाई का अनुषंग मात्र है। अगर पूछा जाय कि साहित्य में विमर्श होता है या कि विमर्श में साहित्य तो उत्तर होगा कि होते तो दोनों ही हैं लेकिन दोनों की तलाश अलग अलग होती है। खोल कर कहें तो विमर्श में साहित्य का अर्थ यह है कि विमर्श एक राजनीतिक कार्रवाई है और साहित्य की जरूरत उसे अपने उद्देश्यों के एक माध्यम के रूप में पड़ती है। इसके विपरीत साहित्य में विमर्श का अर्थ यह है कि विमर्शगत सवालों को विषयवस्तु की तरह लेते हुए भी रचना की दृष्टि विमर्श के उद्देश्यों तक सीमित नहीं रहती, वह रचनात्मक अनिवार्यताओं से संचालित होती है। मैं जब 'हंस' में थी तब की वह घटना याद आती है कि दूधनाथ सिंह और अखिलेश की दलित कथानक की कहानियाँ वहाँ से वापस की गयी थीं। दलित-विमर्श जानबूझ कर नहीं कह रही हूँ। लेकिन फिर दोनों 'कथादेश' के एक ही अंक में साथ साथ छापी गयी थीं। कारण दोनों पत्रिकाओं की विमर्श-दृष्टियों को इसी अन्तर में खोजा जा सकता है - 'विमर्श में साहित्य' या कि 'साहित्य में विमर्शज्।
हंस 'विमर्श-में-साहित्य' की पत्रिका का अवतार ले चुकी थी। एक तो उन दिनों की विमर्शीय बहस में यह मुद्दा गरम था कि दलित की पीड़ा दलित ही लिख सकता है। अब इतने दिनों बाद बहुत ठीक से तो याद नहीं, शायद उन दोनों कहानियों को आरोपित सवर्ण-दृष्टि का दोष दिया जा सकता था। अखिलेश की कहानी का नाम शायद ग्रहण था। वह एक बच्चे के बारे में थी। किसी शारीरिक अपर्याप्तता या रोग की वजह से उसका मलद्वार अवरुद्ध था और एक आपरेशन द्वारा शायद पेट में ही एक उत्सर्जन-द्वार निर्मित करके एक नली से जोड़ा गया था और उत्सर्जित मल को हर समय शरीर पर ढोते रहना होता था। शायद। आज बच रही स्मृति के हिसाब से समझूँ तो वह मलोत्सर्जन-द्वार के अवरोध से रुग्ण समाज की रूपकीय अभिव्यक्ति थी। दलित जीवन समाज के उसी रोग का नतीजा समझा जा सकता था शायद! कथानक में आगे क्या हुआ था यह याद नहीं। पढऩे का अनुभव, रोग के उसी रूपक की वजह से, जुगुप्साजनक था, यह याद है। वह ऐसी दीवार सा बन गया था जिसे पार करके कहानी के असली संवेदन तक पहुँचना कठिन लगा था।
और दूधनाथ सिंह की कहानी एक होस्टेल में रहने वाली दलित छात्रा के बारे में थी। उसकी भी स्मृति धुँधली पड़ चुकी है। होस्टेल की वार्डेन और शायद उसके पति तथा अन्य पदाधिकारियों वगैरह के दुष्चक्र में शायद उसके सहयोग से, या शायद अन्यथा ही, उसका शारीरिक शोषण होता है और अन्त में शायद हत्या भी। जहाँ तक याद पड़ता है, शायद वह उस शोषण प्रक्रिया में अपना लाभ ले लेने की मंशा से कुछ सौदेबाजी करना चाह रही थी। लेकिन बिल्कुल संभव है कि मैं किसी और कहानी के साथ उसका घाल-मेल कर गयी होऊँ। लेकिन किसी तरह का ऐसा खुरदुरापन उस चरित्र में गूंथा गया था जिसकी वजह से ऐसा नहीं लगता था कि लेखक ने उसे प्रश्नहीन सहानुभूति के साथ देखा है; जबकि उन दिनों की "पोलिटिकली करेक्ट" बात यही हुई होती। अन्त में वह सवर्ण-दुष्चक्र की शिकार होकर मारी जाती है। लेकिन कहानी इतनी सीधी सपाट नहीं थी। वह दूधनाथ सिंह मार्का जटिल यथार्थ की जटिल कहानी ही थी।
शायद की शब्दावली में बात कर रही हूँ, तुम्हारी डेडलाइन की वजह से इतना वक्त नहीं है कि कहानियाँ खोज कर सत्यापित कर लूँ और सच कहूँ तो मंशा भी नहीं है। लेकिन कहानियों की कथानक को लेकर भले ही यहाँ शायद-शायद हो रहा हो, इतना पक्का याद है कि लेकिन इन दोनों कहानियों को लौटा देने के बारे में राजेन्द्र जी से मेरा कोई मतभेद नहीं था।
उन दिनों में अगर मैं कथादेश में हुई होती तो मैंने क्या किया होता? छपने के लिये कहानियों को चुना होता या नहीं? शायद नहीं, लेकिन उन कारणों से तो बेशक नहीं जिनके आधार पर राजेन्द्र यादव ने उनको वापस किया था। उनका एक कारण तो यही था कि दलित की पीड़ा सिर्फ दलित ही लिख सकता है। इस बात को लेकर तब भी मेरी उनसे बहस हुआ करती थी, यह जानने के बावजूद कि अपना अपना पक्ष तय कर चुके होने के बाद बहस का कोई तुक नहीं हो। पक्ष-विपक्ष का मतलब यहाँ कृपया दलित संवेदना का पक्ष-विपक्ष न समझें। दोनों ही उसके पक्ष में थे। बहस में मेरा पक्ष अक्सर यह होता था कि दलित की पीड़ा अगर सिर्फ दलित ही लिख सकता है तो इसकी क्या गारण्टी है कि दूसरा कोई उसको पढ़ कर उसे समझ भी सकता है। तब तो आखिरी हद यही हो सकती है कि खुद लिखो और खुद ही समझो! दूसरा कारण उभरते हुए दलित सौन्दर्यशास्त्र के तर्क थे जिनके हिसाब से रचना में व्यंजना-सौन्दर्य, प्रतीकात्मकता, रूपकीयता, संरचना की जटिलता वगैरह को यथार्थ के साथ धोखाधड़ी के अलावा और कुछ नहीं माना जा सकता था। उन तर्कों में सदियों की अभ्यस्त और जड़ीभूत सवर्ण-सौन्दर्य चेतना को चुनौती का भाव और शायद कुरूपता, फूहड़पन और सपाटबयानी जैसी चीजों के प्रति नकार और अरुचि को केवल सवर्ण संवेदना की अभ्यस्तता और जिद का मामला मानने का आग्रह था। लेकिन हदों को ही अन्तिम परिभाषा मानकर उसी दायरे में अपना सौन्दर्यशास्त्र रच रखने के उपक्रम से मैं आज भी खुद को सहमत नहीं पाती। उन कहानियों से मेरी असहमति की वजह भी शायद उस किस्म के सौन्दर्यशास्त्र की कार्यान्विति को लेकर ही थी। मुझे लग रहा था कि दलित कथानकों में वितृष्णा और जुगुप्सा के पाठकीय अनुभव के समावेश से दलित-विमर्श का उद्देश्य ही पराजित होता है।
राजेन्द्र यादव मेरे लिये कलावादी-सौन्दर्यवादी विशेषणों का प्रयोग गाली की तरह किया करते थे। "कलावाद" की उनकी समझ वामपंथी परिभाषाओं से सीमित थी और पहले से चली आती सैद्धान्तिक धारणाओं को अपने लिये, अपनी रचनात्मक शर्तों पर पुन:परिभाषित कर लेने की क्षमता से लैस होने के बावजूद वे रुझान से इसके लिये तत्पर नहीं थे। लेकिन कलावाद और सौन्दर्यवाद का मतलब भाषा की अलंकृति और नयन-मनोरम वाला सौन्दर्य भर नहीं है। कलावाद का मतलब यथार्थ को उसकी यथार्थवादी जकडऩ से छुड़ा पाना है, उसके भीतर मौजूद रह कर भी उसे बाहर से देखना और उसके अदब-कायदों, शासनों-अनुशासनों से मुक्त हो जाना है ताकि उसको दर्पणवादी दृष्टि की व्याख्या और अनुकृति वाली पद्धति के अलावा भी अपनी रचना में समीक्षा, संशोधन, विरोध, विलोम, रूपकीय और प्रतीकात्मक पुन:सृजन वगैरह वगैरह अनेक समीकरणों में उसको आविष्कृत और अभिव्यक्त किया जा सके। सौन्दर्यवाद का मतलब सामाजिक अन्याय और विषमता की अनैतिकता और कुरूपता के विरुद्ध न्याय और नैतिकता की पक्षधरता है। जहाँ नैतिकता की रूढ़ मर्यादाएँ अन्याय में बदल चुकी हों वहाँ उनका उल्लंघन करने की अनैतिकता में नैतिकता के उद्भव का दर्शन कर पाना सौन्दर्यवाद है। वही साहित्य का स्वायत्त-प्रदेश भी है।
शायद हमारी उस बहस के मुद्दों से मेरे सम्पादकीय चयन के आधारों को परिभाषित करने में कोई मदद मिले - मैं इस बात को लेकर शर्त बदने को तैयार थी कि अगले दस बरसों में इसी दलित साहित्य में आप भाषा का मँजाव, संवेदना की प्रौढ़ता, व्यंजना, संरचना में गुँथे प्रतीक, रूपक सब कुछ सिरजता हुआ देखेंगे। तब यह तथाकथित सौन्दर्यशास्त्र अपने आप अप्रासंगिक होता पाया जायेगा। और जैसे जैसे दलित-साहित्य राशिभूत होगा, वैसे वैसे उसके अन्दर भी तुलनात्मक मूल्यांकन के लिये कसौटियों की जरूरत खड़ी होती जायेगी। ठीक है कि फिलहाल दलित साहित्य के लिये कसौटियों में ढील दी जाये लेकिन उसके सामने अपनी हदों का अतिक्रमण करने की चुनौती को कायम रखा जाय। साहित्य-जगत में दाखिल होने के लिये ऐसी कोई चौहद्दियाँ नहीं हैं जिनके उल्लंघन के लिये किसी को अनुकम्पा के आधार पर अनुमति की जरूरत हो, दाखिले के बाद प्रकाशन के लिये चयन और प्रकाशित होने के बाद मूल्यांकन में जरूर अनुकम्पा की जरूरत हो सकती है लेकिन इस नये दलित सौन्दर्यशास्त्र का उपक्रम तो बैसाखी को ही पाँव बना देने का प्रतीत होता है।
अपनी इस बात में "सवर्ण-दंभ" की गंध के आरोप की आशंका और उसके "सियासी अनौचित्य" से परिचित होने के बावजूद मैं मानती हूँ कि अस्मिता-विमर्शों की वास्तविक सफलता अप्रासंगिक हो जाने में, उस जगह तक पहुँच जाने में है जहाँ इस किस्म के विशेषीकरण की जरूरत ही न रहे। और आज सचमुच कैलाश वानखेड़े, अजय नावरिया, टेकचंद, रजनी सिसोदिया, अंजली काजल, सुमित्रा महरौल इत्यादि जैसे अगली पीढ़ी के युवा रचनाकारों को देखती हूँ तो गर्व होता है कि साहित्य के मूल्यांकन के लिये अब उनके नाम के साथ किसी विशेषीकरण की जरूरत नहीं, अन्यान्य कारणों से भले ही यह विशेषीकरण बनाये रखा जाय।
अपनी सम्पादकीय नीति और पाठकीय रुझान के तनावों को परिभाषित करने बैठी ही हूँ तो पुन: "सियासी अनौचित्य" की परवाह न करके मैं सौन्दर्यशास्त्र की बात उठाना चाहूँगी। परम्परागत सबकुछ के नाम चुनौती और ध्वंस के इस समय में शायद यह बात कुछ अजीब लगे लेकिन निस्संदेह, विमर्शों का माध्यम होने के अलावा साहित्य स्वयं भी विमर्श की एक कोटि है और उसकी समझ व पकड़ के लिये सौन्दर्यशास्त्र की शरण जरूरी है। मेरा सौन्दर्यशास्त्र किसी सैद्धान्तिक और शास्त्रीय अर्थ में सौन्दर्यशास्त्र नहीं है। वह मेरी संवेदना के संस्कार का नाम है। और वह इस सिलसिले के मेरे समस्त जाने-बूझे का ऐसा सम्पृक्त घोल है कि उसमें सिद्धान्त-सम्प्रदाय, पूरब-पच्छिम, भाव-विचार सब अपना अपना पारस्परिक विरोध खोकर समा गये हैं। जिस भी विचार की मदद से जो कुछ समझ आये, मेरे लिये वह सब मूल्यवान है। अब तो मैं भी नहीं जानती कि उसमें क्या कहाँ से आया है हालाँकि चुनाव में अन्तत: अपनी रुचि के अलावा और ज्यादा कुछ बचता है नहीं क्योंकि उसीके निर्माण में सबकुछ खप चुका है।
मान लेती हूँ कि मेरी संवेदना और रुचि की रचना में भारतीय काव्यशास्त्र के सौन्दर्य-पक्ष का कोई न कोई हाथ है, हालाँकि हमारे पढऩे और बढऩे के दिनों में उसके साथ विधिवत बहस के बिना ही उसे खारिज कर देने का चलन था। तो खारिज वह पहले ही किया जा चुका था लेकिन बाद में फिर कभी इस समझ के साथ प्रासंगिक हो उठने के लिये कि काव्यशास्त्र का कुल निचोड़ केवल "सद्वंशजात क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण" जैसे नायक-लक्षणों और " मुग्धा-मध्या-प्रौढ़ा" जैसे नायिका-भेदों तक में सीमित/ समाया हुआ नहीं है जिसके आधार पर उसे सामन्तशाही का अवशेष घोषित करके खारिज किया जाता रहा था। वह तो उसके छिलके का भी छिलका है। और आज उसे भर चुके घाव के गिर चुके खुरण्ड की तरह जलाया और भुलाया जा सकता है।
जहाँ तक देख पाती हूँ, मुख्य बात लगती है कालबोध की साहित्यिक संरचना, साधारणीकरण, और भाषा की भूमिका। इस बात की हालाँकि यहाँ कोई प्रासंगिकता तो नहीं लेकिन जिक्र करने का लोभ छोड़ नहीं पा रही हूँ। जानती हूँ कि इस तरह के जिक्र भारत-व्याकुलता का आरोप आमंत्रित करते हैं, फिर भी, और जोकि मैं शायद हूँ भी! आर्थर क्वेस्लर ने अपनी किताब 'ऐक्ट ऑफ क्रियेशन' में सौन्दर्यानुभूति की विस्तार से व्याख्या करने के बाद बिना कोई फुट-नोट या सन्दर्भ दिये हुए, "सम ऑफ द ओरियण्टल थ्योरीज" का चलताऊ सा जिक्र भर किया है जिनमें "उनकी उस धारणा से मिलती-जुलती" कोई बात कही गयी है। और उनकी वह धारणा "सौन्दर्यानुभूति" वही है जिसे हम साधारणीकरण के नाम से जानते आये हैं। सॉस्यूर ने ऐसा ही कुछ भाषिकी के बारे में अपनी धारणाओं के विषय में किया है। फुटनोट में व्यंजना और ध्वनि का सन्दर्भ देने की गलती नहीं की है।
कालबोध की साहित्यिक संरचना यानी लेकिन काल और तत्काल को एक साथ देखना। देख पाना कि इतिहास और राजनीति के दाँतों और नाखूनों के निशानों से क्षत विक्षत तत्काल प्रतिक्षण काल में डूबता है। वह अवधि और निरवधि का गुम्फ है। वह साहित्य का स्वायत्त प्रदेश है लेकिन वह 'कला कला के लिये' जैसा कोई स्वत:सम्पूर्ण जगत-निरपेक्ष अर्थ नहीं है। वह सापेक्ष होते हुए भी स्वायत्त है। इसमें सामाजिक-सांस्कृतिक सापेक्षता भी शामिल है और राजनीतिक सापेक्षता भी।
'स्वायत्त' और 'सापेक्ष' को एक दूसरे से अलग कर काल-सापेक्ष और काल-निरपेक्ष के खानों में बाँट देना बहुत आसान है लेकिन मेरी रुचि की कहानी इन सारी अपेक्षाओं को अपने भीतर धारण करते हुए भी इनकी हदों के पार, इनसे अधिक और अतिरिक्त और भिन्न किन्हीं अपेक्षाओं के कारण स्वायत्त बनती है। कहानी एक छोटी विधा है, उसके लिये कई बार इसे निभा पाना मुश्किल हो सकता है। लेकिन वह छोटे छोटे किरदारों में थोड़ा थोड़ा करके उसे प्राप्त और स्वायत्त करती है। साहित्य अपनी उस स्वायत्त सत्ता को छूकर ही सच्चे अर्थ में कोई प्रतिपक्ष या विकल्प बन सकता है अन्यथा वह शेष सापेक्षताओं के दायरे के भीतर उनका ही विस्तार अथवा रूपान्तर बन कर रह जायेगा। काल, यथार्थ और मूल्य के एक भिन्न और वैकल्पिक बोध से वह अपना प्रतिपक्ष रचता है और वही उसकी राजनीति है।
स्वायत्त और सापेक्ष को दो खानों में बाँट रखने से अपनी संवेदना में भी एक विभाजन पैदा होता है। मुझे याद आता है कि राजेन्द्र यादव अलका सरावगी के प्रथम उपन्यास 'कलिकथा वाया बाइपास' के घनघोर प्रशंसक थे। उन्होंने न केवल खुद उसे बेहद पसन्द किया बल्कि आग्रह कर-कर के पता नहीं कितने लोगों को उसे पढ़वाया भी। और उसे केन्द्रित करके अपना एक सम्पादकीय भी लिखा। लेकिन वह सम्पादकीय उनकी प्रशंसा की प्रत्याशा के अनुरूप नहीं था। मैत्रेयी पुष्पा का भी एक उपन्यास अलका सरावगी के उपन्यास के साथ ही आया था। राजेन्द्र जी का सम्पादकीय दोनों उपन्यासों को साथ साथ रखकर तुलना-भाव से लिखा गया था और मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास को ऊपर ठहराते हुए कलिकथा के सौष्ठव को उसकी खामी बताया गया था। मैत्रेयी का उपन्यास भी अपनी जगह पर अच्छा ही था लेकिन दोनों में तुलना की कोई गुंजाइश नहीं थी। राजेन्द्र यादव ने अपना प्रशस्ति-पत्र इतने सारे लोगों के आगे बाँचा था कि आगामी परिहास और उपहास से बच निकलने की कोई खास गुंजाइश थी नहीं। लेकिन वहाँ से शुरू हुई बात आखिर संवेदनात्मक विभक्ति की इस हद तक गई कि अन्तत: उन्होंने अपने समूचे कथा-सृजन को ही खारिज कर दिया। ऐसी ही एक घटना हंस की एक कहानी प्रतियोगिता के परिणाम को लेकर भी हुई थी जिसके निर्णायक-मण्डल में एक मैं भी थी। कहानियाँ याद नहीं लेकिन यह याद है कि राजेन्द्र यादव ने निर्णायक मण्डल का हिस्सा न होने के बावजूद और पुरस्कार की विधिवत घोषणा हो चुकने के बाद भी अपने पता नहीं किस अधिकार के हवाले से, या शायद बिना हवाले के ही, निर्णय को बदल कर द्वितीय कहानी को प्रथम और प्रथम को द्वितीय कर दिया था। तर्क वही कि दूसरी कहानी का विषय सामाजिक था। जबकि जहाँ तक मुझे याद पड़ता है वह दूसरी कहानी भी वैयक्तिक स्वर में सामाजिक यथार्थ की कहानी ही थी और राजेन्द्र यादव की राय में भी; एक बेहतर कहानी थी।
शायद यह स्वायत्तता का भ्रम है, या मेरा अहंकार या मेरे दिमाग की अराजकता, मुझको इस किस्म की विभक्ति "सियासी औचित्य" के दबाव में "प्लेयिंग टु द गैलरी" का अभिनटन सरीखा प्रतीत होता है। मुझे पता नहीं क्यों मैं खुद को इसके विपरीत खड़ा पाती हूँ। सन्तुष्ट नहीं होती पर निरपेक्ष हो जाती हूँ। व्यक्तिगत से मेरे लिये कुछ भी दाँव पर नहीं लगा है। कुल मिलाकर रुचि ही तो है। कल शायद न रहे। साहित्य के बदले और किसी चीज में जाग उठे। राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने, दुनिया को बदलने वगैरह जैसे बड़े बड़े उद्देश्यों के पीछे चलने की बजाय अपनी कक्षा में पहली पंक्ति में बैठी छात्राओं तक चार पंक्तियों का अर्थ पहुँचा पाना संप्रेषण का बड़ा चमत्कार महसूस होता है। बाकी कार्यक्रम तो एक निश्चित विचारधारा के निश्चित पंथ के भीतर भी अपने विशेष गुट या गिरोह की सदस्यता के मानदण्डों से चलता दिखाई देता है। उस दायरे के बाहर के किसी कवि की समाज-राजनीति-सापेक्षता वगैरह भी छद्म अत: सन्दिग्ध घोषित की जा सकती है।
पाठक की हैसियत से मुझे खासा गुमान है कि विकट से विकट कहानी भी मैं अपनी संवेदना को क्षत-विक्षत पाये बिना झेल सकती हूँ। हरिनारायण ने 'कथादेश' को ऐसा व्यक्तित्व दिया भी है और इस सन्दर्भ में वे कोई जोखिम उठाने से कभी पीछे नहीं हटते। हंस से लौटाई गयी दो कहानियों का जिक्र ऊपर किया गया है जो 'कथादेश' में छापी गई थी। प्रियम्वद की'बूढ़े आदमी का उत्सव' नामक एक कहानी याद आ रही है। वह भी कथादेश में ही छपी थी। तब मैं यहाँ नहीं थी लेकिन पत्रिका के स्वभाव को समझाने के लिये उसका जिक्र कर रही हूँ। वह एक बहुत ही गहरी नैतिक दुविधा और संकट की कहानी थी और उतने ही गहरे और नाजुक सन्तुलन के साथ निभाई गयी थी। कहानी एक शत-प्रतिशत अपाहिज बच्चे और उसकी माँ के बारे में थी। बच्चा पूरी तरह से माँ पर निर्भर है और उसकी पूरी देखभाल माँ को ही करनी है। बच्चा धीरे धीरे युवा होता है और उसमें यौनाकांक्षा जागती है। उसकी तकलीफ असहनीय है। वह अपनी आकांक्षा का अर्थ नहीं जानता। सिर्फ तड़पना जानता है। भूख, प्यास, नींद, मल-मूत्र-विसर्जन जैसी नितान्त प्राकृतिक आवश्यकता जिसे आकांक्षा कहना भी शायद ठीक नहीं। माँ अब क्या करे? इसके पहले तक बच्चे की हर जरूरत उसने पूरी की है और बच्चे के लिये यह जरूरत भी बाकी जरूरतों की कोटि की ही है। कहानी को पूरा पढ़े बिना उस सन्तुलन को समझा ही नहीं जा सकता जिसे प्रियम्वद ने इस कहानी में विकट तरीके से साधा है।
यथार्थवादी कला के मुकाबले में खड़े कैमरा-कौशल के सामने साहित्य दोयम होने को ही अभिशप्त है। क्षणांश को आकर गुजर जाने वाले बिम्ब में कैमरे से जो यथार्थ जितने प्रभावी ढंग से मूर्त किया जा सकता है, कलम उसकी बराबरी कहाँ तक करेगी? वह तो उस क्षेत्र में कैमरे के बयान के लिये बस एक ब्लू-प्रिण्ट तैयार करने के काम ही आ सकती है। टेक्नालॉजी का हर अगला विकास कला के पिछले रूप-विधान के सामने एक चुनौती छोड़ जाता है कि अपना कायाकल्प करे। कैमरे ने आकर एक चुनौती प्रभाववादी चित्रकला के सामने रखी और अभिव्यंजनावादी चित्रकला आन्दोलन का जन्म हुआ, दूसरी चुनौती कलम के सामने रखी जिसने कलम का मुँह बहिरंग यथार्थ से अन्तरंग जगत की ओर मोड़ दिया जहाँ तक कैमरा पहुँच ही नहीं सकता और जिसे कथाकार अपनी कलम से कुरेद कर बाहर लाता और एक वस्तुगत अस्तित्व प्रदान करता है। युवा पीढ़ी याद नहीं होगा, शायद मालूम भी नहीं होगा कि भाववाद, रूपवाद, कलावाद, व्यक्तिवाद और तत्त्ववाद बहुत दिनों तक शत्रुपक्ष की विचारधाराएँ बना कर रखी गई थीं और साहित्य में जीवन के प्रतिनिधित्त्व को अधूरा और एकांगी करके उनके यथार्थ की अभिव्यक्ति को साहित्य के लिये अवांछित भी मान लिया गया था।
लेकिन शुक्र है कि आज वे हालात बाकी नहीं हैं। कहानी के दिखाने से आज अचेतन के तहखानों में वर्जित लालसाओं का प्रेतनृत्य और कामकुण्ठाओं का उत्पात देखा जा सकता है जिन्हें हम प्राय: नहीं देखना चाहते। न देखकर उनके वहाँ न होने का बहाना करते हैं। और बहाना करके सुरक्षा का भ्रम पाल बैठते हैं। कहानी के दिखाने से भी नहीं देख पाते कि हमारे भीतर के ये तहखाने विस्फोटक सामग्री का गोदाम बन चुके हैं और भोले, मूर्ख अपर्याप्त विधि-निषेधों से संचालित सामाजिक सुरक्षा-तंत्र कब का ध्वस्त हो चुका है। उसे साफ सीधे आमने सामने देखने से इंकार करके उसे पर्याप्त बनाने का कोई उपाय संभव नहीं है। ये एक गहन 'अवैध नैतिकता' के सवाल हैं जबकि जिन्दगी को हम 'वैध अनैतिकता' के आधार पर चलाते हैं और उनको नैतिकता का आधार भी मानते हैं। ये सवाल आदमी की जिन्दगी को उद्दाम प्रलोभन और कठिन तटबन्ध का, आवेग और निषेध का, सदा ही कगारों के आस पास की जान जोखिम का मामला बना देते हैं। इस विशिष्ट यथार्थ और उसके निरूपण के फासलों और फाँकों के बीच खोलने या ढाँपने, देखने दिखाने या छिपाने, जताने या न बताने की लेखकीय मंशा दरअस्ल उस कोटि के लेखकों के लिये नैतिक मूल्यों और चुनावों का दर्जा रखती है। कहानी ने अगर मुझे पकड़ लिया तो घोर अनैतिक सी दिखती कहानी के रेशे सुलझा कर भी मैं उसकी नसों में बहती नैतिकता को छानकर निकाल सकती हूँ, कहानी के भीतर के उस नसतोड़ आवेग और तनाव को अपनी नसों पर झेल भी सकती हूँ जिसके सामने सन्तुलन और मर्यादा के सवालअपर्याप्त और अप्रासंगिक हो जाते हैं और ध्वंस अपना औचित्य स्वयं अर्जित कर लेता है।
ऊपर कहीं अपनी पाठकीय रुचि को परिभाषित करते हुए टिप्पणी कर के छोड़ दिया गया है- "लेकिन सम्पादकीय!’’ विमर्शों के साथ हंस और कथादेश के रिश्तों की परिभाषा के जरिये दोनों के अभीष्ट पाठक समुदायों को पहचानने की कोशिश भी की गयी है क्योंकि सम्पादक का काम अपनी पत्रिका को अनजाने पाठक और रचना के बीच पुल बनाने का होता है। यह कामना ही की जा सकती है कि वह पाठक स्वयं अपने को इस पत्रिका के पाठक और ग्राहक की तरह पहचान लेगा।
और भी बहुत सारी कहानियों के बहुत सारे उदाहरण देकर बात को और भी बहुत सारे आयामों में खोला जा सकता है लेकिन बात फिर अनन्त रूप से बढ़ती जायेगी। इसलिये यहीं रोकती हूँ।
'कथादेश' का अभीष्ट और सम्बोधित पाठक वही है जिसकी रुचि और क्षमता मुझे अपने जैसी लगती है। लेकिन कभी कभी किसी पाठक का पत्र या फोन मुझे सजग भी कर देता है। पिछले किसी अंक के बाद पटना से विद्या लाल ने फोन करके पूछा था कि लक्ष्मीधर मालवीय की जो कहानी आपने छापी है, वह मेरी कुछ समझ में नहीं आई, उसकी नायिका को क्या दुख है? 'हंस' में थी तो राँची से एकबार कलावन्ती ने फोन करके उस बार के मुखपृष्ठ से आपत्ति जताई थी। वहाँ गोगी सरोजपाल का एक चित्र छापा गया था। वह एक चिडिय़ा का चित्र था, उसका मुख स्त्री का था, बहुत बड़ी बड़ी भास्वर आँखों में स्वप्नों का नीलापन था लेकिन उसकी देह के अंगों पर स्त्रीत्व का भारीपन था जो उसको उडऩे नहीं देगा। यह सब उनसे कहा था तो वे बोली थीं कि वह सब तो ठीक है मैडम लेकिन पत्रिका को घर ले जाना होता है, घर में सब लोग देखते हैं, बच्चे देखते हैं, क्या सोचते होंगे, मैं क्या पढ़ती हूँ। राजेन्द्र जी ने यह आपत्ति ठहाके में उड़ा दी थी। वे कभी कभी किसी किसी रचना के शीर्षक के नीचे ब्रैकेट में इस किस्म की टिप्पणी भी लगा देते थे, (बहू बेटियों के लिये निषिद्ध)। लेकिन मैं जानती हूँ कि कलावन्ती रचनात्मक दृष्टि और सृजनक्षमता से सम्पन्न एक गंभीर पाठिका और रचनाकार हैं। किसी भी पत्रिका को ऐसे पाठक की दरकार होगी, पाने पर गर्व होगा। विद्या लाल भी साहित्य के लिये समर्पित गंभीर पाठिका हैं। और भी होंगे जो इस तरह की आपत्ति दर्ज करने के लिये फोन नहीं उठाते होंगे। इसलिये पहले चुनाव के बाद और अन्तिम चुनाव के पहले ज्यादा विकट कहानियों में एकबार इस खयाल से भी नजर डालती हूँ इन्हें अर्चना वर्मा की नजर से न पढऩे वाले लोग भी होंगे। वे अगर पत्र लिख कर अपनी बात कहें तो हम रचना को विमर्श में ले जाते हैं। और 'कथादेश' में बहसें मुद्दों पर ही चलाई जाती हैं।
लेकिन इसके बावजूद अभी तक छापने का खतरा न उठाने की नौबत नहीं आई है। बात यह है कि सम्पादन भी मेरे और हरिनारायण के लिये एक तरह की रचनात्मक अभिव्यक्ति भी है।
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संपर्क:
जे-901 हाइ-बर्ड,
निहो स्कॉटिश गार्डेन,
अहिंसा खण्ड -2, इन्दिरापुरम,
गाजियाबाद, 20101
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