अजय वर्मा / समकालीन कहानियों में राजनीतिक बोध / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1

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आलोचना अजय वर्मा समकालीन कहानियों में राजनीतिक बोध राजनीति सामाजिक विकास से जुड़ा हुआ विषय है। यह सीधे-सीधे मनुष्य जीवन की बुनियादी चिंता...

आलोचना

अजय वर्मा

समकालीन कहानियों में राजनीतिक बोध

राजनीति सामाजिक विकास से जुड़ा हुआ विषय है। यह सीधे-सीधे मनुष्य जीवन की बुनियादी चिंताओं से जुड़ा है और सामाजिक संरचना में होने वाले क्षरण से इसका महत्त्व कभी कम नहीं होता। इसी प्रकार साहित्य भी मनुष्य -जीवन के सरोकारों से जुड़ा हुआ है और यह कहना कि साहित्य को राजनीति से बचकर चलना चाहिए इस बात की वकालत करना है कि साहित्य का काम सिर्फ मनोरंजन करना है जो लोग ऐसा मानते हैं उनके लिए भांड़ों की रचनाओं एवं गंभीर साहित्य में कोई फर्क नहीं होता। प्रेमचंद ने यह बहुत पहले स्पष्ट कर दिया था कि साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं है बल्कि उसके आगे-आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली सच्चाई है।

ये बातें नई नहीं हैं लेकिन यहाँ इन्हें दुहराने के विशेष कारण हैं। पिछले कुछ दिनों में इस बात पर बहुत जोर दिया गया है कि साहित्य को राजनीति से दूर रहना चाहिए। यह बात न सिर्फ राजनीति से जुड़े लोगों की ओर से प्रचारित की जाती रही है बल्कि साहित्य में भी एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है। इसके पास खेलने के लिए बड़ी खूबसूरत तराशी हुई भाषा है जो पाठक को चमत्कृत कर देती है और निश्चय ही कुछ समय के लिए सपाट राजनीतिक विवरणों से भरे उबा देने वाली रचनाओं के बनिस्बत पाठकों को एक ताजगी का अहसास हुआ हो मगर राजनीति से मुक्ति के इस अभियान में बहुत जल्दी मालूम पड़ गया कि जीवन कहीं छूट गया है। आज के दौर में भारतीय समाज जिस प्रकार के संकटों से गुजर रहा है उस संदर्भ में यह गंभीर विचार का विषय है कि साहित्य में राजनीति को लेकर किस प्रकार का बोध दिखता है। इसके लिए हमने कहानी की विधा को चुना है क्योंकि आज पाठकों के बीच इसने महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है इसमें संदेह नहीं है।

यहाँ हमने चर्चा के लिए समकालीन कहानियों को विषय बनाया है और यह प्रश्न उठना सहज है कि समकालीनता की सीमा रेखा क्या होगी। सैद्धांतिक बहस में न जाते

हुए हम इतना ही निवेदन करना चाहेंगे कि कहानी कहने के और यथार्थ तथा कला को बरतने के तरीके में जहाँ से फर्क दिखलाई देने लगा वहीं से समकालीन की शुरूआत होती है और इसका पीढ़ियों के विभाजन से कोई मतलब नहीं है। फिर भी यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि इस दौर में जो कहानी के क्षेत्र में नई पीढ़ी आई उसमें राजनीतिक बोध को लेकर अरुचि का भाव दिखलाई देता है। मगर देखने की बात यह है कि अराजनीतिक होना भी एक बारीक किस्म की राजनीति का ही हिस्सा होता है। बहरहाल इस बहस में पड़ने का न तो मेरा कोई इरादा है न ही इस लेख की सीमा को देखते हुए इसकी कोई गुंजाइश यहाँ नजर आती है। काल के जिस हिस्से पर इस लेख को केंद्रित किया गया है उसमें एकाधिक पीढ़ियों के कहानीकार लेखनरत हैं और उनकी राजनीतिक दृष्टि बहुत साफ है, चाहे वह भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति के ऐतिहासिक विकास को लेकर हो या विश्व बाजार के दौर की नव उपनिवेशवादी राजनीति को लेकर, इनमें कोई अंतरविरोध नहीं है। इस पर बात करने के लिए सबसे पहले उदयप्रकाश की कहानी ‘मैंगोसिल’ की चर्चा करने की जरूरत है। यह कहानी जिस समय प्रकाशित हुई थी वह वैश्विक पूंजी के प्रसार का दूसरा दौर था और इस समय तक यह स्पष्ट हो चुका था कि अमेरिकी पूंजीवाद के रथ के घोड़े पूरी तरह बेलगाम होकर तीसरी दुनिया को कुचलने के लिए दनदनाते फिरने लगे हैं और इसकी लगाम थामने के लिए अब कोई दूसरी दुनिया नहीं रह गई है। दुनिया भर में सारा फौजी चिंतन अमेरिका करता है और शांति से लेकर आतंक के खिलाफ युद्ध की परिभाषा भी वही तय करता है। युगोस्लाविया में होली बॉम्ब का नारा हो या अफगानिस्तान में आतंक के खिलाफ युद्ध अथवा इराक में विनाश ,इन सारी कार्रवाइयों को उसने शांति की स्थापना के नाम पर ही अंजाम दिया। वास्तव में ये कार्रवाइयां अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रसार के लिए थीं और इस पाखंड की कलई ‘मैंगोसिल’ का सूरी यह कहकर उतार देता है कि चूंकि वह दुनिया भर में हो रहे अमेरिकी दमन के बारे में बहुत कुछ जान गया है इसलिए उसका सिर बड़ा हो गया है। उदय प्रकाश कहते हैं कि पेंटागन की रिपोर्ट के मुताबिक इस समय सभी देशों की सरकारों को इन बड़े सिर वाले बच्चों पर निगाह रखनी पड़ेगी। सूरी ऐसा ही बच्चा है जिससे अमेरिकी साम्राज्यवाद के वैश्विक अभियान को खतरा है। साथ ही यह भी इस कहानी में कहा गया है कि दुनिया तेजी से बदल रही और दिल्ली भी बदल रही है। यानी उदयप्रकाश यह स्पष्ट कर देते हैं दुनिया अमेरिकी संकेतों के अनुसार बदल रही है और भारत भी वैश्विक पूंजी के इस खेल में शामिल हो चुका है तथा देश की सरकारों का काम अमेरिकी पूंजीवाद के अभियान को निष्कंटक बनाने में अपना योगदान देना भर रह गया है।

यह उल्लेखनीय है कि उदयप्रकाश के राजनीतिक सरोकार उनकी कहानियों में साफ दिख जाते हैं और उनके टोन में आवेग अधिक होता है जो थीम के प्रति अत्यधिक संलग्नता के कारण उत्पन्न होता है। इसका कारण है कि वे वर्णन में चमत्कार उत्पन्न करने की प्रवृत्ति के शिकार हैं। इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि इनकी संवेदना का स्तर सघन है इसलिए वर्णन छिछला नहीं मालूम पड़ता है। अपने अतिरिक्त आवेग को ये तराशी हुई भाषा और फंतासी के प्रयोग से यथार्थ की समझ पर हावी नहीं होने देते।

इस दौर की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय लोकतंत्र लगातार अपने जन सरोकारों से विलग होता गया है और लोकतंत्र के नाम पर एक नए किस्म के फासीवाद का उभार हुआ है जो अपनी किसी भी किस्म की आलोचना को देश के प्रति विद्रोह मानता है। राजनीतिक सत्ता देश का पर्याय मान ली गई है जिसके कुछ उदाहरण हाल के दिनों में देखने को मिल रहे हैं । यह बात किसी दल विशेष के संदर्भ में नहीं बल्कि सभी राजनीतिक दलों के लिए कही जा सकती है। राजनीतिक सत्ता अपने इर्द—गिर्द एक तिलिस्म रच लेती है जिसके भीतर का यथार्थ अदृश्य होता है। बाहर से जनतांत्रिक दिखाई देने वाला यह सत्ता तंत्र अंदर से बेहद क्रूर और जन विरोधी होता है। इस तिलिस्म को भेदकर इस तंत्र के यथार्थ को प्रत्यक्ष करने का काम अखिलेश अपनी कहानी ‘श्रृंखला’ में करते हैं। राजनीति के भाषिक संदर्भ की तलाश करने का यह बिलकुल अनूठा प्रयास है। अखिलेश वर्तमान राजनीतिक सत्ता तंत्र के रोजमर्रा के दांव-पेंच में सीमित होने के बजाय उसके भाषिक तंत्र को छिन्न -भिन्न करते हैं और इस प्रकार उसके पीछे की वास्तविकता को उजागर कर देते हैं। आज लोकतंत्र एक विराट लफ्फाजी का पर्याय बन गया है। राजनीतिक दल तानाशाही की हद तक आत्ममुग्ध हो गए हैं। अपने मूल सिद्धांतों को पीछे छोड़ चुकी राजनीति अपनी निरंकुश प्रवृत्ति पर पर्दा डालने के लिए कूट संरचना का निर्माण करती है और इसी का उदाहरण है नामों को संक्षिप्त करने की राजनीति। भाषा की राजनीति कितनी खतरनाक हो सकती है इसका अंदाजा इस कहानी के नायक रतन कुमार के कॉलम में कहे गए इस वाक्य से मिलता है — “शब्दों के शॉर्ट फॉर्म दरअसल सत्य को छुपाने और उसे वर्चस्वशाली लोगों तक सीमित करने के उपाय होते हैं।ज्ज्

रतन कुमार अपने अखबारी कॉलम में नामों के शॉर्ट फॉर्म को डी कोड करने का काम शुरू करता है और इस के माध्यम से वह सत्ता एवं प्रशासन के शीर्ष पर बैठे लोगों से लेकर राजनीतिक दलों तक के नामों की कूट संरचना को डी कोड करते हुए उसकी वास्तविकता को सामने लाता है। उसका कहना है कि किसी सत्ता से भिड़ने का कारगर तरीका है कि उसके समस्त सूत्रों, संकेतों, चिह्नों, व्यवहारों, रहस्यों, बिम्बों को उजागर कर दो। उसके इस अभियान से सत्ता में बैठे लोगों में खलबली मच जाती है और इसे लोकतंत्र के खिलाफ साजिश माना जाता है। तब शुरू होता है उसके मानसिक दमन का सिलसिला;जो अन्त तक जाते- जाते दैहिक दमन में बदल जाता है। और यह सब एक ऐसे रहस्यमय तरीके से घटित होता है कि उसे यह भी समझ में नहीं आता कि उसके शत्रु कौन हैं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार काफ्का के उपन्यास ‘द ट्रायल’ के जोसफ के. को मरने तक पता नहीं चलता है कि उसका अपराध क्या है। सत्ता अपने तिलिस्म को भेदने की कोशिश करने वाले का इसी प्रकार दमन करती है । सेना, पुलिस सत्ता के वे नुमाइंदे हैं जो ऐसी कोशिश करने वाले को नक्सली अथवा आतंकवादी बताकर उस पर जुल्म करते हैं और जुल्म के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि इसके शिकार के पास कोई सबूत नहीं होता। मिशेल फूको उचित कहते हैं कि सत्ता अपने अधीनस्थ के दमन में खुद को चरितार्थ करती है।

इस कहानी में अखिलेश यह व्यक्त करते हैं कि धन, भ्रष्टाचार और निरंकुशता आज की राजनीति की विशेषताएं हैं और इनको छिपाने के लिए सत्ता धारी राजनीतिक दल कूट संरचना का इस्तेमाल करता है। विपक्षी दल इसका विरोध नहीं कर सकते क्योंकि वे खुद सत्ता के दावेदार होते हैं और उनका भी मूल चरित्र यही होता है। जनता की आवाज होने का दावा करने वाला मीडिया खुद सत्ता के हाथों बिका होता है इसलिए उससे भी विरोध की उम्मीद नहीं की जा सकती।

अखिलेश ने समकालीन राजनीति और सत्ता का जो चित्र प्रस्तुत किया है उसको देखते हुए यह आसानी से कहा जा सकता है कि हमारा लोकतंत्र अबतक के सबसे भयावह दौर से गुजर रहा है। अखिलेश इससे निपटने के लिए कोई काल्पनिक जन आंदोलन नहीं रचते हैं लेकिन इसकी आकांक्षा वे जरूर प्रकट करते हैं। यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि कथाकार की दृष्टि में क्या कोई विकल्प नहीं बचा है। इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि लेखक मार्क्सवाद और गांधीवाद दोनों के मेल से बनी राजनीतिक दृष्टि की प्रासंगिकता में विश्वास रखता है मगर कथाकार के रूप में वह अपनी सीमा से वाकिफ है इसलिए सीधे तौर पर वक्तव्य देने से बचने का सतत प्रयास करता है और यही तटस्थता अखिलेश को एक विशिष्ट कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित करती है। इसी प्रकार वे कथा और चरित्र को स्वाभाविक रूप से विकास का अवसर देते हैं । कथावस्तु के प्रवाह तथा उसके अन्त तक कहीं भी वे खुद को हावी नहीं होने देते हैं यही कारण है कि कहानी कहीं भी आवेग का शिकार नहीं होती और न ही इसके बुरे प्रभाव से बचने के लिए उन्हें भाषा का अनावश्यक संजाल रचना पड़ता है।

राजनीति की निर्ममता और अमानवीयता को अनिल यादव ‘लोक कवि का बिरहा’ में बड़ी सूक्ष्मता पूर्वक प्रस्तुत करते हैं ।कहानी विवरण के शिल्प में लिखी गई है मगर एक-एक स्थिति का चित्रण कथाकार ने इतनी बारीकी और इत्मीनान से किया है कि न तो कथा के विकास में उत्सुकता का अभाव दिखलाई देता है न रोचकता में कमी आती है। जनम नाम का लोक कवि पिछड़ी जाति का है मगर दलितों के साथ उठता-बैठता है लिहाजा उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है। कथाकार यहाँ हमारा परिचय भारतीय राजनीति के एक बड़े अंतर्विरोध से कराता है जो जाति व्यवस्था पर आधारित है। हर जाति अपने से नीचे पदक्रम की जाति को हीन समझती है। मगर कहानी का मूल उद्देश्य जाति व्यवस्था के पदक्रम को दिखलाना नहीं है बल्कि जातिगत विभाजन के राजनीतिक प्रयोग को सामने लाना है। जनम दलित पार्टी से विधान परिषद के लिए चुना जाता है, कलाकार कोटे से। मगर वहाँ उसका उपयोग दलितों के काम करने के लिए नहीं किया जाता है नेताओं के प्रशस्ति गीत गाने के लिए किया जाता है। इस प्रकार लेखक ने चुनावी राजनीति के छिछोरेपन का बड़ी बारीकी से वर्णन किया है। जनता के गंभीर मुद्दे चुनावों में गौण हो जाते हैं और गीत, नारे, खोखले वादे मुख्य हो जाते हैं। लेखक कहता है — “लोक कवि और गायक नेताओं की चुनावी सभाओं में गाते थे। इनमें से हर एक अपने फेफड़ों में जोर और आवाज की लचक से सभी चुनाव क्षेत्रों को हांगकांग और सिंगापुर बनाने का सपना दिखाने की जी तोड़ कोशिश करता।ज्ज्

आज के दौर की चुनावी राजनीति के गिर चुके स्तर का ब्यौरा देते हुए यह दिखलाया गया है कि राजनीति भांड़ों और मिरासियों का खेल बन गई है। नेताओं को खुद की जनतांत्रिक छवि पर भरोसा नहीं रह गया है इसीलिए चुनाव में फिल्मी और टी वी कलाकारों को बुलाया जाता है। ऐसे माहौल में जनम कुछ करने की स्थिति में था ही नहीं। अपनी लोकवादी छवि को बनाए रखने को इतना ही करता है कि जो भी, जिस भी अवसर पर बुलाता वह वहाँ पहुँच जाता। जनता इतने से खुश थी क्योंकि नेताओं से इससे ज्यादा की उम्मीद ही नहीं रह गई है। भारतीय लोकतंत्र की यह विडंबना ही कही जा सकती है कि जनता की नेताओं से अपनी बेहतरी की आकांक्षाएं इतनी सिकुड़ गई हैं कि नेताओं की उपस्थिति भर उसको कृत -कृत्य करने के लिए काफी है।

दरअसल जनम राजनीतिक अवसरवाद और भ्रष्टाचार का शिकार बनता है और एक बार पद का सुख भोग लेने के बाद खुद उसके दांव-पेंच में रम जाता है ।अगली बार जब उसे पता लगता है कि उसे उम्मीदवार बनाने के बजाय एक मोटी रकम घूस में देनेवाले को उम्मीदवार बनाया जा रहा है तो वह दल बदल कर अपनी जाति की पार्टी में शामिल हो जाता है और दुबारा विधान परिषद में पहुँच जाता है। वह सदन में बिरहा गाकर अपनी हैसियत बनाता है मगर इसके बाद कथावस्तु में एक मोड़ घटित होता है। एक नेता के नाती के जन्म दिन पर उसे गाने के लिए बुलाया जाता है और सुर में न गा पाने के कारण उसे अपमानित करके मंच से उतार दिया जाता है। कहानी के इस अंत से समकालीन राजनीति की क्रूरता प्रकट होती है।

यही क्रूरता और संवेदनशून्यता हरनोट की कहानी ‘जीनकाठी’ की थीम है । दलित राजनीति भारतीय चुनावी राजनीति का उर्वर क्षेत्र बन गया है। बेड़ा नाम की पहाड़ी दलित जाति को लेकर धर्मांध ब्राह्मणों द्वारा लंबे समय से चलाई जा रही एक बेहद क्रूर प्रथा का वर्णन इसमें लेखक ने किया है जिसको जीनकाठी चढ़ना कहते हैं जिसमें पहाड़ से लंबी रस्सी लटकाकर उसके सहारे नीचे उतरना पड़ता है। इसी में एक बार एक बेड़ा युवक गिरकर मर गया और ब्राह्मणों ने इसे दैवी प्रकोप मानकर सभी बेड़ा लोगों को गांव से निकाल दिया। काफी समय बाद एक नई पीढ़ी के ब्राह्मण युवक ने इस प्रथा की फिर शुरूआत की और बेड़ा लोगों को खोजकर वापस लाया गया । लेखक दिखलाता है समय के अंतराल में अब ये लोग भी जागरूक हो गए हैं। जीनकाठी चढ़ने वाला युवक ठीक नीचे से कुछ पहले जीनकाठी रोक देता है और वहाँ मौजूद विधायक के सामने शर्त रखता है कि उनकी जमीनें लौटाने का वादा किया जाय तब वह नीचे उतरेगा। भीड़ के मौजूद रहने के कारण विधायक जी को शर्त माननी पड़ी।

यहाँ तक कहानी सामान्य रूप में चलती है; दलितों के भीतर उत्पन्न हो रही नई चेतना के रूप में। मगर इसके बाद लेखक विडंबना का प्रयोग करता है और कहानी का मुख्य प्रतिपाद्य सामने आ जाता है। वहाँ यह तमाशा देखने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री भी मौजूद थे और इस तमाशे की अमानवीयता को लेकर उनके मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं उत्पन्न होती है, उन्हें सिर्फ अपने वोट बैंक की चिंता है। इसीलिए वे उस बेड़ा युवक की पीठ थपथपाते हुए कहते हैं कि तुमने तो कमाल कर दिया, अब मेरी समस्या का समाधान हो गया। मुझे लोक सभा के लिए इस क्षेत्र से कोई दलित उम्मीदवार नहीं मिल रहा था .......। आज की खोखली वोट की राजनीति जिसे योगेन्द्र यादव ‘लोकतंत्र के सात अध्याय’ में लोकलुभावन राजनीति कहते हैं; का यह बहुत सटीक उदाहरण है।

समकालीन महिला कथाकारों में जयश्री राय एक महत्वपूर्ण नाम है जिन्होंने अपनी कहानी ‘सुख के दिन’ में जातिगत राजनीति के खोखलेपन को दिखलाया है । इस कहानी की विशेषता यह है कि उन्होंने नेताओं पर केंद्रित करने के बजाय आम लोगों पर केंद्रित किया है। कथावस्तु में नेता जी प्रत्यक्ष नहीं दिखते, रैली में गए गांव के निम्न तबके के लोगों की बातचीत से बारे में मालूम पड़ता है। प्रतीकों की राजनीति करके नेता जी किस प्रकार अपनी जाति के लोगों का भावनात्मक दोहन करते हैं प्रतीकों में आम लोगों को उलझाकर खुद उच्च जीवन जीते हैं इसी पर यह कहानी केंद्रित है। कहानी का मुख्य चरित्र रघुनाथ नेता जी का भक्त है, उनके धनी होने को इस रूप में देखता है कि जब दूसरी जाति के नेताओं ने इतना कमाया तो हमारी जाति के नेता क्यों नहीं। प्रतीकों की राजनीति की यह सबसे चिंताजनक परिणति है। सुख के दिन का उसका मोह तब भंग होता है जब रैली पुलिस की लाठियां खाता है और घर आने पर देखता है कि उसका बीमार बच्चा मर गया है।

दलित राजनीति और कम्युनिस्टों की राजनीति के बीच एक बड़ा विवाद वर्ग और वर्ण को लेकर है। सैद्धांतिक तौर पर यह मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के बीच का संघर्ष है। दोनों की अपनी-अपनी सीमाएं तथा दुराग्रह हैं। भारतीय मार्क्सवादियों ने वर्ण के भेद के विरुद्ध संघर्ष को कभी महत्त्व नहीं दिया और यह मानकर चलते रहे कि वर्ग भेद मिट जाने पर वर्ण भेद स्वत: मिट जायेगा और इस प्रकार उन्होंने यह समझने की कोशिश ही नहीं की कि जाति भारतीय समाज की संरचना में कितनी गहराई तक पैठी हुई है। इसी का परिणाम है कि आज आम लोगों के बीच भारतीय वामपंथी अपनी प्रासंगिकता लगभग खो चुके हैं। इसी प्रकार दलित राजनीति अम्बेडकरवाद के राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के फलसफे का शिकार होकर आम दलितों की मुक्ति के व्यापक लक्ष्य से भटककर व्यक्ति केंद्रित हो गई और इसका सबसे फूहड़रूप समय-समय पर सत्ता के लिए उसी दल से समझौते के रूप में दिखाई देता रहा है जिनके मूल सिद्धांत ही दलितों की हीन सामाजिक अवस्था के लिए जिम्मेदार हैं। इसी द्वन्द्व पर सूरज बड़त्या की कहानी है ‘कामरेड का बक्साज्। इसमें उन्होंने एक होलटाइमर कम्युनिस्ट कार्यकर्ता की राजनीतिक प्रतिबद्धता तथा पार्टी के कठमुल्लेपन तथा सामंती प्रवृत्ति का चित्रण किया है। दलित विमर्श को लेकर पार्टी के लोग किस प्रकार हिकारत का भाव रखते हैं इसका खुलासा इस कहानी में हुआ है। लेकिन कहानी में वैचारिक बहस ही ज्यादा है ऐसा लगता है कि कहानी के रूप में इसकी रचना अभी बाकी है। यथार्थ को कला में बरतने की जरूरत कहानी में होती है इसको ध्यान में रखना आवश्यक है।

पंकज मित्र की कहानी ‘हुड़कलुल्लु’ वित्तीय पूंजी, विश्व बाजार और धार्मिक उन्माद के मेल से बने समकालीन राजनीतिक यथार्थ को सामने लाती है। यह कहानी उस दौर में लिखी गई जब भारतीय राजनीति बड़े देशी तथा विदेशी पूंजीपतियों, माफिया, बिल्डर और ठेकेदारों के द्वारा नियंत्रित होने लगी थी। कहानी में मुहल्ले का गुंडा शंभू पांडे अपनी राजनीतिक यात्रा जिले के भ्रष्ट एस.पी. के यहाँ लड़की पहुंचाने से प्रारंभ करता है और देखते-देखते नेता के रूप में उभर जाता है। यह चरित्र यह बतलाने के लिए काफी है कि विश्व बाजार, नई पूंजी और उदारीकरण के दौर में किस प्रकार की राजनीतिक संस्कृति का उदय हुआ है। इस कहानी में पंकज आज के दौर की उन्मादी हिंदुवादी राजनीति की पृष्ठभूमि का भी चित्रण करते हैं। कथावस्तु की पृष्ठभूमि में जे.पी. आंदोलन और आपातकाल के दौर की चर्चा है और इसी क्रम में वे संकेत करते हैं कि हिंदुत्व की राजनीति करने वाला दल पहली बार भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण रूप में उभरा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सक्रियता का वर्णन करते हुए पंकज ने भविष्य के हिंदू फासीवादी राजनीति का संकेत दिया है।

बाजार और वित्तीय पूंजी के दौर में जिस लंपट राजनीति का उभार हुआ उसका बड़ा सटीक चित्रण प्रभात रंजन की कहानी ‘फ्लैश बैक’ में मिलता है। इस में जिस बांके भाई का वर्णन हुआ है वह स्थानीय स्तर का एक छुटभैया नेता है जिसने राजनीति को धंधे में बदल दिया है। यह चरित्र जे.पी.आंदोलन के बाद राजनीति में उभरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। सदी के अंतिम दौर में राजनीति जिस प्रकार धन उगाही के धंधे के रूप में सामने आई उसकी शुरुआत उसी दौर में हो गई थी जो सदी के अंतिम दशक तक आते-आते पूरी तरह गलाजत का शिकार बन गई। जन आंदोलन भी एक विकट तमाशे में तब्दील हो गया है। कहानी का नैरेटर भी बांके भाई का शिष्य बनकर राजनीति में इसलिए जाना चाहता है ताकि पैसे कमा सके । वह योजनाएं बनाता है कि अगर स्थानीय स्तर का भी नेता बन जाय तो टाटा सफारी नहीं तो कम से कम टाटा सुमो तो ले ही लेगा। मेडिकल में छात्रों को दाखिले दिलवाकर पैसे कमाएगा। यही राजनीतिक पीढ़ी आज लोकतंत्र पर छाई हुई है और जो थोड़े से मूल्य वगैरह की बातें करने वाले राजनेता हैं भी तो उन्हें लगातार अप्रासंगिक बनाया जा रहा है। इस कहानी में प्रभात राजनीतिक अधोपतन के विभिन्न विंदुओं को सामने लाते हैं।

भारतीय राजनीति में पिछले बीस-पच्चीस सालों के दौरान जो उल्लेखनीय परिवर्तन घटित हुए हैं उनमें सिविल सोसायटी का चर्चा में आना एक महत्त्वपूर्ण घटना है। खास तौर से इधर अन्ना हजारे के राजनीति और नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन के समय से यह भारतीय राजनीति का प्रमुख विषय बन गया है। राजनीति के शास्त्रीय विवेचन में सिविल सोसायटी की क्या परिभाषा दी गई यहाँ उस पर चर्चा की कोई जरूरत नहीं है, मैं यहाँ भारतीय समाज में इसकी कथित क्रांतिकारी भूमिका की वास्तविकताओं के बारे में कुछ बातें करना चाहूंगा। यह वास्तव में उस मध्य वर्ग का आंदोलन है जो हमेशा अपने सुख- सुविधाओं के खोल में रहना चाहता है और भयानक रूप से यथास्थितिवादी होता है। जब इसके सुखवादी जीवन शैली में खलल पड़ता है तो यह सरकार से लेकर अपने इर्द-के पूरे वातावरण को गालियां देता है। जिसे आज सिविल सोसायटी कहा जा रहा वह वही मध्य वर्ग है जो भारत की आजादी के आंदोलन के दौरान एक ओर कांग्रेस के रचनात्मक कामों में हिस्सा लेता था तो दूसरी ओर बकौल बिपनचंद्रा; अंग्रेजों की बगल में बैठने के लिए लालायित रहता था। सिविल सोसायटी के आंदोलन में वही लोग थे जो व्यवस्था को बदलने के बजाय सत्ता परिवर्तन चाहते थे क्योंकि सत्ता भ्रष्ट हो गई थी। ये वही खाऊ और भकोसू लोग हैं जो भ्रष्टाचार के खिलाफ धरने से उठकर रामदेव बाबा के योग शिविर में चर्बी घटाने जाते थे। यह पूरी तरह आत्मनिष्ठ और आत्म मुग्ध वर्ग है जिसे इससे कोई मतलब नहीं है कि जिस विकास के लिए यह लालायित है उसके कारण कितनी बड़ी आबादी अपनी जर,जमीन से विस्थापित होकर महानगरों की भीड़ में गुम हो गई है। कैलाश वानखेड़े की कहानी ‘कंटीले तार’ इस सिविल सोसायटी की कथित क्रांतिकारिता की वास्तविकता को सामने लाती है।

यह गौर करने की बात है कि मध्य वर्ग की हिप्पोक्रेसी और सुविधा भोगी स्वभाव को केंद्र बनाकर नई कहानी के दौर में कई बेहतरीन कहानियां लिखी गई थीं जिनमें से कुछ तो निश्चय ही ऐतिहासिक महत्त्व की हैं; जैसे अमरकांत की ‘जिंदगी और जोंक’ अथवा भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावतज्। लेकिन कैलाश वानखेड़े की यह कहानी राजनीतिक बोध की दृष्टि से विशिष्ट किस्म की है जो बाजार और नई पूंजी के दौर में उदित नए मध्य वर्ग के वैचारिक खोखलेपन और संवेदनशून्यता को सामने लाती है। सिविल लाईंस में रहनेवाले अग्रवाल जी अपने अहाते के चारों ओर कांटेदार तार, बबूल कांटों वाली डालियां लगाते हैं ताकि उनकी कवच में सुरक्षित जिंदगी में कोई प्रवेश न कर सके। कांटे लगाते हुए अग्रवाल जी यह कल्पना करके रोमांच से भर जाते हैं कि कोई अनपेक्षित आदमी या जानवर जब इसमें घुसने की कोशिश करेगा तो कैसे उसकी देह छिल जायगी। उनके चरित्र के दोहरेपन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसी समय वे देश और समाज के लिए कुछ करने की लफ्फाजी भी करते हैं। आम लोगों को गर्मी में पानी पिलाने के लिए सार्वजनिक प्याऊ लगता है तो उन्हें लगता है कि यह लफंगई है मगर अस्पताल में गरीबों के बीच फल वितरण का आयोजन करके सामाजिक कामों का ढोंग करते हैं। सिविल सोसायटी का यह प्रतिनिधि चरित्र इतना प्रतिगामी और भेदभाव रखने वाला है कि अपनी ही बहनों को संपत्ति में हिस्सा देने के खिलाफ है। सिविल लाईंस की जगह सिविल सोसायटी लिखवाने की मंशा व्यक्त करने वाला यह आदमी कहता है कि आदमी आदमी होता है, औरत औरत। दोनों में जमीन आसमान का फर्क होता है।

ऐसी ही सिविल सोसायटी के उभार ने उस नई राजनीतिक संस्कृति को जन्म दिया है जिसके लिए विकास की अवधारणा बीस- तीस प्रतिशत उच्च और नव धनिक मध्य वर्ग के विकास में सिमट गई है। रणेन्द्र की कहानी ‘रात बाकी’ बाजार के दौर में आए विकास के इस दर्शन की असलियत सामने लाती है। सत्ता, माफिया और सवर्ण जातियों द्वारा किस प्रकार निम्न वर्ण और निम्न वर्ग के लोगों का दमन किया जाता है इसका विस्तार पूर्वक वर्णन उन्होंने इस कहानी में किया है। सवर्णों की सनलाइट सेना के द्वारा किए जाने वाले दलितों के नरसंहार के समर्थन में सरकार से लेकर नौकरशाही तक खड़ी हो जाती है। गौरतलब है कि यह एकरेखीय जाति संघर्ष नहीं है। इसमें नई पूंजी और जनविरोधी राजनीति भी मिली हुई है। इस नए यथार्थ के उलझे ताने-बाने को रणेन्द्र इस कहानी में स्पष्ट रूप में प्रस्तुत करते हैं।

पूंजी और राजनीति के नए गठजोड़ ने किसानों, मजदूरों के संघर्ष को हाशिये में डाल दिया है। इसीलिए आज किसानों-मजदूरों के प्रश्नों को लेकर कोई बड़ा आंदोलन होता नहीं दिखाई देता है। खास तौर से भारतीय वामपंथ के अप्रासंगिक हो जाने के कारण इनकी पीड़ा को आवाज देने वाला अब कोई नहीं दिखाई देता है। वास्तव में भारतीय वामपंथ के अप्रासंगिक होने के लिए भारतीय वामपंथी खुद जिम्मेदार हैं क्योंकि इन्होंने मार्क्सवाद को एक धार्मिक आस्था में परिणत कर दिया। सिद्धांत और व्यवहार में कोई तालमेल बनाने की सार्थक कोशिश इन्होंने नहीं की और जुमलों, प्रतीकों में भटकते रहे जबकि व्यवहार की दृष्टि से समकालीन वामपंथी भी अन्य बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों की तरह ही हैं। राकेश मिश्र की कहानी ‘लालबहादुर का ईंजन’ इस पर प्रकाश डालने के लिए उपयुक्त कहानी है। गांव से विश्वविद्यालय के कैंपस में सपने लेकर आये एक सीधे आदमी का व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर वामपंथ की राजनीति करने वाले छात्र नेता शोषण करते हैं और बाद में जब पैसे के लिए मोहताज वह आदमी थोड़ी सी मदद माँगता है तो उसे धक्के मारकर निकाल दिया जाता है। इनके ढोंग और जुमलेबाजी का एक उदाहरण कहानी के इस प्रसंग से मिलता है कि लालबहादुर द्वारा घर से लाया गया घी सब कामरेड तहरी में डालकर खाते हैं और लफ्फाजी करते हैं कि हम जब अपने घरों में होते हैं तो दाल में एक चम्मच घी भी हमें सम्पन्नता लगती है और तहरी में पांच चम्मच घी हमें यहाँ ऐसे ही लग रहा है जैसे यह तो सामान्य है। यह हमारी वर्गीय चेतना का उन्नयन है क्या? इसके बाद सबकी हँसी फूट पड़ती है। यह छोटा सा प्रसंग यह बतलाने के लिए काफी है कि मार्क्स के सिद्धांत को समकालीन मार्क्सवादियों ने किस प्रकार हास्यास्पद बना दिया है।

इस लेख के लिए जिन कहानियों का चयन किया गया है उनके अलावा भी कई कहानियां ऐसी हो सकती हैं जिन पर चर्चा हो सकती थी। लेकिन इनके चयन को लेकर मेरी दृष्टि यह थी कि अलग-अलग समय में लेखन के क्षेत्र में आए कथाकारों के राजनीतिक बोध को, खास तौर से समकालीन राजनीति के प्रति उनके दृष्टिकोण को समझा जा सके। इनमें कुछ कहानीकार ऐसे हैं जिनकी राजनीतिक चेतना का निर्माण इमरजेंसी के समय में हुआ है और कुछ ऐसे कथाकार हैं जिनकी राजनीतिक दृष्टि उदारीकरण और विश्व बाजार में भारत के शामिल होने के बाद हुई है। समकालीन यथार्थ के आलोक में इनकी राजनीतिक दृष्टि भले ही समान मालूम पड़े किंतु यथार्थ को बरतने के तरीके में फर्क है। इसी हिसाब से इनमें विचार और अनुभूति का आनुपातिक संबंध बनता है। इन कथाकारों की कहानियों का शिल्प अलग है पर एक खासियत है कि भाषा और शिल्प के स्तर पर इनमें अलग किस्म का ट्रीटमेंट दिखाई देता है जो पिछले दौर की राजनीतिक थीम पर लिखी गई कहानियों से इनकी कहानियों को अलग करता है।

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रचनाकार: अजय वर्मा / समकालीन कहानियों में राजनीतिक बोध / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
अजय वर्मा / समकालीन कहानियों में राजनीतिक बोध / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
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