बजरंग बिहारी तिवारी / दलित प्रेम कहानी का आशय / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1

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आलोचना बजरंग बिहारी तिवारी दलित प्रेम कहानी का आशय रचना के एक विषय-वस्तु के रूप में प्रेम के चयन का क्या अर्थ है? यह विषय-वस्तु (थीम) कृ...

आलोचना

बजरंग बिहारी तिवारी

दलित प्रेम कहानी का आशय

रचना के एक विषय-वस्तु के रूप में प्रेम के चयन का क्या अर्थ है? यह विषय-वस्तु (थीम) कृति पर, कृतिकार पर, पाठक समुदाय पर, आंदोलन पर क्या असर डालती है? इन प्रश्नों के समुचित जवाब कुछ समय बाद ही दिए जा सकेंगे। जब प्रेम केंद्रित रचनाओं की संख्या में वृद्धि होगी, उनकी गुणवत्ता में परिष्कार के कई प्रयोग होंगे, ऐसी रचनाओं को जांचने के प्रतिमानों का निर्माण होगा, आलोचना में प्रेम की थीम पर कुछ कसौटीगत सहमतियाँ बनेंगी, दलित आंदोलन में इस विषय पर बहस का स्वरूप थोड़ा और निथरेगा तब कहीं जाकर मूल्य-निर्धारक टिप्पणियां की जा सकेंगी। अभी सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि आंदोलनधर्मी साहित्य में प्रेम का आगमन परिवर्तन की मंशा का पूरक बनने जा रहा है। प्रेम की उपस्थिति दलित आंदोलन को उसकी समृद्ध परंपरा से जोड़ने का काम करेगी। इस परंपरा में एक तरफ तो ‘भवतु सब्ब मंगलम’ का उद्घोष है तो दूसरी तरफ सबके मंगल में अवरोधक मानव विरोधी ताकतों की पहचान है और उनके विरुद्ध अनमनीय संघर्ष चेतना है। शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति के प्रयास को मात्र भौतिक पक्ष तक सीमित रखने से उसकी पहुँच और सफलता संदिग्ध रहती है। इससे एक नैतिक खोखल का निर्माण होता है। धर्म (बेशक वह बौद्धधम्म क्यों न हो) इस खोखल को ढंकने का काम करता है। उसके रिचुअल्स खोखल का प्रकटीकरण स्थगित करते रहते हैं, उसे हावी होने से रोकते रहते हैं। जो रिचुअल्स के पार देखने की शक्ति अर्जित कर लेता है उसमें अनिवार्यतः एक छटपटाहट जन्म लेती है। मध्ययुग में भक्ति ने इस छटपटाहट से निपटने की चेष्टा की थी। लेकिन, बहुत जल्दी भक्ति का अपना कर्मकांड विकसित हो गया। फिर यह विकल्प भी रीत गया। समय के आर-पार देखने की क्षमता वाले संत रविदास ने यह आशंका बिलकुल शुरू में ही भांप ली थी। उन्होंने इसीलिए प्रेम-भगति का विकल्प दिया। एक समय के बाद भक्ति सांचे में ढल सकती है, अपनी अर्थवत्ता खो सकती है मगर प्रेम को सांचे में नहीं ढाला जा सकता। उसे पुनर्नवा ही होते रहना है- ‘‘प्रेम भगति नहिं ऊपजै ताते जन रैदास उदास।’’ नैतिक खोखल से

उपजी उदासी से प्रेम ही बचा सकता है। संघर्ष-चेतना को वही कायम रख सकता है। धर्म के विरुद्ध भावना अध्यात्म की ओर ले जाती है। अध्यात्म उन्मुख व्यक्ति तनहाई की ओर जा सकता है, अकेलेपन का वरण कर सकता है। प्रेम में यह खतरा न्यूनतम है। वह अध्यात्म का सुरक्षित विकल्प है। प्रेम समुदाय से, संघर्ष के कारवां से जोड़े रखता है। जिजीविषा से भरी आंतरिकता प्रेम की बदौलत ही प्राप्त होती है। समृद्ध अंतस आत्मीयता रचता है। वह ‘अन्य’ के प्रति उदार बनाता है। उससे जुड़ने और उसे जोड़ने का परिवेश निर्मित करता है। प्रेम की नैतिकता के बगैर हम वर्चस्व की किसी न किसी संरचना- प्रतिउपनिवेशवाद, नवसाम्राज्यवाद, बाजारवाद, लिंगवाद, प्रजातिवाद, उलट-जातिवाद, वर्गवाद में फंसे रहते हैं। हम ताउम्र एक वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष करते हुए दूसरे वर्चस्व को अनदेखा करते रह सकते हैं। उस वर्चस्व का मुखर समर्थन करते हुए भी देखे जा सकते हैं। कोई प्रभुत्व हमें तब नागवार लगता है जब वह हमारे स्वार्थ पर चोट करता है। प्रेम हमें इस संकुचित दृष्टि से मुक्त करता है। हम दूसरे के दुख के विरुद्ध, भले ही हमारा निजी स्वार्थ प्रभावित हो रहा हो, प्रेम की प्रेरणा से सन्नद्ध होते हैं। इससे हमें अपने अंध-बिन्दुओं को पहचानने की कूवत आती है। अपनी अस्मिता को अतिक्रांत करते हुए हम अपने सरोकारों का विस्तार करते हैं। तभी हममें यह सलाहियत आती है कि हम वर्चस्व की राजनीति को समग्रता में समझ सकें और न्याय की लड़ाई को सार्वभौमिक बना सकें, न्याय के दूसरे संघर्षों में भी शामिल हो सकें। जिस क्षण हम प्रेम करने का निर्णय करते हैं उसी क्षण हम वर्चस्व के विरोध में खड़े हो जाते हैं। जाहिर-सी वजह है कि वर्चस्व प्रेम को सहन नहीं करता। प्रेम स्वाधीनता का उद्घोषक है। वर्चस्व की संस्कृति के लिए आजादी नाकाबिले बर्दाश्त है। वह खुद को बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेती है। हिंसा की निरंतरता अपने साये में रहने वालों की प्रेम करने की क्षमता ही सोख लेना चाहती है। बहुधा सोख लेती है। तब बहुत से लोग खुद को या दूसरे को प्रेम करने में असमर्थ पाते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता कि प्रेम क्या हैं। ऐसे में प्रेम का अभ्यास स्वतंत्रता का अभ्यास बन जाता है। खोए हुए आत्म की पुनर्प्राप्ति का माध्यम प्रेम ही ठहरता है। आत्म की यह पुनर्प्राप्ति आंतरिक आलोचना से संपृक्त रहती है। जातिवादी दबंगई निजत्व का नाश करती चलती है। इस संस्कृति में खुद से प्रेम करना भी खतरे से खाली नहीं रहता। ऐसे में प्रेम करने का फैसला राजनीतिक जागरूकता की मांग करता है। स्वतंत्रता के अभ्यास की पीठिका के तौर पर। प्रभुत्व की कार्यप्रणाली समझने की जरूरत इसी समय महसूस होती है। अपनी जिंदगी, उसे निर्धारित करने वाली परिस्थितियां, थोपी गई पहचान आदि के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि का निर्माण प्रेम की मनोदशा करती है। प्रभुत्वशाली संस्कृति के जिन मूल्यों का आत्मसातीकरण हुआ है, उसे समझ पाने और उससे मुक्त हो पाने की प्रक्रिया अब प्रारंभ होती है। आतंरिक उपनिवेशीकरण से छुटकारा पाने की गुंजाइश बनती है। अन्य से नफरत और आत्मघृणा दोनों का आभ्यंतरीकरण साथ-साथ हो सकता है। इनसे मुक्त हुए बिना न सहज हुआ जा सकता है और न वैकल्पिक संस्कृति के बारे में सोचा जा सकता है। प्रेम यह दायित्व भी निभाता है। वह प्रेमी को अन्तःप्रज्ञा से संपन्न करता है। आत्मा पर लगे घाव पूरने शुरू होते हैं। पीड़ा से मुकाबला करने की शक्ति आती है। अन्य को पीड़ा न पहुंचाने की संकल्पात्मक वृत्ति निर्मित होती है। प्रेमपूर्ण समाज इसी बुनियाद पर खड़ा हो सकता है। संत रविदास ने इसे ही बेगमपुरा कहा है।

दलित प्रेम कहानी से हमारी वही मुराद है जिसकी रूपरेखा ऊपर देने की कोशिश की गई है। दलित स्त्री के परिदृश्य में आने से संभव हुई यह चर्चा जाति के साथ पितृसत्ता उन्मूलन के सवाल को गूंथकर ही आकार लेती है। वर्ग और पारिवारिक पृष्ठभूमि का मुद्दा भी इससे जुड़ा होता है। जो दलित रचनाकार सरोकारों के इस संश्लिष्ट विधान से जुड़े हुए हैं वहीं मुक्ति के साधन के रूप में प्रेम कहानी लिखने में सफल हो पा रहे हैं। बनती हुई स्त्री, उस स्त्री के व्यक्तित्व का सम्मान करने वाला नया पुरुष, खुद मुख्तार होने में दलित स्त्री की दुश्वारियां, अपने संस्कारों को पहचान कर उससे लड़ने वाला दलित युवा और स्त्री की बाड़ेबंदी करने वाले नए स्मृतिकारों की पहचान किए बिना अब सार्थक प्रेम कहानी लिखना मुश्किल है। अस्मितावादी विमर्श और मुक्तिकारी संघर्ष दोनों ही धाराओं से प्रेम कहानियां आ रही हैं। इनके बीच का फर्क समझना जरूरी है। यहाँ यह कह देना अभीष्ट है कि निकष बनने वाली प्रेम कहानियां नई पीढ़ी के रचनाकार ही दे रहे हैं। इन रचनाकारों में दलित स्ति्रयां अग्रिम पंक्ति में हैं।

‘नीला पहाड़ लाल सूरज’ कहानी में अनिता भारती ने एक स्थगित लेकिन नाजुक और महत्त्वपूर्ण मुद्दे को पूरी शिद्दत से उठाया है। यह है ग्लानि बोध जागृत करके आत्म प्रक्षालन कराना। अधिकार बोध की कहानियाँ अस्मिता विमर्श में केंद्रीय थीं। ‘अन्य’ को अवकाश देने का अवकाश नहीं था। एक प्रविधि के रूप में ग्लानिबोध की इस ‘डोमेन’ में कोई गुंजाइश नहीं थी। अनिता ने यह गुंजाइश बनाई। उनकी कहानी का नायक समर (गैर दलित) है। उसने प्रज्ञा से प्रेम विवाह किया है। यह प्रेम मजदूर आंदोलन में साथ-साथ काम करते पनपा है। विवाह के लंबे अरसे बाद समर के संस्कार उसके व्यक्तित्व पर दस्तक देते हैं। उसका पुरुष अहं प्रज्ञा को अपनी सेवा में न पा चोटिल होता है। सामाजिक कार्यों में प्रज्ञा की निरंतर भागीदारी समर को भन्नाए रखती है। वह उसके आचरण पर भी शक करता है। कहानी के उत्तरार्ध में विप्लव नामक पात्र की एंट्री समर को मौका देती है कि वह अपनी मनोरचना की छानबीन करे। अपने किए पर समर में पश्चाताप का उदय हुआ- ‘‘सोचते-सोचते समर ने खुद को कठघरे में पाया।...उसे प्रज्ञा पर गुस्सा क्यों आया?... उसकी उन्मुक्त बौद्धिकता, उसकी ईमानदारी, सच्चाई...वह इन गुणों की बहुत कद्र करता था। अब उसे इन्हीं गुणों से चिढ़ क्यों है?... आसपास की चुप्पी में गूँज रहे ये सवाल एक-एक करके दीवारों से टकरा के वापस आ रहे थे और समर को घायल कर रहे थे।... उसकी आँखों से ग्लानि बहने लगी थी।’’ मुक्तिकामी विमर्श के लिए यह ग्लानि बहुत मूल्यवान है। इससे विचारधारात्मक सांचावाद टूटता है।

हेमलता महिश्वर की कहानी ‘राग की रागी रागिनी’ दो भिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों से आए युवाओं के बीच पनपे प्रेम की कथा है। समीर ब्राह्मण परिवार से है और रागिनी शूद्र परिवार से। विश्वविद्यालय परिसर दोनों की जातिगत पहचान को पीछे रखकर उनके बीच स्वस्थ प्रेम को अंकुरित करता है। प्रेम का अंकुरण उस समय हो रहा है जिस समय जारसत्ता वाले और विमर्शकार फतवा दे रहे हैं कि ‘ब्राह्मण अपना दिल ब्राह्मण से लगाए और शूद्र शूद्र से।’ फतवे की अनुगूंज कहानी में भी है। परिवार और समाज से टक्कर लेते दोनों युवा साथ रहने का निर्णय लेते हैं। समीर को उचित ही नया नाम मिलता है- ‘राग’। वह डिप्टी कलेक्टर बनता है और रागिनी प्रोबेशनरी अफसर। समीर के पिता प्रतिशोध लेते हैं। समीर मनोचिकित्सालय में गुमनामी का जीवन काट रहा है। पच्चीस वर्ष से! एक अच्छी कहानी अविश्वसनीय बंद पर आकर समाप्त होती है।

चंद्रकांता की बड़ी संवेदनशील कहानी है ‘शेड्यूल कास्ट’। जिस नई दलित स्त्री की चर्चा की गई यह कहानी उसके निर्माण पर रोशनी डालती है। इसमें एक तरफ तो दलित स्त्री को छलने के लिए सवर्ण चालबाजियों का दर्शन कराया गया है दूसरी तरफ दलित परिवार में मौजूद पितृसत्तात्मक मूल्यों का रेखांकन हुआ है। कहानी की नायिका मीरा शिड्यूल कास्ट की है। इसका बोध उसे सातवीं कक्षा में सरकारी स्कूल में कराया जाता है। परिवार में मीरा दादी के पुरुषवादी रवैए का शिकार बनती है। युवती मीरा को ठगता है प्रेम का नाट्य रचने वाला अभिषेक तिवारी। जितना जरूरी विश्वसनीय चरित्रों को सामने लाना है उससे कहीं ज्यादा जरूरी अभिषेक जैसे छलिया पात्रों की पहचान कराना है। कहानी मीरा के आत्म-उन्मीलन पर आकर संपन्न होती है- ‘‘प्रेम की पीड़ा का उत्सव मनाने का समय अब नहीं था। वह तो अपने अस्तित्व की दीपशिखा को प्रज्ज्वलित कर रही थी।...सदियों से मन में सुलगता सूरज आज उसके चेहरे पर जो उग आया था।’’ दलित स्त्री के व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया को दर्शाने वाली एक और कहानी है प्रियंका शाह की ‘अश्रुधारा’। कहानी की नायिका अश्रु अध्यापिका है। सिलीगुड़ी नामक छोटे शहर में अकेली रहती है। लेकिन वह अकेली है कहाँ? अतीत का एक कचोटता प्रसंग उसके साथ रहता है। कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में नितिन और उसकी जोड़ी मशहूर थी। यह जोड़ी स्थायित्व प्राप्त करती इससे पहले नितिन के पिता सौम्यदीप मुखर्जी के जातिवादी मानस ने अपनी विध्वंसक भूमिका निभाई। विस्तार में न जाकर कहानी संकेतों में बहुत कुछ कह देती है। एक कौंध की तरह उसे एक दिन नितिन का ख्याल आता है। पिता द्वारा थोपी जिंदगी से मुक्त हो वह अश्रु की स्मृतियों के सहारे जीवन काट रहा है। अब अश्रु अपनी चुनी हुई तनहाई को घुला देने का निर्णय करती है। अपनी मितभाषिता में कहानी बड़ी मार्मिक बन पड़ी है।

दो वरिष्ठ कथाकारों- सुशीला टाकभौरे (‘वह नज़र’) और कावेरी (अंतर्द्वंद्व’) की कहानियां एक ढर्रे की हैं। ये कहानियाँ विवाह संस्था के परे जाकर प्रेम का परीक्षण करती हैं। इनमें एक साहसिक प्रयोगशीलता दिखाई देती है। ये प्रयोग दलित प्रेम कहानी का दायरा विस्तृत करते हैं। ‘वह नज़र’ की मुख्य पात्र एक कॉलेज में प्रोफ़ेसर है। उसकी क्लास का एक छात्र प्रोफ़ेसर से रागात्मक रिश्ता रखता है। यह आकर्षक से बढ़कर है। इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया जा सकता। नाम देने की मजबूरी भी नहीं है। औपचारिक संबंधों से मुक्त इस ‘प्रेम’ कहानी में निर्बंध बयार बही है। कावेरी ने शोध छात्रा शालु को केंद्र में रखकर कहानी रची है। किस्कू शादीशुदा आदिवासी अफसर है। पांच बेटियों और दो बेटों का पिता। सभी संतान बालिग़। आदिवासी संस्कृति पर अपने शोधकार्य के दौरान शालु किस्कू से मिलती है। उनमें प्रेम पनपता है- ‘‘इसमें बुराई क्या है? प्रेम को बुरा मनुष्य ने बनाया है। शुद्धता और जाति बंधन के नाम पर जकड़ दिया है। शालु को लगा प्रेम तो सहज स्वानुभूति है।’’ किस्कू पहले तो शालु की प्रेमाभिव्यक्ति पर मौन रहता है लेकिन कहानी के अंत में विवेकानंद और सिस्टर निवेदिता के अनाम (प्रेम) संबंध से आगे बढ़कर घोषणा करता है- ‘‘मैं समाज सेवा करूंगा। शालु देवी है उसकी पूजा करूँगा।।’’

कैलाश वानखेड़े बहुत संवेदनशील और सधे हुए कहानीकार हैं। उनकी कहानी ‘महू’ उच्च शिक्षा में पसरे जातिवाद को फोकस करती है। प्रज्ञा और नरेश दोनों दलित समुदाय से हैं। उनके बीच पनपता प्रेम जातिवादी हिंसा के खिलाफ आकार लेता एक अग्निधर्मी अभियान जैसा दिखता है। प्रज्ञा की क्लासमेट रागिनी सवर्ण मानस का विद्रूप चेहरा है। यह सवर्ण मानसिकता ही विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, इंजीनियरिंग, मेडिकल संस्थानों में दलित विद्यार्थियों की हत्याएं कर रही है। इन हत्याओं को आत्महत्या का नाम दिया जाता है। दलित युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में प्रज्ञा और नरेश बाबासाहेब की संघर्ष की विरासत को और गति प्रदान करना चाहते हैं। वे तहरीर चौक का विकल्प महू के रूप में देखते हैं। यह कहानी अपने सुगठित शिल्प के कारण भी यादगार बन पड़ी है।

रत्न कुमार सांभरिया वरिष्ठ पीढ़ी के सशक्त कथाकार हैं। वे पूरी तैयारी के साथ कहानियां लिखते हैं। उनका जितना ध्यान अंतर्वस्तु की तथ्यगत शुद्धियों पर रहता है उतना ही भाषा और शिल्प के रचाव पर। उनकी कहानी ‘भैंस’ कथ्य और शिल्प के उत्कृष्ट संतुलन का उल्लेखनीय उदाहरण है। प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ के हीरा मोती अपने मालिक झूरी काछी के प्रति जो प्रेम रखते हैं कुछ वैसा ही इस कहानी की भैंस अपने राखनहारे मंगल या मंगला के प्रति रखती है। लेकिन, यह कहानी मात्र मंगल और भैंस की प्रेम-कथा नहीं है। पूरी कहानी में अनुपस्थित रहकर सोनवा मंगल के जीवन का संबल बनी रहती है। पारंपरिक शब्दावली में यह प्रेम ‘पूर्वराग’ कहा जाता है। किसी से सुनकर, दूत-दूती के जरिए प्रस्ताव पाकर, सौंदर्य चर्चा से या चित्र देखकर नायक या नायिका के चित्त में जो आकर्षण पैदा होता है वह पूर्वराग कहा जाता है। माता-पिता विहीन, ठिगने कद का, सबसे उपेक्षित पचीस वर्षीय मंगला बिरादरी की एक भाभी समझी का स्नेहपात्र बनता है। भाभी की मंशा मंगला का घर बसाने की है। अपनी छोटी बहन सोनवा से उसका ब्याह करके। यह उम्मीद मंगला के जीवन को एक दिशा देती है। उसके मन में घुमड़ते भावों का चित्रण कहानीकार ने बड़ी कुशलता से किया है। पूर्वराग मिलन तक नहीं पहुंचता। यह अभीष्ट परिणति है भी नहीं। मंगला की नई ब्यायी भैंस को गाँव का लंबरदार हड़प लेना चाहता है। मालिक को तड़फता देख भैंस प्रतिरोध का मोर्चा संभालती है। यह प्रतिरोध-कथा बहुत प्रभावशाली बन पड़ी है। सांभरिया ने स्वाभाविकता का पूरा खयाल रखा है। कहानी प्रेम के दायरे का विस्तार करती है।

मोहनदास नैमिशराय ने ‘स्वप्नदर्शी’ कहानी में फेसबुकिया प्रेम की कथा कहनी चाही है। कहानी विश्वसनीयता की बहुत परवाह नहीं करती। पेशे से इंजीनियर समीर का संपर्क शर्मिला कुलश्रेष्ठ से होता है। संपर्क तत्काल प्रेम में तब्दील होता है। बिना मिले! शर्मिला ब्राह्मण है और समीर की जाति जानने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं! दोनों पहली बार दिल्ली के कनाट प्लेस के इनर सर्कल में मिलते हैं। प्रोफाइल पिक्चर से मिलान करते-करते वे एक-दूसरे का नाम पूछते हैं। नाम जानने के बाद लेखक अपने नायक को पारंपरिक भूमिका में उतार देता है- ‘‘उसने उसे बांहों में ले लिया। शर्मिला बदहवाश-सी उसकी बांहों में क्षण भर में कैद हो गई। उसका शरीर कसमसाने लगा। ...बीस बरस के कुंवारे बदन को किसी ने पहली बार छुआ था।’’ शर्मिला को बेशक नायक की जाति की परवाह न हो लेकिन डीएसपी पद से रिटायर ब्राह्मण पिता धनसिंह को कैसे नहीं होगी! समीर की जाति का पता लगाकर धनसिंह लोकल थाने में एफआइआर करता है, उसके बॉस को फोन करके नौकरी से निकलवाने की चेष्टा करता है और उसी रात गुंडे भेजकर समीर को गंभीर रूप से घायल करवा देता है। कहानी का अंत धनसिंह की गिरफ्तारी से होता है। माडल टाउन थाने का सब-इंस्पेक्टर उच्च शिक्षित ओहदेदार समीर से जिस लहजे में पूछताछ करता है उससे पता चलता है कि न तो उसे अपनी नौकरी की चिंता है और न ही जेल जाने की- ‘‘तेरी हिम्मत कैसे हुई एक दलित होकर ब्राह्मण लड़की से प्रेम करने की ?’’ विचित्र यह भी कि इसी इलाके के एस.पी. उसके बड़े भाई के खास मित्र हैं! अस्मितावादी विमर्श से कहानी इसी तरह गढ़ी जाती है।

अजय नावरिया की कहानी ‘याचनापत्र’ प्रेम का आभास कराती है। पहली नजर में ऐसा लगता है कि आत्मकथात्मक शैली में लिखी इस कहानी का नायक सच्चे प्रेम की तलाश में है। उसकी जिंदगी में सुचरिता राय के आने से यह तलाश पूरी होती प्रतीत होती है। वॉट्सएप और फेसबुक में डोलते हुए प्रेम का परिपाक होना है। मगर यह ‘परिपाक’ बिलकुल नए तरीके से होता है। कथानायक का परिष्कार और परिमार्जन करते हुए। उसे सभ्य बनाते हुए। संभावित परिष्कार से पहले की परिष्कृति का आलम यह कि नायक अपनी ‘परफेक्ट मिसमैच्ड’ पत्नी अंजलि की काया पर सुचरिता राय को सुपरइम्पोज करता है। अंजलि को इसकी भनक नहीं लगती- ‘‘आह यह (मेरी) कैसी मनोलीला थी! वह बेचारी मुझे अपने साथ समझ रही थी और मैं...’’ सुचरिता से टेलीपैथी की आशा लगाए नायक पूछता है- ‘‘पता नहीं तुम्हें पता भी चला था कि नहीं...महसूस हुआ था क्या? पत्नी को भी नहीं पता चला। वह तो इस कदर आनंदमग्न थी कि जैसे धन्य थी। कहा भी था उसने ‘भीषोन’...’’ नायक उदार है। वह दलित है लेकिन प्रेम में जाति-पांति नहीं देखता। दूसरी तरफ दलित लड़कियां जाति देखकर प्रेम करने या न करने का निर्णय करती हैं। इस ‘तथ्य’ को कहानीकार अपने नायक के अनुभवों से साबित करता है। नायक का एक द्विज मित्र है। वह कुसुम के पीछे दौड़ रहा है जबकि कुसुम, ‘‘वह मुझे पसंद करती थी। शुरू में मुझे इसका सिर्फ संदेह था, जो महीने भर में स्पष्ट हो गया कि वह मुझे प्रेम करती है। उसने साफ शब्दों में कहा कि वह मुझसे शादी करना चाहती है।’’ नायक अपनी पारिवारिक/वैवाहिक स्थिति कुसुम को बता देता है। ‘‘इसके बाद भी वह पीछे नहीं हटी।’’ कुसुम के लिए अपशब्द बोलते श्रीकांत को वह चुनौती देता है- ‘‘तुम या तुम्हारा कोई सवर्ण दोस्त उससे शादी क्यों नहीं कर लेता?’’ नायक में विलीन होने के लिए फिर नई युवती आती है। नाम है सिमरन। सिर्फ सिमरन नहीं, सिमरन रंधावा। नायक यहां भी कुछ छिपाता नहीं। बता देता है कि उसकी जिंदगी में पहले से एक पत्नी और बेटी है। सिमरन को इससे कोई दिक्कत नहीं। वह अंजलि को अपनी बड़ी बहन मान लेती है। नायक के मन में उठते हिलोर को इस तरह शब्द मिलते हैं- ‘‘आह, अब भी इतनी चमक बची है मुझमें! कैसी गोरी गट्ट और मजबूत लड़की। कई आशिक होंगे इसके पीछे - और ये मेरे पीछे दीवानी हो रही है!’’ इस ‘आकुल प्रेम’ के बावजूद नायक उसे अपनी जिंदगी में नहीं लाता। उसकी स्वीकारोक्ति है- ‘‘यकीनन, सिमरन मुझे ऐसी कभी नहीं लगी कि मैं इतना बड़ा दांव लगा सकूं... सामाजिक प्रतिष्ठा, बेटी और पत्नी।’’ इस डराते प्रेम का अंत नायक सिमरन को फेसबुक पर ‘अनफ्रेंड’ करके करता है। परास्त होती सिमरन आखिर में राज़ खोलती है कि वह ‘‘रंधावा सरनेम लगाती जरूर है पर वह किसी अनुसूचित जाति से है।’’ नायक इस संबंध को खतम करके भी खतम नहीं करता। संकट के बाद सुरक्षित उतरते हवाई जहाज में वह नीम बेहोशी की हालत (‘ट्रांस’) में चला जाता है। यहां उसे एक-एक कर सभी प्रेमिकाएं मिलती हैं- कुसुम, सिमरन और सुचरिता। उसकी सहयात्री सिमोना बगल में बैठी है। गोद में बच्ची लिए सिमरन आती है- ‘‘अगले जन्म में बस मुझे आप ही का होना है...’’ यह कहानी प्रेम के लिए नहीं, अपने कौतुक और भाषा में रवानी के लिए याद की जा सकती है। आत्मरति को प्रेम का नहीं, आत्ममुग्धता का ही पर्याय माना जा सकता है।

डॉ. पूरन सिंह की कहानी ‘एक और सावित्री’ पौराणिक प्रतीकों और विश्वासों का ‘सदुपयोग’ करते हुए बनी है। नीलेश जाति से भारद्वाज (ब्राह्मण) है और सरस्वती सफाई कामगार समुदाय से हैं। साथ पढ़ते उनमें प्रेम विकसित होता है। विवाह का प्रस्ताव नीलेश करता है लेकिन पिता गजेन्द्र भारद्वाज की जात्याभिमानी जिद के समक्ष समर्पण कर देता है। इस समर्पण में सरस्वती का सहयोग और स्वीकृति है। उसकी शादी सुनयना से कर दी जाती है। शादी के बाद नीलेश स्वस्थ नहीं रहता। सरस्वती से बिछोह उसे खाए जा रहा है। माता-पिता भी अब अप्रकट रूप में पछता रहे हैं। नीलेश एड्स की चपेट में आ गया है। सुनयना उसे छोड़कर दूसरा घर बसा लेती है। फिर उसके जीवन में सरस्वती की वापसी होती है। उसे आया देखकर गजेन्द्र अपराधबोध में डूबकर बोलते हैं- ‘‘बेटी सरस्वती, मेरा अपराध यूं तो क्षमा करने योग्य नहीं है लेकिन हो सके तो मुझे माफ़ कर देना। मेरा नीलेश सत्यवान की तरह है। अब अगर तुम सावित्री बनना चाहती हो तो मैं कौन होता हूँ तुम्हें रोकने वाला।’’ अपनी सरलता में यह कहानी अंतरजातीय विवाह का पक्ष लेती है और प्रेम को गोत्र-बंधन से ऊपर रखती है।

शुद्ध विमर्श की कहानी है बिपिन बिहारी की ‘प्रेम की बुनियाद’। किसी महाविद्यालय के किसी डिपार्टमेंट में लगभग सारी फैकल्टी ब्राह्मणों की है। इस विभाग के प्रोफ़ेसर हैं- सुमधुर मिश्रा, अचरज पांडेय, अजुध्या पाठक, संज्ञा शुक्ला, संपदा मिश्रा। एक मात्र दलित शिक्षक हैं संतराम। सभी प्रोफ़ेसर संतराम की जाति जानने के लिए संघर्षरत रहते हैं। घोर जातिवादी समाज में इस संघर्ष का विफल रहना आश्चर्य में डालता है। ज्ञानदा ठाकुर नई ब्राह्मण प्रोफ़ेसर बनकर आई हैं। सभी विभागीय पुरुषों की नज़र उन पर है। संकट में संज्ञा शुक्ला हैं। सुमधुर मिश्रा अब उनसे मुंह जो चुरा रहे हैं। ब्राह्मणों का विभाग है इसलिए सेक्स के अतिरिक्त और कोई चर्चा नहीं होती- ‘‘पचास भी सेक्स के लिए माकूल उम्र होती है। पत्नी मेनोपोज हो गई हैं क्या...’’ विभाग में सिर्फ संतराम थे जिनका ‘‘इन सारी बातों से कोई सरोकार नहीं था।’’ कहानीकार ‘‘ब्राह्मणी आदर्श का एक नमूना’’ संज्ञा-ज्ञानदा संवाद के माध्यम से प्रस्तुत करता है- ‘‘मैं छिनाल तो तुम भी छिनाल।’’ ज्ञानदा ‘खेली-खाई’ सबके लिए सुलभ हैं। उनकी ‘‘भौगोलिक स्थिति’’ का बयान कहानीकार इस तरह करता है- ‘‘हिमालय की चोटियों सी उसकी छातियां, चोटियां दुपट्टे से बेखबर, होंठों की लाली इस तरह लग रही थी जैसे पके हुए आम के छिलके उतार दिए गए थे। और-और भी बहुत कुछ दर्शनीय था जिसे देखकर पुंसत्व से विकलांगों के भीतर भी कुछ-कुछ अंकुराने लगता।’’ ज्ञानदा ठाकुर प्रेम की बुनियाद देह को मानती है और रहस्योद्घाटन करती है कि संतराम उससे प्रेम करने लगे हैं! संतराम प्रेम और शरीर को अलगा कर देखने के हिमायती हैं। ज्ञानदा संतराम से कहती है- ‘‘यदि आप चाहें तो कहीं भी सुलभ हो सकती हूं।’’ भौंचक संतराम प्रेम को शरीर से अलगाने की बात करते हैं और इस तरह ज्ञानदा से अपना अशरीरी प्रेम बताते हैं। ज्ञानदा का जवाब है- ‘‘लेकिन मैं नहीं, मैं आपसे प्रेम नहीं कर सकती। कहिए तो मैं अपने भूगोल के साथ आपके समक्ष उपस्थित हूँ।’’

हीरालाल राजस्थानी की कहानी ‘हड्डल’ दो भिन्न वजहों से उल्लेखनीय और महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है। यह शायद पहली कहानी है जो कला महाविद्यालय में पहुंचे दलित विद्यार्थियों का चित्र उकेरती है। दूसरी वजह यह कि कहानी पुरखुलूस ढंग से आतंरिक जातिवाद का मुद्दा उठाती है। रचित और तूलिका डिपार्टमेंट ऑफ़ फाइन आर्ट्स के विद्यार्थी हैं। दोनों दलित समुदाय से। दीर्घ साहचर्य उनमें प्रेम उपजाता है। रचित कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से है जबकि तूलिका की पारिवारिक पृष्ठभूमि किंचित बेहतर है। रचित की मां मजदूरी करती हैं। पिता नहीं रहे। दोनों विवाह करना चाहते हैं। इसमें कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। मगर बाधा है, विकट बाधा। बाधा यह कि रचित खटीक जाति का है जबकि तूलिका जाटव। रचित अपनी मां को समझाता है, दोनों पक्ष शिड्यूल कास्ट के हैं, यह तर्क देता है। मां पर इसका कोई असर नहीं होता। वह उलटे बेटे को डांटती है- ‘‘अरे तू पागल हो गया है जो अपना धर्म भ्रष्ट करने पर तुला है!’’ दूसरी ओर तूलिका के घर वाले उसकी पिटाई करते हैं और उसे घर में ही कैद कर लेते हैं। जातिवादी समाज में प्रेम कितना आत्मघाती है, कहानी इस तथ्य को बखूबी उजागर करती है।

कैलाश चंद चौहान की पहचान मंजे हुए कहानीकार के तौर पर उभर रही है। उनकी कहानी ‘प्यार जिसे कहते हैं’ पुरुष मानसिकता का उद्घाटन करती है। प्रेम के जिस सिलसिले को पुरुष जीवन की स्वाभाविक गति बताकर स्वीकार्य बनाता है, रंचमात्र भी वैसी छूट स्त्री को नहीं देना चाहता। आत्मकथात्मक शैली में लिखी कहानी का नायक दलित समुदाय से है। उसके जीवन में पहली बार पारुल आती है। कॉलेज के दिनों में। पारुल खुद ही विवाह का प्रस्ताव रखती है। कथा नायक की मां को कोई दिक्कत नहीं लेकिन पिता इस संबंध को मंजूरी नहीं दे सकते। पारुल की जाति ब्राह्मण जो है! मजबूर नायक का विवाह शिखा से हो जाता है। वह दो बच्चों का बाप है। पत्नी से बेतरह प्रेम करता है। ऑफिस आते-जाते उसका परिचय मान्या से होता है। मान्या भी नौकरीपेशा है और इस अर्थ में स्वतंत्र। नायक उससे प्रेम करने लगता है। पहल यद्यपि मान्या ही करती है। दोनों इस प्रेम को विवाह में नहीं बदलते। इधर शिखा नायक की सहमति से एक एन.जी.ओ. ज्वाइन कर लेती है। हफ्ते में दो दिन जाना है। एक शाम उसे लौटने में थोड़ी देर हो जाती है। नायक की उद्विग्नता तब चरम पर पहुँचती है जब वह अपने घर के छज्जे से शिखा को कार से उतरते और कार चालक एनजीओ के मालिक पुष्पेंद्र को विदा करते देखता है। इधर मान्या का फोन लगातार आ रहा है उधर नायक का मूड उखड़ चुका है। प्रेम की ‘स्वाभाविक’ शृंखला चरमरा चुकी है।

प्रेम के विविध पक्षों को प्रस्तुत करने वाली, स्त्री-पुरुष संबंधों में निहित वर्चस्व की अनगिनत परतों का संज्ञान लेने वाली, प्रेम-नैतिकता और आत्मोन्नयन के रिश्ते पर ध्यान दिलाने वाली, आत्मविस्तार की जरूरत महसूस कराने वाली, वर्ण-जाति सरंचना में अनुस्यूत पितृसत्ता को चिन्हित करने वाली, परिवार की जनतांत्रिक पुनर्रचना की आवश्यकता का प्रश्न उठाने वाली तथा खुद को पहचानती, रचती नई दलित स्त्री और उसके साथ नए ‘जेंडर सेंसिटिव’ दलित युवा को सामने लाने वाली नए दौर की ये कहानियां बहुत मूल्यवान हैं। ये दलित लेखन के विस्तृत होते सरोकारों का सबूत देती हैं और बताती हैं कि इस समाज का आमूल नवनिर्माण उनका भी दायित्व है।

इसके साथ अस्मितावादी विमर्श से निकली हुई वे कहानियां भी विचारणीय हैं जो अपने सीमित उद्देश्यों के कारण जाति के ढाँचे को स्थाई मानकर कथाभूमि का निर्माण करती हैं। प्रेम जिनके लिए एक बहाना भर होता है। कुंठित यौन दृष्टि जिसके आवरण में छिपकर अपना पोषण करती है। स्त्री को देह तक सीमित कर देने वाली उनकी सोच पारंपरिक मर्दवादियों से कतई भिन्न नहीं है। परिवार से लेकर व्यापक समाज तक जो न्याय, समता और मुक्ति की स्थापना करने में लगे हैं उन्हें इस चुनौती का भी संज्ञान लेना होगा।

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: बजरंग बिहारी तिवारी / दलित प्रेम कहानी का आशय / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
बजरंग बिहारी तिवारी / दलित प्रेम कहानी का आशय / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
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