काव्य जगत किशन स्वरूप दफ्न थी जो यहां अस्थियां खो गईं नाम जिन पर लिखा पट्टियां खो गईं बन गई क्या जरा-सी सड़क गांव की फिर कहां सारी ...
काव्य जगत
किशन स्वरूप
दफ्न थी जो यहां अस्थियां खो गईं
नाम जिन पर लिखा पट्टियां खो गईं
बन गई क्या जरा-सी सड़क गांव की
फिर कहां सारी पगडंडियां खो गईं
हौसले ने दिखाई सही मंजिलें
अज्म था, इल्म, बैसाखियां खो गईं
वक्त चिट्ठी-रसा ही रहा उम्रभर
क्या करें जो कभी चिट्ठियां खो गईं
एक परचम फकत रह गया हाथ में
चंद नारे लिखी तख्तियां खो गईं
आज बौने हुए बरगदों की दशा
छांव में धूप की चिंदियां खो गई
उठ गया हाकिमों से भरोसा 'स्वरूप'
सारी फरियाद की अर्जियां खो गईं
सपर्कः 108/3, मंगल पांडेय नगर, मेरठ-25004
दूरभाष : 0121-2603523, 9837003216
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नजीर कैसर
तंग हुई जाती है जमीन इन्सानों पर.
काश कोई हल फेर दे कब्रिस्तानों पर.
अब खेतों में कुछ भी नहीं पानी के सिवा,
ये कैसी रहमत बरसी दिहकानों1 पर
कभी-कभी तनहाई में यूं लगता है,
जैसे किसी का हाथ है मेरे शानों2 पर
मैं वो पिछले पहर की हवा का झोंका हूं,
दस्तक देता फिरे जो बन्द मकानों पर.
कभी तो चाप मिलेगी आती सदियों की,
कान धरे बैठा हूं गये जमानों पर.
1. किसानों, 2. कन्धों
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डॉ. मधुर नज्मी की दो गजलें
जबां से तंज का जो लोग नश्तर छोड़ जाते हैं
चले जाते हैं लेकिन घाव दिल पर छोड़ जाते हैं
बुहत ही दर्द होता है बड़ी तकलीफ होती है
बुढ़ापे में जवां बच्चे अगर घर छोड़ जाते हैं
समझना बाग के हालात को मुश्किल नहीं होता
जब अपना आबो-दाना भी कबूतर छोड़ जाते हैं
हमारा नाम दुनिया में हमेशा जिन्दा रहता है
कुछ ऐसे कारनामें हम सुखनवर छोड़ जाते हैं
न जाने दिल से क्यूं मजबूर होकर करते हैं हिजरत
बड़े बनते हैं जो वो गांव अक्सर छोड़ जाते हैं
बदल लेते हैं राहें हमसफर अपने सफर में जब
दिले-नाजुक पर गम का एक पत्थर छोड़ जाते हैं
सियासत ने जमाने में बिछाया जाल कुछ ऐसा
वफा का रास्ता अब खुद ही रहबर छोड़ जाते हैं
हजारों प्रश्न हैं इस जिंदगी के ऐ 'मधुर' लेकिन
हम अपनी खामुशी में कितने उत्तर छोड़ जाते हैं
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दौरे-हाजिर का ये अंदाज तबाही देगा
हक में मुजरिम के जो मुंसिफ ही गवाही देगा
दोस्तों! बुग्ज के शोले का 'रिहर्सल' रोको
बढ़ गया हद से तो यह सिर्फ सियाही देगा
मेरी फितरत में नहीं कुछ भी भलाई के सिवा
दिल तो दरवेश है जब देगा दुआ ही देगा
मैं भी सहरा हूं मगर इतना यकीं है मुझको
रेगजारों में भी वो सब्जा उगा ही देगा
इसलिये लोग लगाते हैं कलमकार से लौ
कुछ भी दीप महब्बत के जला ही देगा
दोस्ताने का भरम टूटना कुछ ठीक नहीं
दोस्त, दुश्मन जो बनेगा तो दगा ही देगा
लाख दुश्वारियां आ जायें मुकाबिल उसके
इक कलाकार जमाने को कला ही देगा
कत्ल का बोझ मगर दिल से न उतरेगा. 'मधुर'
यूं तो वो खून के धब्बे को मिटा ही देगा
सम्पर्कः महानिदेशक, 'काव्यमुखी साहित्य-अकादमी',
गोहना, मुहम्मदाबाद, जिला-मऊ (उ.प्र.)-483332
मोः 09369973494
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रमेश कुमार सोनी की कविता
बच्ची के नाम का नमक
बच्ची जिस निगाह से
तुम्हें देखती है,
तुममें इतनी शक्ति नहीं कि-
तुम उन्हें
उनकी ही तरह से देख सको
ऐसा सिर्फ
एक मां ही कर सकती है.
अल्ट्रासाउण्ड संग
जब चमकती हैं मर्द आंखें
तब उग आते हैं
सांत्वना और समझौते के
ढांड़स भरे शब्द,
विजयी मुद्रा में
खुश हो जाते हैं
खुराफातों के जल्लाद से
मिठाई को तरसते लोग
जो दबा देते हैं-
एक मां की आवाज
क्योंकि तुम जैसे तथाकथित मर्द
सिर्फ मारना जानते हैं
जबकि माताएं सिर्फ
जन्म देना जानती हैं-
संतानों संग मुस्कुराहट
ताकि बची रहे-
तुम्हारी ही इज्जत और
मर्यादा वाली मर्द दुनिया.
भगवान जैसी संतानें
पवित्र मन संग खुशियों का
पिटारा लिए आते हैं
मकान को पूरा घर बनाने
वैसे भी बिना बच्चियों के
मकान
घर कहां कहलाते हैं?
माताएं उनसे माफी भी
नहीं मांग सकतीं
क्योंकि वह खाती-पीती थीं
बच्ची के नाम का
निवाला, घूंट और नमक,
माताएं मरने से पहले तक
निकाल ही लेती हैं
'ठलहा बेरा' उनसे बतियाने.
बच्ची सदा जिंदा रहती है
भ्रूण में मार देने के बाद भी
मां के आंचल में
सिसकी भरते, आंसू बहाते
अजन्मी बेटी की स्मति भी
मां की कब्र तक साथ जाती हैं
विलुप्त होती जा रही हैं माताएं!!
अल्ट्रासाउण्ड गिन रहा है-
एक हजार में कहीं
छः सौ, चार सौ तो कहीं..
जिस दिन ये गिनती
शून्य पर टिकेगी
उस दिन शुरू होनी गिनती
अल्ट्रासाउंड और मर्दों की दुनिया का
अजन्मी बेटी के नमक का कर्ज
मर्दों की दुनिया पर
बहुत भारी पड़ेगा...
सम्पर्कः जे.पी. रोड, किसान राईस मिल के पास,
बसना, जिला-महासमुद-493554 (छ.ग.)
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अशोक अंजुम के दोहे
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे तार हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में सन्तूर
मधुमय बंधन बांधकर, कल लौटी बारात
हरी कांच की चूड़ियां, खनकीं सारी रात
आवेदन ये प्रेम का, प्रिये! किया स्वीकार
होठों के हस्ताक्षर बाकी हैं सरकार
मिले ओंठ से ओंठ यूं, देह हुई झनकार
सहसा मिल जाएं कभी, बिजली के दो तार
आमंत्रण देता रहा, प्रिया तुम्हारा गांव
सपनों में चलते रहे, रात-रात भर पांव
प्रिये तुम्हारा गांव है, जादू का संसार
पलक झपकते बीततीं, सदियां कई हजार
प्रिये तुम्हारे गांव की, अजब-निराली रीत
हवा छेड़ती प्रेम-धुन, पत्थर गाते गीत
तोड़ सको तो तोड़ लो, तुम हमसे संबंध
अंग-अंग पर लिख दिए, हमने प्रेम-निबंध
कौन पहल पहले करे, चुप्पी तोड़े कौन
यूं बिस्तर की सलवटें, रहीं रात-भर मौन
धूल झाड़कर जब पढ़ीं, यादों जड़ी किताब
हर पन्ने पर मिल गए, सूखे हुए गुलाब
खुशबू से मर भर गया, खिले याद के फूल
मैं तुम में गुम हो गया, तोड़े सभी उसूल
रोम-रोम झंकृत करे, प्रिया तुम्हारी याद
चलो अभी करते रहें, सपनों में संवाद
सारे के सारे मिले, जो भेजे पैगाम
जब-जब आई हिचकियां, लिया आपका नाम
कैसे लगे समाधि अब, कैसे कम हो भार
राग-रंग ले मेनका, खड़ी हृदय के द्वार
कहना था हमको बहुत, शब्द हुए सब मौन
आंखों के संवाद को, देखें रोके कौन
रात गई करवट लिए, हुई रसपगी भोर
खुली खिड़कियां आपकी, मन में उठीं हिलोर
अरे वक्त! दे तो जरा, पल-भर की विश्राम
पगले लिखना है मुझे, पत्र प्रिया के नाम
लोग लगे जब बांटने, पग-पग पर अंगार
मूरत निकला बर्फ की, तेरा-मेरा प्यार
रथ के पीछे धूल थी, आंसू भीगे गाल
ख्वाबों में मिलते रहे, रेशम के रूमाल
भोला देवर क्या करे, दौड़े सुबहो-शाम
छोटी भाभी मांगती, फिर-फिर खट्टे आम
निभ पाता कैसे भला, तेरा-मेरा प्यार
तेरे-मेरे बीच थी, 'मैं' की इक दीवार
आमंत्रण था आंख में, किंतु होंठ थे मौन
समय रुका किसके लिए, दोषी बोलो कौन
सपर्कः अभिनव प्रयास,
गली-2, चन्द्रविहार कॉलोनी (नगला डालचंद)
क्वारसी बाईपास, अलीगढ़-202001(उ.प्र.)
मो. : 09258779744
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केशरी प्रसाद पांडेय 'वृहद' की कविता
डर
अब,
डर एकान्त में भी लगता है.
भीड़ में भी,
स्तब्धता में भी, कोलाहल में भी.
डर अब छाया की भांति
साथ-साथ चढ़ता है.
निरन्तर पीछा करता है.
ऐसा प्रतीत होने लगा है
डर अब अनिवार्य रूप से
संग-संग चलने को कटिबद्ध है.
प्रतिबद्ध है जीवन के साथ
जब चाहे तब
रख देता है, कलेजे में हाथ.
प्रश्न है?
यह कैसा डर,
किसका डर,
यहां कहां से आया है
बचपन तो भय विहीन था
जवानी में भी भय से,
परिचय नहीं था.
सेवा निवत्त के पूर्व तक
अवरचित था डर और भय से.
न किसी के रूठने का डर
ना छूटने का-ना ही लूटने का
जबकि,
कई जुड़े कई छूटे होंगे.
हम कई जगह से टूटे होंगे,
जख्म भी लगे होंगे
पर तब डर और पीड़ा में
सामान्जस था.
अब नहीं है.
अब,
सदैव डरा-भयभीत-घबराया
सहमा सहमा रहता हूं.
कभी बाथरूम में ही
फिसल जाने का डर
कभी डूबने का तो कभी
भीड़ से बिहीन हो जाने का डर.
ए,
अजीब किस्म का डर है!
जो कभी पीछा नहीं छोड़ता
घर-बाहर निरंतर चलता रहता है.
साथ-साथ साये की तरह
फिसलते-घिसटते रहने का डर.
शायद
अब समस्याओं से निपटने का
साहस शेष नहीं रहा
इसीलिए
डर ने चारों तरफ से घेर रखा है.
आकस्मिक आपत्तियों ने,
अर्जित संपत्तियों ने,
भयभीत कर रखा है.
वर्तमान के शेष जीवन को.
अब,
ना तो एकांत में रह पाता हूं.
ना कोलाहल सहन कर पाता हूं.
भीड़ भयाकान्त लगने लगी है.
और सन्नाटे में दम घुटती है.
बीच का कोई रास्ता नहीं है.
अनुकूलता कैसे प्राप्त हो.
चल पड़ा हूं, तलाश में.
सोचता हूं.
शहर से गांव की ओर मुड़ा जाय.
ग्रामीण वातावरण से,
पुनः जुड़ा जाय.
परन्तु,
गांव में, आजकल
विकास कार्य चल रहे हैं.
ऐसा गांव में शेष बचे
वृद्धजन कह रहे हैं.
गांव का चौराहा शहर से जुड़ रहा है.
शहर और गांव दोनों ही भीड़ के समुच्चय है.
जो सरहद की सीमा को,
कभी जोड़ते तो कभी तोड़ते हैं.
आपसी संबधों से,
मुख मोड़़ते हैं.
मन में विचार आता है.
जीवन का एक यही
आहाता है.
मन के खण्डहर को ही सींचा जाय
स्नेह-त्याग-पुरुषार्थ का एक
छोटा-सा बगीचा लगाया जाय.
उसमें नई कोपलें उगाई जायें
स्नेहसिक्त भावनाओं से
उन्हें सींचा जाय.
कदाचित यही उचित होगा
डर से निजात पाने के लिए.
अपेक्षाओं को कम करके,
उपेक्षाओं से बचने के लिए
जीवन के शेष दिनों में,
सुख शांति से जीने के लिए.
जीवन घट के समुन्द्र मथन में
अमत कलश प्राप्त कर
बस एक बूंद पीने के लिए.
सपर्कः सजन कुटी 527-25-ए अवर्ण नगर
न्यू जगदम्बा कालोनी जबलपुर
दूरभाश : 0761-2903109
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सुशील यादव
महुआ झरता पेड़ से, मादक हुआ पलाश
लेकर मन पछता रहा, यौवन में सन्यास
लेकर आया डाकिया, खत इक मेरे नाम
बिन खोले मैं जानता, भीतर का पैगाम
दुःख की चादर में सिमट, सुख की जोहे बाट
अच्छे दिन की आस ने, सबकी उलटी खाट
कौन कहां पर रह गया, चलते चलते साथ
घर की चौखट से निकल, किसका छूटा हाथ
पसरी केवल सादगी, छूट गया सब मोह
इक जंगल के रास्ते, दूजा खुलता खोह
सम्पर्कः न्यू आदर्श नगर, जोन-1,
स्ट्रीट-3, दुर्ग (छ.ग.)
मोः 09408807420
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राजा चौरसिया
(1)
आधुनिक सभ्यता की
यह बढ़िया बहार है
संस्कार को
दूर से
नमस्कार है.
(2)
एक आदमी
पानी को रो रहा है
और दूसरा
मिनरल वाटर से
मुंह धो रहा है.
(3)
आज
टॉप है आवरण
मगर
फ्लाप है आचरण.
(4)
प्यार भी
दिखाऊ है
पैसे पर
टिकाऊ है.
(5)
नीति और नीयत में
फासला दम भर रहा है
हाथी के दांत की कहावत
चरितार्थ कर रहा है.
सम्पर्कः उमरियापान,
जिला- कटनी-483332 (म.प्र.)
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