साक्षात्कार "नाटक ही वह विधा है जो जनमानस को प्रभावित करती है" डॉ . मंजुला दास से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत डॉ मंजुला दास...
साक्षात्कार
"नाटक ही वह विधा है जो जनमानस को प्रभावित करती है"
डॉ. मंजुला दास से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत
डॉ मंजुला दास वर्तमान में सत्यवती को-एजुकेशनल महाविद्यालय (प्रातः) में प्रभारी आचार्य के पद पर कार्यरत है.
मंजुला जी ने नाटक के साथ साथ कविता, कहानी, उपन्यास, अनुवाद आदि विविध
विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है. लगभग 45 से भी अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और आज भी सतत् लेखन जारी है. प्राची की सह सम्पादक डॉ. भावना शुक्ल से उनकी नाटक से संदर्भित विषय पर बातचीत हुयी जिसे हम यहां साक्षात्कार के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं.
डॉ. भावना शुक्लः लेखन के प्रति आपकी रुचि कैसे जाग्रत हुई और नाटक लेखन के प्रति आपका
अधिक झुकाव कैसे हुआ?
डॉ. मंजुला दासः मेरी परवरिश साहित्यिक वातावरण में हुई. मेरे घर में अलमारी में किताबें सजी हुई दिखती थीं. उन्हें देखकर मेरी पढ़ने के प्रति रुचि जाग्रत हुई. किताबें पढ़कर मैं पिताजी से विश्लेषण करती. पिताजी के पास जो भी छात्र आते, उनसे विषय से संबंधित बहस भी करती. लेखन मैंने तेरहवें वर्ष में प्रारम्भ किया परन्तु छपी पन्द्रहवें वर्ष में. बी.ए. तक आते आते गति मिली लेखन को, बाद में मंच मिला, मिली पहचान. उन्हीं दिनों कुछ नाटकों में अभिनय किया.
मैंने पी.एच.डी. (प्रसादोत्तर नाटक में राष्ट्रीय चेतना) और डी.लिट्. (साठोत्तर हिन्दी नाटक में त्रासद तत्व) पर की है. इस दौरान करीब 2500 नाटक पढ़ने का सौभाग्य मिला. तभी से और अधिक झुकाव नाटक के प्रति हुआ.
मैंने कुछ नाटकों का निर्देशन भी किया. कॉलेज स्तर पर मेरे नाटकों का मंचन भी हुआ है. सत्यवती कॉलेज में शम्स्सुल इस्लाम की संस्था के साथ नुक्कड़ नाटक भी किये.
डॉ. भावना शुक्लः नाटक लिखने से पहले आपकी क्या मनोदशा रहती है?
डॉ. मंजुला दासः देखिये मनोदशा के विषय में जैसे कोई घटना, कोई विचार मन को उद्देलित करते हैं वही विचार नाटक के रूप में सामने आ जाते हैं. नाटक न तो ये पूर्णतरू प्राकतिक, राजनैतिक, सामाजिक नाटक होते हैं. एक बीज, एक पौधा बनता है जो वक्ष के रूप में सामने आता है. यह कोई ऐसी चीज नहीं जिसे आप छुपा सकते हैं. लेखक जब तक झिझुड़ता नहीं, तब तक आप लिख नहीं सकते.
डॉ. भावना शुक्लः हिंदी के किस नाटककार ने आपको अधिक प्रभावित किया है?
डॉ. मंजुला दासः मैंने भारतेन्दु, जगदीशचन्द्र माथुर, रेवती शरण शर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, सुरेन्द्र वर्मा, रमेश बक्शी, मोहन राकेश, प्रसाद सभी को पढ़ा, पसंद भी बहुत हैं, परन्तु जयशंकर प्रसाद के नाटकों ने मुझे काफी प्रभावित किया.
डॉ. भावना शुक्लः वर्तमान दौर के टी.वी. धारावाहिकों की दौड़ में रंगमंच का क्या स्थान है?
डॉ. मंजुला दासः रंगमंच को पहले धक्का तो सिनेमा ने दे दिया. सिनेमा तो आमजन की पसंद है. लेकिन टी.वी.
धारावाहिकों के कारण भी रंगमंच को असर हो रहा है. रंगमंचीय कलाकारों को नौटंकी से जोड़कर घटिया दर्जे का समझा गया है. टी.वी., इंटरनेट के युग में दश्य माध्यम (रंगमंच) समाप्त हो रहे हैं. सबकुछ सामग्री नेट के जरिये उपलब्ध होती है. पुस्तकें पढ़ना पसंद नहीं करते, तो नाटकों की क्या बिसात...!
डॉ. भावना शुक्लः भारंगम को आप किस दृष्टि से देखती हैं? इसकी उपयोगिता सार्थक है या नहीं?
डॉ. मंजुला दासः मेरे दष्टिकोण से अभी इनको और प्रचार की आवश्यकता है. एक स्थान तक सीमित न रहें, इसे और गतिशील बनाकर रखें. अच्छे नाट्य संस्था को जोड़ें. स्कूल कॉलेज के स्तर पर लाना चाहिए. अधिक से अधिक लोग इस प्रस्तुति को देखें-जानें, इसके प्रति लोगों की रुचि जाग्रत हो. पुराने नाटकों को आधुनिकता से जोड़ना भी जरूरी है. नाटक दिखाकर उसकी आलोचना भी जरूरी है.
डॉ. भावना शुक्लः वृहद नाटक, एकांकी और नुक्कड़ नाटक इन तीनों की उपयोगिता और भविष्य क्या है?
डॉ. मंजुला दासः वहद् नाटक कुछ अरसे तक रोचक होता है. रोचकता धारावाहिक तक ही सीमित है. लेकिन अगर यह वहद् होते हैं तो इनकी रोचकता समाप्त हो जाती है. इनका भविय खंडित है. जब अंकों में तारतम्यता रहेगी, तभी रोचकता रहती है. नाटकों को उपन्यास की शक्ल न दे. कहानी का रूपान्तरण भी नाटक के रूप में होता है.
अभिज्ञान शाकुंतलम सात अंकों का नाटक है. इसमें रोचकता और मार्मिकता है. कभी कभी धन के अभाव में वृहद् नाटक मंच पर नहीं खेले जाते.
एकांकी का भविष्य चलता रहेगा. इस समय अभाव है लेखकों का. कम समय में कोई संदेश एकांकी के माध्यम से दिया जाता है. एकांकी विधा की समझ में लेखकों की कमी है.
नुक्कड़ नाटक एक ज्वलंत समस्या है. इसका भविष्य उज्ज्वल है. सभी क्षेत्रों की समस्याओं पर नुक्कड़ नाटक खेले जाते हैं. नुक्कड़ नाटक का कुछ उद्देश्य होना चाहिये. शहरों से ज्यादा गांव के घरों तक पहुंचे. जिससे लोगों में समझ उत्पन्न हो. क्योंकि इस विधा के प्रति समझ नहीं है लोगों में. भीड़ जुट जाती है जैसे कोई मदारी खेल दिखा रहा हो. नुक्कड़ नाटक को अभी और प्रचार की आवश्यकता है.
डॉ. भावना शुक्लः 'सपने सच भी होते हैं' नाटक में जीवंत चित्रण खिंचा है.
डॉ. मंजुला दासः मैं आपको बताना चाहूंगी 'सपने सच होते हैं' में दो नाटक हैं- पहला 'सपने सच भी होते हैं' और दूसरा 'कोहरा छंटता हुआ'. सपने सच भी होते हैं में मैंने कश्मीर के विषय का चित्र खींचा और नाटक बनता चला गया. कश्मीर मुझे प्रिय था. कई बार गई थी. वहां सपने तो सभी देखते हैं. लेकिन उन्हें सच बनाना कोई कोई जानता है. इसकी कहानी में ममदू ने हिम्मत नहीं हारी और सपने को हकीकत में बदल दिया.
यह आपको बताना चाहूंगी- मेरी कहानी के एक अंश को पढ़कर प्रसिद्ध निर्देशक चमन बग्गा जी ने सुझाव दिया- ''इसे नाटक में परिवर्तित कीजिये इसमें बहुत दम है कामयाब होगा.''
'कोहरा छंटता हुआ' नाटक में एक अकेली लड़की के संघर्ष की गाथा है. वह परिस्थितियों से जूझते हुये कैसे अपने आत्मसम्मान की रक्षा करती है.
डॉ. भावना शुक्लः 'आग अभी जल रही है' में किस समस्या को उजागर किया और अंत में ईश्वर से जो प्रार्थना की है वह अदभुत है, पाठकों को बताना चाहूंगी.
डॉ. मंजुला दासः इस नाटक की पुस्तक में दो नाटक है. एक 'रेत के महल' और दूसरा 'आग अभी जल रही है'. इसमें आतंकवाद की समस्या को प्रस्तुत किया है.
इसका एक अंश-
"ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपकी यह बात जरूर सुने. हिटलर और मुसोलिनी का अंत हुआ था और एक दिन ओसामा बिन लादेन या दाऊद भी नहीं रहेंगे. हो सकता है, इनका रक्त बीज बनकर सैकड़ों नरपिशाचों को जन्म दे दे, परन्तु हम मुकाबला करेंगे. आतंक की आग अब भी जल रही है. इस पर सद्भाव, माधुर्य या भाईचारे का पानी डालें या स्वार्थ का पंखा झलकर इसे और भड़काएं- यह तो अब नेताओं और जनता-जनार्दन के हाथ में है. प्रभु! यदि तुम्हारा अवतार होना ही है तो फिर क्यों नहीं?
डॉ. भावना शुक्लः आपने अभिज्ञान शांकुन्तलम् का अनुवाद किया. भास के दो नाटकों का भी अनुवाद किया. यह अनुवाद करने का विचार कैसे आया?
डॉ. मंजुला दासः मेरे मन में विचार आया ये नाटक संस्कत में लिखे इतने बढ़िया नाटक हैं. जिन्हें संस्कत का ज्ञान नहीं वो इसका लाभ नहीं उठा सकते. इसलिये मैंने इनका हिंदी में अनुवाद किया और अभिज्ञान शांकुनतलम को "दुष्यंतप्रिया" नाम दिया.
भास के दो नाटक- 1- प्रतिज्ञा योगंधरायणम् (2) स्वप्नवासदत्ता का हिन्दी में अनुवाद किया और संस्कत के श्लोकों का छन्दोंबद्ध अनुवाद किया.
प्रस्तुत है श्लोक-
जब यौगंधरायण कहते जब महाराज उदयन पुनः राज्य सिहांसन पर प्रतिष्ठित होंगे तब वासवदत्ता को सौपूंगा तब मगध राजपुत्री उनकी पवित्रता की साक्षिणी रहेगी...
"पद्यावती राजा की रानी होंगी,
कहते थे सिद्ध वही
जो पहले भापे विपदा को,
स्वामी की,
हमने भी देखा उन वचनों पर
विश्वास टिका,
करता हूं आज कर्म यह भी,
जो सिद्ध वचन सुपरिक्षित है,
न भाग्य करे अनदेखा..."
डॉ. भावना शुक्लः आज के दौर में जनमानस के बदलाव के लिये नाटकों के माध्यम से कैसे प्रभाव डाला जा सकता है?
डॉ. मंजुला दासः मेरे विचार से नाटक ही वह विधा है जो जनमानस को प्रभावित करती है. क्योंकि यह दश्य विधा है इससे आप प्रत्यक्षतः जुड़ जाते हैं. एक ही बात को अनेक स्तर पर समझ पाते हैं. दश्य माध्यम का ज्यादा असर पड़ता है. जैसे टी.वी. फिल्म का प्रभाव दर्शक पर पड़ता है. गांव या कस्बों में अगर नाटक प्रदर्शित किये जायें तो संदेश बहुत हद तक स्पष्ट होगा. नाटक एक सशक्त माध्यम है. इसमें दर्शक पूरी तरह से शामिल होते है. दर्शक मंडली की रुचि की वजह से बच्चों पर इसका असर अच्छा पड़ेगा.
सम्पर्कः सह संपादक-प्राची
डब्ल्यू जेड, 21 हरिसिंह पार्क, मुल्तान नगर,
पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110056
मोबाइल-09278720311
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