दण्ड-देव का आत्म-निवेदन / हास्य व्यंग्य / महावीर प्रसाद द्विवेदी

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दण्ड-देव का आत्म-निवेदन महावीरप्रसाद द्विवेदी ( सन् १८७०-१९३८) हमारा नाम दण्ड-देव है । पर हमारे जन्मदाता का कुछ भी पता नहीं ।' कोई क...

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दण्ड-देव का आत्म-निवेदन

महावीरप्रसाद द्विवेदी

( सन् १८७०-१९३८)

हमारा नाम दण्ड-देव है । पर हमारे जन्मदाता का कुछ भी पता नहीं ।' कोई कहता है कि हमारे पिता का नाम वंश या बाँस है । कोई कहता है, नहीं; हमारे पूज्यपाद पितृ-महाशय का नाम काष्ठ है । इसमें भी किसी..किसी- का मतभेद है; क्योंकि कुछ लोगों का अनुमान है कि हमारे बाप का नाम बेंत है । इसी सहम कह सकते हैं कि हमारे जन्मदाता का नाम निश्चय- पूर्वक कोई नहीं बता सकता । हम भी नहीं बता सकते । सबके गर्मधारिणी माता होती है, हमारे वह भी नहीं । हम तो जमींतोड़ है । यदि माता होती तो उससे पिता का नाम पूछकर आप पर अवश्य ही प्रकट कर देते । पर क्या करें, मजबूरी है । न बाप, न माँ । अपनी हुलिया यदि हम लिखाना चाहें तो कैसे लिखावें । इसका कारण हम सिर्फ अपना ही नाम बता सकते हैं ।

हम राज-राजेश्वर के हाथ से लेकर दीन-दुर्बल भिखारी तक के हाथ में विराजमान रहते हैं । जराजीर्णों के तो एकमात्र अवलम्ब हमीं हैं । हम इतने समदर्शी हैं कि हममें भेद-ज्ञान जरा भी नहीं- धार्मिक-अधार्मिक, साधु-असाधु, कालेगोरे सभी का पाणिस्पर्श हम करते हैं । यों तो हम सभी जगह रहते हैं, परन्तु अदालतों और स्कूलों में तो हमारी ही तूती बोलती है । वहाँ हमारा अनवरत आदर होता है ।

'संसार में अवतार लेने का हमारा उद्देश्य दुष्ट मनुष्यों और दुर्वृत्त बालकों का शासन करना है । यदि हम अवतार न लेते तो ये लोग उच्छृंखल होकर मही-मण्डल में सर्वत्र अराजकता उत्पन्न कर देते । दुष्ट हमें बुरा बताते हैं; हमारी निन्दा करते हैं; हम पर झूठे-झूठे आरोप करते हैं । परन्तु हम उनकी कटूक्तियों और अभिशापों की जरा भी परवा नहीं करते । बात यह है कि उनकी उन्नति के पदप्रदर्शक हमीं हैं । यदि हमीं उनसे रूठ जायँ तो वे लोग दिन-दहाड़े मार्ग भ्रष्ट हुए बिना न रहे ।

विलायत के प्रसिद्ध पण्डित जानसन साहब को आप शायद जानते होंगे । ये वही महाशय है जिन्होंने एक बहुत बड़ा कोश, अंगरेजी में लिखा है और विलायती कवियों के जीवन-चरित, बडी-बड़ी तीन जिल्दों में भरकर, चरित-रूपिणी त्रिपथगा प्रवाहित की है । एक दफे यही जानसन साहब कुछ भद्र महिलाओं का मधुर और मनोहर व्यवहार देखकर बड़े प्रसन्न हुए । इस सुन्दर व्यवहार की उत्पत्ति का कारण खोजने पर उन्हें मालूम हुआ कि इन महिलाओं ने अपनी-अपनी माताओं के कठिन शासन की कृपा ही से ऐसा ऐसा भद्रोचित व्यवहार सीखा । इसपर उनके मुँह से सहसा निकल पड़ा-

“Rod¡ I will honor thee

For this thy duty”

अर्थात् हे दण्ड, तेरे इस कर्तव्य-पालन का मैं अत्यधिक आदर करता - हूँ । जानसन साहब की इस उक्ति का मूल्य आप कम न समझिये । सचमुच ही हम बहुत बड़े सम्मान के पात्र हैं; क्योंकि हमीं तुम लोगों के-मानव- जाति के-भाग्यविधाता और नियन्ता हैं ।

संसार की सृष्टि करते समय परमेश्वर को मानव-हृदय में एक उपदेष्टा के निवास की योजना करनी पड़ी थी । उसका नाम है विवेक । इस विवेक ही के अनुरोध से मानव-जाति पाप से धर-पकड़ करती हुई आज इस उन्नत अवस्था को प्राप्त हुई है । इसी विवेक की प्रेरणा से मनुष्य, अपनी आदिम' अवस्थामें, हमारी सहायता से पापियों और अपराधियों का शासन करते थे ।

शासन का प्रथम आविष्कृत अस्त्र, दंड, हमीं थे । परन्तु कालक्रम से हम अब नाना प्रकार के उपयोगी आकारों में परिणत हो गये हैं । हमारी प्रयोग- प्रणाली में भी अब बहुत कुछ उन्नति, सुधार और रूपान्तर हो गया है ।

पचास-साठ वर्ष के भीतर इस संसार में बड़ा परिवर्तन-बहुत उथल- पुथल-हो गया है । उसके बहुत पहले भी, इस विशाल जगत्‌ में, हमारा राजत्व था । उस समय भी रूस में, आज-कल ही की तरह, मार-काट जारी थी । पोलैंड में यद्यपि इस समय हमारी कम चाह है, पर उस समय वहाँ- की स्त्रियों पर रूसी-सिपाही मनमाना अत्याचार करते थे और बार-बार हमारी सहायता लेते थे । चीन में तब भी वंश दंड का अटल राज्य था । टर्की में तब भी दंडे चलते थे । श्यामवासियों की पूजा तब भी लाठी ही से की जाती थी । अफरीका से तब भी मम्बोजम्बो ( गेंद की खाल का हण्टर) अन्तर्हित .न हुआ था । उस समय भी वयस्क भद्र महिलाओं पर चाबुक चलता था । पचास-साठ वर्ष पहले, संहार में, जिस दण्ड शक्ति का निष्कण्टक साम्राज्य 'था, यह न समझना अब उसका तिरोभाव हो गया है । प्राचीन काल की तरह अब भी सर्वत्र हमारा प्रभाव जागरूक है । इशारे- के तौर पर हम जर्मनी के हर प्रान्त में वर्त्तमान अपनी अखंड सत्ता का स्मरण दिलाये देते हैं । परन्तु वर्तमान वृत्तान्त सुनाने की अपेक्षा पहले हम अपना पुराना वृत्तान्त सुना देना ही अच्छा समझते हैं ।

प्राचीनकाल में रोम-राज्य योरप की नाक समझा जाता था । दण्ड- .दान या दण्ड विधान में रोम ने कितनी उन्नति की थी, यह बात शायद सब लोग नहीं जानते । उस समय हम तीन भाई थे । रोमवाले साधारण दण्ड के बदले कशा-दंड के तारतम्य के अनुसार हमारे मिल-भिन्न तीन नाम थे । इनमें से सबसे बड़े का नाम फ्लैगेलम ( Flagellum) मंझले का सेंटिका ( Sentica) और छोटे का फेरूला ( (Ferula) था' । रोम के न्यायालय और वहाँ की महिलाओं के कमरे हम इन्हीं तीनों भाइयों से सुसज्जित रहते थे । अपराधियों पर न्यायाधीशों की असीम क्षमता और प्रभुता थी । अनेक बार प्रभु या प्रभु पत्नियाँ, दया के वशवर्ती होकर, हमारी सहायता से अपने दासों के दुःखमय जीवन का अन्त कर देती थीं । भोज के समय, आमन्त्रित लोगों को प्रसन्न करने के लिए, दासोंपर कशाघात करने की पूर्ण व्यवस्था थी । दासियों को तो एक प्रकार से नंगी ही रहना पड़ता था । वस्त्राच्छादित रहने से वे शायद कशाघातों का स्वादु अच्छा तरह न ले सकें ।. इसीलिए ऐसी व्यवस्था थी । यहीं पर तुम हमारे प्रभाव का कहीं अन्त न: समझ लेना । दासियों को एक और भी उपाय से दंड दिया जाता था । छत की कड़ियों से उनके लम्बे-लम्बे बाल बांध दिये जाते थे । छत से लटक- जाने पर उनके पैरों से कोई भारी चीज बाँध दी जाती थी, ताकि पैर न हिला सकें ।' यह प्रबन्ध हो चुकने पर उनके अंगों की परीक्षा करने के लिए हमारी योजना होती थी । यह सुनकर शायद तुम्हारा दिल दहल उठा होगा और तुम्हारा बदन काँपने लगा होगा । पर हम तो बड़े ही प्रसन्न हैं कि ऐसा ही दंड दासों को भी दिया जाता था । परन्तु बालों के बदले उनके हाथ बाँधे' जाते थे ।

इससे तुम समझ गये होगे कि रोम की महिलाएं हमारा कितना आदर करती थीं । परन्तु यह बात वहाँ के कर्तृपक्ष को असह्य हो उठी । उन्होंने' कहा-इस दंड-देव का इतना आदर! उन्होंने हमारी इस उपयोगिता में विघ्न डालने के लिए कोई कानून बना डाले । सम्राट, आड्रियन के राजत्व- काल में इस कानून को तोड़ने के अपराध में एक महिला को पाँच वर्ष का देश-निर्वासन दंड मिला था । अस्तु ।

अब हम जर्मनी, फ्रांस, रूस, अमेरिका आदि का कुछ हाल सुनाते हैं । ध्यान लगाकर सुनिये । इन सब देशों के घरों, स्कूलों और अदालतों में भी पहले हमारा निश्चल राज्य था । इनके सिवा संस्कारघरों (Houses of correction) में भी हमारी षोडशोपचार पूजा होती थी । इन, संस्कारघरों अथवा चरित्र-सुधार-घरों में चरित और व्यवहार-विषयक दोषों का सुधार किया जाता था । अभिभावक जन अपनी दुश्चरित्र स्त्रियों और अधीनस्थ पुरुषों को इन घरों में भेज देते थे । वहाँ वे हमारी ही सहायता- हमारे ही आघात-से सुधारे जाते थे ।

जर्मनी में तो हम पहले अनेक रूपों विद्यमान थे । हमारे रूप थे कशादंड, वेत्रदंड, चर्म्मदंड आदि । कोतवालों और न्यायधीशों को कशाघात करने के अखतियारात हासिल थे । संस्कार-घरों में हतभागिनी नारियों ही की संख्या अधिक होती थी । वहाँ बहुधा निरपराधिनी रमणियों को भी, दुष्टों के फन्दे में फँसकर, कशाधात सहने पड़ते थे । पहले वे नंगी कर डाली जाती थीं । तब उनपर बेंत पड़ते थे । जर्गन-भाषा के ग्रन्थ साहित्य में इस कशाघात का उल्लेख सैकड़ा जगह पाया जाता है ।

फ्राँस में भी हमने मनमाना राज्य किया है । वहां के विद्यालयों में, किसी समय, हमारा बड़ा प्रभाव था । विद्यालयों में कोमल कलेवरा बालिकाओं को भी हमें चूमना पड़ता था । यहाँ तक कि उन्हें हमारा प्रयोग करने वालों का अभिवादन भी करना पड़ता था । फ्रांस में तो हमने पवित्र हृदया कामिनियों के कर-कमलों को भी पवित्र किया था । आपको इस बात का विश्वास न हो तो एक प्रमाण लीजिये । ''रोमन नामक काव्य में कविवर कुपिनेले ने स्त्रियों के विरुद्ध चार सतरें लिख मारी हैं । उनका भावार्थ कवि पोप के शब्दों में है-

“Every women is at heart a rake” इस उक्ति को सुनकर कुछ सन्माननीय महिलाएँ बेतरह कुपित हो उठीं । एक दिन उन्होंने कवि को अपने कब्जे में पाकर उसे सुधारना चाहा । तब यह देख कर कि .इनके पन्जें से निकल भागना असम्भव हैं, कवि ने कहा -''मैंने जरूर अपराध किया है अतएव मुझे सज़ा भोगने में कुछ भी उज्र नहीं । पर मेरी एक प्रार्थना है । वह यह कि उस उक्ति को पढ़ कर जिस महिला को सबसे अधिक बुरा लगा हो वही मुझे पहले दण्ड दे'' । इसका फैसला कोई स्त्री न कर सकी । फल यह हुआ कि कवि पिटने से बच गया ।

रूस में भी हमारा आधिपत्य रह चुका है । वहाँ तो सभी प्रकार के अपराध करने पर दण्ड या कशादण्ड से प्रायश्चित्त कराया जाता था क्या स्त्री क्या पुरूष, क्या बालक क्या वृद्ध, क्या राजकर्मचारी क्या साधारण जन सभी को, अपराध करने पर, हमारा अनुग्रह ग्रहण करना पड़ता था । किसान तो हमारी कृपा के सबसे अधिक पात्र थे । उन पर तो जो चाहता था वही, निशंक और निःसंकोच, हमारा प्रयोग करता था । हमारा प्रसाद पाकर वे बेचारे चुपचाप चल देते थे और अपना क्रोध अपनी पत्नियों और पशुओं पर प्रकट करते थे । रूस के अमीरों और धनवानों से हमारी बड़ी ही मित्रता थी । दोष-दमन करने में वे सिवा हमारे और किसी की भी सहायता, .कभी भूलकर भी, न लेते थे । उनका खयाल था कि अपराधियों को अधमरा करने के लिए ही भगवान्‌ ने हमारी सृष्टि की है ।

रूस में तो, पूर्वकाल में, दण्डाधात प्रेम का भी चिह्न माना जाता था! विवाहिता बहुएं अपने पतियों से हमीं को पाने के लिए सदा लालायित रहती थीं । यदि स्वामी बीच-बीच में अपनी पत्नी का, दण्ड-दान-नामक आदर न करता तो पत्नी समझती कि उसके स्वामी का प्रेम उसपर कम होता जा रहा है । यह प्रथा केवल नीच या छोटे लोगों ही में प्रचलित न थी बड़े- बड़े घरों में भी इसका' पूरा प्रचार था । बर्कले नाम के लेखक ने लिखा है कि रूस में दण्डाघातों की न्यूनाधिक संख्या ही से प्रेम की न्यूनाधिकता की माप .होती थी । इसके सिवा स्नानागारों में भी हमारा प्रबल प्रताप छाया हुआ था । स्नान करने वालों का समस्त शरीर ही हमारे अनुग्रह का पात्र बनाया -जाता था । स्टिफेंस साहब ने इसका विस्तृत विवरण लिख रक्खा है। विश्वास -न हो तो उनकी पुस्तक देख लीजिये ।

हमारे सम्बन्ध में तुम अमेरिका को पिछाड़ा हुआ कहीं मत समझ बैठना । वहाँ भी हमारा प्रभाव कम न था । बालकों और बालिकाओं का गार्हस्थ्य जीवन वहाँ हमारे ही द्वारा नियंत्रित होता था । प्यूरिटन नाम के क्रिश्चियन-धर्म्मसम्प्रदाय के अनुयायियों के प्रभुत्व के समय लोगों को बात-बात में कशाघात की शरण लेनी पड़ती थी । केकर संप्रदाय को देश से दूर निकालने में अमेरिका के निवासियों ने हमारी खूब ही सहायता ली थी । हमारा प्रयोग बड़े ही अच्छे दण्ड से किया जाता था । काठ के एक तख्ते पर अपराधी बाँध दिया जाता था । फिर उसपर सड़ासड़ बेंत पड़ते थे ।

अफरीका की तो कुछ पूछिये ही नहीं । वहाँ तो पहले भी हमारा अखण्ड राज्य था और अब भी है । यही एक देश ऐसा है जिसने हमारे महत्व को पूर्णतया पहचान पाया है । बच्चों की शिक्षा से तो हमारा बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध था । वहाँ के लोगों का विश्वास था कि, हमारा आगम: स्वर्ग से हुआ हैं और हम ईश्वर के आशीर्वाद रूप हैं । हम नहीं, तो समझना चाहिये कि परमेश्वर ही रूठा है । मिस्रवाले तो इस प्रवाद पर आँख-कान . बन्द करके विश्वास करते थे । वहाँ के दीनवत्सल महीपाल प्रजावर्ग को इस आशीर्वाद का स्वाद बहुधा चखाया करते थे । इस राज्य में बिना हमारी सहायता के राज-कर वसूल होना प्राय: असम्भव था । मिस्र के निवासी राजा का प्राप्य अंश, कर, अदा करना न चाहते थे । इस कारण हमें उनपर सदा ही कृपा करनी पड़ती थी । उनकी पीठपर हमारे जितने ही अधिक चिह्न बन जाते थे वे अपने को उतने ही अधिक कृतज्ञ या कृतार्थ समझते थे ।

अफरीका की असभ्य जातियों में स्त्रियों के ऊपर हमारा बड़ा प्रकोप रहता था । ज्योंही स्वामी अपनी स्त्री के सतीत्व रत्न को जाते देखता था त्योंही वह हमारी पूर्ण तृप्ति कर के उस कुलकलहिनी को घर से निकाल बाहर करता था । कभी-कभी स्त्रियाँ भी हमारी सहायता से अपने-अपने स्वामियों की यथेष्ट खबर लेती थीं । अफरीका के पश्चिमी प्रान्त में यद्यपि बालक बालिकाओं पर हमारा विशेष प्रभाव न था तथापि उन्हें हम से अधिक प्रभावशाली व्यक्तियों का सामना करना पड़ता था । नटखट और दुष्ट लड़कों और लड़कियों की आँखों में लाल मिर्च मल दी जाती थी । वे बेचारे इस योजना का कष्ट सहन करने में असमर्थ होकर घंटों छटपटाते और चिल्लाते थे ।

वयस्कों को तो इससे भी अधिक यातनाएँ भोगनी पड़ती थीँ । वे पहले पेड़ों की डालों से लटका दिये जाते थे । फिर वे खूब पीटे जाते थे । देह लोहू- लोहान हो जाने पर उसपर सर्वत्र लाल मिर्च का चूर्ण मला जाता था । याद रहे ये सब पुरानी बातें हैं । आजकल की बातें हम नहीं कहते; क्योंकि हमारे प्रयोग में यद्यपि इस समय कुछ परिवर्तन हो गया है, तथापि कार्थक्षेत्र घटा नहीं, बढ़ा ही है ।

तुम्हारे एशिया-खण्ड में भी हमारा राज्य दूर-दूर तक फैला रहा है ।' एशिया कोचक ( एशिया माइनर) के यहूदियों में, किसी समय, हमारी बड़ी धाक थी । वहाँ हमारा प्रताप बहुत ही प्रबल था । ईसाई-धर्म फैलाने में सेंटपाल नामक धर्माचार्य ने बड़े-बड़े अत्याचार सहे हैं । वे ४९ दफे कशाहत और ३ दफे दण्डाहत हुए थे । बाइबिल में हमारे प्रयोग का उल्लेख सैकड़ों जगह आया है ।

यहूदियों की तरह पारसियों में भी हमारा विशेष आदर था । क्या धनी, क्या निर्धन सभी को, यदा-कदा, डंडों की मार सहनी पड़ती थी । यह चाल बहुत समय तक जारी रही । तदनन्तर वह बदल गयी तब माननीय मनुष्यों- के शरीर की जगह उनके कपड़ों पर कोड़े लगाये जाने लगे ।

चीन में तो हमारा आधिपत्य एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक फैला हुआ था । ऐसा एक भी अपराधी न था' जिसे सजा देने में हमारा प्रयोग न होता रहा हो । उच्च राजकर्मचारियों से लेकर दीन-दुखी भिखारियों तक को, अपराध करने पर, हमारे अनुग्रह का अनुभव प्रत्यक्ष रूप से करना पड़ता था । डन्डे की मार खाने में, उस समय चीनी लोग अपना अपमान न समझते थे । हाँ हमारे कृपा-कटाक्ष से उन्हें जो यन्त्रणा भोगनी पड़ती थी उसे वे जरूर नापसन्द करते थे । बड़े बड़े सेना-नायक और प्रान्तशासक हमारे कठोर अनुग्रह को प्राप्त कर के भी अपने उच्च पदों पर प्रतिष्ठित रहते थे । चीन में अपराधियों ही तक हमारे कोप की सीमा बद्ध न थी । कितने ही निरपराध जन भी हमारे स्पर्श-सुख का अनुभव कर के ऐसे गद्‌गद हो जाते थे कि फिर जगह से उठ तक न सकते थे । हमारी पहुंच बहुत दूर- दूर तक थी । चोरों, डाकुओं और हत्यारों आदि को जब कोतवाल और पुलिस को अन्य प्रतापी अफसर न पकड़ सकते थे तब वे हमारी शरण आते थे । उस समय हम उनपर ऐसा प्रेम दरसाते थे कि उछल-उछलकर उनकी देह पर जा पड़ते थे । चीन की पुरानी अदलतों में जितने अभियुक्त और गवाह आते थे वे बहुधा बिना हमारा प्रसाद पाये न लौट सकते थे ।

चतुर और चाणाक्ष चीनके-अद्भुत क़ानून की बात कुछ न पूछिये वहाँ अपराध के लिए अपराधी ही जिम्मेदार नहीं । उसके दूर तक के सम्बन्धी भी जिम्मेदार समझे जाते थे । जो लोग इस जिम्मेदारी का खयाल न करते थे उन्हें स्वयं हम पुरस्कार देते थे । चीन में एक सौ परिवारों के पीछे एक मण्डली स्थापना होती थी । उसकी जिम्मेदारी भी कम न होती थी । अपने फिरके के सौ कुटुम्बों का यदि कोई व्यक्ति कोई अपराध करता तो उसके बदले में मण्डल सजा पाता था । देव-सेवा के लिए रक्खे गये शूकर-शावक यदि बीमार या दुबले हो जाते तो प्रतिशावक के लिए तत्वावधायक पर पचास डण्डे लगते थे ।

चीन की विवाह-विधि में भी हमारी विशेष प्रतिपत्ति थी । पुत्र-कन्या की सम्मति लिये बिना ही उनका पहला पाणिग्रहण कराने का अधिकार .माता-पिता को प्राप्त था । परन्तु दूसरा विवाह वे न करा सकते थे । यदि वे इस नियम का उल्लंघन करते तो उनपर तड़ातड़ अस्सी डण्डे पड़ते थे । विवाह-सम्बन्ध स्थिर कर के यदि कन्या का पिता उसका विवाह किसी और वर के साथ कर देता तो उसे भी अस्सी डण्डे खाने पड़ते । जो लोग अशौच-काल में विवाह कर लेते थे उनकी पूजा पूरे एक सौ दण्डाघातों से की जाती थी । स्वामी के जीवन-काल ही में जो रमणियां सम्राट- द्वारा सम्मानित होतीं, वे, विधवा होने पर, पुनर्विवाह न कर सकती थीं । यदि कोई अभागिनी इस कानून को तोड़ती तो उसे पुरस्कृत करने के लिए हमें सौ बार उसके कोमल कलेवर का चुम्बन करना पड़ता ।

ये हुईं पुरानी बातें । अपना नया हाल सुनाना हमारे लिए, इस छोटे से लेख में, असम्भव है । अब यद्यपि हमारे उपचार के ढँग बदल गये हैं और अधिकार-क्षेत्र कहीं-कहीं संकुचित हो गया है, तथापि हमारी पहुँच नयी-नयी जगहों में हो गयी है । आजकल हमारा आधिपत्य केन्या, ट्रांसवाल, केपकालनी आदि विलायतों में सबसे अधिक है । वहाँ के गोरे कृषक हमारी ही सहायता से हबशी और भारतवर्षी कुलियों से बारह-बारह सोलह-सोलह घण्टे काम कराते हैं । वहाँ काम करते-करते, हमारा प्रसाद पाकर, अनेक सौभाग्यशाली कुली, समय के पहले ही, स्वर्ग सिधार जाते हैं । फीजी, जमाइका, गायना, मारिशश आदि टापुओं में भी हम खूब फूल-फल रहे हैं । जीते रहें गन्ने की खेती करने वाले गौरकाय विदेशी । वे हमारा अत्यधिक आदर करते हैं; कभी अपने हाथ से हमें अलग नहीं करते । उनकी बदौलत ही हम भारतीय कुलियों की पीठ, हाथ आदि अंग-प्रत्यंग छू-छूकर कृतार्थ हुआ करते हैं-अथवा कहना चाहिये कि हम नहीं, हमारे स्पर्श से वही अपने को कृतकृत्य मानते हैं । अण्डमन टापू के कैदियों पर भी हम बहुधा जोर-आजमाई करते हैं । इधर भारत के जेलों में भी, कुछ समय से, हमारी विशेष पूछ-पाछ होने लगी है । यहाँ तक कि एम० ए० और बी० ए० पास कैदी भी हमारे संस्पर्श से अपना परित्राण नहीं कर सकते । कितने ही असहयोगी कैदियों की अक्ल हमने ठिकाने लगायी है । हम और सब कहीं की बातें तो बता गये, पर इंगलैड के समाचार हमने एक भी नहीं सुनाये । भूल हो गयी । क्षमा कीजिये । खैर तब न सही अब सही । सूद में अब हम भारतवर्ष का भी कुछ हाल सुना देंगे । सुनिये-

लक्ष्मी और सरस्वती की विशेष कृपा होने से इंगलैड अब उन्नत और सभ्य हो गया है । ये दोनों ठहरीं स्त्रियाँ । और स्त्रियाँ बलवानों-ही को अधिक चाहती हैं, निर्बलों को नहीं । सो बलवान् होना बहुत बड़ी बात है । सभ्यता और उन्नति का विशेष आधार पशुबल ही है । हमारी इस उक्ति को सच समझिये और गाँठ में मजबूत बाँधिये । -सो सभ्य और समुन्नत होने के कारण इंगलैड में अब हमारा आदर कम होता जाता है । तिसपर भी कशादण्ड का प्रचार वहाँ अब भी खूब है । कोड़े वहाँ अब भी खूब बरसते हैं' । वहाँ के विद्यालयों में हमारी इस मूर्त्ति की पूजा बड़े भक्ति-भाव से होती है । हमारा प्रभाव घोड़े की पीठ पर जितना देखा जाता है उतना अन्यत्र नहीं ।. इसके सिवा सेना में भी हमारा सम्मान अभी तक थोड़ा-बहुत बना हुआ है । भारतवर्ष तो हमारा एकाधिपत्य ही सा है । भारत अपाहिज है ।' इसीलिए भारतवासी हमारी मूर्त्ति को बड़े आदर से अपनी छाती से लगाये रहते हैं । वे डरते हैं कि ऐसा न हो जो कहीं धन-मान की रक्षा का एक-मात्र बचा-खुचा यह साधन भी छिन जाय । इसी से हमपर उन लोगों का असीम प्रेम है । भारतवासी असभ्य और अनुन्नत होने पर भी विलासप्रिय कम हैं । इसीलिए वे 'ऋषियों और मुनियों द्वारा पूजित हम दण्डदेव के आश्रय में रहना ही श्रेयस्कर समझते हैं । शिक्षकों का बेंत या कमची, सवारों का हण्टर, कोचमैनों का चाबुक, गाड़ीवानों की औगी या छड़ी, शुहदों के लट्ठ, शौकीन बाबुओं की पहाड़ी लकड़ी, पुलिसमैनों के डण्डे, बूढ़े बाबा की कुबड़ी, भँगेड़ियों के भवानी-दीन और लठैतों की लाठियाँ आदि सब क्या हैं? ये सब हमारे ही तो रूप हैं । ये सभी शासन-कार्य में सहायक होते हैं । भारत में ऐसे हजारों आदमी हैं जिनकी जीविका के आधार एक-मात्र हम हैं । थाना नाम के देवस्थानों में हमारी ही पूजा होती है । हमारी कृपा और सहायता के बिना हमारे पुजारी ( पुलिसमैन) एक दिन भी अपना कर्तव्यपालन नहीं कर सकते । भारत में तो एक भी पहले दरजे का मैजिस्ट्रेट ऐसा न होगा जिसकी अदालत के अहाते में हमारे उपयोग की योजना का पूरा-पूरा प्रबन्ध न हो । जेलों में भी हमारी शुश्रूषा सर्वदा हुआ करती है । इसी से हम कहते हैं कि भारत में तो हमारा एकाधिपत्य है । पाठक, हम नहीं 'कह सकते कि हमारा यह चारु चरित सुनकर आप भी मुग्ध हुए या नहीं । कुछ भी हो, .हमने अपना कर्तव्य कर दिया । आप प्रसन्न हों या न् हों, पर इससे हम कितने प्रसन्न है, यह हम लिख नहीं सकते. ।

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: दण्ड-देव का आत्म-निवेदन / हास्य व्यंग्य / महावीर प्रसाद द्विवेदी
दण्ड-देव का आत्म-निवेदन / हास्य व्यंग्य / महावीर प्रसाद द्विवेदी
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