चुनावीवर्ष / व्यंग्य / कुबेर

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अजूबावर्त नामक देश के राजनीतिज्ञ अपने देश के लोकतंत्र को सृष्टि का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानते हैं। इसे वे एक बड़ी और अतिमहत्वपूर्ण उपलब्धि के र...

अजूबावर्त नामक देश के राजनीतिज्ञ अपने देश के लोकतंत्र को सृष्टि का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानते हैं। इसे वे एक बड़ी और अतिमहत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में प्रचारित करते हैं। यदि उनकी भाषा में कहें तो इसे वे अपनी और राष्ट्र की एक महान राजनीतिक उपलब्धि मानते हैं। मेरी मूढ़मति कहती है - इस महान् उपलब्धि का श्रेय तो यहाँ की एक अरब से अधिक भूखी-नंगी जनता को मिलना चाहिए जिन्हें चाहे और कुछ आता-जाता न हो, बच्चा पैदा करना जरूर आता है। इस काम में इनकी यह विशेषज्ञता असंदिग्ध और जगजाहिर है।

चुनाव दर चुनाव विश्व के इस अजूबे लोकतंत्र के आमचुनावों की मान और प्रतिष्ठा में वृद्धि होती रही है। अब यह यहाँ की परंपरा बन चुकी है। अब की बार राजनीतिक पार्टियों के रणनीतिकार इस परंपरा को और अधिक मजबूती देना चाहते हैं, ताकि लोकतंत्र की इस परंपरा को लोकतत्र के दुश्मन हिला न सकें। लोकतांत्रिक परंपरा के अनुरूप यहाँ पर प्रचलित आमचुनाव नामक यज्ञ पौराणिक राजसूय यज्ञ से भी बड़ा और श्रेष्ठ माना जाता है। हर बार इस आमचुनाव नामक यज्ञ को और अधिक महत्वपूर्ण, अधिक जनहितैषी और अधिक उत्सवधर्मी बनाने के लिए यहाँ नित नये उद्यम किये जाते हैं। इस महान नीतिसापेक्ष-धर्मसापेक्ष कार्य के लिए यहाँ अर्थबल और बाहुबल की कोई कमी नहीं है। जनबल के लिए तो जरा भी हायतौबा करने की जरूरत नहीं होती, यह यहाँ हर मौसम में, चैबीस गुणा सात सूत्र के अनुरूप उपलब्धता रहती है।

यहाँ लालचबल और लिप्साधर्म की भी कोई कमी नहीं है।

यज्ञ के आयोजन में अभी दो वर्ष से अधिक का समय शेष है। यहाँ के राजनीतिक दलों के राजनीतिक वैज्ञानिक इस समयावधि के महत्व को जानते हैं। अब की बार उन्होंने इसके राजनतिक-वैज्ञानिक महत्व को समझते हुए इसे वैज्ञानिक रूप से परिभाषित किया है। परिभाषा में इसे नया नाम मिला है - चुनाववर्ष। उनके कुछ राजनीतिक वैज्ञानिक इस नाम का बड़ा विरोध कर रहे थे। उनका तर्क था - इन सालों को प्रकाशवर्ष की तरह ही महत्वपूर्ण समझा जाना तो ठीक है, परन्तु इसे प्रकाशवर्ष का प्रतिगामी समझा जाना चाहिए तथा इसी के अनुरूप इसका नाम अंधकारवर्ष अथवा अँधेरवर्ष रखा जाना चाहिए। इस विवाद में कई राजनीतिक वैज्ञानिकों के सिर लहूलुहान हुए। फिर भी, अंततः यही नाम तय हुआ - चुनाववर्ष।

अब, जो बात मैं कह रहा था, उसे इस तरह कहना पड़ेगा - अगले आम चुनाव में अभी दो चुनाववर्ष से अधिक का समय शेष है। वर्तमान सत्ताकाबिज राजनीतिक दल आगामी आमचुनावों के लिए अभी से चिंतित हैं। वह इसे विगत से अधिक गद्फद् बनाना चाहती है। अधिक गद्फद् अर्थात् अधिक गतिवान, अधिक जनहितैषी, अधिक उत्सवधर्मी और अधिक नीतिसापेक्ष-धर्मसापेक्ष। इस महती काम के लिए नये उद्यमों और नये तौर-तरीकों की संभावनाएँ तलाशना जरूरी है। अपने कार्यसूूची में इसे उन्होंने सबसे ऊपर रखा हुआ है। इस काम में बड़ी मात्रा में धनबल और बाहुबल की आवश्यकता पड़नेवाली है अतः देशभर के चुनिंदा धनयोगियों और बाहुयोगियों से संपर्क किया गया है। इस प्रकार पूरी तैयारी के साथ उनके रणनीतिकार अभी से इस काम में जुट चुके हैं।

श्रीराम जाने; वर्तमान सत्ताकाबिज राजनीतिक दल की इस योजना का पता विपक्षी दल को कैसे चल गया। विपक्ष अपने आक्सीजनरहित वातावरण के बंद कमरे में कई महीनों से अकबकाते हुए पड़ा था। इस शुभ समचार ने उसे ताजगी दी। उसने अपने पंख फड़फड़ाये, बाहर की ताजी हवा में आक्सीजन मिलने की उम्मीद थी, इस प्रत्याशा में उन्होंने अपने थूथने खिड़कियों से बाहर निकाला। पर यह क्या! चेहरा नोच खाने के लिए खिड़की के बाहर असंख्य शिकारी पक्षियाँ, मच्छरों की तरह भिनभिना रहे थे। विपक्ष को समझते देर न लगी - साले! सब सत्तापांखी मुखौटेधारी मच्छर हैं। वह इस खतरे के प्रति सचेत था। बचने के लिए पर्याप्त उपाय किये गये थे। उन्होंने फौरन अपना मुखौटा लगा लिया।

खैर, जानेमाने राजनीतिक वैज्ञानिकों-रणनीतिकारों के कई दिनों के माथाफुटौव्वल, कपड़ेफटौव्व्ल और चेहरानुचैव्वल विचारमंथन के बाद प्रस्ताव पर मुहर लग गई। आम चुनाव की तैयारियाँ और प्रचार-प्रसार अब सतत् चलनेवाली प्रक्रिया अर्थात 365 ग 5 दिन चलनेवाली प्रक्रिया स्वीकार कर ली गई। पर तय हुआ कि लोकतंत्र की मर्यादा को भी ध्यान में रखना चहिए। राजधर्म और लोकधर्म का भी पालन होना चाहिए। इस तरह की नयी परंपरा शुरू करने से पहले देश की सजग जनता की इच्छा भी जान लेना चाहिए। लिहाजा, सोशल मीडिया में तुरंत इस आशय की अपील जारी की गई। उम्मीद के अनुरूप यह अपील देखते ही देखते वायरल हो गई। कुछ ही समय बाद लोगों के सुझाव मिलने लगे। देखते ही देखते संदेशों की मात्रा इतनी अधिक हो गई कि कंप्यूटर देवता के दिमाग की नसें फटने लगी और वह कोमा में चला गया। कंप्यूटर के विशेष साफ्टवेयर के द्वारा सोशल मिडिया से प्राप्त इन संदेशों, सुझावों और आंकड़ों के विश्लेषण का काम तुरंत शुरू हो गया। परिणाम देखकर राजनीतिक वैज्ञानिकों-रणनीतिकारों के चेहरे खिल गए। प्रस्ताव के समर्थन में 99.999% मत प्राप्त हुए थे। उदाहरण के तौर पर प्राप्त लोकमत के कुछ तर्क यहाँ दिये जा रहे हैं -

इस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए देश की बुद्धिमान आम जनता ने कहा कि चुनाव से संबंधित ऐसे कार्यक्रम देश में रोज और लगातार होते रहना चाहिए। इस उत्सवधर्मी आयोजन से देश की मूल समस्याओं - बलात्कार, मंहगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद आदि से ध्यान बँटेगा और इससे उत्पन्न क्षोभ का निवारण होगा। प्रचार सामग्री के रूप में प्राप्त वस्त्रों, नगदी और नकली आभूषणों से देश की गरीब जनता को हमेशा राहत मिलती रहेगी। देश की गरीबी का निवारण होता रहेगा।

देश के बेरोजगारों ने कहा - राजनीतिक दलों द्वारा प्रस्तावित यह चुनावी कार्यक्रम बेरोजगारों के हित में है। इस बारहमासी कार्यक्रम में हम सदैव व्यस्त रहेंगे। हम बेरोजगारों के लिए यह किसी रोजगार से कम नहीं होगा। बेरोजगारी की पीड़ा पल भर में जाती रहेगी। हमारी व्यस्तता देखकर हमारे माता-पिता को हमारे कामकाजी होने का भ्रम बना रहेगा। देश की बेरोजगारी की समस्या पलभर में हल हो जायेगी।

मद्यप्रेमयों के संगठन ने कहा - यह योजना सचमुच हम मद्यपे्रमियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होगी। राजनीतिक पार्टियों की कृपा से हमें घर बैठे मद्य मिला करेगी। मद्य के लिए हमें अपने खेत, घर के सामन, बीवी के गहने आदि बेचने नहीं पड़ेंगे। पति-पत्नी के बीच झगड़े नहीं होंगे। पारिवारिक वातावरण कलहमुक्त और सुखी हो सकेगा। हमें आश्चर्य है कि ऐसी जनहितैशी योजना पर पूर्ववर्ती सरकारों की निगाह कैसे नहीं पड़ी। इस योजना को लागू करने से निश्चित ही अच्छे दिन आ जायेंगे। इस अच्छी योजना के लिए मौजूदा सरकार के दीर्घायु की अनंत शुभकामनाएँ।

मजदूर संगठनों की ओर से कहा गया - आपके द्वारा लायी जा रही यह योजना हम मजदूरों के लिए अतिकल्याणकारी है। एक बात हम निवेदित करना चाहेंगे कि देश में कब-कब, कहाँ-कहाँ और किस-किस समय आमसभा होंगी, कब-कब रैलियाँ निकाली जायेंगी, इसका वार्षिक कैलेण्डर बनाकर हमें उपलब्ध करा दिया जाये ताकि हम अपना काम सही ढंग से कर सकें। अब अपनी मांगें मनवाने के लिए हमें किसी तरह की हड़ताल करने की जरूरत नहीं होगी; अगर करना ही हुआ तो आपका यही मंच पर्याप्त होगी। पर आशा है, इसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हम अपनी पूरी निष्ठा, शक्ति और ईमानदारी से अपना काम कर सकें, इसके लिए पूरी पारदर्शिता के साथ लेनदेन की बात भी तय हो जाना चाहिए। अच्छे दिन की शुभकामनाओं के साथ - इंकलाब जिंदाबाद।

देशभर के किसान भी अपनी प्रतिक्रियाएँ प्रेषित करना चाहते थे कि इस प्रकार की योजना लागू होने से उन्हें भी आत्महत्या का मार्ग दिखानेवाली खेती के हानिकारक, और हिंसावृत्ति से मुक्ति मिल जायेगी। सतत् चलनेवाली इस चुनावी प्रक्रिया से जुड़कर उनका जीवन आत्महत्याप्रूफ हो सकेगा; परंतु दुर्भाग्य कि उनमें से किसी को पढ़ना-लिखना नहीं आता था। किसी को बोलना और चिल्लाना भी नहीं आता था। उनका कोई संगठन और नेता भी नहीं था। अतः वे अपनी बात राजनीतिक पार्टियों तक नहीं पहुँचा सके।

इस प्रस्ताव के विरोध में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी संगठनों की ओर से भी पत्र आये। पर इसकी मात्रा अत्यंत नगण्य थी। इनके पत्र कूड़े में फेंक दिये गये। ऐसे संस्कृतिभ्रष्ट, धर्मभ्रष्ट और राष्ट्रद्रोहियों की बातों पर ध्यान देना स्वयं राष्ट्रद्रोह से कम नहीं होता? और फिर प्रजातंत्र में बहुमत का महत्व है।

देश की सभी राजनीतिक पार्टियाँ अब अपनी इस योजना को कार्यरूप देने में लगी हुई हैं। कुछ ने तो इसे लागू भी कर दिया है।

हमें क्या! हमें तो कुछ समझ-वमझ है नहीं, अच्छे दिन आने वाले हैं; इसी उम्मीद में। बस्स।

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रचनाकार: चुनावीवर्ष / व्यंग्य / कुबेर
चुनावीवर्ष / व्यंग्य / कुबेर
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