मुझे अक्सर मां का कहा वो वाक्य याद आने लग जाता है. छुटपन में उसकी नजर के सामने हम में से कोई प्लेट( मां कस्तरी कहा करती ) में रोटी छोड़ देत...
मुझे अक्सर मां का कहा वो वाक्य याद आने लग जाता है. छुटपन में उसकी नजर के सामने हम में से कोई प्लेट( मां कस्तरी कहा करती ) में रोटी छोड़ देता या मुंह में डालने के बाद बाहर थूकने लग जाता तो एकदम से बेचैन हो उठती. तुमको अभी इस रोटी का कीमत पता नहीं चलेगा रे. तुमको क्या मालूम कि इसी रोटी के लिए इसी देश में केतना आदमी-औरत को झूठ-सच करना पड़ता है. तुमको अभी पेट का मार नहीं पड़ा है न..तुमको अभी एहसास नहीं है न कि भूख से बिलबिलाना क्या होता है, तभिए एतना जमींदारी दिखाते हो. भगवान न करे, हमर बच्चा को ऐसा कभी दिन देखना पड़े.
इसी रोटी के लिए इतना सबकुछ न :
आटा गूंथते हुए, लोई बनाते हुए, रोटी बेलते हुए, बर्नर पर रखकर फुलाते हुए और आखिर में उस पर कभी-कभार घी लगाते हुए अक्सर मेरी आंखें नम हो जाया करती हैं. ये रोटियां मेरे जीवन की सर्वश्रेष्ठ कृति जान पड़ती हैं. किसी लेख, कविता, कहानी या टीवी शो से भी ज्यादा बेहतर. ये रोटियां जब फूलकर उलट जाती हैं, फट जाती हैं तो लगता है किसी ने सर्टिफिकेट दे दिया हो. ऐसा तवे पर कपड़े से दबाते वक्त फीलिंग्स नहीं आती थीं.
ऐसे वक्त में मुझे अक्सर मां का कहा वो वाक्य याद आने लग जाता है. छुटपन में उसकी नजर के सामने हम में से कोई प्लेट( मां कस्तरी कहा करती ) में रोटी छोड़ देता या मुंह में डालने के बाद बाहर थूकने लग जाता तो एकदम से बेचैन हो उठती. तुमको अभी इस रोटी का कीमत पता नहीं चलेगा रे. तुमको क्या मालूम कि इसी रोटी के लिए इसी देश में केतना आदमी-औरत को झूठ-सच करना पड़ता है. तुमको अभी पेट का मार नहीं पड़ा है न..तुमको अभी एहसास नहीं है न कि भूख से बिलबिलाना क्या होता है, तभिए एतना जमींदारी दिखाते हो. भगवान न करे, हमर बच्चा को ऐसा कभी दिन देखना पड़े.
इतना कहकर मां अपनी छाती की तरफ भींचकर मुझे लगा लेती. मेरा बुतुरु, अन्न देवता का ऐसा अपमान नहीं करते हैं मेरा बच्चा. मां जूठी प्लेट से रोटी निकालती और प्रणाम करते हुए कहती- माफ कर दियो अन्नपूर्णा माय. बुतरु है, लड़कहुस-हुस में आधा खाके छोड़ दिया. अकिल-बुद्धि दियो ठाकुरजी हमर बुतरु के.
कई बार मां यहीं तक नहीं रुकती. नानीघर के किसी नौकर-चाकर या फिर अपने ही मोहल्ले के आसपास का कोई प्रसंग सुनाने लग जाती कि कैसे फलां दाना-दाना का मोहताज हो गया. पौराणिक कथा सुनातीं जिसमे किसी ने अन्न का अपमान कर दिया और बाद में कंगाल हो गया. चाहे जिस भी तरह से हम भाई-बहन समझ जाएं कि अनाज की बर्बादी नहीं करनी है,पाप है.
बोर्ड परीक्षा के बाद घर छूटा और एक-एक करके हमारी सारी हीरोगिरी बाहर निकलने लग गई. ऐसी भी स्थिति आई कि रोटी खाए बीस-बीस दिन हो जाते. संत जेवियर्स कॉलेज के लोगों से दोस्ती शुरु हुई तो उन्हें रोटी लाने कहने लगा. कोई घर बुलाता और सम्मान में पूरी या कचौड़ी बनाने लग जाता तो मना कर देता. रोटी के लिए अतिरिक्त आग्रह करता. मुझे अब भी याद है चार साल की पूजा बनर्जी को जब ट्यूशन पढ़ाता था तो उसकी मां के साथ यही करार था कि आप मुझे नकदी पैसे मत दीजिएगा, एक ही घर में रहकर पैसे लेना अच्छा नहीं लगता..फिर वो मुझे भैय्या कहती है तो पढ़ाने के पैसे क्या लेना ? उसकी मां ने ही कहा तो फिर तुम रात का खाना मेरे यहां खाना. शुरु-शुरु में तो बड़ा अजीब लगा. जिसके घर में आए दिन दो-चार लोग यूं ही खाकर चले जाते हैं, उस घर का लड़का एक के यहां रोटी के लिए ट्यूशन पढ़ाता है. पूजा की मां ने समझाया- सरस्वती के बदले अन्नपूर्णा, इसमें गलत क्या है..फिर तुम कैश भी तो नहीं लेते..खैर, बाद में मेहनत करके रोटी बनाना सीख गया.
बीए फर्स्ट इयर में मैक्सिम गोर्की का उपन्यास मां पढ़ा. पढ़कर खूब रोया. पता नहीं माइक्रो इकॉनमिक्स की किताब खरीदने कर्बला चौक गया था और ये किताब खरीद ली थी. किताब पढ़ते हुए भी मां का कहा याद आया. जो पौराणिक कहानियां वो सुनाया करती थीं, उनके एक-एक चरित्र जैसे उनमे जिंदा हो उठे थे. मोहल्ले के वो सारे परिवार जिसके बारे में मां ने दाने-दाने को मोहताज हो जाने की बात कही थी, गोर्की के उपन्यास के पन्नों पर मौजूद नजर आने लगे.
घर जाने पर मैंने बताया भी कि तुम जिस रोटी की बात करती थी न, वो इस उपन्यास में दूसरी तरह से है. कुछ पंक्तियां पढ़कर सुनाया. मां ने उस किताब को प्रणाम किया. देखो तो अकिल-बुद्धि का बात लेखक लोग केतना ढंग से करता है. हम बताते थे तो तुमको हंसी-ठठ्ठा लगता था.
मैक्सिम गोर्की की दुनिया और मेरे मां की दुनिया बिल्कुल एक-दूसरे से जुदा थी लेकिन कॉमन थे तो वो चरित्र जो रोटी शब्द आते ही मेरी नजरों के सामने नाचते रहते.
शहर बदला, लोग बदले. मैं दिल्ली आ गया लेकिन अनाज का अपमान करने,जूठा छोड़ देने के प्रति अपराधबोध स्थायी रूप में दिमाग में बैठ गया. रोटी को लेकर तो और भी ज्यादा. किसी को रोटी फेंकते हुए देखता हूं तो मुझे उस बुजुर्ग का चेहरा याद आने लग जाता है. वो मेरे घर सिलबट्टे कूटने आया था. सिलबट्टे कूटने का मतलब जब वो घिसकर सपाट हो जाता तो मां बुलाकर उस पर फिर से निशान बनाने कहती जिससे कि चीजें पहले की तरह पिसने लग जाए. जब उसने अपना काम कर लिया और मां पैसे देने लगी तो बुजुर्ग ने कहा-
मां जी, एतना पैसा में हम कहां आटा, कहां जलावन जुटावेंगे. पैसा के बदले रोटी-ओटी हो तो दे दीजिए. मां भीतर गई. चार रोटी और उस वक्त घर में कुंदरी की भुजिया (हरे रंग की एक सब्जी होती है, भीतर से काटने पर कई बार लाल) बनी थी, प्लेट में करके लाई.
वो बुजुर्ग उन रोटियों में ऐसा खो गया कि उसके सामने की दुनिया, मां-मैं सबके सब गायब हो गए. मां उसे खाते हुए एकटक देखने लगी और अचानक से रो पड़ी. भीतर जाकर मुझे फिर अपनी तरफ भींचा और कहा- देखो मेरा बच्चा, भूख कैसा होता है. हम कहते हैं न. अनाज का अपमान नहीं करना चाहिए. देखो तो कैसे उ बुजुर्ग अमृत समझकर खा रहा है. रोटी के आगे उसे है दीन-दुनिया किसी चीज से मतलब.
विनीत कुमार के फ़ेसबुक पोस्ट - https://www.facebook.com/vineetdu/posts/10210884022234272 से साभार.
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