अमित शर्मा के दो सामयिक व्यंग्य

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अमित शर्मा (CA)                         लालबत्ती का फ्यूज हो जाना सरकार वीआईपी कल्चर पर लगाम लगा रही है, ये दिखाने के लिए एक मई से सड़क से ...

अमित शर्मा (CA) 

                       लालबत्ती का फ्यूज हो जाना

सरकार वीआईपी कल्चर पर लगाम लगा रही है, ये दिखाने के लिए एक मई से सड़क से लालबत्तियां अदृश्य हो जाएगी। ऐसा लगता है मोदी सरकार ने लालबत्ती और लालकृष्ण दोनों को "लाल-सलाम" कह दिया है और हैरानी की बात यह है कि इसका लालकिले से भी कोई ऐलान नहीं किया गया था।

सरकार द्वारा लालबत्ती पर रोक लगाए जाने का ऐसा प्रचार किया जा रहा है मानो आम आदमी की सारी समस्याओं की जिम्मेदार यहीं लालबत्ती ही थी जिसे अब जिम्मेदारी मुक्त कर दिया गया है। प्रधानसेवक जी ट्वीट कर बताते है कि हर भारतीय वीआईपी है, अगर ऐसी बात है तो प्रधानसेवक जी को अगले ट्वीट में यह भी बताना चाहिए था कि अगर हर भारतीय वीआईपी है तो उसे अब तक  रोटी-कपड़ा-मकान की तरह लालबत्ती से वंचित क्यों रखा गया? लेकिन प्रधानसेवक जी ने ट्वीट कर ऐसा कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया, हो सकता है उस दिन एक ट्वीट के बाद ही उनका जिओ का  "मैक्सिमम डेली डेटा यूज़" पूरा हो गया हो। वैसे एक बात और जो गौर और शोर करने लायक है वो यह की ,अगर सरकार देश से वीआईपी कल्चर खत्म ही करना चाहती है तो फिर हर भारतीय को वीआईपी कहने का क्या तुक है? सरकारी बयानों में तुक ढूंढने से अच्छा है कि इंसान अपने पड़ोस में फ्री वाई-फाई ढूंढ ले।

लालबत्ती केवल  रोशनी ही नहीं देती थी बल्कि वीआईपी कल्चर को शोभा भी देती थी। लालबत्ती गुल होने से वीआईपी और वीवीआईपी होने का चिराग तो नहीं बुझेगा लेकिन उसकी रोशनी जरूर मद्धम पड़ेगी। पहले लालबत्ती वाली गाड़ी के सड़क पर उतरते ही आपातकाल सा माहौल हो जाता था लेकिन अब केवल आपातकालीन सेवाओं से जुड़े वाहनों पर ही लालबत्ती का उपयोग संभव होगा। लालबत्ती स्टेटस सिंबल हुआ करती थी लेकिन बिना लालबत्ती के स्टेटस सिंबल "दिव्यांग" सा फील दे रहा है। बिना लालबत्ती के वीआईपी होना ठीक वैसा ही है जैसे बिना घोटाले की सरकार।

लालबत्ती हटाकर सरकार न केवल उस महान वीआईपी परंपरा ,जिसे कई नेताओं और अधिकारियों ने अपनी कार और अहंकार से  सजाकर इस मुकाम तक पहुँचाया है, को लांछित करने का प्रयास कर रही है बल्कि आम आदमी की छवि को धूमिल करने का प्रयास  भी कर रही है। क्योंकि जब तक समाज में वीआईपी रहेंगे तब तक आम आदमी उनको देखकर अपने को छोटा महसूस करता रहेगा और सरकारें उसके उत्थान हेतु कदम उठाती रहेगी। अगर समाज से वीआईपी सभ्यता ख़त्म होकर सभी आम आदमी हो गए तो सरकारें आम आदमी के कल्याण के लिए कहाँ से प्रेरणा लेगी। असली समाजवाद लाने के लिए देश में विशिष्ट और विशिष्टता का रहना अत्यंत आवश्यक है। विशिष्टता का शिष्टता में बदल जाना लोकतांत्रिक और सामाजिक  मूल्यों के लिए खतरा है।

जो लोग लालबत्ती का रोब जमाते थे इस निर्णय से उनके मुँह में अब दही जम चुका ताकि इस मुद्दे पर अच्छे से रायता फैलाया जा सके। लालबत्ती से सजी गाड़ी जब शान से निकलती थी तो अच्छे -अच्छों की हवा बिना स्क्रू-ड्राइवर के ही टाइट हो जाया करती थी।  साहब के "लॉन" से निकली गाड़ी बिना किसी "चालान" के सायरन बजाती हुई रेडलाइट क्रॉस कर पूरी ठसक से अपने गंतव्य तक पहुँच कर वीआईपी होने के मंतव्य को पूरा करती थी।

आम जनता "लालबत्ती धारकों" को विशिष्ट और सम्मानित नज़रों से देखती थी लेकिन सरकार के इस "वीआईपी विरोधी" निर्णय से अब आम जनता बिना लालबत्ती के उनको सामान्य दृष्टि से ही देखेगी। आम जनता के इस दृष्टिदोष और वीआईपी लोगों की मानहानि की भरपाई के लिए सरकार को संसद के अगले सत्र में विशेष मुआवज़े की घोषणा करनी चाहिए। मुआवजा मानहानि की पूर्णरूप से भरपाई तो नहीं कर सकता  है लेकिन लालबत्ती के चले जाने के गम को गलत करने का सही रास्ता तो बता ही सकता है।

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सफ़र के हमसफर

जोड़ी का हर जगह महत्त्व है फिर वो चाहे मोज़े की जोड़ी हो, जूते की जोड़ी हो, संगीतकार की जोड़ी हो, क्रिकेट में ओपनिंग बैट्समैन की जोड़ी हो या फिर कोई और जोड़ी। कुछ कांड केवल जोड़ियों में ही संभव है। कुछ जोड़ियां बेजोड़ होती है, तो कुछ जोड़ियां जोड़तोड़ या गठजोड़ के गर्भ से उपजी होती है जैसे राजनैतिक जोड़ियां। 

बाकी सब तरह की जोड़ियां तो समय-समय पर फुटेज और दिमाग  खाती रहती है पर कुछ जोड़ियां ऐसी भी  होती है जिनके लाइमलाइट में आने से पहले ही उनकी किस्मत का बल्ब फ्यूज हो जाता है और उनका "टाइम-स्लॉट" यूज़ होने से रह जाता है।

एक ऐसी ही जोड़ी है ,किसी भी बस के ड्राइवर और कंडक्टर की। हर बस में इस जोड़ी का मेल अवश्यम्भावी होता है इसलिए इनका तालमेल भी बहुत जरूरी होता है। ड्राइवर और कंडक्टर के बिना बस "बेबस" होती है। एक बस के लिए किसी ड्राइवर और कंडक्टर का वही महत्त्व होता है जो सरकार के लिए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का होता है। वैसे बस हो या सरकार, भगवान भरोसे ज्यादा स्मूथ और अच्छे एवरेज से चलती है। बस चाहे निजी हो या सरकारी लेकिन वो चलती हमेशा से ड्राइवर और कंडक्टर के "निजी तौर-तरीकों" से ही है। ड्राइवर हॉर्न बजाता है , कंडक्टर सीटी बजाता है बस केवल यात्री ही इनकी हरकतों पर ताली नहीं बजाते है। कहते है, जोड़ियां ऊपर से बनकर आती है लेकिन ये जोड़ी ऐसी है जो अगर अपना काम सही से ना करे तो आपको ऊपर  भी पहुँचा सकती है।

जैसे कुछ लोगों की त्वचा से उसकी उम्र का पता ही नहीं चलता वैसे ही बस में घुसने के बाद "आपकी यात्रा मंगलमय हो" जैसे सुवाक्य पढ़ने के बाद ड्राइवर और कंडक्टर के स्वभाव का पता ही नहीं चलता। बस में चढ़ने के बाद यात्री अपने सामान की नहीं बल्कि सम्मान की भी स्वयं जिम्मेदार होती है।

अपने हाथ में स्टीयरिंग और गियर लिए ड्राइवर, यात्रियों के भाग्य और अपने ड्राइविंग कौशल से सभी यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुँचाता है। ड्राइवर बस को अपनी हथेलियों पर रखता और उतने समय तक यात्री भी अपनी जान वहीं पर मतलब हथेली पर  रखते है। 

जैसे जंगल का राजा शेर को माना जाता है वैसे ही सड़क का राजा बस का ड्राइवर होता है जो पूरी सड़क पर "वैध-अतिक्रमण" करते हुए बीच में चलता है और उसके इर्द-गिर्द बाकी वाहन उसकी शरणागति लेते हुए चलते है। जिस प्रकार शेर के दहाड़ने से दूसरे सारे जानवर डर और घबराकर इधर-उधर भाग जाते है उसी प्रकार बस ड्राइवर के भयंकर "हॉर्न-नाद" से दूसरे वाहन चालक घबराकर बस को साइड दे देते है। बस ड्राइवर ब्रेक भी ऐसे लगाता है जैसे किसी इमरजेंसी घटना के बाद आनन-फानन में प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई हो। 

किसी बस-स्टॉप पर यात्रियों के उतरने पर ड्राइवर, यात्रियों को देखकर ऐसा "फेशियल एक्सप्रेशन" देता है मानो वो बस चलाकर यात्रियों को अपने गंतव्य स्थान तक नहीं लाया हो बल्कि विदेश मंत्रालय के आदेश पर दूसरे देश से जान बचा उनको एयरलिफ्ट करवाकर लाया हो। बस ड्राइवर ट्रैफिक रूल्स का  केवल पालन ही नहीं करते है बल्कि "लालन-पालन" दोनों करते  है। ड्राइवर की सीट के ऊपर लिखा रहता है "ड्राइवर से बातचीत ना करे" ताकि ड्राइवर बिना व्यवधान के गाड़ी चलाते समय मोबाइल पर बात कर सके।

माता-पिता और गुरुओं के बाद मुझे बस कंडक्टर ही सबसे प्रेरणास्पद व्यक्तित्व लगता है क्योंकि वो भी तमाम कठिनाइयों के बावजूद आपको हमेशा "आगे बढ़ने" की प्रेरणा देता है। मुझे हमेशा से ही कंडक्टर नाम का व्यक्तित्व असामान्य और अद्भुत लगता रहा है क्योंकि जब  रजनीकांत जैसा "महामानव असल ज़िंदगी में "कंडक्टर" की भूमिका निभा चुका हो तो कंडक्टर एक सामान्य व्यक्ति भला कैसे हो सकता है! मेरी राय में कंडक्टर किसी पार्टी हाई-कमान से कम हैसियत नहीं रखता है क्योंकि पार्टी हाई-कमान के बाद कंडक्टर ही एक ऐसा ऐसा व्यक्ति है जो "टिकट"देने में सबसे ज्यादा आनाकानी करता है। विज्ञान के लिए टच-स्क्रीन पद्धति भले ही नई हो लेकिन कंडक्टर तो सदियों से "टच-पद्धति" का उपयोग कर खचाखच भरी बस में भी किसी भी कोने सेे किसी भी कोने तक पहुँचते रहे है। कंडक्टर के पास समय और "छुट्टे" की हमेशा किल्लत रहती है।

कंडक्टर दुनिया में पहला ऐसा इंसान है जिसे देखकर मुझे पता  लगा की कान का उपयोग एक "पेन-स्टैंड" की तरह भी किया जा सकता है।  खचाखच भरी बस में कंडक्टर के कर्कश स्वर और उसके बार बार सीटी बजाने का फायदा ये होता है आदमी जितनी देर बस में होता है उतनी देर आजकल के फ़िल्मी म्यूजिक को मिस नहीं करता है ।

चाहे कोई कितनी भी बुराई कर ले लेकिन मुझे तो ड्राइवर और कंडक्टर दोनों अभिभावकों की तरह "केयरिंग" लगते है क्योंकि लंबे सफ़र के दौरान वही तय करते है कि आप को  कहाँ टॉयलेट के लिए जाना, कौन-सी होटल में खाना है और वापस कितनी देर में आकर बस में बैठना है।

दुनिया की हर जोड़ी की तरह ड्राइवर और कंडक्टर की जोड़ी भी बहुत खूबसूरत है बशर्ते इसे HD नजरिए से देखा जाए।  बस के सफ़र में ड्राइवर और कंडक्टर को अपना हमसफर बनाएंगे तो कभी "सफ़र" (Suffer) नहीं करेंगे और अगर नहीं बनाएँगे तो टिकट के साथ साथ सफ़र भी जैसे तैसे कट ही जाएगा।

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रचनाकार: अमित शर्मा के दो सामयिक व्यंग्य
अमित शर्मा के दो सामयिक व्यंग्य
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