प्राची // जून 2017 // कहानी // अज्ञात वनवास // डॉ. गोपाल नारायण आप्टे

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गं गूबाई अपनी बेटी को लेकर चली गयी. मैं उसे जाते हुए देखती रही. कानों में उसके द्वारा कही बात अब तक गूंज रही थी. मुझे निर्णय लेना था, अन्तिम...

गंगूबाई अपनी बेटी को लेकर चली गयी. मैं उसे जाते हुए देखती रही. कानों में उसके द्वारा कही बात अब तक गूंज रही थी. मुझे निर्णय लेना था, अन्तिम निर्णय कि मुझे आखिर क्या करना था. गंगूबाई की बात से मुझे निर्णय लेने में आसानी हो गयी थी.

जीवन कभी-कभी ऐसी परीक्षा लेता है, जब हमारा

अध्ययन और अनुभव धरा रह जाता है और कोई ऐसा व्यक्ति पल भर में जीवन की राह बता कर चला जाता है.

पढ़ाई पूरी होते ही पापा ने मेरा विवाह ऐसे व्यक्ति से कर दिया, जिनका जीवन ही समाज सेवा था. मैं भी उनके साथ मलिन बस्तियों में जाने लगी. सेवा का कार्य जीवन का एक अंग बन गया था.

एक दिन हम पति-पत्नी अपने घर की ओर लौट रहे थे तो हमारे सामने से एक हिजड़ों की टोली हाथ मटकाते हुए निकली. मैंने पति की ओर देखा, उन्होंने मुझे देखा. कहा किसी ने कुछ नहीं, लेकिन एक प्रश्न मेरे दिल की धरती पर रोपित हो गया था.

रात को हम बिस्तर पर थे. मुझे नींद नहीं आ रही थी. हंसमुख ने पूछा-

‘‘तुम अभी तक सोई नहीं? क्या बात है?’’

‘‘मैं थोड़ी परेशान-सी हूं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्या जानते नहीं?’’ मैंने प्रश्न का उत्तर प्रश्न से देते हुए कहा.

‘‘हां बताओ...!’’

‘‘वो हिजड़ों को देखकर बड़ा बुरा लगा था. मैं...?’’ मैंने बात को अधूरा छोड़ दिया.

‘‘क्या करना चाहती हो?’’ उनका प्रश्न स्पष्ट था, परन्तु उसका उत्तर देने की स्थिति में मैं नहीं थी. कुछ सोचकर मैंने कहा- ‘‘उनके अधिकारों को लेकर समाज को जागरूक करना, लोगों की सोच को बदलना भी जरूरी है.’’

हंसमुख ने कहा, ‘‘हां, कुछ किया जा सकता है. ऐसा करो, तुम प्लानिंग बनाओ. देखते हैं कौन-सा एन.जी.ओ. इस पर हमारी मदद कर सकता है?’’

‘‘ठीक है,’’ मैंने कहा.

अगले दिन मैं लैपटॉप लेकर बैठी. गूगल पर सर्च करके ढेर सारी जानकारियां जुटाईं. बाद में एक परिचित से भी मिली. उनसे भी जानकारियां लीं. अंत में मैंने एक प्रेजेन्टेशन तैयार किया. हंसमुख ने उन आंकड़ों के साथ एक प्रोजेक्ट बनाया और कई स्वयंसेवी संस्थाओं को भेज दिया.

कुछ दिन बाद हंसमुख ने मुझे खुशखबरी दी कि प्रोजेक्ट को एक संस्था ने स्वीकृत कर लिया है.

परन्तु जब काम शुरू किया तो पता चला यह काम इतना आसान नहीं था. कोई भी इस विषय पर कोई काम करने को तैयार नहीं था. सबकी नजरों में एक अजीब-सी वितृष्णा थी. सब उन्हें उपेक्षित नजरों से देखते थे. उनके अधिकारों पर कोई बातचीत करने को तैयार नहीं था.

सब सोचते थे कि हिजड़े सुखी जीवन जीते हैं. उनके लिए किसी भी प्रकार का काम करना व्यर्थ था. लेकिन वास्तविकता यह थी कि जिन उपेक्षाओं के साथ वह जी रहे थे, वह किसी से कहते नहीं थे. अकेले जीते थे और अकेले ही उन कष्टों के गरल को पीकर मर जाते थे.

उनके जीवन की इच्छाएं ड्योढ़ी पर ही दम तोड़ देती हैं. उनके साथ बहुत अधिक सहानुभूति की आवश्यकता थी, लेकिन मुट्ठी भर व्यक्ति ही इस बारे में सोच पाते थे. तमाम कठिनाइयों के बाद हम लोग अपने काम पर लगे रहे. किसी न किसी दिन सफलता अवश्य मिलेगी.

इसी बीच मैं गर्भवती हो गयी. अब मैं ज्यादातर घर में रहने लगी थी, परन्तु ध्यान काम पर ही लगा रहता था.

थर्ड जेण्डर्स के बीच काम करते हुए मेरे मन में तरह-तरह के विचार आते रहते.

एक रात मैंने हंसमुख से अपने मन के संशय को प्रकट करते हुए पूछा, ‘‘मुझे थर्ड जेण्डर तो नहीं होगा?’’

‘‘चुप! फालतू बातें मत करो.’’ हंसमुख ने डांटते हुए कहा.

‘‘ना जाने क्यों मुझे डर लग रहा है.’’ मैंने पुनः कहा.

‘‘तुम पागल हो गई हो. तुम इन लोगों के साथ काम करती हो न्, उसी का प्रभाव तुम्हारे दिमाग पर पड़ रहा है.’’ हंसमुख ने कहा और करवट लेकर सो गया.

मैं बहुत देर तक सो नहीं पाई. मन में वही बात बार-बार आती कि कहीं ऐसा हो गया तो...? मैं सोचती और पसीने से तर-बतर हो जाती. यह भ्रम मुझे बहुत परेशान करने लगा था.

अब तो मुझे स्वप्न भी आने लगे थे, जिसमें कोई नन्हीं-सी जान आकर मुझसे कहती, ‘‘मम्मी, मैं तुम्हारी कोख में आ रही हूं.’’ मैं उस नन्हीं जान को उठाती, देखती और बुरी तरह चौंक जाती- अरे यह तो थर्ड जेण्डर है. मैं कांप-कांप जाती. कभी चीखकर उठ बैठती.

हंसमुख मुझे डॉक्टर के पास ले गया. डॉक्टर ने मुझे मनोचिकित्सक के पास ले जाने के लिए कहा. मनोचिकित्सक मुझे समझाता रहा- पढ़े-लिखे लोगों के साथ यही परेशानी होती है. वह सबकुछ जानने का भ्रम पाले रहते हैं. जो कम जानते हैं, वह सुखी जीवन जीते हैं.

हंसमुख के लिए मैं परेशानी का कारण बनती जा रही थी, क्योंकि मेरी आंखों की नींद उड़ चुकी थी. आंखों के नीचे काले धब्बे पड़ गए थे. हंसमुख इसके लिए स्वयं को दोषी मान रहे थे. ना वह उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ते, ना मैं उसमें शामिल होती और ना ही उसका प्रभाव मेरे मन-मस्तिष्क पर पड़ता.

कुछ दवाइयां मुझे दी गई थीं, जिन्हें खा कर मैं सोती रहती थी.

प्रसव का समय निकट आता जा रहा था. उसी क्रम में मेरी चिन्ता भी बढ़ती जा रही थी. घर के काम के लिए गंगूबाई को रख लिया गया था. घर के काम के अलावा वह कभी-कभी मेरे पांवों में तेल भी लगा देती थी.

समय पाखी की तरह उड़ता जा रहा था. मैं प्रसव होने की प्रतीक्षा में दुबली होती जा रही थी. आखिर जब मुझे प्रसव वेदना हुई तो अस्पताल ले जाया गया.

जब एक किलकारी गूंजी तो मेरी प्रसव वेदना कम हुई. मेरी गोद में एक शिशु को दे दिया गया. मेरी उत्सुकता यही थी कि वह क्या था. बेटा, बेटी या वो...? मैंने ध्यान से देखा और चीख-चीख कर रोने लगी. यह क्रंदन खुशी का नहीं था. मेरा बच्चा थर्ड जेण्डर था. इस शाप को लेकर मुझे जीवन भर जीना था. पता चला तो हंसमुख भी मेरे सामने नहीं आए. जब आए तो उनकी नजरें नीची थीं. उनकी आंखों में आंसू थे. मैं मूकदर्शक की तरह उनका चेहरा देखती रही.

एक सप्ताह बाद मैं घर पर आ गई. बच्चा होने की खबर ना तो हमने रिश्तेदारों को दी, ना मोहल्ले में ही किसी को बताया. वह एक अज्ञात वनवास था, जिसमें मैं थी और मेरा नन्हा शिशु था. मैं उसकी सम्पूर्ण देखभाल कर रही थी. उसकी देखभाल के लिए कोई आया या नर्स नियुक्त नहीं की गई थी. कमरे में मैं होती थी, बच्चा होता था.

कभी-कभी हंसमुख गंभीर चेहरा लिए हुए आते थे.

हमें उसकी चिंता लगी हुई थी कि शीघ्र ही उसे ऐसे समुदाय को देना होगा जो उसके भाग्य का निर्माण करेंगे. हम जानते थे कि हिजड़ों को कितना मानसिक क्लेश भोगना पड़ता है. स्वयं की पहचान बनाने का और उस पहचान को स्थापित रखने का. भविष्य में उसके साथ यह दिक्कतें आनेवाली थीं. हंसमुख एक ही सलाह देता कि बहुत प्यार मत करो, वरना बाद में बहुत पीड़ा होगी.

आज गंगूबाई थोड़ा विलम्ब से आई थी. जब घंटी बजी तो मैंने ही दरवाजा खोला. गंगूबाई के साथ एक छोटी लड़की थी, जो मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग थी. मैंने पहली बार उसे देखा था, अतः पूछा-

‘‘अरे, यह कौन है?’’

‘‘बिटिया है मेरी मैडम जी...घरवाला कहीं चला गया था, इसीलिए अपने साथ ले आई. विकलांग है. चुपचाप एक जगह बैठी रहेगी, तबतक मैं काम निबटा दूंगी.’’ कहकर गंगूबाई काम में लग गई.

मेरा मन भारी हो गया. मैंने उसकी बेटी को देखते हुए पूछा- ‘‘तुझे इसे पालने में कोई दिक्कत नहीं होती?’’

‘‘थोड़ी-बहुत तो होती है मैडम जी, पर यह मेरी बेटी है, चाहे विकलांग ही सही. हम गूंगे, बहरे, काने और कमजोर बच्चों को पाल लेते हैं, तो इसे क्यों नहीं पालेंगे?’’ कहकर गंगूबाई ने प्यार भरी निगाहों से अपनी बेटी को देखा

काम निबटाकर गंगूबाई चली गई, परन्तु उसकी बात अभी तक मेरे कानों में गूंज रही थी- ‘यह मेरी बेटी है....इसे क्यों नहीं पालेंगे?’

मुझे निर्णय लेना था, अन्तिम निर्णय और मैंने निर्णय ले लिया था.

हंसमुख जब शाम को घर लौटे तो मेरा चेहरा खुशी से खिला हुआ था. मुझे प्रसन्न देखकर उन्होंने पूछा- ‘‘बहुत दिनों बाद खुश नजर आ रही हो, क्या बात है?’’

‘‘बात ही ऐसी है कि आप भी खुश हो जाओगे.’’

‘‘अच्छा, बताओ क्या बात है?’’ हंसमुख ने पूछा.

पलभर के लिए मैं चुप रही, फिर बोली, ‘‘अपने बच्चे को लेकर अब परेशान होने की कोई बात नहीं है.’’

‘‘क्या मतलब? क्या तुमने कहीं बात कर ली है?’’ अचंभित होकर हंसमुख ने पूछा.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है.’’

‘‘तो फिर...?’’

‘‘मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता होगी हंसमुख?’’

‘‘कैसी मदद?’’

‘‘हम अपने बच्चे को स्वयं पालेंगे.’’

‘‘क्या कह रही हो?’’ आश्चर्य से उसने कहा.

‘‘हंसमुख, जब अन्य विकलांग बच्चों को उनके माता-पिता बिना किसी शर्म के पाल लेते हैं, तब हमें अपने पुत्र को पालने में किस बात की शर्म? प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ कमी होती है. सब पूर्ण तो नहीं होते, लेकिन फिर भी वह जीते हैं, नाम कमाते हैं. हम भी अपने बेटे को एक कमी के अभाव में संसार की खुशियों से दूर थोड़े ही रखेंगे. हम उसे ऐसा वातावरण देंगे, जहां वह पूर्ण होने के एहसास के साथ आगे बढ़ सके, जी सके.’’ कहते-कहते मेरा गला भर आया.

हंसमुख मेरे चेहरे को देखने लगा. फिर पास आया और अपनी हथेली में मेरे चेहरे को लेकर कहा, ‘‘इस कोण से मैंने कभी सोचा ही नहीं था. मैं तुम्हारे साथ हूं.’’

मैंने खुशी से अपना सिर हंसमुख के सीने पर रख दिया.

अगले ही दिन मेरा अज्ञात वनवास समाप्त हो गया.

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सम्पर्कः सोहागपुर, होशंगाबाद-461771

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रचनाकार: प्राची // जून 2017 // कहानी // अज्ञात वनवास // डॉ. गोपाल नारायण आप्टे
प्राची // जून 2017 // कहानी // अज्ञात वनवास // डॉ. गोपाल नारायण आप्टे
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