प्राची // जून 2017 // कहानी // खाली आसमान // देवेन्द्र कुमार मिश्रा

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गौ रव बलरामपुर में अपने माता-पिता के साथ दो कमरों वाले सरकारी क्वार्टर में रहता था. वह अभी नौवीं कक्षा का विद्यार्थी था. शारीरिक गठन के नाम ...

गौरव बलरामपुर में अपने माता-पिता के साथ दो कमरों वाले सरकारी क्वार्टर में रहता था. वह अभी नौवीं कक्षा का विद्यार्थी था. शारीरिक गठन के नाम पर दुबला-पतला, रंग सांवला, स्वभाव से सामान्य, कुछ अधिक भावुक, अपनी उम्र के बच्चों से अलग ही स्वभाव का था. एकान्त में स्वयं से बातें करने की आदत थी उसे.

गौरव के दो भाई और थे. वे अपनी पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त तथा खेलकूद में मस्त रहते थे, जबकि गौरव का समय या तो अध्ययन में बीतता था या फिर एकान्त में खुद से बातें करने में. वह परिवार में कुछ उपेक्षित सा रहता था. कभी-कभी उसे डांट भी सुननी पड़ती थी. इससे वह दुःखी हो जाता और एकान्त में जाकर छिप जाता.

गौरव के मन में न जाने क्यों एक अजीब-सा खालीपन भर चुका था. उसके मन में सदा एक बेचैनी-सी रहती. एक अजीब-सी छटपटाहट वह अनुभव करता. उसका मन करता कि कोई उसके पास बैठकर उससे प्यार के दो बोल बोले, उसको समझे. उसके मन की बात समझे कि वह क्या और क्यों सोचता है. वह क्या चाहता है? वह स्वप्नदर्शी था और वह चाहता था कि कोई उससे पूछे कि वह क्यों इस प्रकार के स्वप्न देखता है?

वैसे तो हर व्यक्ति कभी-न-कभी स्वप्न देखता ही है और यदि बच्चा महत्वाकांक्षी होता है तो अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए सुन्दर-सुन्दर ख्वाब देखना उसका स्वभाव बन जाता है. परन्तु इन सब के साथ ही गौरव कुछ हटकर सोचता था. उसके मन में एक पवित्रता थी. वह हर किसी से निश्छल भाव का अपनत्व चाहता था. उससे कुछ मिलते-जुलते व्यवहार की इच्छा रखता था.

गौरव के क्वार्टर के सामने वाले बंगले में एक सुन्दर महिला रहने के लिये आयी. वह गौरव के पिता की अधिकारी थी. उसका स्थानान्तरण हाल में ही इस शहर में हुआ था. उसकी आयु लगभग पैंतीस-छत्तीस वर्ष के लगभग रही होगी. तीखे नाक-नक्श वाली थी. छरहरे गोरे-लम्बे बदन पर लम्बे-लम्बे बाल उस महिला की सुन्दरता को चार चांद लगाते थे. गौरव का मन करता था कि ऐसी सौम्य और सुन्दर महिला को वह बस देखता ही रहे.

उसने देखा कि दोनों के क्वार्टर की स्थिति ऐसी थी कि अपने घर के कमरे की खिड़की से एक दूसरे को आसानी से देखा जा सकता था.

जब से वह नई महिला अधिकारी वहां रहने के लिए आयी थी, तभी से उसके स्वभाव और क्रियाकलाप को लेकर अन्य कर्मी चर्चा करते. कुछ उसमें अच्छाई बताते तो कुछ उसमें बुराइयां तलाश कर उनका बखान करते रहते. सबसे अधिक चर्चा का विषय था- उसका अभी तक अविवाहित रहना. उसकी इतनी अधिक आयु हो गयी थी, लेकिन शादी नहीं हुई थी. क्या कारण रहा होगा? लोग केवल अंदाजा लगाते थे.

छोटे-से कस्बे में एक अविवाहित महिला का अविवाहित युवकों से हंस-हंसकर बातें करना विवाहित महिलाओं को अखरता था. न जाने क्यों...? यही विषय बन जाता था चर्चा का. लोग चर्चा करके मजा लेते.

उस महिला के बारे में ये सारी बातें गौरव को भी पता चली थीं. अपने मम्मी-पापा की बातें वह बहुत गौर से सुनता था. पापा कहते थे, ‘‘इतनी उम्र हो गयी?...पता नहीं अब तक क्यों नहीं की शादी?...क्या पता कोई प्रेम-व्रेम का चक्कर रहा होगा?’’ कभी कहते, ‘‘हमें क्या करना...? कैसी भी हो...कुछ भी हो...है तो हमारी अधिकारी ही...हमें तो उसका हुकुम मानना है.’’ पापा अपनी मजबूरी दर्शाते.

कभी किसी बात पर गुस्सा आता या ऑफिस का टेंशन होता तो पापा के बोल इस तरह के होते, ‘‘देखो तो...! जात की छोटी है और हम पर हुकुम चलाती है...पर क्या करें? सरकारी नौकरी है...नहीं तो कभी की लात मार चुका होता.लेकिन बच्चों की जिम्मेदारी का खयाल आ जाता है.’’

गौरव ने वैसे तो न जाने कितनी ही बार उस महिला को देखा था और वह भी बहुत ही गौर से देखा था, परन्तु उसे उसमें कुछ विशेष नहीं लगा था, लेकिन नीले रंग की साड़ी में वह निश्चय ही बहुत सुन्दर लगती थी. जिस दिन गौरव ने उसे नीले रंग की साड़ी में पहली बार देखा था तो वह सब कुछ भूलकर केवल उसे देखता रहा था, तब तक, जब तक कि वह उसकी नजरों से ओझल नहीं हो गयी थी. फिर तो गौरव दिन में न जाने कितनी ही बार अपनी खिड़की से झांकता कि सम्भव है इस बार अवश्य ही वह नीली साड़ी में दिखायी दे जाये.

निराशा तो उसे तब होती, जब वह नीली तो क्या किसी भी रंग की साड़ी पहने दिखायी नहीं देती थी. उस दिन गौरव को ऐसा लगता जैसे उसका कहीं कुछ खो सा गया था.

एक दिन ऐसा हुआ कि वह महिला उसे दिखाई नहीं दी. गौरव बेखयाली में जा पहुंचा उसके घर ही. जाकर घर का दरवाजा खटखटाया. दरवाजा उस महिला ने ही खोला और सामने गौरव को खड़े देख कर सामान्य स्वर में बोली, ‘‘आओ, अन्दर आ जाओ.’’

गौरव घर के अन्दर चला गया. वह असमंजस में था. समझ नहीं पा रहा था कि वहां क्यों आया था? यहां आने के पहले सोचा ही नहीं था, वह वहां क्यों जा रहा था. महिला पूछेगी तो वह क्या उत्तर देगा. लेकिन जब आ ही गया था तो अन्दर आना ही था.

गौरव को कुछ न बोलते देख वह स्वयं बोली, ‘‘तुम तो सामने वाले क्वार्टर में रहते हो न्...?’’

‘‘जी...’’ अपने आपको संयत करते हुए बोला था गौरव, ‘‘मेरा नाम गौरव है...कल आप बाहर दिखायी नहीं दी थीं, इसलिये देखने चला आया कि आप यहीं हैं या कहीं बाहर चली गयीं.’’ फिर वह कुछ देर चुप रहा. महिला बस हंसती रही.

फिर किसी तरह साहस बटोरते हुए गौरव ने कहा, ‘‘आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं, इसलिये आपको देखने चला आया. आपको बुरा तो नहीं लगा.’’ न जाने कैसे ये शब्द उसके मुंह से निकले थे. कहने के बाद वह स्वयं ही शरमा गया था.

वह समझ नहीं पाया था कि उसके कहने का तात्पर्य क्या हो सकता था. आखिर वह महिला से क्या चाहता था? वह उससे उम्र में बहुत बड़ी थी.

उसे भी बहुत अच्छा लगा था अपनी सुन्दरता की बड़ाई सुनकर. वह हंसकर बोली, ‘‘अच्छा! चलो इस बहाने हमारा परिचय तो हो गया.’’ अब तक वे ड्राइंग रूम में पहुंच चुके थे. वह सोफे की ओर संकेत करते हुए बोली, ‘‘बैठो...!’’ वह यंत्रचालित सा सोफे पर बैठ गया.

थोड़ी ही देर में नौकर उसके लिये चाय-बिस्कुट रख गया. उस महिला ने उसके साथ बैठकर चाय पी. इस बीच में उसने गौरव से उसके बारे में पूछा, ‘‘कौन-सी कक्षा में पढ़ते हो? क्या सब्जेक्ट्स हैं आदि....’’

उसने सधे लहजे में सबकुछ बताया.

कुछ देर बातें करने के बाद वह चला आया. चलते समय उसने कहा था, ‘‘गौरव आते रहना कभी-कभी...’’

गौरव मन ही मन बहुत प्रसन्न था. तभी उसे याद आया उसने महिला का नाम तो पूछा ही नहीं था. उसे ऑण्टी कहे या कुछ और...वैसे भी वह आयु में उससे दोगुनी तो होगी ही. उस पर उसके पापा की अधिकारी भी.

उसने कल्पना में उस महिला का नाम रख लिया साधना.

रात काफी बीत चुकी थी, लेकिन गौरव की आंखों में नींद नहीं थी. वह अपनी साधना को कल्पना में देख रहा था. तमाम तरह के खयाल उसके दिमाग में आ रहे थे. उस समय वह

साधना को अपनी प्रेमिका के रूप में देख रहा था. वह बहुत प्यार से अपने हाथों से उसे अंगूर और सेब खिला रही थी. उसके हाथों की चूड़ियों की खनखनाहट उसे बहुत कर्णप्रिय लग रही थी.

वह सपने में देख रहा था कि महिला उसे प्यार से झिड़क रही थी, ‘‘ये क्या...? अभी तक दो अंगूर भी नहीं खाये गये?’’ अंगूर को निगलते हुए गौरव कहता है, ‘‘खा तो रहा हूं, गुस्सा क्यों कर रही हो? लेकिन तुम भी तो खाओ...’’ तभी गौरव को हल्की-सी खांसी आ जाती है. वह उसे अपनी गोदी में लिटा कर उसकी छाती मल रही है. उसके बालों में अपनी उंगलियों को कंघी बना कर घुमा रही है और भी न जाने क्या-क्या कर रही है? गौरव खयालों में खोया न जाने क्या-क्या सोचता रहा.

वह मन ही मन प्रेमी-प्रेमिका के जीवन को जी रहा था. वह बहुत प्रफुल्लित था. वह चाह रहा था कि सूरज कभी उगे ही नहीं और वह अपनी साधना के साथ यों ही आनन्ददायक क्षण बिताता रहे.

लेकिन जब मां ने उसे आवाज देकर जगाया तो उसकी कल्पना की साधना गायब हो चुकी थी. अब वह वास्तविकता के कठोर धरातल पर था. वह सोचने लगा, वह महिला आयु में उससे बहुत बड़ी थी, उसके पापा की अधिकारी थी. उसके साथ उसका क्या संबंध हो सकता था?

उसने तय किया कि उसे आण्टी ही कहना उचित होगा. वह समय पर विवाह कर लेती तो उसके बराबर का उसका लड़का या लड़की होती.

फिर भी मन से वह इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि वह उसे आण्टी कहे. उसे तो हर तरफ साधना ही दिखायी दे रही थी.

स्कूल गया तो कॉपी में साधना-साधना लिखता रहा. पढ़ने के लिए पुस्तक खोलता तो आंखों में उसे साधना की ही तस्वीर दिखाई देती थी और उसी तस्वीर के वशीभूत हो पुस्तक पर भी साधना शब्द को बार-बार लिखता.

वह दोहरी जिन्दगी जी रहा था- एक तरफ आण्टी और एक तरफ काल्पनिक साधना.

जब कभी उसे अवसर मिलता, वह खिड़की में अपनी कल्पना की साधना के दर्शन के लिए बैठ जाता. कभी-कभी वह महिला जब उसे दिखती तो वह खिड़की की आड़ में हो जाता. वह सोचता कि महिला उसे ही देखना चाह रही थी.

लेकिन वह उससे दोबारा मिलने का साहस नहीं संजो पा रहा था.

इसी तरह कई वर्ष बीत गये. अब वह बहुत बड़ा हो गया था. उसके व्यवहार में कुशलता और परिपक्वता आ गयी थी, लेकिन कल्पनाएं यथावत् थीं.

अचानक एक दिन उसकी खुशियों का जनाजा निकल गया. कांच का महल चकनाचूर हो गया. रात का भोजन करते हुए उसके पापा ने बताया था, ‘‘सामने वाली महिला अधिकारी का अन्यत्र तबादला हो गया है. अगले हफ्ते ही वह चली जाएगी. उसकी जगह पर जो भी नया अधिकारी आयेगा, पता नहीं उसका स्वभाव कैसा होगा?’’

इस समाचार से गौरव का दिल दहल उठा था. वह अन्दर ही अन्दर टूट गया था. उसे लगा, जैसे उसका सबकुछ लुट गया था. लाख कोशिशों के बावजूद उसकी आंखें नम हो गयी थीं. जब वह स्वयं को असहाय महसूस करने लगा तो खाना बीच में ही छोड़कर अपने कमरे में आ गया.

उसने दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया और औंधे मुंह बिस्तर पर लेटकर फूट-फूट कर रोने लगा.

अगले दिन मैडम का सामान ट्रक में लादा जा रहा था. सामान को ट्रक में लादते समय उसे लग रहा था कि उसका ही सामान लूटकर लुटेरे ट्रक में भर रहे थे. उसकी ही आंखों के सामने लुटेरे उसका सामान ले जा रहे थे और वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था.

कॉलोनी के सभी कर्मियों ने मिलकर मैडम को भावभीनी विदाई दी. सभी ने अपनी-अपनी ओर से तरह-तरह के उपहार भी दिये. चलते समय कर्मियों का स्नेह देखकर मैडम की भी आंखें नम हो गयीं.

ट्रक के जाने के बाद मैडम भी कार से स्टेशन के लिये रवाना हो गयीं. गौरव भी अन्य व्यक्तियों के साथ स्टेशन गया था. उसका अन्तर्मन चीख-चीखकर कह रहा था, ‘‘मुझे छोड़कर मत जाओ...साधना....मुझे छोड़कर मत जाओ.’’ लेकिन समय पर ट्रेन आयी और मैडम उसमें बैठकर चली गयी. उसके मन की बात उसके होंठों तक नहीं आ पायी.

गौरव के दिल के हजार टुकड़े ट्रेन के पहियों के नीचे आकर कुचल गये. वह चीख रहे थे, परन्तु उसके दिल के टुकड़ों की आवाज किसी को सुनाई नहीं दे रही थी.

मैडम के जाने के बाद गौरव ने जैसे चुप्पी साध ली. उसके मन की घुटन ने उसे न केवल मानसिक रूप से अशान्त कर दिया, बल्कि वह शारीरिक रूप से भी रोगग्रस्त भी हो गया.

बीते वर्षों में उसने अपने दिल के आसमान पर जो चांद-सितारे टांके थे, वे सभी एक झटके में टूटकर बिखर गये थे और रह गया था बस एक खाली आसमान!

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सम्पर्कः पाटनी कॉलोनी, भरत नगर,

चन्दनगांव, छिंदवाड़ा-480001 (म.प्र.)

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रचनाकार: प्राची // जून 2017 // कहानी // खाली आसमान // देवेन्द्र कुमार मिश्रा
प्राची // जून 2017 // कहानी // खाली आसमान // देवेन्द्र कुमार मिश्रा
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