काव्य जगत विज्ञान व्रत दर्द पुराना है अपने घर. एक खजाना है अपने घर. घर में सबकुछ तो अपना है, क्या अपनाना है अपने घर. दुनिया को अपनाने वाला, ...
काव्य जगत
विज्ञान व्रत
दर्द पुराना है अपने घर.
एक खजाना है अपने घर.
घर में सबकुछ तो अपना है,
क्या अपनाना है अपने घर.
दुनिया को अपनाने वाला,
खुद बेगाना है अपने घर.
खुद को बाहर भी देखा है,
पर पहचाना है अपने घर.
अब तो खुद को देखे-भाले,
उसको जाना है अपने घर.
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छांव छुपी तहखानों में.
धूप नहीं दालानों में.
खोया शहर सयानों में,
जब हम थे दीवानों में.
महल कहां महफूज रहे,
खौफजदा दरबानों में.
सूरज कब से उलझा है,
अंधे रोशनदानों में.
खुद को ही खो बैठे हैं,
हम घर के सामानों में.
सम्पर्कः एन-138, सेक्टर-25, नोएडा-201301 (उ.प्र.)
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यूनुस अदीब
ग़ज़ल
आंखों से मेरी दूर वो जा भी नहीं सकता.
दिल के किसी कोने में समा भी नहीं सकता.
सब मेरी तबाही का सबब पूछ रहे हैं,
मैं खुल के तेरा नाम बता भी नहीं सकता.
दुखती रगों पे रखती है वो इस तरह उंगली,
दुनिया से मैं ग़म अपने छुपा भी नहीं सकता.
उल्फ़त के शज़र ऐसे लगे दिल की ज़मीं पर,
नफ़रत का जोर इनको हिला भी नहीं सकता.
खुशफ़हमी में जीता है ये मग़रूर समन्दर,
प्यासा है अपनी प्यास बुझा भी नहीं सकता.
ऐ मौत तरस खा मेरे बीमार बदन पर,
अब बोझ मैं सांसों का उठा भी नहीं सकता.
इस तरह गिरफ़्तार है जुल्फ़ों में ग़ज़ल की,
पल भर को अदीब अब कहीं जा भी नहीं सकता.
सम्पर्कः 2898, स्टेट बैंक के सामने, गढ़ा बाजार, जबलपुर (म.प्र.)-482003
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डॉ. सुरेश उजाला
ग़ज़ल
मैली चादर को धोया है.
हंसते-हंसते वह रोया है.
वही काटना सदा पड़ेगा,
जीवन में जो कुछ बोया है.
आज उसे अहसास हो गया,
क्या पाया है क्या खोया है.
नब्ज़ समय की पकड़ में आई,
शुष्क आंत को अब टोया है.
उसकी क्यों कर कमर झुकेगी,
जिसने भार नहीं ढोया है.
सपनों में चुसका लेने दो,
बच्चा रो कर के सोया है.
सम्पर्क : 108, तकरोही, पं. दीनदयाल मार्ग, इन्दिरा नगर, लखनऊ (उ.प्र.)
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दो कविताएं
अशोक सिंह
मुझे ईश्वर नहीं, तुम्हारा
कंधा चाहिए
पता नहीं ऐसा क्यों होता है अक्सर
जब-जब मैं दुखी और उदास होता हूँ
ईश्वर से ज्यादा तुम याद आती हो
मैं ईश्वर को मानता तो हूँ
पर उसे जानता नहीं
और न ही चाहता हूँ जानना भी
मुझे सिर झुकाने के लिए
ईश्वर नहीं
सिर टिकाने के लिए
कंधा चाहिए
और वो ईश्वर नहीं
तुम दे सकती हो!
काली लड़की
(एक)
काली लड़की को बहुत छलता है
सपनों में गोरा रंग
नदी में स्नान करती काली लड़की
छुड़ा रही है रगड़-रगड़कर अपना कालापन
अब तो पानी पर से उठ गया है विश्वास
यह साबुन और छह हफ्तों में निखार देने वाला
प्रसिद्ध क्रीम भी किसी काम का नहीं
क्या कश्मीर जाने से बदल जाएगा मेरा रंग!
देर रात गये जगकर सोचती है काली लड़की
और उदास हो जाती है
अपने को काला कहे जाने पर
टूट जाती है काली लड़की
जब टूट जाता है कोई रिश्ता
कालेपन की वजह से
(दो)
काली लड़की के सपनों में आता है
अक्सर एक गोरा लड़का
जिसे छूकर इन्द्रधनुषी हो जाना चाहती है वह
अफसोस
गोरा लड़का नहीं मिलना चाहता
दिन के उजाले में काली लड़की से
और काली लड़की डरती है
गोरे लड़के संग रात के अंधेरे में मिलने से
काली लड़की नहीं जानती
उसकी दूध-सी निश्छल उजली हँसी
किस-किस गोरे लड़के के सपनों में गड़ती है
वह जानती है तो बस इतना
एक दिन उसके गोरेपन के सपनों को तोड़ता
सामने आयेगा कोई काला-भुच्च-आदमी ही
जो आगे बढ़कर थामेगा उसका हाथ
बाबजूद
काली लड़की प्रेम में पड़ी देखती है सपने गोरेपन का
और नदी में स्नान करती छुड़ाती है रगड़-रगड़कर
अपना कालापन.
सम्पर्क : जनमत शोध संस्थान
पुराना दुमका, केवटपाड़ा,
दुमका-814101 (झारखण्ड)
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कविता
चीखती आदमीयत
कन्हैयालाल गुप्त ‘साहिल’
हैवान की हद में, इन्सां खड़ा है,
कहां खत्म होगा सफर आदमी का.
कहीं कोठियां हैं, कहीं झोंपड़ी है,
कहो, कौन-सा है शहर आदमी का.
कहां से चले थे, कहां आ गये हम,
उगाते मिलावट की नायाब फसलें.
सुनाती है प्रवचन, मुखौटों की मण्डी,
कहां हो गयीं गुम, शराफत की शक्लें.
ये सांपों से ज्यादा विषैला असर में,
बिके रैपरों में जहर आदमी का
कहां खत्म होगा सफर आदमी का.
ये सच का गला घोंटने की दलीलें,
कफन के लिए झूठ की पैरवी है.
प्रदूषित पवन, जल, गगन भी प्रदूषित,
बमों की हिफाजत में दुनिया टिकी है.
कयामत भी अचरज में चुप देखती है,
ढहे आदमी पर कहर आदमी का.
कहां खत्म होगा सफर आदमी का.
सलीबों पे लटके हुए हैं फरिश्ते,
सड़क पर गिरे गोलियां खा अहिंसा.
धड़कती है दहशत, हर इक के जेहन में,
विवश-शान्ति को मुंह चिढ़ाती है हिंसा.
दफन कर रहा है स्वयं आदमीयत,
पतन हो चुका इस कदर आदमी का.
कहां खत्म होगा सफर आदमी का.
सम्पर्कः 29-ए/2, कर्मचारी नगर,
कानपुर-208007 (उ.प्र.)
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अभिनव अरुण की दो गजलें
वो जुबां न दे जो शहद न हो न दे लब कि जिन पे दुआ न हो.
दे जिगर तो साथ दे नेकियां वो बयान दे जो डिगा न हो.
दे हयात गर दे फकीर सी, दे मिजाज गर तो मलंग सा,
मुझे मंज़िलें ही दिखा करें मुझे रास्तों का पता न हो.
मेरी हर ग़ज़ल रहे खूं से तर मेरे हक में दर्दे जहान कर,
मुझे जख्म दे तो मेरे खुदा दे वो जख्म जिसकी दवा न हो.
ये सियाहियाँ भले ही मुझे मेरे हर कदम पे मिलें मगर,
वो चराग दे मेरे हाथ में जो कि आँधियों से डरा न हो.
कभी आरजू ये नहीं रही कि फरिश्तों सी हो ये जिन्दगी,
बनूँ आदमी तो वो आदमी जो नज़र से अपनी गिरा न हो.
इसी मोड़ पर हुए हम जुदा यहीं हमने चुन लीं थीं दूरियाँ,
इसी मोड़ पर मेरे वास्ते वो चिराग ले के खड़ा न हो.
उसी घोंसले पे तेरी नज़र जो हुनर की एक मिसाल है,
उसे तोड़ते हुए सोचना कहीं उसमें कोई बया न हो.
दो
मुफ़लिसी फ़ाक़ाकशी बेचारगी के नाम पर.
अब कहाँ संवेदना मिलती किसी के नाम पर.
इश्क़ से वाकिफ़ नहीं ये नस्ल, तो फिर मुश्क़ क्या,
इत्र ओढ़े आ गए सब ताज़गी के नाम पर.
खो गयी शहरों में आकर गाँव की निश्चिंतता,
कर रहे कुर्बान हम क्या क्या खुशी के नाम पर.
चार पैसों के लिए साँसें तलक़ गिरवी हुईं,
हम घुटन में ही जी रहे हैं ज़िन्दगी के नाम पर.
भूलकर हम सूर तुलसी और नानक के शबद,
गा रहे फिल्मी तराने आरती के नाम पर.
सिसकियाँ ग़ज़लों की सुनकर रौब से बोले फिराक़,
कोई मर्यादा न भूले अब हंसी के नाम पर.
सम्पर्कः बी-12, शीतल कुंज, लेन-10, निराला नगर, महमूरगंज, वाराणसी-221010
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कविता
संतोष श्रीवास्तव
आखिर क्यों ???
आदम से हव्वा तक
सदियों का अंतराल लांघ
मेरा और तुम्हारा आज
महज एक सवाल
मेरा होना
उम्र के अलाव में
धीमें धीमें पकना
दर्द को
पाँव से दिल तक
दिल से दिमाग तक
चीरे जाते हुए सहना
दर्द के न होने पर
खुद को सम्हाल न पाना
टूटना...तन्हाइयों में सिमट जाना
नींद को बाजू में सुला
पलकों को उघाड़े रखना
स्मृतियों की किताब खोल
इन सारे सवालों के जवाब ढूंढ़ना
नचिकेता बन
यम के द्वार तक पहुंच जाना
जवाब न पा खंगाल डालना
वेद, पुराण, उपनिषद, शास्त्र
विराट को समझ पाने की भूल में
बूंद भर अस्तित्व को खोकर
तिरोहित हो जाना
उस बड़े शून्य में
जहां पहुंचकर कोई
कभी नहीं लौटा
आखिर क्यों ???
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गजल
डॉ. वेद मित्र शुक्ल
काम नहीं कुछ करना है.
जंतर-मंतर धरना है.
ग़ज़लें कहता खरी-खरी,
हिम्मत है तो सुनना है.
गर्म तवे पर रोटी है,
मैं तो कहता सपना है.
कुर्सी से लड़ बैठा हूँ,
अब तो यारो नपना है.
गाँव छोड़ कर आया हूँ,
दड़बों में अब बसना है.
खेत चुग गयी चिड़िया हैं,
अब मुझसे क्या कहना है.
भैया! कुछ भी कर लूंगा,
पर, दिल्ली में रहना है.
सरकारी नौकर बनके,
समझो मालिक बनना है.
इतना ऊपर उठ आये,
क्या नीचे अब गिरना है?
मैं हूँ कहाँ, कबीर कहाँ?
मुझको काशी मरना है.
शहरी चिड़िया थक करके,
पूछे कब तक उड़ना है?
सम्पर्कः अंग्रेजी विभाग,
राजधानी कॉलेज,
दिल्ली विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली-110015
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पांच कविताएं
हेमलता यादव
चिलमन
तुम भी
समझ गये थे
जब मैंने महसूस किया
तुम्हारी निगाहों का स्पर्श
मेरे अंर्तमन को छूता हुआ
तपा गया मेरी चिलमन
एक दिव्य स्वप्न
सा सजल अहसास,
सकुचाते हुए महसूस
कर ही रही थी
बिनछुए तुम्हारी छुअन
कि तुमने कहा
‘‘चाय ठंडी हो रही है
पी लो.’’
आँखमिचौनी
अजनबी व्यवहार के साथ
पहचाने चेहरे
आँख बचाकर जब
सामने से गुजरते देखे
अहसास हो गया
बुझती उम्र का
स्नेह
दो पीढ़ियों के मध्य
उभरता तीखापन
अनुभव और नवाचार
का संघर्ष
धूप में नहीं पकता
तीसरी पीढ़ी के
स्नेह से पक जाता है.
प्यारी बिटिया
बिटिया के जन्में माँ दुखारी
बिटिया के विदा बाबा दुखारी
बिटिया जन्म ले हारी
बिटिया विदा ले हारी
बिटिया के जीवन दादी दुखारी
बिटिया के पढ़बै दादा दुखारी
बिटिया देह गठे हारी
बिटिया पढ़बे को हारी
बिटिया के झांके भाभी दुखारी
बिटिया के घूमें भाई दुखारी
बिटिया कोठरियन मा हारी
बिटिया जंजीरन मा हारी
बिटिया के खेले आंगन दुखारी
बिटिया के नाम दे पुरखे दुखारी
बिटिया परदन मा हारी
बिटिया नाम पाये को हारी
फिर भी सगरे जीवन
खुशी देत सबको बिटिया
चूंकि सबरन पहाड़ सहे खातिर
बिटिया को कलेजो
धरती सो भारी.
आदर्श
दोगली गीली मिट्टी के
सांचे में ढले आदर्श
स्त्री के तपते शरीर पर चिपक
कठोर बन जाते हैं
चुभन देते हैं
किंतु पुरुष के सीलन भरे शरीर
पर ढह जाता है
गीले आदर्शो का आकार.
सम्पर्कः 459 सी/6, गोविन्दपुरी,
कालकाजी, नई दिल्ली-110019
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कविता
सांवली परी
डॉ. प्रमिला कुमारी गुप्ता
वह सांवली-सी सरल परी!
दौड़ती रहती दिन भर
इधर से उधर
कभी काम तो,
कभी फिकर
न जाने
कौन-सी मशीन
है पैरों में फिट
चकराती रहती ज्यों चकरी
वह सांवली-सी सहज परी!
उठती है भोर बिहान
झाड़ू लिए हाथ
बुहारती है घर-आंगन
करती बर्तन साफ
सिझाती भात
संधाती तरकारी
वह सांवली-सी मूक परी!
हड़बड़ अपना काम निपटा
रोज जाती
दस बारह घर
करती काम
आराम हराम
चुवाती पसीना
दिन दोपहर शाम
लौटती घर
ओरियाती सारी पसरी
वह सांवली-सी कृशकाय परी!
सम्पर्कः प्रांजल-घर, कॉलेज रोड,
कोर्रा, हजारीबाग-825301
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कविताएं
केदारनाथ ‘सविता’
चुनाव में
हर चुनाव में
हर गधे को
बड़े प्यार से
पुचकार कर
पोलिंग बूथ तक
लाया जाता है
उसकी दुलत्ती को भी
सह लिया जाता है,
मतदान के बाद
मत देने वाले गधे को
दुलत्ती झाड़कर
भगा दिया जाता है.
विवशता
किसी की बेबसी पर
किसी को हंसते देखकर
हंसी आती है
उसकी मूर्खता पर
उसकी जड़ता पर
जी में आता है
उसे भी बेबस बनाकर
डाल दिया जाय
किसी अंधेरे भयावह
एकांत में
जहां वह हंसे
अथवा रोये
पर कोई देख न सके
काई सुन सके.
सम्पर्क : पुलिस चौकी रोड,
लालडिग्गी सिंहगढ़
गली (टिकाने टोला),
मीरजापुर-231001 (उ.प्र.)
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