कहानी // निराशा // अर्जुन प्रसाद

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वैशाख का महीना था और गर्मी का दिन। सेलहरा गाँव के शंभू कोरी के दुर्गा और शंकर नाम के दो पुत्र थे और एक छोटी पुत्री सुरभि। दुर्गा बिल्‍कुल भी...

नरेन्द्र मुखर्जी की कलाकृति

वैशाख का महीना था और गर्मी का दिन। सेलहरा गाँव के शंभू कोरी के दुर्गा और शंकर नाम के दो पुत्र थे और एक छोटी पुत्री सुरभि। दुर्गा बिल्‍कुल भी पढ़ा-लिखा न था। यह भी समझ सकते हैं कि वह बहुत ही मोटी बुद्धि का आदमी था। वह अपने माँ-बाप के साथ खेतीबाड़ी का काम-धंधा करता था। शंकर बारहवीं कक्षा पास करने के बाद कालेज में बी.ए. कर रहा था। दुर्गा का विवाह तो हुआ ही था शंकर की शादी भी हो चुकी थी परंतु उसका गौना न आया था। उसकी पत्‍नी अभी अपने मायके में ही थी। सुरभि अभी 6-7 साल की थी। वह अभी एक नादान बालिका थी। उसे सांसारिकता को कोई ज्ञान न था।

दुर्गा बहुत ही सीधा-सादा और माता-पिता का आज्ञाकारी पुत्र था। वह बिल्‍कुल सज्‍जन भी था। कोई उसे कुछ भी कहता रहे वह पलटकर जवाब तक न देता था। शंकर को अपने पढ़े-लिखे होने का बड़ा नाज था। वह खेतीबाड़ी का काम करके माँ-बाप का हाथ बँटाना कतई पसंद न था। वह बहुत चालाक, हठीला और घमंडी भी था। खेतों की जुताई-बुआई का काम दुर्गा ही करता था। वह सुबह से शाम तक नाना प्रकार के घरेलू कामों ही लगा रहता था। साथ ही उसकी पत्‍नी पारो भी दिन-रात उन्‍हीं कामों में व्‍यस्‍त रहती थी।

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एक ओर जहाँ कुछ माता-पिता अपने योग्‍य और कुशल, बड़े पुत्र को बहुत चाहते हैं वहीं दूसरी ओर कुछ गिने-चुने माँ-बाप ऐसे भी होते हैं जो अपने बड़े पुत्र को यह सोचकर उसकी उपेक्षा करते हैं कि अब वह कमाने के योग्‍य हो गया है। उसके बारे में चिंतित रहना मूर्खता है। अब उसे उलटे हमारी खोज-खबर लेनी चाहिए। बुढ़ापे में हमारी मदद करनी चाहिए। जमकर हम सबकी देखभाल करनी चाहिए।

ऐसे माता-पिता अपने अयोग्‍य, मोटे दिमाग वाले बेटे को ही अधिक महत्‍व देते हैं। वे उसे ही अपनी एकमात्र संतान मानते हैं। उनकी नजर में अपने बड़े पुत्र का कोई महत्‍व नहीं होता है। सामाजिक और नैतिक दृष्‍टि से अपने ही बच्‍चों में इस तरह का भेदभाव करना गलत है। इससे बच्‍चों में हीन और वैरभाव उत्‍पन्‍न हो जाती है। लेकिन यहाँ बात कुछ उलटी ही थी। पढ़ाई-लिखाई के चलते शंभू और उनकी पत्‍नी सुभागी छोटे बेटे को बहुत चाहते थे। उनकी निगाह में दुर्गा बिल्‍कुल कायर, बेवकूफ और बेकार था। उनके लिए वह एकदम निकम्‍मा युवक था।

इतना ही नहीं वे खान-पान और वस्‍त्र आदि में भी अपने दोनों बेटों में फर्क रखते थे। दुर्गा को मोटा-महीन पहनने को मिलता तो शंकर को बढ़िया-बढ़िया वस्‍त्र पहनने को मिलते थे। यह बात दुर्गा को तो न अखरती थी मगर उसकी पत्‍नी पारो को यह हरगिज पसंद न था। दोनों भाइयों के बीच यह भेदभाव देखकर उसका जी ऊब गया। उसने अपने सासु-ससुर का बहुत विरोध किया।

उसने कई बार अपनी सासु को टोका भी किन्‍तु पति-पत्‍नी पर उसकी नाराजगी का कोई असर न पड़ा। यह अन्‍याय सहन करते-करते जब पानी सिर से गुजरने लगा तो अपना कोई वश न चलने पर पारो ने अपने पति दुर्गा को ही उकसाना शुरू कर दिया। वह दिन-रात उसका कान भरने लगी। वह आए दिन उससे कहने लगी-स्‍वामी! आप सासु-ससुर जी से क्‍यों कुछ कहते नहीं? चुपचाप कायरों की भाँति उनकी उँगलियों पर नाचते-फिरते हैं।

वह फिर कहती-इतना ही नहीं, कोई काम न करने पर भी हमारे देवर शंकर को सासुजी खूब देशी घी खिलाती हैं। ऊपर से गाय-भैंसों को सानी-पानी हम और आप देते हैं पर उनका दूध देवर को ही मिलता है। वे लोग हमारा और आपका तनिक भी ख्‍याल नहीं रखते हैं। वे सोचते हैं कि आपकी सेवा के लिए एक अकेले मैं ही काफी हूँ। यह बात ठीक नहीं है। इतना सीधापन भी किस काम का? बच्‍चों में भेदभाव करना इंसान को शोभा नहीं देती है। मॉ-बाप की नजर में सभी बच्‍चे समान होने चाहिए।

नित रोज-रोज एक ही बात सुनते-सुनते अंत में एक दिन दुर्गा की खोपड़ी घूम गई। वह भी एक मनुज ही था कोई देव नहीं। एक तो सीधा व्‍यक्‍ति किसी की बात को मानता नहीं है और अगर मान लेता है तो वह उस पर पूरे तन-मन से अमल करता है। वह अच्‍छे-बुरे का अंतर भूल जाता है। दुर्गा अनपढ़ और मोटी बुद्धि का था ही पारो की बातों ने उस पर जादू सा असर किया। धीरे-धीरे उसका मन बिल्‍कुल बदलने लगउसके पास बुद्धि और विवेक की कमी थी हीे दिल में उदासी छाते ही वह एकदम कुंठाग्रस्‍त हो गया। उसके मन-मस्‍तिष्‍क में सनक सवार हो गई। उसकी मति भ्रष्‍ट हो गई। उसका विवेक मिट गया। उसका अंतस्‍तल घृणा से भर गया। अपने भाई दुर्गा और माँ सुभागी के प्रति उसके जी में नफरत पैदा हो गई। अब वे दोनों उसकी नजर में शत्रु नजर आने लगे।

अपने जन्‍मदाता के दोहरे व्‍यवहार से दुर्गा ऊब गया तो एक दिन वह गाँव के ही अपने दो मित्रों मैं फरहान और कल्‍लू से बोला-अरे यार! मेरी अम्‍मा और बाबूजी ने तो अति ही कर दिया है। वे मेरे छोटे भाई शंकर को बहुत चाहते हैं और मुझे बिल्‍कुल काहिल समझते हैं। जैसे मैं उनका कुछ लगता ही नहीं हूँ। उनके लिए मैं एकदम पराया हूँ।

इसलिए मैं अब अपने भाई शंकर और अपनी माँ को रास्‍ते से हटा देना चाहता हूं। उसका विचार सुनकर वे दोनों भी उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए बोले-जब ऐसी बात है तो फिर देर किस बात की है। हम दोनों तुम्‍हारे साथ हैं। तुम्‍हें जो कुछ भी करना है उसे करके स्‍वतंत्र हो जाओ। हीला-हवाली करना ठीक न रहेगा। ऐसे बेरहम भाई और माँ का मर जाना ही बेहतर है। उनका जीना क्‍या और मरना क्‍या? मनुष्‍य के दिल में तब एक बार पाप समा जाता है तो वह अपना असर दिखाकर ही रहता है। तत्‍पश्‍चात दुर्गा ने अपने भाई और अपनी जन्‍मदायिनी वृद्धा माँ को असमय ही मौत की नींद सुलाने को ठान लिया। उसके सिर पर खून सवार हो गया। उसे सारे रिश्‍ते बेमानी नजर आने लगे।

दुर्गा के घर के पिछवाड़े एक छोटा किन्‍तु, गहरा तालाब था। सबसे पहले उसने उस तालाब में आयताकार एक गहरा गड्‌ढा खोदा। उसे ऐसा करते देखकर गाँव के स्‍त्री-पुरूषों ने सोचा-शायद मिट्टी वगैरह निकालने के लिए दुर्गा यह गड्‌ढा खोद रहा है यह सोचकर उन्‍होंने उस पर कोई खास ध्‍यान नहीं दिया। गर्मी व्‍यतीत होने के पश्‍चात बरसात का मौसम आने वाला था।

अतएव जीर्ण-शीर्ण, पुराने सड़े-गले छप्‍परों को उजाड़कर नया छप्‍पर छाना जरूरी था। कुछ ग्रामीणों ने अपने छप्‍परों को उजाड़कर उसी तालाब में फेंक दिया था। दुर्गा ने छप्‍परों के उसी खर-पतवार से उस गड्‌ढे को गुपचुप तरीके से ढक दिया और चुपचाप अपने घर चला गया। उसकी इस हरकत का पता उसकी अर्धांगिनी पारो को भी न चला। दुर्गा ने उसे कुछ भी न बताया। अब उसका मन माँ-बेटे की हत्‍या करने के अलावा किसी और काम में न लग रहा था। पछुआ पवन जोरों से चल रही थी। किसानों की रबी की फसल कटकर खलिहानों में पहुँच चुकी थी और उसकी मड़ाई का काम चल रहा था।

एक रात की बात है शंभू कोरी अपने खलिहान में सोए हुए थे। उनकी पत्‍नी सुभागी घर के आँगन में सोई हुई थी। उसी के साथ उसकी मासूम बेटी सुरभि भी सोई हुई थी। उनकी बगल में एक अन्‍य चारपाई पर उनका छोटा बेटा शंकर सोया हुआ था। इससे पहले अवसर पाकर दुर्गा ने बड़ी चालाकी से उनके कमरे के दरवाजे की कुंडी आहिस्‍ता से खोल दी थी। दरवाजे की कुडी खुली थी लेकिन वह बंद ही था। अतः उन्‍हें इस बात का अहसास भी न हुआ कि दरवाजे की कुंडी खुली रह गई है।

किसी ने इस ओर ध्‍यान ही न दिया। उन्‍होंने बस यही समझा कि दरवाजा बंद है। दुर्गा और उसकी पत्‍नी पारो मकान की छत पर थे। वे अभी जाग ही रही थी। तब तक पारो अपने पति दुर्गा से बोली-अजी! बुड्‌ढे-बढ़िया के अत्‍याचार से बचने के लिए आप कुछ करते क्‍यों नहीं। कुछ कीजिए नहीं तो जिंदगी ऐसे ही गुलामी करते गुजर जाएगी और भर पेट रोटी भी नसीब न होगी।

यह सुनकर दुर्गा उससे बोला-प्रिये! मैं तुम्‍हारी परेशानी भलीभाँति समझता हूँ मगर, रात काफी हो गई है इसलिए अब तुम शांत होकर सो जाओ। समय आने पर मैं कुछ न कुछ अवश्‍य करूँगा। उसका आश्‍वासन पाकर पारो सो गई। पर दुर्गा की आँखों में नींद आने का नाम ही न था। निराशा और सोच में डूबते-उतराते दुर्गा के नेत्रों से निद्रा बहुत दूर जा चुकी थी। वह काफी देर तक करवटें ही बदलता रहा।

पारो को जब खूब गहरी निद्रा आ गई तो दुर्गा चुपचाप वहाँ से उठा और दबे पाँव छत से नीचे उतरकर घर से बाहर चला गया। वह गाँव में जाकर अपने दोनों साथियों फरहान और कल्‍लू को जगाने के बाद उन्‍हें अपने घर लेकर आ गया। वे दोनों शांत मन से उस दरवाजे के बाहर खड़े हो गए जिस कक्ष में शंभू की पत्‍नी सुभागी और उनका छोटा बेटा शंकर और उनकी बेटी सुरभि बेसुध होकर सो रहे थे।

रात्रि के डेढ़-दो बज रहे होंगे, कुछ ही पल में एक तेज धार वाला चारा काटने का गँड़ासा लेकर उनके कमरे में घुस गया। सर्वप्रथम उसने अपने अनुज शंकर की गर्दन पर जोरदार वार किया। गँड़ासे के प्रहार से शंकर की गर्दन से खून के फव्‍वारे छूट पड़े। उसके रक्‍त के कुछ छींटे सुभागी के बदन पर भी जा पहुँचे। इससे अचानक उसकी नींद उचट गई। वह ज्‍योंही उठने लगी त्‍योंही दुर्गा ने बड़ी निर्दयता से उसकी गर्दन पर भी गँड़द्वासा चला दिया। देखते ही देखते उसकी गर्दन भी धड़ से अलग हो गई। इतने में सुरभि की आँख भी खुल गई पर मारे भय के वह कुछ बोली नहीं और मृतवत खाट से ही चिपकी रही ताकि दुर्गा समझ जाए कि वह सो रही है और उसे कुछ पता नहीं है।

पल भर में ही माँ-बेटे दोनों के प्राण-पखेरू उड़ गए। अब चारपाई पर उनकी बेजान लाश रह गई। तदंतर बारी-बारी उनका पैर पकड़कर उनके निर्जीव शरीर को घसीटते हुए ले जाकर दुर्गा ने तालाब के उसी गड्‌ढे में डाल दिया और छप्‍परों के कूड़ा-करकट से पुनः ढंक दिया। तदोपरांत दुर्गा के दोस्‍त अपने-अपने घर जाकर सो गए। तब दुर्गा अपनी पत्‍नी पारो के पास छत पर गया और उसे नींद से जगाकर बोला-देवी! अब तुम्‍हारा सारा खटका बिल्‍कुल दूर। अब तुम एकदम निश्‍चिंत रहो। आज मैंने तुम्‍हारी सारी चिंता दूर कर दी। अब तुम्‍हारी शिकायत खत्‍म हुई।

यह सुनते ही पारो विस्‍मित होकर बोली-क्‍यों ऐसा क्‍या किया आपने?

यह सुनकर दुर्गा बेधड़क बोला-अरे पगली! जरा धीमें स्‍वर में बोलो। आज मैंने अम्‍मा और शंकर को खत्‍म कर दिया। मैंने दोनों का काटकर मार डाला।

यह सुनना था कि पारो के होश गुम हो गए। वह एकदम सन्‍न रह गई। उसकी समझ में न आ रहा था कि अब क्‍या करूँ और क्‍या न करूँ? वह झट बोली-अजी! बिना सोचे-विचारे ही आपने यह क्‍या किया? आपको ऐसा पाप हरगिज न करना चाहिए था। वे दोनों जैसे भी थे आपकी सगी माँ और भाई थे। वे कोई गैर नहीं थे। आज आपने तो बहुत बड़ा गुनाह कर दिया।

पारो का कथन सुनते ही दुर्गा का पारा गर्म हो गया। वह आग-बबूला हो गया। आँखें लाल-पीली करके उसने उससे झट कहा-क्‍या बकवाश करती हो? तुमने क्‍या मुझे बेवकूफ समझ रखा है। अरे! तुमने ही तो बारंबार मुझे उकसाकर ऐसा जुर्म करने के लिए विवश किया। मैं तुम्‍हारे तानों से आजिज आ चुका था। यहाँ बैठकर बातें बनाना बंद करो और अब जाकर फर्श पर गिरे तथा दीवार पर लगे खून को फौरन साफ कर दो वरना सबेरा होते ही सारा मामला गड़बड़ हो जाएगा।

यह सुनते ही पारो तुरंत उठी और जाकर सारा खून साफ कर दिया। इसके बाद वह पुनः छत पर लाकर सो गई। रात बीत गई और सुबह हो गई। रविदेव की रोशनी मिलते ही लोग अपने-अपने काम में जुट गए। दुर्गा और पारो भी काम पर चले गए। पारो घर के काम में उलझ गई तो दुर्गा खेतों में।

रात से सुबह हुई और सुबह से दोपहर सुभागी नाश्‍ता-पानी लेकर जब खलिहान में नहीं पहुँची तक शभू को भूख सताने लगी। तब तक दुर्गा उनके पास जा पहुँचा। उसे देखकर शंभू बोले-क्‍या बात है बेटा! तुम्‍हारी अम्‍मा कहाँ हैं? आज वह मेरा खाना लेकर अभी तक क्‍यों नहीं आईं?

तब अपने मन के भावों को छिपाकर बड़ी चतुराई से उन्‍हें ढाढ़स बँधाकर बोला-अम्‍मा तो हमारे ननिहाल यानी अपने नैहर जाने को कह रही थीं। हो सकता है वह वहाँ चली गई हो। सुभागी को अपने मायके जाने की बात सुनकर शंभू मन मारकर रह गए। इसके बाद पारो ने ले जाकर उन्‍हें खाना खिलाया। बात आई-गई हो गई। सारा दिन व्‍यतीत हो गया। फिर रात हुई और उसके बाद सुबह। अगले दिन दोपहर को दुर्गा जब अपने बाबूजी का भोजन लेकर खलिहान में गया तो उन्‍होंने उससे पूछा-अरे दुर्गा! शंकर कहाँ है? वह दो दिन से दिखाई नहीं दे रहा है।

यह सुनते ही दुर्गा ने कहा-अपने स्‍कूल-कालेज के काम से कहीं गया होगा। आ जाएगा। इसी तरह दो दिन बीत गए। किसी को कुछ भी मालूम न हुआ। उधर गड्‌ढे में रखी लाशें सड़ने लगीं। उनमें बदबू उत्‍पन्‍न हो गई। फिर शाम हुई और सबेरा हो गया। तब तक उस तालाब के पास ही स्‍थित शिवाले के चबूतरे पर बैठी एक स्‍त्री ने देखा कि दो-तीन कुत्‍ते आपस में लड़ते-झगड़ते कुछ खींच रहे हैं।

इतने में उसे इंसान का एक पैर दिखाई पड़ गया। यह देखकर उसकी उत्‍सुकता बढ़ गई। वह उठकर गड्‌ढे के पास गई और बड़े गौर से आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगी। तब उसने देखा कि उस गड्‌ढे में एक नहीं बल्‍कि, एक औरत और एक युवक की दो लाशें पड़ी हुई हैं। वह ताज्‍जुब में पड़ी हुई अपने घर पहुँची और अपने पति से बोली-तनिक तालाब में खुदे और खर-पतवार से ढके एक गड्‌ढे को तो जाकर देखिए। उसमें दो-दो लाशें पड़ी हुई हैं।

तदंतर वह आदमी वहाँ गया और उन लाशों को देखा। उन्‍हें देखते ही उसके भी होश-हवास गुम हो गए। उसकी रूह काँप उठी। वह बदहवास घर जाकर अपनी पत्‍नी से बोला-देखो लगता है यह कत्‍ल का मामला है लेना एक न देना दो नाहक ही पुलिस का चक्‍कर पड़ जाएगा इसलिए जो कुछ भी देखा है उसे बिल्‍कुल भूल जाओ। किसी से कुछ मत कहना वरना बिना बुलाए ही मुसीबत गले पड़ जाएगी। । ने

कुत्‍तों में लाशों को खींचने की खातिर होड़ सी लगी हुई थी। मैं खीचूँ लूँ और मैं खीचूँ लूँ के नाम पर उनमें जंग छिड़ी हुई थी। यह देखकर कुछ और लोगों की नजर भी अनायास ही उस ओर चली गई। तब तक किसी व्‍यक्‍ति ने इसकी खबर पुलिस को दे दी। लाशों की भनक मिलते ही पुलिस तत्‍काल वहाँ पहुँच गई। पुलिस ने गड्‌ढे से दोनों लाशों को निकालकर गाँव वालों से पूछताछ करना आरंभ कर दिया। उन्‍हें देखते ही उन्‍होंने उनकी पहचान कर ली। उन्‍होंने पुलिस को बताया कि ये लाशें शंभू की पत्‍पी सुभागी और छोटे बेटे शंकर की हैं। उनके घर-परिवार में बिल्‍कुल शांति है इसलिए हो सकता है कि ये दोनों ही खून शंभू ने ही किया हो।

यह सुनना था कि पुलिस आनन-फानन में शंभू के पास उनके खलिहान में पहुँच गई। शंभू ने पहले अनभिज्ञता जाहिर की पर, कड़ाई से पूछताछ करने पर वह दरोगाजी से बोले-हुजूर! पहले लाश तो दिखाइए इसके बाद ही मैं कुछ बता सकता हूँ कि वे लाशें किसकी हैं। पुलिस ने उन्‍हें ले जाकर लाश दिखाई तो वह दंग रह गए। आँखों में अश्रुधारा लेकर वह बोले-साहब!यह मेरी पत्‍नी सुभागी और मेरा छोटा बेटा शंकर की ही लाश है।

इसके बाद उन्‍होंने अपने बड़े बेटे दुर्गा की सुनाई हुई सारी कहानी पुलिस को सुना दी। यह सुनते ही पुलिस ने झटपट दुर्गा को धर दबोचा। पुलिस की मार से बचने के लिए वह गिड़गिड़ाकर बोला-जनाब! मुझे मारिए मत। मैं सच-सच सब कुछ बता देता हूँ।

वह फिर बोला-मैं एकदम सच कहता हूँ यह दोनों कत्‍ल मैंने ही किया है। इसमें किसी और का कोई हाथ नहीं है। यह सोचकर कि पुलिस कहीं मेरे साथ जोर आजमाइश न करने लगे उसने बिना किसी कड़ाई के ही बड़ी आसानी से अपना जुर्म कबूल कर लिया। सब कुछ सच-सच उगल दिया। इसके बाद वजह पूछने पर उसने अपने माता-पिता और पत्‍नी के बर्ताव की सारी बातें बता दिया। यह सुनकर पुलिस ने दुर्गा की पत्‍नी पारो को भी गिरफ्‍तार कर लिया। अदालत में पेश करने के बाद पुलिस ने उन्‍हें बड़े घर भेज दिया। उनके माथे पर जीवन भर के लिए कलंक लग गया। उनकी बदनामी तो हुई ही जेल की हवा भी खानी पड़ी।

मुकदमा चलते हुए कई साल बीत गए। उनकी जमानत तक न हुई। न तो उन्‍हें कोई जमानतदार ही मिला और न कोर्ट से जमानत ही। कई साल के बाद जैसे-तैसे उनकी जमानत हुई। अदालत से जमानत पर छूटने के बाद पारो अपनी ससुराल नहीं गई। वह सीधे अपने माँ-बाप के पास मायके में जाकर रहने लगी।

इसके पश्‍चात जब दुर्गा को जमानत मिली तो वह भी अपने घर न जाकर अपनी पत्‍नी के पास ससुराल चला गया। वहाँ जाकर वह अपनी भार्या से बोला-चलो अब अपने घर चलें। जैसा भी हो अपना घर अपना ही होता है यहाँ ससुराल में रहना ठीक नहीं है।

यह सुनते ही पारो का पारा गर्म हो गया। मारे आवेश के वह तिलमिलाकर आँखें तरेरते हुए बोली-खबरदार! मुझसे आइंदा वहाँ जाने की बात भी मत करना वरना अच्‍छा न होगा। तुम मेरे पति नहीं बल्‍कि जानी दुश्‍मन हो। तुमने नाहक ही मुझे जेल भिजवा दिया। मर्द अपनी पत्‍नी की रक्षा करता है और एक तुम हो कि मुझे ले जाकर जेल में ठुँसवा दिए। एक बात और जब तुम जन्‍म देने वाली अपनी माँ और अपने छोटे भाई के ही नहीं हुए तो मेरा क्‍या होगे? तुम्‍हारे जैसे महामूर्ख के साथ अब मैं नहीं रह सकती। अपना बाकी जीवन यहीं रो-धोकर गुजार दूँगी।

यह सुनकर दुर्गा अंदर से टूटकर बिखर गया। उसे बहुत आत्‍मग्‍लानि हुई। अपनी करनी पर उसे अपार कष्‍ट हुआ। उसका दिल उसे धिक्‍कारने लगा। अपराध बोधग्रस्‍त होते ही अब वह जीते जी पश्‍चाताप की अग्‍नि में जलने लगा। उसने पारो के भाई की साइकिल लिया और मनोहर गंज रेलवे स्‍टेशन पर पहुँच गया। वहाँ जाकर साइकिल को उसने एक खंभे से बाँध दिया और स्‍वयं तीव्रगति से आती हुई एक मालगाड़ी के नीचे कूदकर कट गया। अपने कुकृत्‍य के चलते उसे आत्‍महत्‍या करने पर विवश होना पड़ा।

अब शंभू के दोनों लड़के मर ही चुके थे। अब उनके पास कुल ले-देकर एक बेटी और दामाद ही थे। इसलिए बड़ी होने पर एक अच्‍छा सा घर-वर देखकर उसका विवाह कर दिए। पूरे परिवार को असमय ही काल के गाल में समा जाने से उन्‍हें नैराश्‍य ने घेर लिया। उन्‍होंने बेटी-दामाद को अपने पास बुला लिया और अपना सब कुछ उनके नाम कर दिया।

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वरिष्‍ठ अनुवादक

भारतीय रेल परियोजना प्रबंधन इकाई,

शिवाजी ब्रिज, नई दिल्‍ली

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कहानी // निराशा // अर्जुन प्रसाद
कहानी // निराशा // अर्जुन प्रसाद
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