कहानी // पराया धन // अर्जुन प्रसाद

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1972 की बात है। उत्‍तर प्रदेश के निवासी चौधरी विश्‍वनाथ को एक पुत्र और एक पुत्री स्‍नेहा के बाद कोई और संतान न हुई। कुबेर बड़े थे और स्‍नेहा...

माधुरी जैन की कलाकृति

1972 की बात है। उत्‍तर प्रदेश के निवासी चौधरी विश्‍वनाथ को एक पुत्र और एक पुत्री स्‍नेहा के बाद कोई और संतान न हुई। कुबेर बड़े थे और स्‍नेहा छोटी। विश्‍वनाथ बाबू का पुत्र कुबेर जब पढ़-लिखकर योग्‍य और बड़ा हो गया तो बाबू विश्‍वनाथ ने एक अच्‍छा घराना देखकर उसका रिश्‍ता तय कर दिया। उस घराने के त्रिदेव चौधरी इलाके के एक जाने-माने पुरुष थे। उनकी एकलौती पुत्री चंद्रलेखा एक स्‍कूल में अध्‍यापिका थी।

समय आने पर कुबेर और चंद्रलेखा का बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। हाथी और घोड़ों से सजी बारात त्रिदेव चौधरी के दरवाजे पर पहुँची और दोनों का विवाह संपन्‍न हुआ। विवाह के बाद अगले दिन बारात की विदाई हुई और चंद्रलेखा अपनी ससुराल पहुँच गई। चंद्रलेखा गोरी-चिट्‌टी और सुंदर तो थी ही वह बहुत भाग्‍यशाली भी थी। कभी-कभी स्‍त्री के भाग्‍य से पुरुष का भी भाग्‍य बदल जाता है और कभी-कभी पुरुष के भाग्‍य से स्‍त्री का भाग्‍य परिवर्तित हो जाता है।

बाबू विश्‍वनाथ के घर में चंद्रलेखा के कदम पड़ते ही उनके घर में धन-धान्‍य की बाढ़ सी आ गई। उनके पुत्र कुबेर का नसीब भी करवट लेने लगी। धन, धन में होता है और जल, जल में। दिन-प्रतिदिन उनकी तकदीर बदलती चली गई। कुबेर बाबू भी दिन दूनी तो रात चौगुनी तरक्‍की करने लगे। यह देखकर वह महत्‍वाकांक्षी होते चले गए। उनके मन में माननीय और बड़ा आदमी बनने की लालसा उत्‍पन्‍न हो गई। तभी देश में आम चुनाव नजदीक आ गया। कुबेर चौधरी के भाग्‍य ने करवट ली तो एक सियासी पार्टी ने उन्‍हें लोकसभा चुनाव लड़ने का टिकट थमा दिया।

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चुनाव में उतरने वाली हर राजनीतिक दल का बहुत जोर-शोर से प्रचार-प्रसार हुआ। कुबेर बाबू ने भी अपना खूब प्रचार किया। जगह-जगह मंच बनवाकर जनता के बीच एक से एक लच्‍छेदार भाषण देकर लंबे-चौड़े वादे किए। अपने वक्‍तव्‍य और वादों से उन्‍होंने जनता का दिल जीत लिया। लोगों का मन उनकी ओर झुक गया। जनता जिधर मुँड़ जाती है वह पूरे पाँच साल तक के लिए उसका स्‍वामी बन जाता है।

जनता स्‍वयं ही उसका गुलाम बन जाती है। इसके बाद वह जनप्रतिनिधि अपने पद का दुरुपयोग करते हुए खूब मनमानी और लूट-खसोट करता है। मतदान होते ही पब्‍लिक के तरकस के तीर निकलकर नेता जी की झोली में पहुँच जाते हैं। इसके बाद जनता विवश और असहाय हो जाती है। वोट देने के बाद उसके हाथ में कुछ भी नहीं रह जाता है।

मतदान के लिए निश्‍चित समय आने पर मतदान हुआ। जनता ने दिल खोलकर वोट दिया। जनता कुबेर बाबू की ओर झुकी थी ही इसलिए उसने उनके पक्ष में तन-मन से वोट दिया। मतदान के बाद सभी उम्‍मीदवारों का भाग्‍य मतपत्र पेटियों में बंद हो गया। कुछ दिन बाद ही मत पेटियाँ खुलीं और मतपत्रों की गणना शुरु हुई।

जल्‍दी ही उसका परिणाम भी सबके सामने आ गया। चुनाव परिणाम सामने आते ही चुनाव अधिकारी कुबेर बाबू को विजयी घोषित किया। उनके सामने सियासत के बड़े-बड़े धुरंधर मात खा गए। इसके बाद हार गया भई हार गया, जीत गया भई जीत गया के नारों के साथ ढोल और ताशे बजने लगे। जय-पराजय के शोरगुल से आसमान गूँज उठा। कुबेर बाबू एक आम आदमी से सांसद बनकर लोकसभा में पहुँच गए।

चारों ओर कुबेर बाबू की जय-जयकार होने लगी। उन्‍होंने कुछ खुद लूटा तो कुछ दूसरों को भी लुटवा दिए। उन्‍हें अकेले कमाना-खाना अच्‍छा नहीं लगता था। अपने साथ-साथ उन्‍होंने अपने परिजनों को भी आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया। कितने समदर्शी थे कुबेर बाबू? इस प्रकार एक ओर

उन्‍होंने अपनी खुद की खूब प्रगति की तो दूसरी ओर अपने भाई-बंधुओं को भी प्रगति करने का एक सुअवसर दिया। वह स्‍वयं भी धनवान बनकर आगे बढ़े और उन्‍हें भी धनी बनाकर आगे बढ़ा दिया। सियासी नीति के अनुसार उन्‍होंने अपने लोगों को ही तरह-तरह के ठेके देकर खूब नाम कमा लिया। वह जितना भ्रष्‍टाचार कर सकते थे, मनमर्जी खूब किए।

जनता को कुबेर बाबू से बहुत उम्‍मीद थी लेकिन विजयश्री मिलते ही दूसरे सांसदों की तरह वह भी जनता को दिए हुए सारे वचनों को भूल गए। सांसद बनते ही वह बिल्‍कुल बदल गए। उनके बदले हुए आचरण और व्‍यवहार से जनता के सारे सपने टूटकर बिखर गए। जनता पछताकर रह गई।

कुबेर बाबू ने भाँति-भाँति की रीति-अनरीति अपनाकर मनमाने ढंग से जीभर कमाई की। कुछ ही दिनों में घर-परिवार में माया का अथाह भंडार एकत्र हो गया। उनकी जमीन-जायदाद इतनी अधिक बढ़ गई कि एक से बढ़कर एक धनिक उनसे पीछे छूट गए। उनकी खेतीबाड़ी और जमीन कई शहरों में फैल गई।

इसी बीच बाबू विश्‍वनाथ ने अपनी लाड़ली बेटी स्‍नेहा का भी विवाह कर दिया। उन्‍होंने स्‍नेहा का विवाह पास के ही एक गाँव में अनुराग नामक युवक से किया। उसके साथ स्‍नेहा बहुत खुश थी। शादी के बाद पति-पत्‍नी में कभी कलह नहीं हुआ। कुछ दिन बाद उनके एक पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम अनुपम था। अनुराग एक सरकारी स्‍कूल में अध्‍यापक थे। उनकी आमदनी बहुत ही कम थी। उनके पास इतनी दौलत और जमीन न थी कि वह अपने बेटे को बहुत अच्‍छी तालीम दिला पाते। बस यह समझिए कि किसी तरह उनके गृहस्‍थ जीवन की गाड़ी किसी प्रकार चल रही थी।

कुदरत की महिमा भी बड़ी न्‍यारी है। जिसके पास धन होता है उसके पास खाने वाली संता नही नहीं होती है और जिसके पास दौलत नहीं होती है उसके पास बच्‍चों की पूरी क्रिकेट टीम ही होती है। अधिक बच्‍चे हो जाने से गरीब आजीवन अपनी गरीबी में ही पिसता रहता है। इसके विपरीत जिसके पास औलाद नहीं होती है उसके पास धन का ढेर एकत्रित होता जाता है। वह दिनोंदिन अमीर पर अमीर बनता चला जाता है।

कुबेर बाबू ने धन तो खूब एकत्र किया पर अफसोस यह कि उन्‍हें कोई संतान न हुई। उनकी पत्‍नी चंद्रलेखा के माथे पर बाँझपन का काला धब्‍बा लगकर रह गया। पति-पत्‍नी ने आधुनिक नई डाक्‍टरी इलाज का सहारा भी लिया मगर कहीं से कोई फायदा न हुआ। डॉक्‍टर और वैद्यों ने प्रकृति के आगे हार मान ली। तथाकथित देवी-देवताओं की मन्‍नतें भी उनके किसी काम न आई। अंततः वह निःसंतान के निःसंतान ही रह गए। एक संतान की चाहत में उन्‍होंने वह सब कुछ किया जिसे वे कदापि नहीं मानते थे।

कोई औलाद होते न देखकर कुबेर बाबू पति-पत्‍नी ने अपने इकलौते भाँजे अनुपम को गोंद लेने का मन बना लिया। उन्‍होंने सोचा कि बेऔलाद रहने से बेहतर है कि अपने भाँजे को ही गोंद लेकर उसे अपना बेटा बना लिया जाए। वह कम से कम बुढ़ापे में तो अपना सहारा बन जाएगा। यह सोचकर उन्‍होंने अपनी बहन स्‍नेहा और बहनोई अनुराग से बात की और उनके बेटे अनुपम को गोंद देने के लिए सहर्ष राजी कर लिया। उनके हाँ कहते ही उन्‍होंने अनपम को गोंद ले लिया और कानूनी रुप से उसे अपना पुत्र बनाकर उसे अपना वारिस घोषित कर दिया।

अनुपम को गोंद लेने के बाद सब कुछ पहले की भाँति बिल्‍कुल ठीक चलता रहा। उनकी दौलत मिलते ही अनुपम गरीब से यकायक अमीर हो गया। पिया भए कोतवाल तो अब डर काहे का, उसके मामा कुबेर बाबू सांसद तो थे ही, मौका मिलते ही उसने भी खूब लूट-खसोट की और देखते ही देखते करोड़ों का मालिक हो गया। वह खाकपति से करोड़पति बन गया। उसका कारोबार करोड़ों रुपए का हो गया। इस विस्‍तृत कारोबार का सरकार को कोई कर न देना पड़े, यह सोचकर सांसद कुबेर बाबू ने अपनी संपत्‍ति को एक ट्रस्‍ट में बदल दिया और अपने परिवार के लोगों को उसका सदस्‍य बना दिया।

कुदरत की लीला भी बड़ी अपरंपार है। नेतागण अपने सलाहकारों के बल पर चलते ही हैं, चापलूसी करने वाला और उसे पसंद करने वाला सदैव घाटे में ही रहते हैं। चापलूस अक्‍लमंद हुआ तो उसकी परामर्श से काम करने वाला मात खा जाता है और यदि उसने अपनी बुद्धिमानी से काम लिया तो चापलूस बेचारा ठगा सा रह जाता है।

चापलूसी कभी निष्‍पक्ष रुप से काम नहीं करने देती है। वह व्‍यक्‍ति के विवेक पर हावी रहती है। चापलूसी पसंद करने वाला व्‍यक्‍ति सही और गलत के फर्क को भूल जाता है। ट्रस्‍ट पर उसे चलाने वालों की कड़ी नजर थी। वे उसे हड़पना चाहते थे। उन्‍होंने ऐसी साजिश रची कि कुबेर बाबू ने अपने सलाहकारों की सलाह मानकर ट्रस्‍ट की वसीयत में भूलवश लिख दिया कि मेरी समस्‍त चल-अचल संपत्‍ति ट्रस्‍ट की संपत्‍ति होगी। उस पर किसी अन्‍य व्‍यक्‍ति का हक न होगा। विपरीत समय आने पर बड़े-बड़े लोग भी गच्‍चा खा जाते हैं। कुबेर बाबू भी धोखा खा गए।

कुबेर बाबू ने अपनी जनता के हित में कोई विशेष काम नहीं किया अतः वह उसने रूठ गई। जनता की नाराजगी मोल लेना कतई ठीक नहीं है। वह जिसे बड़ी शान से चुनकर लोकसभा या विधानसभा में भेजती है वही समय मिलते ही उसे मटियामेट भी कर देती है। ट्रस्‍ट की वसीयत लिखने के कुछ दिन तक सब कुछ पूर्ववत अच्‍छे ढंग से चलता रहा। कुबेर बाबू एक बार के बजाय दो-दो बार सांसद होने का सुख भोग लिए। तब तक अगला आम चुनाव आ गया। कुबेर बाबू के इलाके की प्रजा उनसे नाराज थी ही, इस चुनाव में उसने उन्‍हें धूल चटा दी।

इस बार कुबेर बाबू बुरी तरह चुनाव हार गए। वक्‍त हमेशा किसी के साथ नहीं रहता है। वह पल-पल बदलता रहता है। बड़ा होने पर जब अनुपम का विवाह हुआ तो और कोई संतान न होने से कुबेर बाबू ने उसे अपनी आधी संपत्‍ति देकर उसे स्‍वतंत्र कर दिया। अब उनकी आधी दौलत अनुपम के नाम हो गई। धीरे-धीरे वह किसी तरह अमीर तो बन गया मगर कुबेर बाबू की गद्‌दी उनसे छिन गई।

पराजय के बाद सांसदी गँवाते ही ट्रस्‍ट संचालक की निगाहें अचानक बदलने लगीं। उन्‍होंने ट्रस्‍ट में कुबेर बाबू के प्रिय भाँजे अनुपम की दखल पर लगाम कसना शुरु कर दिया। उन्‍होंने उससे यहाँ तक कह दिया कि ट्रस्‍ट में तुम्‍हारा अब कोई हक नहीं है। इससे तुम्‍हारा कोई लेना-देना नहीं। अब तुम इससे बिल्‍कुल अलग रहो, इसी में तुम्‍हारी भलाई है वरना परिणाम अच्‍छा न होगा।

सासंद कुबेर बाबू की छत्र-छाया में पला-बढ़ा अनुपम भला यह कैसे बर्दाश्‍त कर सकता था। जिसका आधा जीवन एक धुरंधर सांसद के सान्‍निध्‍य में गुजरा हो वह किसी की गीदड़ भभकी से हरगिज नहीं डर सकता है। अनुपम ने भी कड़ा रुख अपनाना आरंभ कर दिया। वह भी उन्‍हें बार-बार डराने- धमकाने लगा। नतीजा यह हुआ कि परस्‍पर तनाव बढ़ने से बैर बढ़ने लगा। वे एक-दूसरे के जानी दुश्‍मन बनने लगे। वे एक-दूसरे की नजर में काँटा बनकर खटकने लगे।

आपस में वैर-भाव बढ़ते ही हालत यहाँ तक पहुँच गई कि कोई किसी से झुकने को तैयार नहीं था। उनके बीच अहं पैदा हो गया। ट्रस्‍ट चालकों को यह भलीभाँति पता था कि कुबेर बाबू ने बुद्धि से काम न लेकर बहुत बड़ी नादानी की है। एक ओर ट्रस्‍ट की वसीयत में लिख दिया कि मेरी सारी संपत्‍ति ट्रस्‍ट की है और दूसरी ओर आधी संपत्‍ति अपने भाँजे अनुपम के नाम लिख दिया। ट्रस्‍ट की वसीयत में यह भी लिखा है कि ट्रस्‍ट पर किसी अन्‍य व्‍यक्‍ति का कोई भी हक नहीं होगा।

कुबेर बाबू की बुद्धि मानो घास चरने चली गई थी। ट्रस्‍ट संचालकों की नीयत बदल ही चुकी थी। उनका ईमान डगमगा चुका था इसलिए कुबेर बाबू की चूक का फायदा उठाने की गरज से उन्‍होंने हाई कोर्ट में अनपम के हिस्‍से की संपत्‍ति को चुनौती दे दी। दोनों ही ओर से मामला इतना जटिल था कि निर्णय होने का नाम ही न ले रहा था। वहाँ साल-दर-साल बस तारीखों पर तारीखें पड़ती रहीं।

ट्रस्‍ट चालकों ने अदालत में नालिश की कि जब कुबेर बाबू की सारी चल-अचल संपत्‍ति ट्रस्‍ट की है तो उसमें से आधी संपत्‍ति अनुपम को कैसे दी जा सकती है। अनुपम किसी सूरत में भी आधी संपत्‍ति के स्‍वामी नहीं हो सकते। इनके पास जितनी भी संपत्‍ति है वह ट्रस्‍ट को वापस दिलाई जाए।

15-16 वर्ष तक अदालत में मुकदमा चलता रहा और तर्क पर तर्क होते रहे। दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे। अदालत ने अपनी ओर से उन्‍हें आपस में समझौता करने का भी सुझाव दिया लेकिन बात नहीं बनी। किसी भी तरह बात बनती न देखकर अंत में अदालत को अपना फैसला सुनाना पड़ा। कुबेर बाबू ने दस्‍तखत करके सब कुछ ट्रस्‍टियों के हक में कर दिया था। इसमें किसी किन्‍तु-परंतु की कोई गुंजाइश न थी।

उनकी वसीयत को ही आधार मानकर अदालत ने निर्णय सुना दिया कि कुबेर चौधरी की सारी की सारी संपत्‍ति ट्रस्‍ट की है। उसके किसी भी हिस्‍से पर अनपम का कोई अधिकार नहीं है इसलिए इनके पास जो भी संपत्‍ति है वह ट्रस्‍ट को वापस करने का आदेश दिया जाता है। साथ ही अनुपम को ऐसी किसी भी संपत्‍ति के अधिकार से बेदखल किया जाता है। आखिर कुछ भी न होते हुए ट्रस्‍टी कचहरी में जीत गए। उनकी अनायास ही जीत हो गई। इसीलिए कहा गया है कि कानून की आँख पर पट्‌टी बँधी होती है। वह दलीलों को ही नहीं बल्‍कि दस्‍तावेजी सबूतों को भी देखता है।

अगर बेवकूफ के पास धन हो तो उसे खाने वाले तमाम अक्‍लमंद मिल जाते हैं। देश का विधान बनाने वाले कुबेर बाबू एक झटके में ही अपना सब कुछ गँवा बैठे और अपने भाँजे अनुपम को भी कंगाल बना दिए। स्‍नेहिल मामा-मामी की दौलत उसके किसी काम न आई और वह ज्‍यों का त्‍यों निर्धन का निर्धन ही रह गया। उसके हाथ कुछ भी न लगा।

भ्रष्‍टाचार और छल-कपट से जिस तरह वह धन आया था उसी प्रकार चला भी गया। थोड़े से टैक्‍स के पैसे बचाने के फेर में ट्रस्‍ट बनाकर कुबेर बाबू ने अपना सब कुछ बर्बाद कर दिया। उनका धन बढ़ते-बढ़ते अचानक दूसरों का हो या। जो धन उनके भाँजे के सुख के लिए था वही उसकी बर्बादी का एक बड़ा कारण बन गया। पराया धन पराया ही बनकर रह गया।

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वरिष्‍ठ अनुवादक

भारतीय रेल परियोजना प्रबंधन इकाई,

शिवाजी ब्रिज, नई दिल्‍ली

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रचनाकार: कहानी // पराया धन // अर्जुन प्रसाद
कहानी // पराया धन // अर्जुन प्रसाद
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