संस्कृति की अवधारणा विराट है। लोक संस्कृति में लोक साहित्य, लोक कलाएँ और लोक परंपराएँ, सब कुछ समाहित हैं। यह केवल लोक मनोरंजन का साधन न होकर...
संस्कृति की अवधारणा विराट है। लोक संस्कृति में लोक साहित्य, लोक कलाएँ और लोक परंपराएँ, सब कुछ समाहित हैं। यह केवल लोक मनोरंजन का साधन न होकर लोकशिक्षण, लोक प्रतिरोध और लोक अभिव्यक्ति का माध्यम भी है। परंतु आज यह अपने इस मूल उद्देश्य से भटकी हुई दिखाई देती है। इस भटकाव के लिए काफी हद तक बाजार की संस्कृति और बाजार की ताकतें जिम्मेदार हैं।
बाजार की संस्कृति शोषकों की संस्कृति है। शोषकों के मन में जिस दिन यह विचार आया कि मरे हुए चूहे को भी बेचकर धन कमाया जा सकता, उसी दिन से बाजार की संवेदनाओं का अवसान शुरू हो गया था। आज बाजार की संस्कृति में संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं है। बाजार की नजरों में आज मनुष्य की स्थिति उस मरे हुए चूहे के सामान है, जिसे बेचकर अकूत धन पैदा किया जा सकता है। बाजार आज दुनिया की सर्व शक्तिमान ताकत है। दुनिया के किसी भी देश में, वहाँ चाहे जैसी भी शासन प्रणाली हो, सबका नियंत्रण आज बाजार के हाथों में आ चुकी है।
यह कैसे हुआ? इसने अपनी जादुई ताकत से सामूहिक सम्मोहन पैदा करके सबसे पहले मनुष्य की चेतना पर कब्जा किया। और इसीलिए बाजार को अब वर्तमान मनुष्य की चेतना के स्तर को जानने के लिए, कि आज का मनुष्य क्या सोचता है, और कहाँ तक सोचता है, सर्वेक्षण कराने की जरूरत नहीं है। क्योंकि बाजार की संस्कृति आज हमें या तो सोचने का अवसर और अवकाश ही नहीं देती है या फिर हम जो भी सोचते हैं उसकी दिशा, विषय और तौर-तरीके बाजार के द्वारा पहले से ही तय किया हुआ होता है। अर्थात हम वही सोचते हैं, वही देखते हैं और वही करते हैं जो बाजार चाहता है। बाजार हमारी हर कमजोरी और हर कमी, को अपने लाभ के लिए हमारे विरुद्ध प्रयोग करता है।
समाज को सामूहिक सम्मोहन में जकड़ने-वाली पहली शक्ति थी सांप्रदायिकता। सांप्रदायिकता हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। यह न तो हमें आदमी बनने देती है और न ही हमें आदमी की तरह रहने देती है। बाजार की ताकत ने इसे और भी शक्तिशाली और अपने अनुकूल बना लिया है।
सांप्रदायिकता रूपी हमारी इस कमजोरी को और बाजार की बढ़ती हुई शक्ति को प्रेमचंद ने 1934 में ही समझ लिया था; तभी तो हमें सावधान करते हुए उन्होंने अपने निबंध ’सांप्रदायिकता और संस्कृति’ में लिखा है -
’’सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसीलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है। अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति; मगर हम आज भी हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं।’’ कहना न होगा कि संवेदना-शून्य बाजार, संस्कृति और सांप्रदायिकता का आवरण ओढ़कर और भी क्रूर और हिंसक हो जाता है।
बाजार की सर्वशक्तिमान, निरंकुश और संवेदनहीन ताकत ने साहित्य को भी प्रभावित किया है। लोक साहित्य हो या शिष्ट साहित्य, दोनों ही आज बाजार की ताकत की गिरफ्त में दिखाई देते हैं। इसका असर पठन और चिंतन पर भी हुआ है। आज की पीढ़ी छपी हुई सामग्री, चाहे वह साहित्य की किताबें हो या पत्रिकाएँ, के पठन के दायरे से बाहर हुई हैं। आज की पीढ़ी अपने स्मार्ट फोन के स्क्रीन पर या कंप्यूटर के स्क्रीन पर, घंटों समय व्यतीत करती है।
जाहिर है, वहाँ वह कुछ न कुछ पढ़ती जरूर होगी। इस संस्कृति को प्रसिद्ध आलोचक अवधेश कुमार सिंह ने पट पाठ (screen text) की संस्कृति कहा है।
साहित्यिक संस्कृति और बाजार नामक निबंध में वे लिखते हैं - ’’नई साहित्यिक संस्कृति को पट पाठ (screen text) ने काफी हद तक प्रभावित किया है। इसमें समस्या यह है कि पाठ साधना के लिए पाठ पर चिंतन-मनन की आवश्यकता होती है जिसके लिए अवकाश (space) जरूरी होता है।’’ पट पाठ (screen text) की गति और वातावरण (विज्ञापन और अन्य दृश्यावलियाँ) पाठक को कभी कोई अवकाश नहीं देता। पट पाठ (screen text) करते हुए पाठक का ध्यान भटकता है और वह एक साथ कई दिशाओं में क्रियाशील हो जाता है। अर्थात पाठक तब एक साथ एक से अधिक कार्य करने की स्थिति में आ जाता है। यह मल्टी टास्किंग (multi-tasking) की अवस्था होती है। ऐसी दशा में चिंतन और मनन की बात ही बेमानी लगती है। अवधेश कुमार सिंह आगे लिखते हैं - ’’पट पाठ (screen text) के पठन की प्रकृति ऐसी है कि इसमें मल्टी टास्किंग (multi-tasking) करनी पड़ती है। .... मल्टी टास्किंग (multi-tasking) चिंतन विरोधी होता है। मल्टी टास्किंग (multi-tasking) पशु गुण है, क्योंकि पशु को खाने के साथ-साथ अन्य पशुओं और शिकारियों का ध्यान रखना होता है। पशु समाज से मनुष्य समाज की उत्क्रांति में मल्टी टास्किंग (multi-tasking) से सिंगल टास्किंग (single-tasking) की ओर बढ़ती प्रवृत्ति ने बड़ा योगदान किया, क्योंकि इसने चिंता से चिंतन, अतियोग से योग, और अति विचार से सुविचार की क्षमता विकसित करके अपनी भूमिका निभाई। मल्टी टास्किंग करती बया अभी भी अपना घोसला वैसे ही बनती है जैसे हजारों साल पहले।’’
समाज की अवधारण ही सामूहिकता की अवधारण है। समाज का निर्माण सामूहिकता की संस्कृति द्वारा होता है। एक ऐसी संस्कृति के द्वारा जो चेतना-पूरित होती है। मनुष्य समाज उत्सवधर्मी समाज है। उत्सव हो अथवा दुख और विपत्ति के क्षण, मनुष्य समाज में हर जगह सामूहिक चेतना के दर्शन होते हैं। इसके विपरीत आज की पट पाठ की संस्कृति ने आज की पीढ़ी को एकांतिकता की गहरी अंध कूप में ढकेला है जहाँ न तो समाज है, न ही जीवन और न ही चेतना। आपके मन में सवाल उठ सकते हैं - तो क्या आज की पट पाठ की संस्कृति और उसकी मल्टी टास्किंग की प्रक्रिया वर्तमान मनुष्य समाज को आदिम युग की ओर ढकेल रही है? मैं कह सकता हूँ कि यदि ऐसा हुआ है तो यह आदिम मानव समाज की स्थिति से भी बदतर स्थिति है।
हमारी संस्कृति आत्मचिंतन की संस्कृति रही है। सर्वमंगल कामना इसकी आत्मा रही है। यह संस्कृति एक ऐसे परिवेश की मांग करती है जहाँ सघन ध्यान संभव हो सके। इसके लिए अवकाश अर्थात space की आवश्यकता होती है। परंतु आज हमारी यह आत्म self संस्कृति सेल्फी selfie संस्कृति में बदल रही है जहाँ सघन ध्यान के लिए कहीं कोई जगह नहीं है। सेल्फी संस्कृति बाजार की मंगलकामना करनेवाली संस्कृति है। यहाँ सर्व मंगलकामना की बात करना ही बेमानी है। आत्मचिंतन करनेवाला समाज समय की थाह लेनेवाला, समय के साथ संघर्ष करनेवाला, और समय को अपने अनुकूल बनानेवाला समर्थ और पुरुषार्थ करनेवालों का समाज रहा है और उसके इसी सामर्थ्य और पुरुषार्थ ने अब तक की सारी संभ्यताओं को जन्म दिया है। आज की सेल्फी संस्कृति विचारशून्य, संवेदनाशून्य और चेतनाशून्य लोगों की संस्कृति है। समय की धारा में बह जाना इसकी नियति है।
बाजार की ताकत ने लोकसाहित्य को भी प्रभावित किया है। लोक की चेतना सामूहिक होती है। यह वाचाल और मुखर चाहे न होती हो पर यह प्रखर जरूर होती है। लोक की चेतना हर यथास्थिति को समझती और पहचानती है। यह अपने शासकों और शोषकों की नीयत को भी अच्छी तरह समझती और पहचानती है। उसने बाजार को भी समझा और पहचाना है। लोक आत्मनिर्भर और स्वतंत्र प्रकृति का होने के बाद भी शासन की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश होता है। परंतु उसकी आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता की प्रकृति उसे शासकों और शोषकों की चाटुकारिता से बचाती है। लोक साहित्य में शासकों और शोषकों के विरुद्ध प्रतिरोघ के स्वर भी होते है और उनके प्रति शुभकामनाएँ भी परंतु चाटुकारिता कदापि नहीं होती। लोक संस्कृति की परंपरा इसे अब से कुछ समय पहले तक निभाते आई है, चाहे लोकगीतों में हो, चाहे लोकगाथाओं में हो, लोकनाट्य नाचा में हो या फिर चाहे आज की आधुनिक लोककला मंचों में हो। परंतु वर्तमान में इस परंपरा में ह्रास और विकृति दिखाई देने लगी है। इस ह्रास और विकृति की चर्चाएँ और आलोचनाएँ भी हो रही हैं। पर निदान हमारे हाथों में नहीं है। यह दुखद स्थिति है। इस ह्रास और विकृति की पड़ताल करने पर पता चलता है कि ऐसा करनेवाली लोककलाकारों की वर्तमान पीढ़ी है, लोककलाकारों की वह पीढ़ी है जो बाजार की शक्तियों की गिरफ्त में आ चुकी है। यह वह पीढ़ी है जो पट पाठन और मल्टी टास्किंग की परंपरा से आ रही है और जिसने सेल्फ संस्कृति को त्यागकर सेल्फी संस्कृति को अपना लिया है।
कुछ दशक पहले तक लोकसंस्कृति धन अर्जित करने का साधन अथवा आजीविका का साधन कभी नहीं रही है। और तब तक यह लोक की अभिलाषाओं और आकाक्षाओं को सशक्त तरीके से प्रस्तुत करके लोक अस्मिता को सुदृढ़ करती रही है। लोक को जीवनी शक्ति देती रही है। परंतु अब, जबकि इसमें ह्रास और विकृति पैदा करनेवाली, आज के लोककलाकारो की पीढ़ी, यश और धन की चाह में परंपरा से अर्जित लोक संस्कृति को, लोक साहित्य को बाजार के हाथों बेचने पर उतारू हुई है, या तो इसे परिवर्तनशील समाज की इच्छा मानकर मौन साध लें अथवा बाजार निर्मित सेल्फी संस्कृति से बचने का कुछ तो प्रयास करें।
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kuber singh sahu
Rajnandgaon
9407685557
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