कबीर गर्व न किजीये, ऊँचा देखि आवास। काल पडे भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास॥ संत कबीर प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |अहङ्कारविमूढात्मा ...
कबीर गर्व न किजीये, ऊँचा देखि आवास।
काल पडे भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास॥
संत कबीर
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || २७ ||
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं।
गीता (अध्याय -3 श्लोक -27 )
आत्म' वह है जिसके साथ हम पैदा हुए हैं । अहंकार’ वो है जिसे हमने एकत्रित किया है ; अहंकार हमारी उपलब्धि है। यह प्राकृतिक नहीं है आत्मिक भी नहीं है।
अहंकार एक मृगतृष्णा है जो सिर्फ लगता है कि है। और जब हम आध्यात्मिक रूप से गहरी नींद में होते हो, तब वह बहुत प्रबल हो जाती है; स्वाभाविक है वह हमारे लिए समस्या खड़ी कर देती है। हमारा सारा कष्ट इसके द्वारा निर्मित हो जाता है,हमारा तनाव, हमारी चिंताएं सब का हेतु हमारा अहंकार होता है। हमारा अहंकार उन घोषणाओं और कथनों के साथ जो हमारी पहचान निर्धारित करते हैं के रूप में "मैं" और "मुझे" के पीछे छुपा होता है। अहं को परिभाषित करना मुश्किल है क्योंकि अहंकार सिर्फ एक विशिष्ट गुण या अवगुण नहीं है।यह वास्तव में कई अलग-अलग मान्यताओं से बना है जो एक व्यक्ति अपने जीवन में प्राप्त करता है। ये मान्यतायें विविध और भी विरोधाभासी हो सकतीं हैं जो अहंकार को परिभाषित करना और अधिक जटिल बनाती हैं।प्रत्येक व्यक्ति का अहंकार भिन्न होता है। यदि कोई व्यक्ति अपने अहंकार के सभी हिस्सों को स्पष्ट रूप से पहचानने की कोशिश करे तो संभवतः वह भ्रमित हो जाएगा।अहंकार का मतलब ही यही है कि आप दूसरों को प्रभावित करने की चेष्टा कर रहे हैं। आपको अहंकार के लिए किसी दूसरे की जरुरत पड़ती है। जब आप अपनी जगह पर अकेले होते हैं, तब वहाँ अहंकार नहीं हो सकता। अहंकार की संरचना-फ्रायड ने मानव व्यक्तित्व में तीन तत्त्वों इदम्, अहम्,अति अहम् को स्वीकार किया है । इदम् में व्यक्ति सुख सिद्धान्त को महत्त्व देता है । अहम् में वह अपने परितोष के लिए मार्ग निर्धारित करता है ।अति अहम् व्यक्ति के इदम् और अहम् पर नियन्त्रण रखता है । वह नैतिक,सांस्कृतिक, मूल्यों व आदर्शों को महत्त्व देता है । इन तीनों का सन्तुलन मानव का सही रूप है, जबकि असन्तुलन विकार का कारण बनता है ।अहंकार हमारे अपने निर्माण की पहचान है, एक ऐसी पहचान जो झूठ पर आधारित है।अगर हम अपने सभी विश्वासों की बात करें जिनमें हम हमने व्यक्तित्व को परिलक्षित या प्रतिबिंबित करते हैं और एक काल्पनिक संसार अपने मस्तिष्क में बसा लेते हैं। ये सभी विश्वास जो - हमारे व्यक्तित्व, प्रतिभा और क्षमताओं को हमारे अनुरूप परिभाषित करते हैं यही हमारे पास अहंकार की संरचना है।ये हमारी योग्ताएं , प्रतिभाओं और क्षमताएं हमारे अंदर हमारे "स्व" का मानसिक निर्माण करने में सहायक होती हैं जो कि कृत्रिम है। हमारा अहंकार एक स्थैतिक चीज़ की तरह लगता है, जबकि ऐसा नहीं है। बल्कि, यह हमारे व्यक्तित्वों का एक सक्रिय और गतिशील हिस्सा है, हमारे जीवन में भावनात्मक नाटक बनाने में इसकी विशाल भूमिका है।
अहंकार का स्वरुप
अहंकार का त्याग नहीं किया जा सकता क्योंकि अहंकार का कोई अस्तित्व नहीं है। अहंकार केवल एक विचार है। अहंकार अंधकार के समान है;अंधकार का अपना कोई सकारात्मक अस्तित्व नहीं होता; यह बस प्रकाश का अभाव है। अहंकार का समर्पण नहीं करना होता, उसका साक्षी बनना होता है। उसे पूरा-पूरा जानना होता है। अहं और अहंकार दोनों अलग अलग हैं। अहं का अर्थ होता है अस्तित्व। प्रत्येक जीवित वस्तु को अपने अस्तित्व का ज्ञान होता है यद्यपि उनमें यह जागरूकता नहीं होती कि वो क्या हैं। अगर एक सोने का टुकड़ा कहे कि "मैं सोना हूँ "तो यह अहंकार नहीं हैं यह अहम् है वो अपने वास्तिक रूप को पहचान रहा है किन्तु अगर एक लोहे का टुकड़ा कहे "मैं सोना हूँ " तो यह अहंकार है क्योंकि वो उस अस्तित्व की बात कर रहा है जो वो नहीं है। यही मनुष्य के साथ होता है। "मैं हूँ "ये अहम है लेकिन "मैं क्या हूँ "ये अहंकार है। अहं अस्तित्व का संज्ञान है जबकि अहंकार कृत्रिम अस्तित्वों का निर्माण है।अहं प्राकृतिक है आत्मिक है जबकि अहंकार बनावटी बहरूपिया है। आपने सड़कों पर कई बहरूपिये देखें होंगे जो कभी कृष्ण कभी शिव और कभी पुलिस का भेष बनाकर लोंगो को मजा देते हैं। वास्तव में वो होते भिखारी है लेकिन हम और वो स्वयं एक क्षण के लिए उसी रूप में उनकी पहचान करने लगते हैं। हमें मालूम है कि ये बहरूपिया है। ऐसा ही कुछ स्वरूप हमारे अहंकार का होता है। मूल एवम आत्मिक रूप से अलग स्वयं और दूसरों से छल करता हुआ। अहंकार का मूलकारण कर्त्तापन का अहसास है। जैसे ही कर्त्तापन विकसित हुआ, तब हम ईश्वर की तुलना में स्वयं पर ही अधिक विश्वास करने लगे। जिसके कारण हमारे मन में अयोग्य संस्कार की निर्मित होने लगे जैसे, अधीरता, भय, चिंता करना, हडबडी करना, कठोर, अतिविश्लेषक (अधिक सोचना), नकारात्मक विचार, अतिव्यवस्थितता इत्यादि विकसित हुए जिससे जीवन को संभालने में मन की ऊर्जा अधिक मात्रा में व्यय होती है, इससे हमारी क्षमता घट जाती है और हम परिस्थितियों में तनाव से ग्रसित हो जाते हैं। और यही अयोग्य संस्कार हमें अपने आत्मस्वरूप से परे ले जाने लगे जिससे हमारे अंदर अहंकार का जन्म हुआ।
अहंकार के प्रकार
मनुष्य का अहंकार दो प्रकार का होता है :-
1. सात्त्विक अहं या शुद्ध अहं -यह स्थिति उच्चतम स्तर के संतों में होती है जब ईश्वर के साथ पूर्णतया एकरूप न होने के कारण उनमें अहं का कुछ अंश शेष दिखाई देता है । इसलिए इन संतों को केवल अपने अस्तित्व का भान होता है । शारीरिक क्रियाओं के निर्वाह के लिए यह अंशात्मक अहं आवश्यक होता है ।शुद्ध अहं या सात्विक अहम् में स्वयं को ब्रह्म (ईश्वरीय तत्त्व) से भिन्न समझना, अर्थात द्वैत द्वारा स्वयं का भान बनाए रखना प्रमुख है
यह अहं भी केवल भौतिक शरीर का अस्तित्व होने तक रहता है । संतों द्वारा देहत्याग के पश्चात इसका भी अंत हो जाता है ।
2. असात्त्विक अहं
हममें से अधिकांश लोग इस प्रकार का अहं अनुभव करते हैं । लगभग हम सबका तादात्म्य अपने भौतिक शरीर, विचार एवं भावनाओं से होता है और हम अपनी बुद्धि पर गर्व अनुभव करते हैं । ऐसा हमारे सूक्ष्म देह में विद्यमान स्वाभाविक विशेषताएं, इच्छाएं (वासनाएं), रूचि एवं अरूचि इत्यादि के संस्कारों के कारण होता है ।
अहंकार को कैसे पहचानें
अहंकार को देखना मुश्किल है, क्योंकि यह उन विचारों के पीछे छुपाता है जो सच दिखाई देते हैं। अहंकार को पहचानने का आसान तरीका यह है कि वह भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को पीछे छोड़ देता है। जैसे
1. किसी प्रियजन पर गुस्सा।
2. कुछ स्थितियों में असुरक्षा की भावना।
3. ईर्ष्या की भावनाएं।
4. किसी को प्रभावित करने की भावना।
ये सभी भावनाएं हमारे अंदर गलत विश्वास उत्पन्न करती हैं जिससे अहंकार जन्म लेता है।
कहीं आप अभिमानी तो नहीं खुद को जाँचिए-निम्न बिंदुओं पर आप अपने आपको परखिये ➧ अगर आपको खुद पर विश्वास नहीं है।
➧आप हमेशा हेकड़ी की भाषा अपनाते हैं।
➧आप हमेशा अपने से दूसरों को निम्न मानते हैं।
➧ आप हमेशा विचलित नजर आते हैं।
➧आप अगर अवसर वादिता की तलाश में रहते हैं।
➧ आप सफलता का पूरा श्रेय स्वयं लेना चाहते हैं।
➧ आप को अपने स्वभाव पर नियंत्रण नहीं रहता।
➧आप अपनी आलोचना सहन नहीं कर पाते हैं।
➧ आप लगातार दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।
➧ आप सिर्फ वही काम करते हैं जहाँ आपको प्रमुखता मिलती हो।
➧.आप अपनी योग्यता को लेकर अति आत्मविश्वासी हैं ।
➧. अगर आपको दूसरों को नीचा दिखाने में अपनी महत्ता सिद्ध होती दिखती है।
➧.आप हमेशा दूसरों को शिक्षा देते नजर आते हैं।
➧ आप अपनी असफलता के लिए हमेशा दूसरों को दोष देते हैं।
➧ अगर आप हमेशा अपनी कमियों को ढांकने की कोशिश करता है एवं अपनी गलतियां कभी स्वीकार नहीं करते हैं।
➧ आप सफलता प्राप्त करने के लिए रिश्ते तोड़ देते हैं।
➧ अगर आप चाहते हैं की सिर्फ उसकी सुनी एवं मानी जाये ये दूसरों की बातों या विचारों को महत्व नहीं देते।
ये सभी अहंकार के कुछ स्वाभाविक गुण हैं -अगर ये गुण या ये संकेत आपके व्यवहार में है तो संभल जाइये क्योंकि आपके अंदर अभिमान या अहंकार गहरे पैठ कर चुका है।
अहंकार से भेद बुद्धि उत्पन्न होती है जो मनुष्य को मनुष्य से ही दूर नहीं कर देती, अपितु अपने मूलस्रोत परमात्मा से भी भिन्न कर देती है।
परमात्मा से भिन्न होते ही मनुष्य में पाप प्रवृत्तियाँ प्रबल हो उठती है। वह न करने योग्य कार्य करने लगता है। अपने सच्चे आत्मस्वरूप का दर्शन करने के लिए ईश्वर की उपासना , आराधना , भक्ति व उस ईश्वर के दर्शन हेतु निरंतर प्रयास करना , अच्छे-अच्छे ज्ञानप्रद आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय करना , सत्पुरुषों की संगति करना , किन्हीं आत्मज्ञानी सतगुरु की शरण में जाकर उनके मार्गदर्शन में रहते हुए साधना करने से हमारा अहंकार सोऽहं में परिवर्तित हो कर हमें सदगति प्रदान करता है।
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