कहानी // साहसी भाई // अर्जुन प्रसाद

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जौनपुर के ठाकुर राघवेन्‍द्र प्रताप बहुत ही सज्‍जन, दयालु, परोपकारी पुरुष थे। उनकी अर्धांगिनी दिव्‍या भी उन्‍हीं के नक्‍शे-कदम पर चलने वाली थ...

कंजीस जंगैमो की कलाकृति

जौनपुर के ठाकुर राघवेन्‍द्र प्रताप बहुत ही सज्‍जन, दयालु, परोपकारी पुरुष थे। उनकी अर्धांगिनी दिव्‍या भी उन्‍हीं के नक्‍शे-कदम पर चलने वाली थीं। राघवेन्‍द्र प्रताप के पास लगभग 60-65 बीघे पुश्‍तैनी जमीन थी जिस पर बहुत ही अच्‍छी फसल उगती थी। बल्‍कि यह समझिए की उनकी खेती एकदम सोना उगलती थी।

संतान के नाम पर राघवेन्‍द्र प्रताप के पास केवल दो पुत्र वीरेन्‍द्र प्रताप और धीरेन्‍द्र प्रताप ही थे। वीरेन्‍द्र प्रताप बड़े थे और धीरेन्‍द्र प्रताप छोटे। राघवेन्‍द्र प्रताप के पास कोई पुत्री न थी। छोटा और सुखी परिवार था। इलाके में राघवेन्‍द्र प्रताप का बहुत नाम था। लोग उनकी बड़ी कद्र करते थे।

राघवेन्‍द्र प्रताप ने वीरेन्‍द्र प्रताप का विवाह बनारस में शिवेन्‍द्र सिंह की पुत्री मीनाक्षी से और धीरेन्‍द्र प्रताप का विवाह प्रतापगढ़ में गजेन्‍द्र सिंह की पुत्री दिव्‍या से की। विवाह के बाद वीरेन्‍द्र प्रताप की पत्‍नी मीनाक्षी ने दो पुत्रों को जन्‍म दिया और धीरेन्‍द्र प्रताप की पत्‍नी दिव्‍या ने एक पुत्र तथा एक पुत्री को जन्‍म दिया।

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राघवेन्‍द्र प्रताप पति-पत्‍नी काफी उम्र के और बुढ़े हो चले थे। वे अपनी उम्र के आखिरी पड़ाव पर थे। तीन पौत्रों और एक पौत्री का मुँह देखने के पश्‍चात उन्‍होंने बारी-बारी अपनी आँखें बंद कर ली। वे इस संसार को छोड़कर चले गए। उनके मरने के बाद वीरेन्‍द्र प्रताप और धीरेन्‍द्र प्रताप एक साथ न रह सके। दोनों का विचार अलग-अलग था इसलिए वे भी अलग-अलग हो गए।

वीरेन्‍द्र प्रताप की युवावस्‍था से ही स्‍त्रियों के प्रति बहुत गहरी आसक्‍ति थी। वह बहुत ही मनचले और आशिक मिजाज पुरुष थे। वह संयमी, सज्‍जन और उदार पत्‍नीभक्‍त कदापि न थे। उनकी निगाह में पत्‍नी का स्‍थान एक नौकरानी से अधिक कुछ भी न था। वह अपनी सुंदर, सुशील और सुभाषिणी अर्धांगिनी से तनिक भी संतुष्‍ट न थे।

दो पुत्रों का बाप होने पर भी उनकी नजर में मीनाक्षी की कोई कद्र न थी। किसी भी पराई औरत के लिए उनके दिल में बहुत जगह थी। अपनी पत्‍नी मीनाक्षी के अलावा वह हर स्‍त्री को गिरी हुई नजर से देखते थे। उनकी भार्या मीनाक्षी उनके लिए कोई भी मायने न रखती थी।

काली हो या गोरी, छोटी हो या मोटी, वह उसे अपने दिल की रानी समझ बैठते थे। वह उसे पाने को लालायित हो उठते थे। वह इतने दिलफेंक इंसान थे कि पराई औरत को देखते ही उनके मन में तरह-तरह के सपने आने लगते थे। वह उसे तत्‍काल यथासंभव पाने को आतुर हो उठते थे।

उसके लिए वह अपना कीमती से कीमती वस्‍तु भी न्‍यौछावर करने को तैयार रहते थे। कोई भी मनचली बाहरी स्‍त्री उनके दिलोदिमाग पर छा जाती थी। यह उनकी बहुत बड़ी कमजोरी थी। उनकी इस आदत को उनकी पत्‍नी मीनाक्षी को फूटी आँख भी न भाती थी। आए दिन उनमें खटपट होती रहती थी। कभी-कभी तो घर में महाभारत भी मच जाती थी। उनकी आपसी कलह से धीरेन्‍द्र प्रताप और उनकी पत्‍नी दिव्‍या भी बहुत परेशान रहते थे।

एक बात और वीरेन्‍द्र प्रताप बड़े होकर भी बड़े ही अय्‌याश, आलसी और कामचोर थे। कोई काम करना उन्‍हें पसंद न था। वह कोई काम करने से हमेशा बचते थे। उनके मां-बाप जब भी उनसे कोई काम करने को कहते तो वह बहाना करके जी चुराकर बच निकलते थे। वह सदैव यही कहकर रह जाते कि अभी हो जाएगा। अरे! त्‍निक धैर्य रखिए, अभी कर लूँगा।

वहीं दूसरी ओर धीरेन्‍द्र प्रताप अपने पिता जी की तरह बहुत ही संयमी, उदार और धार्मिक विचार के धनी पुरुष थे। वह अपने अग्रज वीरेन्‍द्र प्रताप के स्‍वभाव के बिल्‍कुल विपरीत थे। उनके मन में किसी अन्‍य स्‍त्री के प्रति लेशमात्र भी आसक्‍ति न थी। वह पराई महिलाओं को बड़ी इज्‍जत की निगाह से देखते थे। यह उनकी सबसे बड़ी खासियत थी।

धीरेन्‍द्र प्रताप अपनी पत्‍नी को अर्धांगिनी, जीवनसंगिनी मानते थे। वह उसे नौकरानी नहीं बल्‍कि गृहस्‍वामिनी समझते थे। वह अपनी अर्धांगिनी दिव्‍या से पूर्णतया संतुष्‍ट थे। वह उसकी बड़ी कद्र करते थे। किसी बाहरी स्‍त्री को वह दूसरे की अमानत समझते थे। ऐसी स्‍त्रियों के प्रति उनके दिल में किसी भी तरह की कोई दुर्भावना न थी। कोई सुंदर से सुंदर ललना भी उन्‍हें अपनी ओर आकर्षित न कर सकती थी।

धीरेन्‍द्र प्रताप यथानाम तथा गुण, बहुत ही धैर्यवान, सहनशील और समझदार थे। वह बहुत ही बुद्धिमान, चतुर और नेमी व्‍यक्‍ति थे। वह अत्‍यंत परिश्रमी और अपना काम खुद करने वाले पुरुष थे। वह किसी काम से कभी जी नहीं चुराते थे। वह अपने हर काम की निगरानी खुद करते। कभी दूसरों के भरोसे न रहते थे।

वह सुबह से शाम तक अपने काम पर जुटे रहते थे। अगर उनके मां-बाप कोई काम सौंप देते तो वह उसे तुरंत पूरा करके ही मानते। वह कभी भूलकर भी नानुकर न करते। पति-पत्‍नी के बीच बहुत ही अनुपम माधुर्य था। कभी भूलकर भी उनके बीच किसी प्रकार की तकरार न होती थी। उनकी माधुर्यता दूसरों के लिए अनुकरणीय थी।

यही कारण था अपने माता-पिता की मृत्‍यु के बाद वीरेन्‍द्र प्रताप और धरेन्‍द्र प्रताप दोनों भाई एक-दूसरे से अलग-थलग हो गए। उनके अलग होते ही उनकी खेतीबाड़ी भी आधी-आधी बँट गई। वीरेन्‍द्र प्रताप आलसी और सुस्‍त थे ही अतएव अपना सारा काम मजदूरों से कराते। वह उनके ही सहारे पड़े रहते।

जितनी जमीन वीरेन्‍द्र प्रताप के पास थी उतनी ही जमीन धरेन्‍द्र प्रताप के भी पास थी लेकिन जितनी उपज धीरेन्‍द्र प्रताप के खेतों में होती उतनी वीरेन्‍द्र प्रताप के खेतों में कभी न होती। अपने परिश्रम के बल पर धीरेन्‍द्र प्रताप छोटे होकर भी प्रगति के मार्ग पर लगातार आगे बढ़ते जा रहे थे तो वहीं वीरेन्‍द्र प्रताप बड़े होकर भी अपनी बुरी लत के कारण पतन के मार्ग पर निरंतर अग्रसर थे।

वीरेन्‍द्र प्रताप से जब यह सहन नहीं हुआ तो उन्‍होंने शहर में जाकर कोई नौकरी करने को ठान लिया। एक दिन उन्‍होंने रेलगाड़ी का टिकट कटाया और जौनपुर से सीधे मुंबई जा पहुँचे। वहाँ उनके कुछ परिचित लोग पहले से ही काम-धंधा कर रहे थे। उन्‍होंने वीरेन्‍द्र प्रताप को भी काम दिलवा दिया। वह उनके पास पहुँच गए।

मुंबई जाकर वीरेन्‍द्र प्रताप अपनी बीवी-बच्‍चों को भूल गए। उन्‍होंने फिर कभी उनका नाम भी न लिया। न कोई चिट्‌ठी न कोई तार, मानो उन्‍होंने उनसे सदा के लिए मुँह मोड़ लिया। उन्‍होंने अपनी पत्‍नी के साथ-साथ अपने दोनों प्रिय पुत्रों को भी त्‍याग दिया।

वीरेन्‍द्र प्रताप दिलफेंक और मनचले थे ही, एक दिन टहलते-घूमते वह मुंबई सेन्‍ट्रल के पास कमाटीपुरा चले गए। कमाटीपुरा मुंबई का एक अत्‍यंत बदनाम मोहल्‍ला है। वहाँ वेश्‍याओं के चकले और कोठे चलते हैं। वहाँ बाजारू महिलाओं के बाजार सजते हैं और वहाँ खुलेआम इज्‍जत नीलाम होती है। पहले दिन वीरेन्‍द्र प्रताप ने इधर-उधर का कुछ तमाशा देखा और वापस आ गए मगर वहाँ का हसीन दृश्‍य उनके मन-मस्‍तिष्‍क पर छा गया। वह उसे कदापि भुला न सके।

वह बाजार वीरेन्‍द्र प्रताप जैसे मनचलों की कामपिपासा शांत करने के लिए सजता है। वहाँ कुछ ललनाएँ अपनी मर्जी से आती हैं तो कुछ विवश करके लाई जाती हैं। हालांकि सच यह है कि ऐसे स्‍थानों पर अपनी स्‍वेच्‍छा से कोई भी महिला नहीं आती है। अपने आप आने वाली स्‍त्री भी कहीं न कहीं कोई गहरा जख्‍म खाई होती है।

उसे वहाँ आने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। वहाँ आई हुई अभागन जब इसे अपनी नियत मानकर चुप हो जाती है और उसका विरोध खत्‍म हो जाता है तब उसे अपनी मर्जी से आई हुई बता दिया जाता है जबकि इसके लिए कहीं न कहीं पुरुष समाज ही जिम्‍मेदार है।

इसके बावजूद यह काम सदियों से हमारे समाज में होता चला आ रहा है। लगता है इस दलदल में फँसी आरतों के पुनरुद्धार के अब सभी रास्‍ते बिल्‍कुल बंद हो चुके हैं। उनकी खबर लेने वाला अब कोई नहीं है। गरीब से गरीब और निर्धन से निर्धन स्‍वाभिमानी महिला भी ऐसे नर्कमय जगह पर अपनी इच्‍छा से जाने का कतई नाम नहीं ले सकती है।

यह एक ऐसा बाजार होता है जहाँ एक बार जाने पर मनुष्‍य बारंबार जाना चाहता है। वह चाहते हुए भी उससे मुक्‍त नहीं हो सकता है। वहाँ जाकर व्‍यक्‍ति हर हाल में हारता ही है। वह उसकी चकाचौंध में खोकर रह जाता है। वीरेन्‍द्र प्रताप के दिल पर कमाटीपुरा का सुंदर दृश्‍य छाया हुआ ही था अतः अवसर मिलते ही वह एक दिन फिर वहाँ जा धमके।

वहाँ उनकी मुलाकात एक अत्‍यंत खबसूरत कंचनकामिनी मोहनी से हो गई। उससे मिलते ही उनके धैर्य का सारा बँधन टूट गया और उसके साथ आलिंगनवद्ध हो गए। उनकी सारी गर्मी शांत हो गई। इसके बाद वह उससे बारंबार मिलने लगे और भावोवेश में आकर अनायास ही अपने बारे में उसे सब कुछ बताने लगे।

मोहनी सच में इतनी चालाक थी कि अपने जाल में स्‍वतः आकर फँसने वाले शिकार को पहचानते तनिक भी देर न लगी। वीरेन्‍द्र प्रताप ने उसे अपनी जमीन-जायदाद के विषय में भी बता दिया। इससे वह बिल्‍कुल समझ गई कि शिकार करने आया शिकारी अब स्‍वयं ही शिकार बन गया है। यह मेरे रुपजाल में उलझकर रह गया है। यह अब मुझे दिल से चाहने लगा है। जब ऊँट पहाड़ के नीचे आ ही चुका है तब इसे इसकी असली औकात बता देना जरूरी है।

एक दिन मौका देखकर मोहनी ने वीरेन्‍द्र प्रताप से कहा-जब आपको अपनी बीवी-बच्‍चों के साथ कोई अपनापन और लगाव नहीं है तब वहाँ की जमीन को बेच क्‍यों नहीं देते। जब अपने पास पैसा हो जाएगा तो हम दोनों कहीं एक मकान लेकर पति-पत्‍नी के रुप में आराम से वहीं रहेंगे। इस जहालत भरी जिंदगी से मैं अब ऊब चुकी हूँ। मैं चाहती हूँ कि अब आप मेरा उद्धार करें। यहाँ बार-बार आने से आपको भी फुर्सत मिल जाएगी।

मोहनी की यह सलाह वीरेन्‍द्र प्रताप के मन भा गई। उन्‍होंने हँसकर कहा-तब ठीक है। अब ऐसा ही होगा। जब तुम्‍हें मेरा इतना ही ख्‍याल है तो ऐसा ही सही। तुम्‍हारी बात में वाकई दम है। जब तुम हमारे लिए इतना कर सकती हो तो क्‍या मैं इतना भी नहीं कर सकता। अब तुम चुपचाप मेरी दिलेरी देखो। मैं एक हफ्‍ते के अंदर ही कुछ खेत बेचकर तुम्‍हारे पास वापस आ जाऊँगा।

विनाश काले विपरीत बुद्धि, वीरेन्‍द्र प्रताप की अक्‍ल घास चरने चली ही गई थी एक दिन उन्‍होंने गाड़ी का टिकट कटाया और अपने गाँव पहुँच गए। वहाँ जाकर उन्‍होंने अपनी पत्‍नी और बच्‍चों से अपने मन के भावों को छिपाकर कहा-अब मैं नौकरी नहीं करुँगा। मैं एक बिजनेस करना चाहता हूँ परंतु मेरे पास पैसे नहीं हैं इसलिए कुछ खेत बेचने पड़ेंगे।

उनकी पत्‍नी मीनाक्षी बेचारी क्‍या कहती, उसकी तो सारी खुशी अपने पतिदेव की खुशी में ही थी किन्‍तु उसने यह बात चुपके से अपने देवर धीरेन्‍द्र प्रताप और देवरानी दिव्‍या को बता दी। धीरेन्‍द्र प्रताप पति-पत्‍नी बहुत सुलझे हुए इंसान थे।

मीनाक्षी की बात सुनकर उन्‍होंने बस इतना ही कहा-इन महाशय को अभी रोकने-टोकने की कोई जरूरत नहीं है। यह जो करना चाहते हैं शौक से करने दीजिए। खेत बेचना चाहते हैं तो इन्‍हें बेचने दीजिए। रोकने से बात बिगड़ेगी और इससे कोई फायदा भी न होगा। यह समझाने से मानने वाले नहीं हैं।

हाँ इतना अवश्‍य है कि किसी पराए आदमी के पास हमारे खेत नहीं जाने चाहिए। इन्‍हें पैसे मैं दूँगा और खेत भी मैं ही लिखवाऊँगा। मेरे जीते जी ऐसा हरगिज नहीं हो सकता है कि हमारी जमीन किसी और के नाम हो जाए। घर की चीज घर में ही रहे इसी में समझदारी है।

इस प्रकार वीरेन्‍द्र प्रताप ने अपने हिस्‍से के 5 बीघे खेत अपने अनुज के नाम कर दिया। उसका सारा पैसा लेकर वह फिर मुंबई रवाना हो गए। वहाँ जाकर उन्‍होंने सारा पैसा मोहनी पर लुटा दिया। कुछ ही दिन में उस रकम को मौजमस्‍ती में खर्च करके वह फिर गाँव आ गए और 5 बीघे खेत पुनः बेच दिया। इस प्रकार वह अपनी सारी जमीन बेचते गए और धीरेन्‍द्र प्रताप खरीदते गए।

धीरे-धीरे जब उनके सारे खेत बिक गए और पैसा खत्‍म हो गया तो मोहनी ने उन्‍हें लात मार दिया। उसने पलक झपकते ही उन्‍हें ठोकर मार दी। आखिर वह एक कंचनकामिनी थी। जब तक दौलत मिलती रही तब तक वीरेन्‍द्र प्रताप उसके लिए एक देव थे।

धन खत्‍म होते ही उसकी नजरें एकदम बदल गईं और वह उनसे दूर जाने लगी। जब अति हो गई तो एक दिन उसने उनसे यहाँ तक कह दिया कि शरीर में खून न हो तो खटमल भी नहीं काटता है। यह प्रेम का बाजार नहीं है। यह पैसे का बाजार है। यहाँ प्रेम पैसों से खरीदा जाता है। अब तुम्‍हारे पास है ही क्‍या जो मैं तुम्‍हारी गुलामगिरी करती फिरुँ। यहाँ से चुपचाप निकल जाओ वरना ठीक न होगा। बुढ़ापे में तुम्‍हारी हड्‌डी-पसली सब टूट जाएगी।

मरता क्‍या न करता, अपना कोई वश न चलते देखकर वीरेन्‍द्र प्रताप छटपटा उठे। उनकी हालत ऐसी हो गई कि उन्‍हें काटो तो खून भी न निकले। अपनी करनी पर उन्‍हें बड़ा पश्‍चाताप हुआ लेकिन अब पछताने से कोई लाभ नहीं था। अब तो सारा खेत चिड़िया चुग चुकी थी। उनकी सारी दौलत इश्‍क के बाजार में सरेआम लुट चुकी थी।

उनकी बुद्धि सचमुच उनसे दूर चली गई थी। अपना सब कुछ लुटाकर वह भिखारी बन चुके थे। आखिरकार मजबूर होकर वीरेन्‍द्र प्रताप ने अपनी दाढ़ी-जटा बढ़ाकर साधु का रुप धारण कर लिया। वह कुछ दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे और फिर हार-थककर गाँव का रुख कर लिए।

बुढ़ापे में बिल्‍कुल खाली हाथ जब वह अपनी पत्‍नी और बच्‍चों के पास पहुँचे तो उन्‍होंने जानबूझकर पहचानने से इन्‍कार कर दिया। वीरेन्‍द्र प्रताप को अब सच में बहुत पछतावा हो रहा था। उन्‍होंने धीरेन्‍द्र प्रताप से हाथ जोड़कर कहा-भाई! यद्यपि मैं माफ करने के लायक नहीं हूँ फिर भी मैं तुम्‍हारा बड़ा भाई हूँ। हो सके तो मुझे माफ करना। तुम मियाँ-बीवी ने मेरी पत्‍नी और बच्‍चों को पाला-पोसा है। इसका मैं आभारी और ऋणी रहूँगा।

धीरेन्‍द्र प्रताप ने एक सप्‍ताह तक वीरेन्‍द्र प्रताप को उनकी बीवी-बच्‍चों से मिलने नहीं दिया। यह देखकर वीरेन्‍द्र प्रताप को बड़ा ताज्‍जुब हो रहा था। ऐसा होने से पहले धीरेन्‍द्र प्रताप अपने बड़े भाई के विचारों और कर्मों से पूर्णतया आश्‍वस्‍त हो जाना चाहते थे कि यह वास्‍तव में सुधर गए हैं या फिर कोई नया गच्‍चा देने का इरादा है।

जब एक बार कोई इंसान किसी को अप्रत्‍याशित धोखा दे देता है तो वह उसके प्रति एकदम चौकन्‍ना हो जाता है। उसे न जाने क्‍यों बार-बार यही लगता है कि यह व्‍यक्‍ति कभी भी धोखा दे सकता है। मानव स्‍वभाव के अनुसार धीरेन्‍द्र प्रताप भी बिल्‍कुल सजग होकर वीरेन्‍द्र प्रताप का इम्‍तहान ले लेना चाहते थे।

एक सप्‍ताह बाद वीरेन्‍द्र प्रताप ने धीरेन्‍द्र प्रताप से कहा-भइया! मैं अपने जीवन में बड़ा गुनाह किया है। अपना सब कुछ बेचकर मैंने उन्‍हें कहीं का नहीं छोड़ा है। अब मैं चाहता हूँ कि तुम सब पर और अधिक बोझ न बनकर सन्यास ले लूँ और घरबार हमेशा के लिए त्‍याग दूँ। यही मेरा पश्‍चाताप होगा वरना तुम लोगों की तो बात ही दूर है, मैं अपने आपको खुद भी क्षमा नहीं कर पाऊँगा।

यह सुनना था कि धीरेन्‍द्र प्रताप ने बड़ी विनम्रता से कहा-भाई साहब! मेरे कर्म मेरे साथ हैं आपके कर्म आपके साथ हैं। आपने जो कुछ भी किया उससे मुझे कोई लेना-देना नहीं है और अब रही बात आपकी बर्बादी की तो उसके जिम्‍मेदार आप खुद हैं। उसमें किसी और का कोई दोष नहीं है। अगर आपको उस समय कोई रोकता तो आप किसी भी सूरत में मानने वाले नहीं थे।

आपने भाभीजी और बच्‍चों को तो सड़क पर लाने का पूरा इन्‍तजाम कर ही दिया था। अब जान बचाकर पलायन पर उतर आए हैं। मनुष्‍य को मुसीबत से घबराकर इस तरह पलायन करना शोभा नहीं देती है। आपने अभी तक भी परेशानियों से लड़ना नहीं सीखा। कष्‍टों से बचकर भागना कायरता है। इससे आपको मुक्‍ति कदापि न मिलेगी। मेरी मानिए तो अब कहीं और मत जाइए। यहीं रहकर घरद्वार देखिए और अपना कामकाज सँभालिए।

यह सुनते ही वीरेन्‍द्र प्रताप ने उदास होकर कहा-अब यहाँ मेरे करने के लिए काम ही कौन सा बचा है। जो था उसे मैं पहले ही गँवा चुका हूँ।

तब धीरेन्‍द्र प्रताप ने उन्‍हें ढाढ़स बँधाते हुए कहा-काम कभी समाप्‍त नहीं होता है। कोई काम अभी खत्‍म नहीं हुआ है। सारा का सारा काम अभी ज्‍यों का त्‍यों अधूरा ही पड़ा है। चारों बच्‍चों का विवाह वगैरह भी अभी होना है। बेटी के लिए दामाद ढूँढ़ना है।

यह सुनना था कि वीरेन्‍द्र प्रताप ने झट कहा-लेकिन अब जब मेरे पास रत्‍ती भर भी जमीन नहीं है तो यह सब काम मैं कैसे पूरा कर पाऊँगा।

तब धीरेन्‍द्र प्रताप ने मुस्‍कराकर कहा-इसकी चिंता आप मत कीजिए। अभी हमारे पास काफी जमीन है। मनुष्‍य के दिल में जगह हो तो जमीन की कमी उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती है।

यह सुनकर वीरेन्‍द्र प्रताप बिल्‍कुल अधीर होकर बोले-भाई! तुम सचमुच महान हो। अगर भाई हो तो तुम्‍हारे जैसा ही हो। मुझे आज तुम पर बहुत गर्व है। मैं तुम्‍हारे उपकार को जीवन भर नहीं भुला पाऊँगा।

अंततः जब धीरेन्‍द्र प्रताप आश्‍वस्‍त हो गए मेरे बड़े भाई सच में बदल गए हैं और अपने किए पर इन्‍ हें वास्‍तव में पछतावा हो रहा है तो उन्‍होंने उनसे कहा-भाई साहब! आपने अपने हिस्‍से की खेतीबाड़ी बेची जरूर लेकिन मैंने उसे नहीं बिकने दी। आपको जो पैसे मिलते रहे वह मैं अपनी ओर से आपको देता रहा। आपकी जमीन आज भी पूरी की पूरी मेरे पास सुरक्षित है। मैंने बड़ी मेहनत से उसे बचाकर रखा है। आपका कुछ भी नहीं बिका है।

यह सुनना था कि वीरेन्‍द्र प्रताप अकस्‍मात भावविह्‌वल हो गए और धीरेन्‍द्र प्रताप का पैर छूकर माफी माँगने आगे बढ़े पर उन पर नजर पड़ते ही धीरेन्‍द्र प्रताप ने उन्‍हें रोक लिया। अपने छोटे भाई की उदारता, सहनशीलता और दानवीरता देखकर वीरेन्‍द्र प्रताप के नेत्रों से झरझर आँसू निकलने लगे।

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राजभाषा सहायक ग्रेड-।

महाप्रबंधक कार्यालय

उत्‍तर मध्‍य रेलवे मुख्‍यालय

इलाहाबाद

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कहानी // साहसी भाई // अर्जुन प्रसाद
कहानी // साहसी भाई // अर्जुन प्रसाद
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