जिंदगी-तूर का पेड़! // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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जिंदगी-तूर का पेड़! यहां आ, इस पत्थर पर चढ़कर बैठ। शाम के वक्त तालाब का नजारा कितना अच्छा लगता है! सूर्य थके हारे मुसाफिर की तरह सरकता पहाड़ों ...

जिंदगी-तूर का पेड़!

यहां आ, इस पत्थर पर चढ़कर बैठ। शाम के वक्त तालाब का नजारा कितना अच्छा लगता है! सूर्य थके हारे मुसाफिर की तरह सरकता पहाड़ों के दूसरी ओर जा रहा है। बहते पानी में नीले आकाश की परछाईं ने शाम को मैला और धुंधला बना दिया है, बादल भी मैले हैं। क्या कहते हो, माहौल काफी उदास और डूबा हुआ है। होगा! मुझे तो शाम का यह रूप बहुत अच्छा लगता है। मुझे लगता है कि उस मैले नीलेपन में गायब हो गया हूं, मेरा व्यक्तित्व (वजूद) उस शाम से अलग (पृथक) नहीं, लेकिन मैं भी उसका एक भाग हूं, मेरी आत्मा मैले पानी में डुबकी लगा रही है। कभी कभी दिल चाहता है कि बांहें फैलाकर, आंखें बंद करके उस चिकने फर्श जैसे पानी पर लेट जाऊं और लहरें झूले की तरह मुझे झुलातीं, अपने साथ लेकर कहीं दूर, बहुत दूर जा छोड़े। तुम्हें मेरी बातों पर आश्चर्य हो रहा है। मेरी उम्र ऐसी बातें करने के लायक नहीं है, यह तो लापरवाही और मस्ती का वक्त होता है। मुझे यह एहसास जहर से भरे खंजर की तरह चुभ रहा है, लेकिन इसमें किसी का दोष नहीं है। यह वक्त सबसे ज्यादा हंगामे वाला दौर है और शायद इंतहा के बहुत करीब! इन्सान बेचारा तो हमेशा से कठपुतली रहा है, लेकिन इस वक्त कठपुतलियों के नृत्य में बहुत तेजी आ चुकी है। इस कदर कि इन्सान अपने आप से भी खो गया है। तुम बोर तो नहीं हो रहे! मैं जानता हूं कि तुम जरूर ये कहोगे कि नहीं तुम्हारी बातें दिलचस्प हैं। मेरे भाई, यह कितनी बड़ी ज्यादती है कि इन्सान किसी न किसी डर की वजह से अपने मन की बात साफ साफ नहीं कह पाता। बेचारा इन्सान! नहीं भाई, मैं बात को घुमा नहीं रहा हूं। आप को शायद कोई गलतफहमी हो गई है। मैं शाम के इस नजारे में खोकर पता नहीं क्या क्या कह गया। मानसिक परेशानियां और उलझनें तो आज के इन्सान के लिए इस वक्त के खास तोहफे हैं।

चाहे दुनिया की और चीजें कुछ लोगों के लिए ज्यादा ही नसीब हों और कुछ इनके लिए तरसते रहें, लेकिन मानसिक परेशानियां और उलझनों का तोहफा हर इन्सान को मिला हुआ है। मैं भी चाहे दुनिया के और मामलों में बदनसीब होऊं, लेकिन इस तोहफे की मेरे पास कमी नहीं। तुम्हारी हमदर्दी और दया के लिए मेहरबानी, लेकिन आखिर मैं तुम्हें क्या बताऊं! हकीकत में मुझे अपने बारे में बताते कुछ अजीब अनुभव हो रहा है। आप पहले व्यक्ति हैं, जो मेरी जाति में इतनी दिलचस्पी ले रहे हैं, नहीं तो मेरे मित्र मुझे एक ऐसा व्यक्ति समझते हैं, जो इन बातों से अभी तक बेखबर और अनजान है। मैं बचपन से ही दुनिया की ज्यादतियों का शिकार बन गया। मेरी मासूम दिल ज़ख्मों से चूर चूर हो गई। मेरे दिल का दर्द धुएं जैसा अंदर ही अंदर सुबकता और घुटता रहा। दुर्भाग्य से यह धुआं किसी भी तरीके से बाहर नहीं निकल पाया है। मैं चालाक और तेज नहीं हूं, इसलिए अच्छे मित्र पैदा करने की मुझमें शक्ति नहीं। मैं किसी के नजदीक जाना नहीं चाहता हूं, और चाहता हूं कि शुरुआत कोई और करे, शायद इसलिए ही वह मित्र मुझे केवल अपने दिल का दर्द हल्का करने का एक जरिया (चीज) समझता है। मैं ज्यादा बातें करना नहीं जानता, मेरे मित्र शायद ज्यादा सुनना नहीं जानते हैं। इसलिए वे केवल बातें करते और मैं केवल सुनता रहता हूं। मुझे बातें करने का ढंग नहीं आता, और मुझे कुछ हिचक भी अनुभव होती है। मैं बहुत ही कम बातें करने वाला, शर्मीला और कुछ कदर आत्मविश्वास की कमी का शिकार हूं, इसलिए ज्यादातर लोगों को मेरे बारे में गलत फहमियां होती हैं। मुझमें कुदरती शक्ति नहीं जो कोई बात साफ साफ कह पाऊं। कभी कभी मेरी शिकायतें और मुझसे हुई ज्यादतियां भी उल्टे मेरा ही दोष बन जाती हैं। दुर्भाग्य से मैं हद से ज्यादा भावुक व्यक्ति हूं, और प्रभावित भी जल्दी ही हो जाता हूं। कुदरत (प्रकृति) ने मुझे और तो कोई खूबी नहीं भेंट की है केवल एक भावुक मन और सोच के। किसी मामूली सी बात या हरकत पर भी सोचता ही रहता हूं, पछताता ही रहता हूं। यह सोच मेरे मन पर एक भार और एक यातना बन जाती है। सोच ने मुझे जलाकर राख कर दिया है, इसकी यातना नर्क से किसी भी हालत में कम नहीं। काश! कुदरत मुझसे सोचने और अनुभव करने की खासियतें (विशेषताएं) छीन ले।

बस बहुत हुआ दोस्त, मुझे मेरे मकड़ी के जाले जैसे भूतकाल पर निगाह डालने के लिए मजबूर मत कर। मेरे भूतकाल और वर्तमान में फर्क ही क्या है। मैं उस जाल में ऐसा फंस चुका हूं जो जितना ज्यादा छुड़ाने के लिए तड़पता हूं उतना ही और ज्यादा फंस जाता हूं। मेरी उम्र कोई ज्यादा नहीं। लेकिन इस उम्र में मैंने बहुत कुछ सहन किया है। मैं बहुत जल्दी वक्त की चक्की में पिस गया। मैंने लापरवाही और जवानी (आजादी) का वक्त देखा ही नहीं। मैं जवानी का मजा नहीं ले पाया। हे भगवान, मैंने अभी गुलशन (बगीचा) में पैर ही रखा था कि कांटा चुभ गया। तभी मेरी जिंदगी में जवानी का बवंडर उठा ही था। मेरे मन की उमंगों ने अभी उछलना शुरू ही किया था, और उसकी भी वही हालत थी। जानना चाहते हो कि वह कौन थी! वह मेरी एक करीबी रिश्तेदार थी। जब हमें समझ भी नहीं थी, कि हमारे रिश्तेदारों ने हमारी सगाई कर दी। उसके बाद हालात ऐसे बने कि हमारे बड़ों के आपस में झगड़े हो गए, और वे गाँव छोड़कर एक बड़े शहर में जा बसे। मेरे मन में केवल उस लड़की की याद बाकी थी, जिसके साथ खेलते खेलते मैं उसे मारकर भाग जाता था। माँ के द्वारा उसके बारें में बातें सुनकर मेरे मासूम दिल में उसे देखने का जोरदार शौक जाग उठा। एक दिन घर में किसी को कुछ बताए बिना मैं उधर के लिए निकला। काफी वक्त के बाद अपना एक संबंधी देखकर उन्होंने मुझे बहुत प्यार दिया और वहां पर मैंने उसे देखा। पता नहीं क्यों, जब उससे मेरी निगाहें मिलती थीं तो मुझे कुछ अजीब अनुभव होता था। पूरे शरीर में जैसे करंट दौड़ जाता था और मीठी मीठी गुदगुदी होने लगती थी। शुरू शुरू में वह एकदम घबरा और शर्मा जाती थी। काफी वक्त के बाद वह मुझसे अच्छी तरह बातें करने लगी। फिर वह मासूमियत और सादगी से मेरी आंखों में देखती रहती थी। मुझे एक अजीब आनंद आता था। जब उसके गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ हिलने लगते थे तो अचानक घबराकर नजरें हटा देती थी। वैसे वह बहुत ही बातूनी थी और मैं काफी संजीदा। लेकिन उसके साथ मैं भी बातूनी और एक बच्चा बन जाता था। उसके मुंह से ‘अरे हां’ कहने का अंदाज मेरे दिल को एक अजीब आनंद में डुबो देता था। वह मुझे ‘गावठी’ कहकर चिढ़ाने की कोशिश करती थी। ज्यादातर मैं गुस्से में आ जाता था, तो वह एकदम संजीदा बन जाती थी और एक अजीब प्यारे ढंग से माफी मांगती थी : ‘‘गुस्से में हो? मुझसे भी गुस्सा हो जाते हो, मेरी ओर तो देख...’ और मेरा दिल चाहता था कि मैं उसकी तालाब जैसी बड़ी आँखों में गोता लगाकर गायब हो जाऊं।

आखिर तो मुझे गाँव वापस लौटना था। जब उसे पता लगा कि मैं गाँव जा रहा हूं, तब उसका गुलाब जैसा चेहरा बुझ (कुम्हला) गया। दूसरी सुबह उसकी थकी और लाल आँखें देखकर मैं समझ गया कि वह देर रात तक रोती रही है। मैंने उसकी आँखों में देखकर कहा : ‘लगता है रात को नींद नहीं आई है, पूरी रात रोई हो...’

उसके होंठो पर एक फीकी मुस्कान आ गई। कहा : ‘मुझे लगता है तुम भी रात को नहीं सोये हो; लेकिन तुम्हें तो गाँव जाने की खुशी में नींद नहीं आई होगी।’ मैं उसकी आँखों की गहराई में डूब गया। जिस वक्त जा रहा था, तो वह बर्तन मांझ रही थी। उसका सर नीचे झुका हुआ था। करीब जाकर मैंने उसे बुलाया। उसने सर ऊपर उठाया तो मैंने देखा : वह रो रही थी, उसकी आँखों से आँसू भरी शराब की तरह छलक रहे थे। कितना जहर भरा है उन यादों में! मुझे उन गुजरे पलों से, जिन्हें आम तौर पर हसीन और रंगीन पल कहा जाता है, नफरत है। अब मैं उस प्यार को बचकाना और बेवकूफी मानता हूं, लेकिन फिर भी उस जहर को किसी भी सूरत में खुद में से निकाल नहीं पाया हूं। हाय वक्त का यह सितम! मैंने यह नहीं सोचा था कि शहरी और गाँव के माहौल के कारण हम में इतना बड़ा फर्क (अंतर) है। मेरे परिवार के सदस्य इस काबिल नहीं थे जो ऐसी लड़की को अपने घर में लाने के लिए केवल सोच भी सकें।

जब मैं दूसरी बार उनके पास गया, तो पिछली तकलीफ वाली भावना खत्म हो चुकी थी। मुझे अपनी हैसियात का अहसास दिलाया गया। जैसे एक बहुत ही हसीन और प्यारा सपना देखते किसी ने मुझे नींद में से जगा डाला और मैं हड़बड़ा गया। बेचारे उठाने वाले का क्या दोष! मैं खुद पर रो पड़ा।

हद से ज्यादा भावुक होने के कारण अपने घर की समस्याओं और आसपास का माहौल देखकर मेरे दिल में एक प्रकार की नफरत (घृणा) उभरने लगी। मैंने मध्यम घर के एक अच्छी हैसियत वाले घर में जन्म लिया। तुम्हें पता होगा कि ऐसे घर को समाज में इज्जत की निगाह से देखा जाता है। इसलिए उनके अपने उसूल होते हैं, जिन्हें वे किसी भी हालत में नहीं छोड़ते। मेरी देखभाल (पालन पोषण) भी ऐसे माहौल में हुई। जब मैंने आंख खोली तो मेरा पिता एक बड़ा व्यक्ति था और रिश्तेदार भी बहुत बड़े साहूकार, बड़ी जायदाद वाले थे। उसके बाद जमाने की गर्दिश के कारण हालात बदल गए। लेकिन समस्याओं और खराब हालातों के बावजूद हम अपनी झूठी शान को कायम रखते आए। मेरे बचपन के पालन पोषण और होश में आने के बाद खुद को एक अच्छे खानदान का व्यक्ति समझना, आसपास का माहौल, स्वाभाविक रुझान और उसके बाद खराब हालात होते हुए भी आराम से घर पर बैठे रहना... इन सब बातों ने मिलकर मेरे ऊपर पता नहीं कैसे कैसे असर छोड़े। मैंने अपने सम दर्जे के लड़कों के बीच उठना बैठना चाहा लेकिन इस लायक नहीं था। उच्च दर्जे से संबंधित लोग नाम मात्र भी निचले दर्जे के लोगों से संबंध रखना दोष समझते हैं। मैं तो जैसे जमीन और आकाश के बीच फंसा हुआ था। भावुक तौर पर इन बातों का मेरे ऊपर बहुत गहरा असर हुआ। कभी कभी मैं रो पड़ता था कि ऐसे घर में क्यों पैदा हुआ। अगर किसी गरीब घर में जनम लेता तो मानसिक और जातिगत दर्जे की समस्याओं से तो छूट जाता। सही कारण थे जिनके कारण खुद से, अपने घर से और उच्च दर्जे की ओर मेरी नफरत ने मेरे दिल में घर कर लिया।

दोस्त, मैं भटका हुआ था तो मुझे एक राह नजर आई। मैंने भावुक बनकर समझा कि यही सही राह है, इसी में छुटकारा है। वक्त और हालातों ने मुझ पर कुछ नजरिये (सोच) मढ़ दिए। मैंने सोचा कि आज के समाज में मेरे जैसे लाखों लोग जलते, सड़ते और तड़पते रहेंगे, जब तक कि यह परम्परा न बदल दी जाए। मैंने मकसद को ही सबसे उच्च समझा। प्यार और मुहब्बत को एक बेकार बात और ऊपरी भावुकता समझने लगा। मैंने सोचा कि यह मानसिक ऐश है, दुनिया की कड़वी सच्चाई से दूर है। पूरी दुनिया का दर्द मुझमें आ समाया और मैं अपनी जाति को भूल गया। मेरे पास केवल दूरबीन थी जिससे मैं दूर दूर तक देख सकता था; लेकिन दूरबीन के साथ मुझे माइक्रोस्कोप मिल न सका जिससे अपने अंदर भी झांक सकूं। हालातों के कारण मैं अंतर्मुखी बन गया। असल में मैं एक कार्यात्मक व्यक्ति नहीं था, मेरा स्वभाव और रुझान उन नजरियों के विपरीत थे। मैंने तो आत्मा की शांति के लिए सोचा था, लेकिन शांति कहीं पर भी नहीं मिली। मैं तो जैसे पानी की तलाश में रेगिस्तान भटक रहा था, इधर उधर देखते, दूर कुछ सफेदी देखकर उसकी ओर भागता रहा लेकिन केवल भ्रम के मुझे कुछ नसीब नहीं हुआ। तब मैंने जाना कि मेरी जिंदगी रेगिस्तान में खड़े उस तूर के पेड़ की तरह है, जिसे पानी की कोई जरूरत नहीं होती है; जिसका कोई महत्व नहीं होता है; और जिसमें कांटों के अलावा और कुछ नहीं होता।

नहीं मुझमें इतनी सख्तियां सहने की शक्ति नहीं, हिम्मत नहीं। मैं जैसे एक तूफान में जकड़ा हुआ हूं जिसने मेरे पूरे होश हवास गायब कर दिए हैं। जो देर से होना चाहिए था, वह बहुत जल्दी हो गया। उस बेदर्द वक्त ने मेरी अंदर की उमंगों को दबा दिया, मेरी आत्मा की चीखों का गला घोंट दिया।

भगवान?... नहीं दोस्त मुझे तुम्हारे रहमदिल भगवान पर कोई विश्वास नहीं रहा है। हकीकत में हालातों ने ही मुझे मजबूर किया कि ऐसे समझूं। हो सकता है कि मैं भटका हुआ होऊं, लेकिन इसमें मेरा क्या दोष! मुझे भी जिंदा रहने की चाहना है, मुझे भी जिंदगी से प्यार है, चाहे मेरी जिंदगी बिल्कुल खाली और पुरानी बोतल की तरह हो गई है। मैं रोना चाहता हूं लेकिन रो भी नहीं सकता। मेरी हिचकियों ने घुट घुटकर दम तोड़ दिया है... मैं वे घाव देखना चाहता हूं जो एक छोटे से वक्त में मुझे लगे। माफ करना, मैं शायद कुछ भावुक बन गया। दोस्त, इस वक्त मेरे हालात एक ही जगह ठहर गए हैं। इस बेरंग दुनिया ने मुझे अपनी जिंदगी से ही बोर कर दिया है। मेरी आत्मा असल में भटक रही है, और मैंने जैसे उसे एक ही जगह कैद कर रखा है। मैं चाहता हूं कि एक मुसाफिर बनकर, भटकता रहूं, घूमता रहूं।

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रचनाकार: जिंदगी-तूर का पेड़! // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
जिंदगी-तूर का पेड़! // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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