आधा बुना स्वेटर // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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दिल में आ रहा है, बाहर निकलकर, जोर से चिल्लाकर कहूं, ‘बंद करो ये शोर, ये बैंड बाजे!... आखिर ऐसे कैसे मार रहे हो किसी को!’-लेकिन मैं बाहर निक...

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दिल में आ रहा है, बाहर निकलकर, जोर से चिल्लाकर कहूं, ‘बंद करो ये शोर, ये बैंड बाजे!... आखिर ऐसे कैसे मार रहे हो किसी को!’-लेकिन मैं बाहर निकलकर हंसते, ठहाके लगाते चेहरों की तपिश सहन नहीं कर पाता। एक या दो लोग मरते हैं तो मरें, इतने लोगों के ठहाकों को नहीं छीना जा सकता। लेकिन क्या, एक दो लोगों को इस प्रकार बैंड बाजों से मारा जा सकता है? यह कहां की इंसानियत है! इन्सान कहीं के भी हों, स्वाभाविक तौर पर वहशी क्यों होते हैं? मैं अपने कानों में उंगलियां डालूं या कपास डाल दूं, लेकिन हिलते दिल के दर्द को क्या रोक सकता हूं!

आज सुबह न चाहते हुए भी ऑफिस गया। ऑफिस के करीब आकर, कदम भी दिल की तरह घबराने लगे। तब वापस लौट गया। पूरा वक्त यहां वहां भटकता रहा। घर जाना नहीं चाहता था। घर से दूर रहना चाहता था।

लेकिन चाहे कहीं पर भी रहूं, दिल एक गहरे दर्द में डूबती जा रही थी। घर पर आया तो देखा, माँ किसी सोच में बैठी थी। मुझे देखकर, एक पल के लिए उसकी आँखों में ममता चमक आई, उसके बाद मुंह घुमा लिया। पगली, मुझसे आँसू छुपा रही है! घर में केवल वही थी, जो मेरे दर्द को समझती थी। बचपन में मास्टर जी से या कभी किसी बच्चे से पिटकर आता था तो उसकी गोद में मुंह छुपाकर रोता था। अब मुझे गोद में लिटाकर वह खुद jksbZ। लेकिन नहीं, शायद मेरी आँखों से भी कुछ आँसू गिरे थे। मैंने निचले होंठ को जोर से काटकर, आँसुओं को रोक दिया था।

माँ शादी में नहीं जाना चाहती थी, मैंने ही उसे जबरदस्ती भेजा। शादी से कुछ दिन पहले ‘वह’ हमारे घर आई थी। घर पर मैं था, और माँ थी। वह दौड़कर आकर माँ के गले से लगी, सुबककर रोने लगी। माँ भी रो पड़ी। मैंने मुंह दूसरी ओर घुमा लिया था। उस वक्त मैं जैसे एक अपाहिज की तरह कुर्सी पर बैठा था, बेबस बेबस। उसने कहा, ‘‘मौसी, मुझे मेरे रिश्तेदार जिंदा दफन कर रहे हैं। जिंदा होते हुए भी अब कभी तुम्हारे पास आ नहीं पाऊंगी... मौसी, क्या आखिरी बार तुम मुझे दफनाने भी नहीं आओगी?’’ मुझे लगा, उसका दिल फट पड़ा था। जाते वक्त उसने मेरी ओर देखा। उसके चेहरे पर अजीब रंग, अजीब भावनाओं से भाव चढ़ उतर रहे थे। एक पल के लिए उसका चेहरा दर्द के कारण दुगुना हो गया, उसके बाद जैसे हवा निकले बाल की तरह पिचक गया, और वह चुनरी में मुंह छुपाकर, दौड़ती चली गई। मेरा मुंह कड़वाहट से भर गया।


मैं उठकर बैग खोलता हूं। बैग में से एक खूबसूरत आधा बुना स्वेटर निकालता हूं। कुछ देर तक देखता रहता हूं, उसके बाद स्वेटर में मुंह डालकर, खाट पर लेट जाता हूं। छाती के अंदर दिल गहरे दर्द में डूब और उभर रही है। यादें तीर बनकर मन को खोद रही हैं।

‘‘यह देख!’’

‘‘क्या है?’’

‘‘ऊन है।’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘ऊन किसलिए होता है?’’

वह मुस्करायी। ‘‘मुझे पता नहीं, तुम ही बताओ।’’

‘‘इस ऊन से मेरा स्वेटर बनेगा।’’

‘‘ओ! भले बने। मैं क्या करूं ! मुझसे इजाजत लेनी है क्या?’’

‘‘जाहिर है। तुम्हारी मर्जी के बिना कैसे बनेगा।’’

‘‘अच्छा भाई, इजाजत है... लेकिन किसी लड़की से तो नहीं बनवा रहे? ऐसी हालत में इजाजत नहीं मिलेगी!’’

‘‘नासमझी की भी हद होती है। मैं तेरे हाथों का बना स्वेटर पहनना चाहता हूं!’’

शायद वह घबरा गई। ‘‘लेकिन मैं... लेकिन मैं...’’

मैंने फिर से कहा, ‘‘हां, खुशी, मैं तुम्हारे सुन्दर हाथों का बना स्वेटर पहनना चाहता हूं।’’ लेकिन मुझे लगा, नाचता दौड़ता वक्त, अचानक किसी सदमे से रुककर, बुत बन गया है।

उसने कहा, ‘‘मेरी मजबूरियां तुम जानते हो। मुझ पर घर में कितनी पाबंदियां हैं! तुम्हें पता है न कि मैं तुझसे कैसे मिलती हूं। अगर हम एक ही पड़ोस में नहीं रहते तो शायद मैं तुझसे मिल भी नहीं पाती।’’

मैंने रोनी आवाज में कहा, ‘‘सब जानता हूं। तुम साफ क्यों नहीं कहती कि मेरा स्वेटर नहीं बनाओगी।’’

उसने अपने हाथों में मेरा हाथ जोर से पकड़कर कहा, ‘‘तुम समझते क्यों नहीं, रिशू! मेरे हाथों का बना स्वेटर हमारे प्यार का इश्तहार बन जाएगा...’’

मैंने क्रोध से झटका देकर, अपना हाथ छुड़ाया।

‘‘मेरी बात का गलत मतलब मत समझ, रिशू! स्वेटर जैसी चीज, प्यार के आगे तुच्छ है। मेरे प्यार को ऐसी तुच्छ चीज पर मत परख। मेरा मतलब यह था कि हम बदनाम हो जाएंगे। लोगों का तो तुम्हें पता ही है।’’

मैंने उसी अंदाज से कहा, ‘‘अच्छा खुशी, तुम मेरे प्यार में बदनाम न हो। मुझसे गल्ती हो गई, माफ कर।’’

‘‘ओह रिशू! खुदा के लिए... देख, मुझे देर हो गई है। मैं तुम्हारे लिए स्वेटर बनाऊंगी। गुलाम का बस नहीं चलेगा!... अच्छा, अब जाती हूं।’’

मैं उसी तरह बैठा रहा। उसने उंगली से मेरे ठुड्ठी को ऊपर करके कहा, ‘‘इधर, मेरी ओर देख! बाप रे, इतना गुस्सा! बस, अब तो गुस्सा फेंक दो प्यारे!’’

उस पल मैं रूठने वाले बच्चे की तरह खुश हो गया था, जिसके आगे हार मान ली गई हो।

मैंने उसे बांह से पकड़कर, अपनी ओर खींच लिया। ‘‘खुशी, तुम शहद से भी ज्यादा मीठी हो। मुझे इतना मत सताया कर, नहीं तो मैं बिल्कुल रूठ जाऊंगा।’’

‘‘अपनी खुशी से रूठ जाओगे, बताओ?’’

‘‘अपनी खुशी से कौन रूठना चाहेगा। खुशी खुद न रूठ जाए।’’

‘‘तुम्हारे बिना खुशी मर जाएगी।’’

‘‘ओह, खुशी! मेरी खुशी, मेरी खुशी!...’’

‘‘अब छोड़। बाप रे, बहुत देर हो गई है।’’

वह ऊन लेकर चली गई।

उसके जाने के बाद भी मैं कितनी देर तक टोकता रहा-‘‘मेरी खुशी!... मेरी खुशी!...’’

मन ही मन में कितनी ही देर तक टोकता रहता हूं : ‘मेरी खुशी, मेरी खुशी,’ लेकिन अब दिल खुशी से फूलती नहीं-जैसे सुबककर रो रही है। छिन जाने के अहसास से दिल तड़प उठती है। मुझसे मेरी खुशी छिन गई, अब क्या अधिकार है मुझे ‘मेरी खुशी’ कहने का?... जल्दी ही दो तीन शब्द हमारे प्यार के लिए मौत बनकर आएंगे, और खुशी को एक बंधन में जकड़ लेंगे।

अगली बार जब वह आई तो मैंने उससे पूछा : ‘‘खुशी, पहले तो तुम डर की वजह से स्वेटर नहीं बना रही थी, अब कैसे बना रही हो?’’

मेरे गले में बांहें डालकर कहा, ‘‘तुम्हारे लिए मैं जान भी दे सकती हूं।’’

मैंने कहा, ‘‘मैं तुमसे प्यार करता हूं, मुझे तुम्हारी जरूरत है, तेरी जान की नहीं।’’

इस बात पर हम दोनों कितनी ही देर तक हंसते रहे।

‘‘मैं छिप छिपकर स्वेटर बना रही हूं। शायद देर लग जाए।’’

मन को बहुत बड़ा सदमा लगा... प्यार इतना जबरदस्त दोष है, जिस पर इतने पहरे! सदियां गुजर गईं, लोग कहां से कहां जा पहुंचे, लेकिन हमारे यहां प्यार की वही मजबूरियां, वही पहरे!

मैंने कहा, ‘‘खुशी, हम एक दूसरे से प्यार करते हैं, फिर औरों को क्या अधिकार है हमारे प्यार पर गुस्सा होकर पहरा लगाने की! प्यार इतना बड़ा गुनाह है क्या, जो हम इस प्रकार लोगों से छिपते फिरें?’’

उसकी निगाहें मेरे दिल को छू रही थीं। उत्तर उसके पास नहीं था। शायद इसका उत्तर किसी के पास नहीं होगा। तब मैंने ही कहा, ‘‘खुशी, प्यार एक सुन्दर सपने की तरह तो नहीं, जो हकीकत की रोशनी की तपिश सहन नहीं कर पाता, और इस सपने का अंजाम... सपने तो आखिर सपने हैं!’’

उसने कहा, ‘‘आज तुम इतने भावुक क्यों बन गए हो। मैं ही तेरे सपने का अंजाम हूं। तुम्हें विश्वास नहीं होता क्या?’’

शायद उस दिन मैं सचमुच भावुक बन गया था। ‘‘प्यार का अंत हमेशा दर्द और पछताने का एहसास लेकर आता है, इसीलिए मैं डर रहा हूं कि कहीं अंजाम अंजाम नहीं रहा तो...?’’ उसने मुझे कैसे कैसे विश्वास दिलाए। उसकी सच्चाई पर मुझे आज भी कोई शक नहीं। हालातों से टकराकर सब विश्वास मर गए। उसका क्या दोष!

एक दिन अचानक ही खुशी की शादी की बात बम का धमाका बनकर आई। धमाके ने कुछ देर के लिए दिल को अपाहिज बना दिया। जब मन संतुलित हुआ, तो सचमुच सब कुछ खत्म हो चुका था।

खुशी के परिवार को एक सुनहरा मौका मिला था। इसलिए उन्होंने सोचने में वक्त गंवाना नहीं चाहा। पैसों की चमक के आगे सोच का क्या? हाथ मांगने वाले साहूकार लोग थे, गाड़ी और बंगलों वाले थे। इससे ज्यादा क्या सोचा जा सकता है। यही तो सोच की आखिरी हद है।

माँ दंग रह गई थी। वह तो खुशी का हाथ मांगने के लिए अभी सोच ही रही थी। बात सुनकर कहा, ‘‘ऐसा कैसे होगा! ये रिश्तेदार हैं या दुश्मन। पैसे देखकर अंधे हो गए हैं। कम से कम लड़की की इच्छा तो जान लें। मैं उसकी माँ को समझाऊंगी। हम गरीब हैं, लेकिन खुशी को आँखों पर बिठाएंगे। दोनों एक दूसरे पर जान छिड़कते हैं, परिवार के सदस्यों को इससे ज्यादा और क्या चाहिए?’’

बेचारी सीधी माँ! उसकी बात सुनकर, पता नहीं क्यों मैं गुस्से में आ गया : ‘‘तुम तो पागल हो गई हो, माँ! उसके रिश्तेदार तुमसे T;knk समझदार होंगे। बताओ, तुम्हारे पास क्या है? तुम्हारे पास बंग्ला नहीं, तुम्हारे पास कार नहीं, और तुम्हारे पास है ही क्या? बंग्ले और कारें छोड़कर, एक क्लर्क को अपनी लड़की कौन देना चाहेगा! तुम यह क्यों भूल रही हो माँ, कि तुम्हारा बेटा केवल एक क्लर्क है!’’

खुशी की माँ ने भी मेरी माँ की बात को हंसी में उड़ा दिया था : ‘‘भाई, रिश्तेदार लड़की के दुश्मन तो नहीं होते। रिश्तेदार तो हमेशा यही चाहते हैं कि लड़की अच्छे घर में जाए, हमेशा सुखी हो, कभी कोई बुरा दिन न देखे। ऐसा घर तो भाग्यशाली लोगों को मिलता है। लड़की पूरी जिंदगी अच्छा खाना खाएगी, अच्छी तरह से रहेगी...’’

एक दिन वह भी आई। आँखों में आंसू थे, होंठों पर खामोशी।

मैंने कहा, ‘‘अपनी शादी का समाचार देने आई हो, खुशी!’’

वह तड़प उठी। आँसुओं का बांध टूट पड़ा, और वह मेरे ऊपर ढह गई।

‘‘तुम भी मुझे ही दोष दे रहे हो, रिशू!’’

जिस चीज को व्यक्ति दिल की गहराइयों से चाहता हो, जिसे वह केवल अपना समझता हो, वह चीज उससे छिन जाए तो... खुशी तो मेरी आत्मा का भाग थी, मैंने उसकी निगाहों में अपना प्यार छलकता देखा था। अब वह न चाहते हुए भी अपनी आँखों में किसी और को...केवल सोच में ही कितनी पीड़ा भरी हुई है!

भारी मन से कहा, ‘‘नहीं खुशी, तुम्हें दोष कैसे दूंगा। तुम्हारे छिन जाने के एहसास ने पता नहीं मुझमें कितना गुस्सा भर दिया है। मुझे माफ करना खुशी, मैंने शायद तुम्हारा दिल दुखाया है।’’

वह मेरी छाती में मुंह छिपाकर सुबकने लगी।

मैंने कहा, ‘‘मैं इस आँसुओं के लायक नहीं हूं, खुशी! मुझमें इतनी भी हिम्मत नहीं कि केवल तुम्हारे आँसू ही पोंछ सकूं। मेरी हैसियत वाले लोगों को प्यार करने का कोई अधिकार ही नहीं है। अगर कोई भूलकर ही उस सपने को देखता है तो आप उसका अंजाम क्यों बनती हैं? सब कुछ देखते समझते भी ऐसी गल्ती करके क्यों खुद को मुसीबत में डालती हैं...’’

उसने मेरे कंधों को हिलाते कहा, ‘‘नहीं, रिशू, नहीं-मुझे... बंगले और गाड़ियां नहीं चाहिए, मुझे केवल तुम्हारा प्यार चाहिए। मैं तुम्हारे साथ झोंपड़ी में रहने के लिए भी तैयार हूं। मैं कौन-सा पूरी उम्र बंगलों में रही हूं।’’

तभी मुझे स्वेटर याद आ गया, और होंठों पर एक कड़वाहट भरी मुस्कान आयी ः ‘‘खुशी, एक बात बता। तुझमें इतनी हिम्मत है कि तुम सभी रस्मो रिवाज (परंपराओं) और पाबंदियों की जंजीरें तोड़ सको? यहां तो प्यार भी डर डरकर किया जाता है। बदनामी के डर से, तुम एक स्वेटर तक नहीं बुन सकतीं, तो इतनी हिम्मत कर पाओगी कि परिवार के सदस्यों की मर्जी ठुकरा दो?... बता, खुशी!’’

‘‘मुझे कहीं से जहर ही लाकर दो। मैं अगर और कुछ नहीं कर सकती तो प्यार की खातिर जान तो दे सकती हूं!’’

‘‘पगली, प्यार को जान नहीं चाहिए। जहर खाने से क्या तुम्हें तुम्हारा प्यार मिल जाएगा? मौत तो हर चीज का अंत है। ज़िंदा रहना तुम्हें बोझा लगता है, तो भी अपने हिस्से की जिंदगी तुम्हें जीनी है। कौन जाने, कभी वक्त ज़ख्मों पर मरहम रखकर उन्हें भर दे, और जिंदगी दोबारा हसीन बन जाए!’’

उससे चीख निकल गयी : ‘‘तुम इतना कठोर क्यों बन गए हो, रिशू!’’

मैं कठोर! दिल के ज़ख्म मुस्करा पड़ते हैं...

यह स्वेटर गीला क्यों हो गया है? स्वेटर दोनों हाथों में पकड़कर, ऊपर उठाकर देखता हूं। आधा बुना स्वेटर कितना अजीब लग रहा है। जब प्यार ही अपना पूर्ण रूप नहीं पा सका, तो उसकी एक निशानी अधूरी रह गई तो क्या हुआ। स्वेटर के साथ आया पत्र फिर से खोलकर पढ़ता हूं...

‘‘रिशू,

‘‘क्या, सचमुच हमारा प्यार एक सपना ही था? लेकिन यह प्रश्न तो तुमने पूछा था। मैंने तुम्हें विश्वास दिलाया था कि मैं तुम्हारे सपने का अंजाम हूं; लेकिन मैंने बदनामी से डरकर तुम्हारे सभी सपने तोड़ दिए। मेरे प्यार ने तुम्हें केवल ज़ख्मों के और दिया ही क्या है। मैं यह जानती हूं कि मेरे छिन जाने का एहसास तुझमें नफरत पैदा कर सकता है, लेकिन ज़िंदगी से बेजार नहीं बना सकता। मुझमें भी तुमने ही तो जीने का उत्साह भरा था। तुमने कहा था, ‘‘कौन जाने वक्त कब ज़ख्मों पर मरहम रखकर भर दे, और ज़िंदगी फिर से हसीन बन जाए!’... रिशू, मैं तुम्हें दिल की गहराइयों से यह दुआ करती हूं।

‘‘तुम्हारा स्वेटर अधूरा ही रह गया, और मैं समझती हूं कि मुझे इसे पूरा करने का कोई अधिकार नहीं है। एक विनती है कि यह अधूरा स्वेटर उस लड़की को पूरा करने के लिए देना, जो तुम्हारी ज़िंदगी को हसीन बनाकर तुम्हारी हो जाए...’’

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आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र 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रचनाकार: आधा बुना स्वेटर // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
आधा बुना स्वेटर // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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