आखिर बहार आएगी // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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हमारा एक बगीचा है, उजड़ा और वीरान बगीचा... लेकिन किसी वक्त, बड़े बुजुर्ग कहते थे, हमारा बगीचा इतना हरा भरा और आबाद था जैसे स्वर्ग। बगीचे के बी...


हमारा एक बगीचा है, उजड़ा और वीरान बगीचा... लेकिन किसी वक्त, बड़े बुजुर्ग कहते थे, हमारा बगीचा इतना हरा भरा और आबाद था जैसे स्वर्ग। बगीचे के बीच में साफ निर्मल पानी का एक तालाब था जिसमें हंस तैरते रहते थे। हमारे बगीचे की सुंदरता के चरचे दूर दूर तक फैले हुए थे। न जाने कहां कहां से थके मांदे, भूखे प्यासे मुसाफिर यहां आकर अपनी थकान मिटाते थे, मीठे मीठे फल खाकर, तालाब का ठंडा पानी पीकर आराम करते थे। हम भाई ऐसी बातें सुनकर कहते हैं : काश! हम भी उस वक्त होते। मेरा दिल दुःख से भर उठता है। ऐसे सुंदर बगीचे की सुंदरता आखिर क्यों छिन गई? मैं पूरा पूरा दिन इस वीरान बगीचे में बैठकर यही सोचता रहता हूं। पता नहीं क्यों मुझे इस सुनसान और वीरानी से भी बहुत प्रेम है। इसकी सुंदरता और चमक के अंदाजों में भी इतनी कशिश है कि व्यक्ति देखता ही रह जाए। इसके सूखे, पुराने पेड़ों में भी इतना अपनापन होता है जैसे कि हमारे बड़े बुजुर्ग रिश्तेदार। काश, इन पेड़ों को जबान होती तो मैं उनसे पूछता :

‘‘ये क्या गजब हुआ! बगीचे की सुंदरता और चमक को किस पतझड़ ने जला डाला! यहां सुंदर प्यारे पक्षी रहते होंगे... कोयल की कू कू, मोरों का नाच, हंसों के स्वर, ये सब कहां गये?’’ परंतु अफसोस कि पेड़ों को जबान नहीं है, वायु उनसे टकराकर ठंडी सांसे लेकर निकल जाती है। मेरे प्रश्नों का उत्तर केवल कौओं की काँव काँव है, गिद्धों की हल्की चीखें हैं, और चमगादड़ों की डरावनी चीखें हैं। जब भी मैं बगीचे में आता हूं तो एक काफी बूढ़े पेड़ के पास जाकर बैठता हूं। उसके चौड़े तने से पीठ टिकाकर, लेटकर, अपने बगीचे पर सोचता रहता हूं। कभी कभी नींद आ जाती है तो विचित्र विचित्र सपने देखता हूं। एक अजीब बात है : गर्मी के मौसम में तेज गर्मियों में भी जब व्यक्ति इस वीरान बगीचे में आता है तो तरोताजा हो जाता है। मैं तो तेज गर्मी और घुटन के दिनों में कई कई दिनों तक इस बड़े पुराने पेड़ से पीठ टिकाकर बैठा रहता हूं। मेरा इस बूढ़े पेड़ के साथ एक अजीब दिली लगाव हो गया है।

एक दिन ऐसे ही आंखें बंद करके, विचारों ही विचारों में बगीचे को हरा भरा और आबाद होता देख रहा था। जहां तक नजर जा रही थी वहां तक हरियाली छायी हुई थी, जिस पर मोर झूम और नाच रहे थे। सूखे पेड़ हरे होकर भर गये थे। कोयल के मीठे मीठे गीत मुझे लोली देने लगे।

तभी अचानक उत्तर की ओर से एक तूफान धकेलता आया। केवल धुंध और अंधकार नजर आ रहा था। समीप आया तो मैंने देखा : कौओं और गिद्धों का एक झुंड था, जो पल भर में सुंदर, हरे भरे बगीचे पर कीड़ों की तरह छा गए। कोयल के गीत कौओं की काँव काँव के शोर में दबकर बंद हो गए। मोर डरकर कहीं जाकर छुप गए, और हंस हमेशा के लिए उड़ गए। देखते ही देखते बगीचे की पूरी सुंदरता और चमक बरबाद हो गई। मैं उस बूढ़े पेड़ के पास हैरान परेशान खड़ा था। तभी अचानक कहीं से कोई मोर चीखा। उसकी चीख में ऐसी बहादुरी और जोश था कि मेरा रोम रोम काँप उठा। कौओं की काँव काँव, गिद्धों की चीखें, पल भर के लिए बंद हो गए, कौन था वह मोर!

‘‘अभी तक बहादुर मोर जिंदा हैं, अभी तक रेगिस्तान से चीख आ रही है...’’

मैंने हड़बड़ाकर पीछे देखा। यह तो वही पुराना पेड़ बातें कर रहा था। मैंने दौड़कर उसके चौड़े तने को गले लगाया। उसने प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘घबरा मत बेटे! हिम्मत मत हार, बराबर यह तुम्हारे लिए एक नई मुसीबत है। मैंने तो इस बगीचे पर कई बड़ी बड़ी मुसीबतें गिरते देखी हैं, लेकिन वे सब आखिर गायब हो गईं। यह बगीचा लाजवाब है बेटे...’’

मैंने कहा, ‘‘मुझे इस बगीचे के बारे में कुछ बताइए, बाबा। इस पर कौन-सी मुसीबतें गिरीं...’’

उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं तुम्हें जरूर बताऊंगा, बेटे। यह कहानी एक बहुत ही अच्छी विनम्र जाति की एक बेहद दुःखदायक कहानी है। दुनिया का ऐसा कोई भी जुल्म सितम और डर नहीं है जो इसमें न हो, इसके बावजूद भी यह खत्म नहीं हुआ है। यह कभी न खत्म होने वाली कहानी है...

‘‘इस लाजवाब बगीचे की कहानी उस वक्त से शुरू होती है जब दुनिया अस्तित्व में आई। बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि यहां पर एक सुंदर और हरा भरा चरागाह था, जिसमें कई बड़े घने जंगल, हरे भरे मैदान और एक खूबसूरत नदी थी, जिसका पानी अमृत समान था। यह चरागाह उस वक्त भी उतना ही आबाद था जब पूरी दुनिया पर अंधेरा छाया हुआ था। उस वक्त की बात है : कुछ पक्षियों के झुंड चलते चलते वहां से निकले। उनको यह चरागाह इतना अच्छा लगा कि आगे जाने का इरादा छोड़कर, उसको ही अपना देश बनाकर वहीं पर रह गए। ये पक्षी बहुत सयाने और मेहनती थे। उन्होंने आपस में सलाह की जब हम इस चरागाह को अपना देश बना ही चुके हैं तो हमारा फर्ज बनता है कि इसे ऐसा सुंदर बनाएं कि दुनिया देखती रह जाए और अचंभे में पड़ जाए। उसके बाद उन्होंने एक खुले मैदान पर एक बहुत ही अजीब प्रकार का बगीचा लगाने का निर्णय किया। पक्षियों ने जाने कहां कहां से परिश्रम करके फल फूलों, पेड़ पौधों के बीज इकट्ठे किए। उनके लगातार परिश्रम और उत्साह से देखते ही देखते इस चरागाह पर एक बेहद खूबसूरत और अचंभे में डालने वाला बगीचा पैदा हो गया। उसके बाद बगीचे के एक हिस्से में उन्होंने एक ऐसा खूबसूरत चमन बनाया जिसका आज तक दुनिया में कोई सानी नहीं। पूरी दुनिया में उस अद्भुत चमन की चर्चा होने लगी। न जाने कहां कहां से पक्षी उस बगीचे को देखने के लिए फल, फूल, शहद और भौंरे रस लेने के लिए आते थे। वह वक्त उस चरागाह के सुहाग का वक्त था। तब सूर्य यहीं से उगता था, और वहीं से रोशनी पूरी दुनिया में फैलती थी। दूर दूर से दुनिया भर के पक्षी यहां आकर यहां के पक्षियों से सीखते थे। वे उनके नम्र स्वभाव और अक्लमंदी की तारीफ करते नहीं थकते थे। आज जो दुनिया में नम्रता, अक्ल, पढ़ाई और सुंदरता देख रहे हो वह सब पहले यहीं पर पैदा हुआ था और यहीं से पूरी दुनिया में फैला। और सभी व्यापारों और व्यवहारों के साथ नाचना, गाना, जशक् मनाने में भी दूसरे पक्षी यहां के पक्षियों जैसे नहीं थे। लेकिन यहां के सभी पक्षी वाद-विवाद, लड़ाई-झगड़ों से इतने दूर थे कि दूसरे पक्षी इन्हें बुलाते ही थे नम्र पक्षी! इनके पास प्यार के सिवा और कुछ नहीं था। काश, पूरी दुनिया के पक्षी ऐसे होते!

‘‘दुनिया में कुछ पक्षी ऐसे भी थे जो प्यार मोहब्बत के दुश्मन थे, केवल भटकने और लड़ने-झगड़ने के अलावा उन्हें कुछ आता नहीं था। बनाने, सुधारने के बदले उन्हें तोड़ना, बिगाड़ना ज्यादा पसंद था। एक बार, दूर से कुछ ऐसे ही भटकने वाले, बेघर और लड़ाकू पक्षी भटकते भटकते इस बगीचे के ऊपर आ मंडराये। बगीचे के सुकून और शांति, प्यार-मोहब्बत वाले वातावरण में मारामारी और तबाही मच गई। नम्र पक्षियों ने भी कभी लड़ाई नहीं देखी थी। न ही उन्हें कुछ पता था कि लड़ाई कैसे लड़ते हैं। भटकने वाले पक्षियों का तो लड़ाई-झगड़े और मारामारी में कोई सानी नहीं था। उन्होंने आते ही बगीचे के अद्भुत और सुंदर चमन को नष्ट कर दिया। नम्र पक्षियों ने वर्षों की मेहनत और उत्साह से जो बगीचा बनाया था वह सब इन खानाबदोश पक्षियों ने तोड़-फोड़ डाला, उल्टे नम्र पक्षियों को भटकने वाले कहकर पुकारा!

‘‘खुशियों के सब खजाने लुट गए। चरागाह का सुहाग उजड़ गया। जो पहली पहली रोशनी यहां से फूटी थी, वह पता नहीं कहां गायब हो गई। बगीचे की इज्जत का सूर्य उतरा तो फिर पता नहीं कहां जाकर उगने लगा। कभी कभी भूले भटके सूर्य वहां से गुजरता तो नम्र पक्षी खुशी से नाचते नाचते थकते नहीं थे। लेकिन उनकी खुशी पल भर की होती थी। अचानक सूर्य को पता नहीं कैसे कैसे भयानक बादल ढक देते थे। फिर वही घुप्प अंधेरा...

‘‘वक्त बीतता गया। बगीचा वही था, लेकिन फिर कभी उच्च मुक्काम पर नहीं पहुंचा। बगीचे की बागडोर हंसों के पास थी। वे बहुत बहादुर और सच्चे थे। आज़ादी, हिम्मत और बहादुरी, नाम, इज्जत से उनका रक्त रंगा हुआ था। बगीचे की मुहब्बत और आज़ादी का जज्बा तो सभी पक्षियों के रोम रोम में समाया हुआ था। उन्होंने कभी भी पराये लोगों की गुलामी को नहीं स्वीकारा। जब तक उनके शरीर में सांसें बाकी थीं वे देश के बैरियों का सामना करते रहते थे। कई तेज हवाएं, तूफान और झटके सहते रहे। गर्मियां आईं उसके बाद पतझड़ आई तो बगीचे के सभी पत्ते जल गए, लेकिन सभी पक्षी बहार के मौसम में इकट्ठे होकर जशक् मनाते थे। कोयल मीठे सुरों में राग अलापती थीं और दूसरे छोटे-छोटे पक्षी नाचते रहते थे। उनके मीठे रसीले स्वर सुनकर दूसरी जगहों के पक्षी उनसे जलते रहते थे। कुछ तो उनके बगीचे पर कब्जे करने के मंसूबे बनाते रहते थे। कितने ही पराये बगीचे की सुंदरता देखकर वहां जाने के लिए उत्सुक रहते थे, और कुछ उसको लूटकर लौट जाते थे। कुछ वहीं पर रह जाते थे और उनका लौटने का मन नहीं करता था।

‘‘यहां से काफी दूर बाज़ पक्षी रहते थे। उनको दूसरे पक्षियों के देशों पर कब्जा करने की बहुत लालच रहती थी। बहाने बनाकर पराये देशों पर हमला करके जाकर कब्जा करते थे। जब उनकी नजर इस बगीचे पर पड़ी तो उसे भी हथियाने के लिए मंसूबे बनाने लगे। फिर एक बार कोई बहाना बनाकर उन्होंने दो तीन बार हमला कर दिया। लेकिन बहादुर नम्र पक्षियों के आगे उनकी एक नहीं चली। उनके आगे ठहर नहीं पाए। उसके बाद उन्होंने एक बड़ी सेना लेकर हमला कर दिया। खानाबदोश पक्षियों की चढ़ाई के बाद नम्र पक्षियों ने ऐसी दूसरी भयानक चढ़ाई देखी थी। ऐसा लग रहा था जैसे पूरा बगीचा बादलों से भर गया हो। बाज़ भयानक चीखें करते हुए आए। नम्र पक्षियों ने आगे बढ़कर सामना किया। वार के ऊपर वार किया, गर्दनें अलग हो गईं, धड़ तड़पने लगे। दिन गुजर गया, शाम हो गई। तब जैसे गुलामी की रात आ गई। बगीचे पर बाज़ों का कब्जा हो गया।

‘‘फिर भी वक्त गुजरता गया। कई मौसम आए, लेकिन बहार के आने पर जैसे बंदिश पड़ गई थी। बहार तो केवल आज़ाद माहौल में ही आती है। बगीचा वैसे ही उजड़ा उजड़ा और वीरान रहा। अब तो हर कोई लड़ाकू मगरमच्छ बन कर आ गया है। एक बार लूटमार का सिलसिला शुरू हुआ तो लगातार चलता ही रहा। एक लुटेरे कमजोर हो रहे थे तो उनकी जगह दूसरे आ रहे थे। जैसे कि बगीचा निद्रा में था, जिसे जो चाहे लूट ले जाए! बगीचा उन बेरहमों के कब्जे में हो गया जिन में पराये ही पराये थे, बगीचे से उनका संबंध केवल लूटमार तक ही था। युगों तक नम्र पक्षी गुलामी का पट्टा अपनी गर्दन से निकाल नहीं पाए। जिन में मुंह में केवल प्रेम के बोल होते थे, जो बाहर से आए हर अतिथी की दिल खोलकर आवभगत करते थे वे बिना किसी दोष के सदियों तक अत्याचार के दुःख और पीड़ा में डूबे रहे।

‘‘हंसों की ताकत तो बिल्कुल ही खत्म हो चुकी थी। वे अल्प संख्या में आ गए थे। अब बगीचे के पक्षियों में केवल मोर ही ऐसे थे जिनसे उम्मीदें थीं। गैरों से आजादी प्राप्त करने के लिए, आजादी और खुद्दारी को कायम रखने के लिए वे परिश्रम करते रहे। मोरों में कई ऐसे शूरवीर पैदा हुए जिन्होंने गर्दन की परवाह छोड़कर, आज़ादी के लिए लड़ाकोें से युद्ध किया और खुशी खुशी कुर्बान हुए। जब कोई शूरवीर मोर देश पर कुर्बान होकर आज़ादी लाता तो थोड़े वक्त के लिए ही सही, आज़ादी अपनी झोली में खुशी और सुंदरता के खजाने भरकर आती थी। कितनी खुशी और उत्साह भरा माहौल होता था। आ हा! ऐसी कोई दिल नहीं होती थी जो अनंत खुशी से झूमती न हो। परंतु अफसोस, उन शूरवीर मोरों के वारिसों ने बारी बारी से गद्दी आर ताज के लिए आपस में लड़ते अपने हाथों से ही दुश्मनों को बगीचे पर कब्जे का मौका दे दिया। उसके बाद तो बगीचे के लिए दोबारा गैरों की गुलामी का रास्ता खुल जाता था।

‘‘रह रहकर बगीचे पर एक के पीछे दूसरी बड़ी बड़ी मुसीबतें आती रहीं। उन लगातार धक्कों और मार के कारण बदनसीब बगीचा ऐसी मुसीबतों से घिर जाता था कि उसका जिन्दा रहना भी एक करिश्मा, एक चमत्कार ही था। तुम्हें मैं क्या बताऊं कि इस बगीचे ने क्या क्या सहन किया है! इसी बगीचे की गोधुली पर अब्दाल का शिकरा, नामुराद और मुरदार खान शिकरा, आग और रक्त की नदियां बहाते छा गये थे। उनकी भयानक चोंचें और खूनी पंजे मासूम नम्र पक्षियों के रक्त में डूब गये थे। मुरदार खान जो जहां से गुजरता वहां डर के मारे अफरा तफरी फैल जाती थी। वह घोंसले के घोंसले तबाह कर देता था। ऐसी तबाही तो पहले कभी नहीं हुई थी। उसके बाद तो बगीचे में ऐसा भयानक सूखा पड़ा कि बूढ़ों, पक्षियों ने क्या, पेड़ों ने भी अपने जन्म से लेकर न देखा न सुना था। जो बगीचा पूरी दुनिया के लिए शांति और सुरक्षा की जगह था उसका घोंसला लुटकर वीरान बन गया। नम्र पक्षियों के साथ पहले ही कम जुल्म नहीं हुआ था, लेकिन अब तो बगीचे पर जो बिजली गिरी थी उसकी आग में वे कभी भी ठीक तरह से जी न पाए...’’

अचानक रात के सनक्ाटे और खामोशी में किसी गिद्ध ने भयानक चीख की। बदले में कहीं से किसी उल्लू ने चीखकर जैसे गिद्ध की खुशामद करते हां से हां मिलाई। बूढ़ा पेड़ खामोश हो गया था। हवा उसकी ओर से सीं... सीं... करते, ठंडी आहें भरते निकल रह थी। मेरा दिल भर आया। कहना चाहा, ‘‘फिर क्या हुआ बाबा!’ लेकिन गले में कुछ अटक गया था, आवाज निकल नहीं पाई। उसने एक लंबी सांस ली, फिर खुद ही कहा, ‘‘आज इन्हीं नम्र पक्षियों को कहा जाता है कि तुम सुस्त और नींद में हो। डरपोक और जाहिल हो, आपका रक्त ठंडा है... लेकिन किसी ने उनके भूतकाल में झांककर देखा है! लगातार बरसती बारिश के समान इन पर जो मुसीबतें आईं, जो नुकसान हुआ, उन पर किसी ने विचार किया है! किसी ने यह भी सोचा है कि आखिर इनमें ऐसी कौन-सी शक्ति है जिसके कारण इतनी बड़ी मुसीबतों और नुकसानों के बाद भी वे ज़िंदा हैं! इस पृथ्वी की मिट्टी कुछ इस प्रकार मजूबत जमी हुई है कि हजारों तूफानों और भूकंपों के बाद भी उखड़ी नहीं है। शायद इन्हीं ‘सुस्त और नींद’ वाले नम्र पक्षियों के हौसले, उत्साह और परिश्रम के कारण बगीचे के इज्जत की जड़ें इतनी नीचे चली गई हैं जो उनको दुनिया की कोई हस्ती मिटा नहीं सकती...’’ उसने प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘तुम थक तो नहीं गये हो, बेटे!’’

मैंने एकदम कहा, ‘‘नहीं बाबा, नींद तो मेरी आंखों से इतनी दूर है जितनी इस बगीचे से बहार...’’

उसने बात शुरू करते कहा, ‘‘मुरदार शिकरे की तबाही के बाद ऐसा लग रहा था जैसे बगीचे से कोई सात सिरों वाला राक्षस निकल गया हो। चारों ओर केवल रेगिस्तान और वीरानी थी। दुनिया है हरियाली और खुशियों की, वीरानी और रेगिस्तान से उसका क्या! लेकिन नम्र पक्षियों का तो बगीचे से जन्म का नाता था। उन्होंने कहा, ‘‘जिस धरती पर हम जन्मे और पले हैं, जहां पर हमारे संगी साथी और रिश्तेदार सूखे पेड़ों में भी घोंसला बनाकर बैठे हों, जिसके लिए हमारे बड़े बुजुर्ग शूरवीरों ने सर की कुर्बानी दी, जिससे हमें काफी पानी मिलता हो, उसके लिए केवल जाहिल, बेईमान और बेगैरतों को ही मोहब्बत नहीं होगी... हम अपने जान से प्यारे बगीचे में फिर से हरियाली और खुशियां लाएंगे और उसकी आजादी के दुश्मनों की हम आंखें निकाल देंगे। उसके बाद वे वीरानी से भरी आजादी को गले लगाकर बगीचे को संवारने में लग गये। बगीचा उजड़ा, वीरान और लगातार युद्धों का मारा था, लेकिन आजाद तो था...!

‘‘दुनिया में आजादी से बढ़कर और कोई चीज नहीं है। गुलामी की रोटी से आजादी की भूख भली। आजादी रोशन सवेरा है तो गुलामी अंधेरी रात। बेचारे नम्र पक्षी चार दिन आजाद रहने के बाद फिर से गुलामी की रात बिताते थे। लेकिन वे चार दिनों की आजादी को भी व्यर्थ नहीं गंवाते थे। वे गुलामी के सभी निशान मिटाकर आजादी की हरियाली और खुशियां ला देते थे। अब भी जब उनको मौका मिला तो हर कोई i{kh अपने आजाद बगीचे को सजाने, संवारने में लग गया। उस वक्त बहुत दूर से समुद्र देश के पक्षी, पूरी दुनिया घूमते-घूमते इस बगीचे में आ पहुंचे। उसे सफेद समुद्री पक्षी कहा जाता था। वे व्यापार करते थे। कहीं की चीजें न जाने कहां कहां ले जाते थे। जब वे बगीचे में आए तो बगीचे की चीजें देखकर वहीं पर रहकर अमीरों से व्यापार करने की इजाजत मांगी। अमीरों ने बगीचों की भलाई देखकर उनको रहने की छूट दे दी। उसके बाद तो वे बढ़ते ही चले गये। वे न केवल बगीचे में लेकिन आसपास के बाहरी पक्षियों के देशों में भी फैल गये। सफेद पक्षी काफी मौका परस्त, चालाक और चालबाज और खराब नीयत वाले थे। उसके बाद उन्होंने अपनी चालबाजी से काम लेकर चारोें ओर नफरत के बीज बोने शुरू कर दिए। इस प्रकार कुछ पक्षियों के देशों पर कब्जा करके भी बैठ गए। बगीचे के अमीरों को जब यह पता लगा तो उनके कान खड़े हो गये। लेकिन सफेद पक्षियों ने उनके सामने कसम खाकर, वायदे और समझौते करके उन्हें चुप करा दिया। दिनों दिन वे जोर पकड़ते गए और आसपास के देश अपने कब्जे में करते गए। आखिर बगीचे के पक्षियों से भी आ भिड़े। तभी बगीचे के अमीरों ने शर्मिंदा होकर कहा कि अपने गले में खुद ही नाग बांध दिया। बगीचे के पक्षियों ने बड़ी मुसीबतों के बाद आजादी के चार दिन सुख शान्ति से गुजारे थे। गुलामी तो कीड़े समान उनका पूरा रक्त पी चुकी थी। लेकिन फिर भी उन्होंने कहा, ‘‘यह धरमह हमारी माँ है, इस धरती से ही हमारा बगीचा फूट निकला है। इसमें से कई सौ रंगीन और खुशबूदार फूल उगे हैं, इस माँ को हम परायों के हवाले कैसे कर दें!’’ वे अपनी बाकी बची शक्ति के साथ एक जगह आ इकट्ठे हुए। दुनिया में एहसान का बदला कितना बुरा दिया जाता है। नम्र पक्षियों को क्या पता था कि हम सांपों को दूध पिलाकर बड़ा कर रहे हैं। आज वे ही उनसे उनका प्यारा बगीचा छीनने के लिए युद्ध करने आए थे।

‘‘एक शूरवीर मोर ने जोर का नारा लगाया : ‘मर जाएंगे लेकिन बगीचा नहीं देंगे।’ उसके बाद भयानक युद्ध छिड़ गया। सफेद पक्षियों के युद्ध का तरीका इतना चालबाज तरीके का था कि नम्र पक्षियों को उसका पता ही न था। फिर भी वे गर्दन की फिक्र छोड़ इस बहादुरी से लड़े कि खुद सफेद पक्षियों को भी यह कहना पड़ा, ‘ये तो इस प्रकार लड़ रहे हैं जैसे कि इनकी जान से प्यारी भी कोई दूसरी चीज है, जिसे बचाना इनकी जिंदगी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है।’ जब सफेद पक्षियों ने देखा कि उनके जोश और जज्बे के आगे हम जरूर हार जाएंगे, तब उन्होंने कुटिलता और दगाबाजी से काम लिया। जानबूझकर पीछे हटने लगे। नम्र पक्षियों की सेना उनकी चाल में आ गई और आखिर लड़ाकों के शिकार बन गए। इसके साथ ही बगीचे की आजादी भी हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो गई...’’

उसी वक्त रेगिस्तान से मोर की अद्भुत बड़ी चीखों की आवाज़ आई। जैसे कि कह रहा हो : ‘‘गलत है... बगीचे की आजादी कोई भी हमेशा के लिए खत्म नहीं कर सकता...’’

बूढ़ा पेड़ जो मोर की चीखों पर खामोश हो गया था, उसने कहा, ‘‘अब मैं गिरने की कगार पर हूं, लेकिन इस मोर की चीखें ही मुझे गिरने से रोककर खड़ी हैं। सोचता हूं : क्या सचमुच हमसे आजादी हमेशा के लिए छिन चुकी है। फिर ज़िंदा रहने से क्या लाभ! उस वक्त इस मोर की चीखें मेरी कमजोर जड़ों के लिए बड़ा दिलासा बनकर आती हैं।

‘‘अब चारों ओर सफेद पक्षियों का राज था। कई सदियों तक उनका राज चला और मासूम पक्षियों को बहुत लूटा। उनका बिछाया हुआ नफरत का जाल मजबूत हो गया था। उसके बाद तो ऐसा तूफान आया जो क्या से क्या हो गया। जमाना ही बदल गया, पक्षी ही मिट गये। प्रेम, मोहब्बत और आजादी का जज्बा धीरे धीरे गायब होता गया। वे नम्र i{kh, जो किसी भी चीज से इतनी नफरत नहीं करते थे जितनी गुलामी से, उनमें से कईयों ने गुलामी के पिंजरे को खुशी से स्वीकार कर लिया! शायद ऐसा होना ही था। सदियों से उन पर जो गुजरी थी उसका यही नतीजा निकलना था।

‘‘गुलामी में उन्होंने जो कई वर्ष बिताए थे उसने उनके दिलो दिमाग को भी जंग लगा दिया था। उनमें से कई ऐसे गद्दार पैदा हुए जिन्होंने खुद को गुलामी में मजबूत करके नए राजाओं की खुशामद और समझौते करके बड़े बड़े लाभ प्राप्त किए। उनमें देश प्रेम और गैरत के कोई लक्षण नहीं थे। उनमें केवल खुशामद और पूंछ हिलाना घर गया था। वे अपने मालिकों को खुश करने के लिए गरीब, मासूम पक्षियों का रक्त और मांस पेश करते थे। अफसोस! गरीबों की मेहनत पर प्रहार करने वाले और अपने मालिकों के आगे स्वार्थ की खातिर पूंछ हिलाना और केवल खुशामद करने वाले इन पक्षियों ने कुछ टुकड़ों के लिए अपनी पूरी गैरत, इज्जत और आजादी हमेशा के लिए बेच दी... आज मासूम नम्र पक्षियों के ये रक्त चूसने वाले भी इतने ही बैरी हैं जितने बाहरी।

‘‘उस वक्त बगीचे और बाहरी आसपास के पक्षियों के चार प्रकार बहुमत में थे। बगीचे के खास पक्षी तो मोर और हंस थे। पास के देशों में कौआ, गिद्ध और दूसरे पक्षी रहते थे। बगीचे के अलावा एक और देश भी था जहां पर एक बहुत बड़ा तालाब था, और वहां बगीचे से भी ज्यादा हंस रहते थे। लेकिन बगीचे के हंसों से उसका कोई संबंध नहीं था। वे बगीचे के अस्तित्व में आने से लेकर वहां रहते आए थे। बगीचा ही उनकी माँ थी और बगीचे के पक्षी उनके भाई। अगर बगीचे की शक्ति मोर थे तो उसकी अक्ल और दिमाग हंस थे। मोरों और हंसों का रिश्ता इतना मजबूत था कि न टूटने के बराबर था। लेकिन सफेद पक्षियों की चालबाजी और कुटिलता ने उनमें नफरत के बीज बो दिए। सफेद पक्षियों को डर था कि अगर वे साथ मिलकर उनके खिलाफ खड़े हो गए तो हमें यहां से भगाने में सफल हो जाएंगे। उन्होंने मोरों से कहा कि आपके असली रिश्तेदार और विचारक कौए और गिद्ध हैं, हंस आपके दुश्मन हैं! सफेद पक्षी इस बात में सफल हो गए, उन्होंने सदियों का संबंध तुड़वा दिया; लेकिन उनका राज्य भी ज्यादा देर तक टिक न सका। पक्षियों में उनके खिलाफ नफरत और धिक्कार दिनों दिन बढ़ती गई। और कोई चारा न देखकर उन्होंने आजादी देना कबूल किया। लेकिन आखिर में जाते वक्त भी जलन और क्रोध की वजह से आसपास के सभी देशों के पक्षियों को आपस में हमेशा के लिए लड़वाकर, एक दूसरे का दुश्मन बनाकर गए। उसके बाद तो जिसकी लाठी उसकी भैंस... जिसके हाथ में लाठी थी उसने आजादी के नाम पर कमजोर और मासूम पक्षियों के ऊपर लाठी के जोर पर राज किया...’’

पुराने पेड़ का स्वर धीमा पड़ता गया। हवा बिल्कुल बंद हो गई थी। उसकी खामोशी से डरकर मैंने एकदम से पूछा, ‘‘बाबा, क्या उसके बाद नम्र पक्षियों को भी आजादी मिल गई?’’

कितनी ही देर तक मुझे उसकी आवाज समझ में नहीं आई। उसके स्वर में इतना दर्द और पीड़ा थी कि शब्द टूट रहे थे। मैंने ध्यान से कान लगाकर सुना। वह कह रहा था :

‘‘ऐसी आजादी आई जो गुलामी से भी बदतर थी। गिद्धों और कौवों ने मोरों को कहा कि हम एक दूसरे के रिश्तेदार और एक ही विचार वाले हैं! हमें एक साथ रहना चाहिए। हंस दूसरे धर्म के हैं, उनको बगीचे से निकाल दो तो वे जाकर अपने भाईयों के साथ रहें। सीधे सादे मोर उनकी बातों में आ गए। कभी कभी किसी मनहूस घड़ी में अक्ल और दिल पर पर्दा पड़ जाता है। जिस बगीचे को संवारने में हंसों ने अपना रक्त दिया था, सजाया था, उसको छोड़ते वक्त उनके दिल का क्या हाल हुआ होगा! वे रोते-रोते, अपना प्यारा बगीचा, अपने घोंसले, अपनी प्यारी सुंदर नदी छोड़ गए। उनकी जगह झूठे कायर आ गए, और पलक झपकते ही बगीचे का वातावरण बदल गया। जहां मीठे स्वर गूंजते थे वहां कौओं की कांव कांव का शोर हो गया। नम्र पक्षियों ने आने वालों का आदर सत्कार करते उन्हें अपने बने बनाए घोंसले रहने के लिए दिए और उनसे जो कुछ बन पाया उनके लिए किया। उनका सुंदर साफ सुथरा बगीचा पूरा गंदा हो गया। तो भी वे कुछ नहीं बोले। एक दिन गिद्धों और कौओं ने कोई साजिश रचते मोरों से कहा, ‘‘हम आपस में भाई हैं, इसलिए हमारी हर कोई चीज दोनों की होनी चाहिए। हम एक हैं इसलिए हमें एक होकर रहना चाहिए...’’ ऐसा करते करते वे मोरों से सब कुछ छीनते गए। कुछ समय बीता तो फिर कहा, ‘‘आप सब गंवार, सुस्त और कमजोर हो, आपसे राज्य का कारोबार नहीं चल पाएगा। कौए बहुत होशियार और सयाने हैं, गिद्ध बहुत ताकतवर हैं, इसलिए राज काज उनको ही चलाना चाहिए।’’ उसके बाद गिद्धों ने बगीचे को अपने कंगाल और वीरान रेगिस्तान से मिला लिया।

‘‘मोर इतने कमजोर हो चुके थे कि एक शब्द भी बोल नहीं पाए। कौओं और गिद्धों के मन में जो आया करते गए। एक दिन कौओं ने हुक्म दिया कि ‘हमारी कांव कांव बहुत ही आसान और हर किसी की समझ में आ सकने वाली है, इसलिए बगीचे में कांव कांव के अलावा और किसी भाषा की जरूरत नहीं है... आज के बाद मोर अपनी भाषा समाप्त कर कांव कांव में बातें करें!’

‘‘हंस तो पहले ही चले गए थे। लेकिन मोर अपने ही बगीचे में बेघर हो गए थे। उनसे और सब कुछ तो छिन गया था लेकिन अब तो उनकी भाषा भी बंद हो गई। बेगैरत और खुशामदी मोर, जो अच्छे पक्षियों के आगे पूंछ हिलाते रहते थे, उन्होंने तो अपने लाभ के लिए उसी तरह से सर झुकाकर जी हुजूरी की, बाकी गैरतमंदों के लिए इज्जत के साथ जान बचाना भी कठिन हो गया।

‘‘वह पहले वाला बगीचा तो जैसे आंखों से ही ओझल हो गया था। उसको देखने के लिए आंखें तरस गई हैं, आत्मा चीखती है, लेकिन किसे कहें? किससे शिकायत करें? गिद्ध पूरा दिन बगीचे के ऊपर मंडराते रहते हैं कि कोई मोर हाथ लगे तो उसे खाकर खत्म करें। गिद्धों की खूनी चीखों और कौओं के शोर में मोरों का जीना हराम हो गया। मोर भागकर जंगल में जा छिपे। हमारी आत्मा मोरों की मीठी चीखों के लिए तरसती रहती है... सोचते हैं कि अगर आत्मा ऐसे ही तरसते तरसते मर गई तो जड़ें कैसे बचेंगी! वे भी जलकर खाक हो जाएंगी और हम सब गिर जाएंगे। लेकिन कभी कभी रात के सन्नाटे में रेगिस्तान से एक दीवाने मोर की चीखें हमारी प्यासी और तरसती आत्मा के लिए अमृत बनकर आती हैं। पता नहीं यह दीवाना मोर कौन है? इस रेगिस्तान में क्यों बैठा है? शायद बगीचे की आत्मा का है। उसकी बहादुर और जोश से भरी चीखें सुनकर हम एक दूसरे से कहते हैं : ‘अभी भी रेगिस्तान से चीख आती है... अभी तक सभी मोर नहीं मरे हैं...’ यह सोचकर एक दूसरे को दिलासा देते हैं कि प्रकृति ने इस बगीचे का भूतकाल बहुत ही शानदार किया था, कभी न कभी इसका भविष्य भी वैसा ही रोशन होगा...’’

अचानक उस वक्त कांव कांव का जोरदार शोर उठा और बूढ़े पेड़ का स्वर उस कांव कांव में दब गया।

मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा। मुझे कितनी ही देर तक होश ही न था। मन पर ऐसे विचित्र स्वप्न का अभी तक असर था। मैंने डूबी चीखों में कहा, ‘‘फिर क्या हुआ बाबा! तुम चुप क्यों हो गए... मुझे बताओ न! फिर क्या हुआ?... तुम चुप क्यों हो...’’ कौओं की कांव कांव मेरे कान के पर्दे फाड़ रही थी। मैंने चारों ओर घूरकर देखा। सूर्य का पूरा तेज समाप्त हो चुका था, अंधेरी रात आने वाली थी। मुझे सोये काफी देर हो चुकी थी। मेरे ऊपर पुराने सूखे पेड़ पर कौओं का एक झुंड कांव कांव का शोर कर रहा था। कहीं दूर पता नहीं क्यों गिद्धों का झुंड लगा हुआ था। वे उड़ते, भयानक चीख पुकार मचा रहे थे। मैंने पेड़ों की ओर देखा : हर एक पेड़ पर तीन-तीन, चार-चार गिद्ध बैठे थे! उस वक्त मेरे कानों में मोरों की रहस्यमयी चीखें गूंजने लगीं : ‘‘आकाश गरज गरजकर आखिर बरसेगा... पृथ्वी तप तपकर आखिर फटेगी... और ऐ लाजवाब बगीचे! आखिर तुम आबाद और हरे बनोगे।

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रचनाकार: आखिर बहार आएगी // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
आखिर बहार आएगी // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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