डार्विन के सिद्धांत को मानव संसाधन राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह द्वारा गलत बताने के विवाद के दौरान ही भारतीय वैज्ञानिकों ने तीन ऐसे नए अनुसंधान...
डार्विन के सिद्धांत को मानव संसाधन राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह द्वारा गलत बताने के विवाद के दौरान ही भारतीय वैज्ञानिकों ने तीन ऐसे नए अनुसंधान किए हैं, जो डार्विन के वानर से मानव की उत्पत्ति पर सवाल उठाते हैं। मानव विकास की इस उलझी गुत्थी में पहला मोड़ दक्षिण भारत के अत्तिरमपक्कम में किए उत्खनन में अत्यंत पुराने पत्थर के औजार मिलने से आया है। इनकी उम्र 3 लाख 85 हजार साल पुरानी बताई गई है। दूसरा मोड़ पंजाब विवि के डॉ अशोक साहनी के शोध से आया है। इसमें साढ़े पांच करोड़ साल पहले इंसान की उत्पत्ति बरसाती जंगलों से बताई गई है। मानव सभ्यता के 15 लाख वर्ष पहले विकसित होने के तीसरे प्रमाण मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के टिकोदा व डाम-डोंगरी में मिले हैं। यह शोध भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सेवानिवृत्त महानिदेशक डॉ एसपी ओटा ने किया है। यहां भी ऐसे पाषाण उपकरण मिले हैं, जो अफीका से प्राप्त ओल्डवान संस्कृति से मिलते-जुलते हैं। अब तक दुनिया में कहीं भी इतने पुराने समय में मानव उत्पत्ति की जानकारी सामने नहीं है। हां, इसके बाद एशिया के कुछ अन्य देश आते हैं, जिनमें म्यांमार और चीन हैं। यहां भी इंसान होने की पुष्टि हुई है।
भारत में मानव जाति की सबसे पहली आमद या उत्पत्ति 74 हजार से 1 लाख 20 हजार साल पहले मानी जाती रही है। नए उत्खननों से प्राप्त इन पाषाण हथियारों ने इस स्थापित धारणा पर पानी फेर दिया है। यही नहीं इससे आदिम मानव के अफ्रीका से निकलकर पूरी दुनिया में फैलने की समूची कहानी में ही लोचा पैदा कर दिया है। जीवाश्मों के अध्ययन के आधार पर अब तक यह माना जाता रहा है कि अब से लगभग साढ़े तीन लाख साल पहले उत्तरी मध्य अफ्रीका में वानर जाति की शाखा ने मनुष्य बनने की दिशा में शुरूआत की। इस जीव की सबसे पुरानी अस्थियां मोरक्को की गुफाओं में पाई गई हैं, जो तीन लाख साल पुरानी हैं। हाल ही में इजराइल की गुफाओं से मिले मानव जीवाश्मों से संकेत मिला था कि आधुनिक मनुष्य होमो सैपिंयस यानी रामापिथिकस या रामिदस करीब 1 लाख 94 हजार वर्ष पहले अफ्रीका से बाहर फैलना शुरू हुए। किंतु अब दक्षिण भारत के अत्तिरमपक्कम, गुजरात के वास्तान और मध्य-प्रदेश के टिकोदा-डाम-डोंगरी में मिले पत्थर के औजारों ने इस मान्यता को संदेह की परिधि में ला दिया है। सबसे बड़ा प्रश्न यह उठ रहा है कि 3 लाख 85 हजार, साढ़े पांच करोड़ या फिर 15 लाख साल पुराने प्रागैतिहासिक कालीन मानव निर्मित पत्थर के औजार कैसे मिले और यह तकनीक भारत से दक्षिण अफ्रीका कैसे पहुंची ? दरअसल वानर से मनुष्य बनने की भौगोलिक स्थिति बदलती है तो क्या यह मानने को विवश नहीं होना पड़ेगा कि एक तो वानर से मनुष्य बनने की यात्रा बहुत पहले शुरू हो गई थी और वे अफ्रीका से नहीं, बल्कि भारत से निकलकर दुनिया में फैले। मसलन भारत में आदि-मानवों की कोई शाखा अफ्रीका से पहले ही मौजूद थी और उसने पत्थरों से औजार बनाने की विधि भी अलग से विकसित कर ली थी। हालांकि इस धारणा की पूरी तरह पुष्टि तब संभव होगी, जब कोई मानव जीवाश्म भारत में मिल जाए ? हालांकि टिकोदा डाम-डोंगरी में पाषाण के जो हस्त-कुठार विदारणी, खुचरनी एवं अन्य फलक उपकरण मिले हैं, उन्हीं के साथ शुतुरमुर्ग के अण्डे के टुकड़े भी मिले हैं। इससे यह अनुमान लगता है कि इस क्षेत्र में बहुत पहले पक्षियों के साथ मानव गतिविधियों की हलचल संभव है।
यदि भारत में मिले पाषाण-औजारों और शतुरमुर्ग के अण्डे के टुकड़ों को साढ़े पांच करोड़ या फिर 15 लाख साल पुराना प्रकृतिविज्ञानी मान लेते हैं तो मानव विकास की कहानी में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा। दुनिया में सृष्टिवाद या जीवन के विकास का अध्ययन करने वाले प्रकृति विज्ञानी दो समूहों में बंटे हैं। एक समूह का मत है कि जैव विकास धीमी व स्थिर गति से हुआ है, जिसके मार्फत प्राचीन अमीबा से तेकर मनुष्य तक अस्तित्व में आए हैं। यह मत हमारे पुराणों में दर्ज जैव विकास की दशावतार अवधारणा के बेहद निकट हैं। इस क्रम में मत्यस्त, कच्छप, वराह, नरसिंह और वामन अवतारों का उल्लेख किया जा सकता है। जीव वैज्ञानिकों के दूसरे समूह का मत है कि जीवन का विकास बीच-बीच में यकायक झटकों और दचकों के जरिए हुआ। इस समूह के प्रणेता कहते हैं कि पृथ्वी पर 50 करोड़ वर्ष पहले कैम्ब्रियन युग में अचानक इतने सारे जीव रूप कैसे प्रकट हुए ? या फिर डायनासोर समेत हजारों अन्य प्रजातियां मात्र 6.5 करोड़ वर्ष पूर्व अचानक लुप्त कैसे हो गईं ? इस परिप्रेक्ष्य में मानव या जीव विकास पर जलवायु परिवर्तन के असर को भी समझने की कोशिश वैज्ञानिकों ने की है। यह प्रश्न हमारी तलाश को अब से 60 से 80 लाख वर्ष पूर्व तक ले जाता है। लगभग यही वह समय था, जब मानव जैसे दिखने वाले प्राणियों की उत्पत्ति हुई। कई वैज्ञानिक वर्तमान मानव का प्रादुर्भाव करीब 20 लाख साल पहले मानते हैं। हालांकि मानव जन्म और विकास के क्रम में नवीनतम खोजों के अनुसार जीवाशमों के माध्यम से धरती पर दो पैरों से चलने वाले जिस ऑस्ट्रोलोपिथिकस रामिदस' को माना गया है, उसके जीवन की शुरूआत 50 लाख वर्ष पहले की आंकी गई है। इसकी अगली कड़ी में ऑस्ट्रोलोपिथिकस अफारेन्सिस 35 लाख, ऑस्ट्रेलोपिथिकस अफ्रीकनास 30 लाख, ऑस्ट्रोलेपिथिकस रोबस्ट्स 25 लाख, ऑस्ट्रेलेपिथिकस बोसेई 20 लाख, होमो हेबिलिस 15 लाख, होमो इरेक्ट्स 10 लाख और अंत में होमोसेपिएंस 5 लाख वर्ष पहले अस्तित्व में आए।
प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिका 'नेचर' के अक्टूबर 1994 के अंक में छपे एक लेख में मनुष्य के इस आदि पूर्वज की खोज की जानकारी दी गई है। इथोपिया के आरामिस क्षेत्र के प्लायोसिन चट्टानों में रामिदस प्रजाति के मानव के एक साथ 17 सदस्यों के दांत, खोपड़ियां व अन्य अंगों की अस्थियों के टुकड़े मिले। इन अवशेषों की उम्र 45 लाख वर्ष से भी ज्यादा आंकी गई। इथोपिया के अफारी लोगों की भाषा में 'रामिद' का अर्थ होता है, मूल या जड़। रामिदस के अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिक इसे मनुष्य और चिपांजी जैसे नर-वानरों के समान पूर्वज तथा अब तक ज्ञात सबसे प्राचीन मानव मानते हैं। यदि ऐसा है तो इसे मानव की मूल प्रजाति मानना होगा।
अब सवाल उठता है कि इसी रामिदस के वंशज भारत आए जिन्होंने पाषाण के औजार गढ़़े ? या फिर ये भारत में ही जन्में ? नए शोधों व खोजों से जो नई जानकारियां सामने आ रही हैं, उनसे अंदाजा लगाया गया है कि करीब नौ करोड़ साल पहले भारत अफ्रीका के निकट था। जहां वर्तमान में भारत है, वहां पहले समुद्र था, जो प्रकृति में आए बदलावों के चलते बदलता गया। यहां के प्राणी हिमालय की ओर प्रस्थान कर गए। इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि 1978-79 में हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की घुमारंवीं तहसील स्थित हरितलयांगर क्षेत्र में बड़ी संख्या में 'कपि मानव' के अवशेष मिले थे। बंदर को ही संस्कृत में कपि कहा जाता है। इन मानवों की तलाश पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन मानव विज्ञानी डॉ एआर सांख्यान ने की थी। इन अवशेषों को 80 लाख से 1 करोड़ 40 लाख वर्ष पूर्व का माना गया था। इस कपि मानव को ऑस्ट्रेलोपिथिक रामिदस अथवा रामापिथिकस का ही पूर्वज माना गया। इससे स्पष्ट होता है कि एक समय अफ्रीका भारत अर्थात आर्यावर्त का हिस्सा था, जो कालांतर में समुद्र की स्थिति बदलने से अलग हो गया।
दरअसल पृथ्वी के जैविक विकासक्रम में मायोसिन कल्प (50 लाख से 2.5 करोड़ साल पहले तक) वानरों के विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसी बीच प्रोकॉन्सुल और किन्यापिथिकस (केन्या), रामापिथिकस और श्विापिथिकस तथा रूदापिथिकस और ड्रयोपिथिकस जैसी नर-वानर प्रजातियां विकसित हुईं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इन्हीं में से कोई एक मनुष्य और नरवानरों के पूर्वज रहे होंगे। यही आगे चलकर दो भागों में विभाजित हो गए। मायोसिन कल्प के अंतिम समय में पृथ्वी की जलवायु में ऐसे विकट परिवर्तन हुए कि इन्हें झेलने में अनेक प्रजातियां असमर्थ रहीं, नतीजतन नष्ट हो गईं। जो प्रजातियां इस बदलाव की चुनौती को झेल पाईं, उनसे भी कई नई प्रजातियों की उत्पत्ति वैज्ञानिक जताते हैं। इसी प्रक्रिया में मानव समुदाय के कुछ लोग पेड़ो से भूमि पर उतरने व फिर चढ़ने की कोशिश में लग गए। इसी प्रयास के क्रम में वे अपने दो पैरों पर चलने लगे और फिर यत्र-तत्र-सर्वत्र फैलने लगे। फैलने के इस क्रम में जब उनका हिंसक वन्य-प्राणियों से सामना हुआ तो उन्होंने लकड़ी और पत्थरों को हथियार के रूप में अजमाने की शुरूआत की। तत्पश्चात वे इन हथियारों के रूप बदलकर इन्हें और पैने व घातक हथियारों में भी बदलते गए।
मानव की इन प्राचीनतम प्रजातियों के नामकरण के संदर्भ में आश्चर्य में डालने वाली बात यह है कि इनमें से ज्यादातर का नाम हिंदू देवी-देवताओं के नामों से मेल खाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि जिन स्थलों पर ये अवशेष मिले हैं, उनके मूल निवासी इन पुराजीवन के अवशेषों के स्थलों को ज्ञान परंपरा के अनुसार इन्हीं सांकेतिक नामों से जानते थे। इससे भी यह प्रमाणित होता है कि आदिमानवों का प्रादुर्भाव वे नर रहे हों या वानर या फिर वानर से ही नर बने हों, उनका उद्भव भारत में हुआ है। अत्तिरमपक्कम, वास्तान और टिकोदा-डामडोंगरी की खोजें यही दर्शाती हैं। बिलासपुर में मिले कपि-मानव के अवशेष भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। इस सब के बावजूद यह कहना समीचीन होगा कि जीवाश्म या अन्य नर-वानरों के अवशेष तो विदेह हैं, अर्थात देहहीन हैं, लिहाजा अनुमान चाहे जो लगा लें, ऐसा कोई निष्कर्ष निकलना मुश्किल ही है, जिसे निर्विवाद वैश्विक स्वीकार्यता मिल जाए।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।
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