महर्षि चरक कहते हैं- ‘तच्येतनावद् चेतनञ्च‘ अर्थात्-प्राणियों की भांति उनमें (वृक्षों में) भी चेतना होती है। आगे कहते हैं ‘अत्र सेंद्रियत्व...
महर्षि चरक कहते हैं- ‘तच्येतनावद् चेतनञ्च‘
अर्थात्-प्राणियों की भांति उनमें (वृक्षों में) भी चेतना होती है।
आगे कहते हैं ‘अत्र सेंद्रियत्वेन वृक्षादीनामपि चेतनत्वम् बोद्धव्यम्
अर्थात्-वृक्षों की भी इन्द्रिय है, अत: इनमें चेतना है। इसको जानना चाहिए।
सुखदु:खयोश्च ग्रहणाच्छिन्नस्य च विरोहणात्।
जीवं पश्यामि वृक्षाणां चैतन्यं न विद्यते॥
वृक्ष कट जाने पर उनमें नया अंकुर उत्पन्न हो जाता है और वे सुख, दु:ख को ग्रहण करते हैं। इससे मैं देखता हूं कि कि वृक्षों में भी जीवन है। वे अचेतन नहीं हैं। वृक्ष अपनी जड़ से जो जल खींचता है, उसे उसके अंदर रहने वाली वायु और अग्नि पचाती है। आहार का परिपाक होने से वृक्ष में स्निग्धता आती है और वे बढ़ते हैं। पौधे जड़ नहीं होते अपितु उनमें जीवन होता है। वे चेतन जीव की तरह सर्दी-गर्मी के प्रति संवेदनशील रहते हैं, उन्हें भी हर्ष और शोक होता है। वे मूल से पानी पीते हैं, उन्हें भी रोग होता है। यद्यपि वृक्ष ठोस जान पड़ते हैं तो भी उनमें आकाश है, इसमें संशय नहीं है, इसी से इनमें नित्य प्रति फल-फूल आदि की उत्पत्ति संभव है। वृक्षों में जो ऊष्मा या गर्मी है, उसी से उनके पत्ते, छाल, फल, फूल कुम्हलाते हैं, मुरझाकर झड़ जाते हैं। इससे उनमें स्पर्श ज्ञान का होना भी सिद्ध है। यह भी देखा जाता है कि वायु, अग्नि, बिजली की कड़क आदि होने पर वृक्षों के फल-फूल झड़कर गिर जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि वे सुनते भी हैं।पौधों में पूर्ण विकसित तंत्रिका-तंत्र तथा न्यूरान का सुसंचालित व विकसित जाल का अभाव होने के कारण ही क्रियात्मक आवेग में कमी पायी जाती है। इस आवेग को सर्वप्रथम सन 1960 से 70 के दशक में आणुविक और कोशिकीय आधार पर ज्ञात किया गया। सन् 1970 के बाद इस विषय पर अनेकों अनुसंधान हुए।
अमेरिकन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने स्वीकारा कि यह आवेग कोशिका के प्लाज्मोडेस्मेटा द्वारा प्रसारित होता है। कोशिकाभित्ति पर अवस्थित सूक्ष्मरन्ध्र को ही प्लाज्मोडेस्मेटा कहते हैं। आवेग इन्हीं छिद्रों के माध्यम से गुजरता है।जीवधारियों की सबसे बड़ी विशेषता है उनमें सन्निहित क्रियात्मक आवेग। वनस्पति जगत में उसकी मात्रा कम होती है, परन्तु जीव-जंतुओं में अधिक। जीवों में यह प्रक्रिया त्वरित एवं जटिल होती है।पेड़-पौधों में चेतना का स्तर एक विशेष प्रकार का होता है और यह जीव-जन्तुओं से भिन्न होता है। इस मान्यता के जनक थे प्रसिद्ध भारतीय वनस्पतिविद् जगदीश चन्द्र बसु। इन्होंने पौधों में संवेदनशीलता के अस्तित्व का सफल प्रयोग करके अनुसंधान का एक नूतन आयाम जोड़ा। इससे वनस्पति जगत में खोज की एक प्रक्रिया चल पड़ी। जगदीश चन्द्र बसु के इस प्रयोग का अनेकों वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म विश्लेषण किया। आधुनिकतम अन्वेषणों से भी पता चला है कि पौधों में संवेदना होती है। उच्चवर्ग के पौधों में यह विकसित होती जाती है। निम्नवर्ग के जंतुओं में संवेदना मिश्रित होती है। पौधों के तंत्रिका-तंत्र में रासायनिक तत्वों का विशेष महत्व होता है। इन रसायनों को न्यूरोट्राँसमीटर कहा जाता है। हर न्यूरान में न्यूरोट्राँसमीटर भिन्न होता है तथा विशिष्ट कार्य को सम्पादित करने के लिए प्रयुक्त होता है। पेड़- पौधे वातावरण से बहुत प्रभावित होते है। वातावरण और वनस्पति जगत का सम्बन्ध बहुत गहरा एवं विस्तृत है। दोनों एक -दूसरे पर अन्योऽन्याश्रित है। पेड़ वातावरण की सूक्ष्म हलचलों को ग्रहण करने की सामर्थ्य रखते है। वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि सृष्टि-संचालन प्रक्रिया में एक कोड होता है, जो समस्त गतिविधियों को अपने में समाहित किए रहता है। आयुर्वेद सूत्र ‘प्रसन्नात्मेद्रिय मनः’ अनुसार मन एवं इन्द्रियों की प्रसन्नता को स्वास्थ्य का आधार मानता है और आधुनिक विज्ञान भी स्वास्थ्य के लिए मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ होने को स्वस्थ जीवन का आधार मानता है I अमेरिका की यूनिवर्सीटी आफ एक्सटर के शोधकर्ताओं के अनुसार वृक्ष एवं पौधे हमें स्वस्थ एवं खुश रहने में मददगार होते हैं,अर्थात पेड़ पौधे एक नेचुरल एंटीडीप्रेसेंट का कार्य करते हैं I
पौधे अति सुग्राही तथा संवेदनशील होते है। संसार और प्रकृति में देने और लेने की दो प्रमुख क्रियाएँ होती है। जो देता है, बाँटता है, वह लाभ में रहता है एवं अनेकों गुना अधिक परिणाम में प्राप्त करता है, जबकि कृपण अनुदार और स्वार्थी घाटे में रहते है। किसान मक्के का एक बीज बोकर सैकड़ों दाने प्राप्त कर लेता है। पेड़ पौधे हर वर्ष मनुष्यों और पशुओं के लिए फल-फूल पैदा करते और प्रकृति अनुदान के रूप में दूसरे वर्ष फिर उन्हें प्राप्त कर लेते हैं। बादल निःस्वार्थ होकर बरसते है अतः नदियों और समुद्रों का अनुदान उन्हें मिलता रहता है। सूर्य अनादिकाल से ऊर्जा, ऊष्मा और प्रकाश बिखेरता आ रहा है।
भावसंवेदना का अभाव मनुष्य को क्रूर और बर्बर बना देता है। आज का अति सभ्य समाज और संसार संभवतः पुराने युग की ओर अग्रसर होता प्रतीत हो रहा है। आयोवा कॉलेज ऑफ मेडिसिन, यूनिवर्सिटी के न्यूरोलॉजी विभाग के अध्यक्ष आर. डोमसीसो के अनुसार वर्तमान मानवजाति के असामान्य और असभ्य व्यवहार का कारण है, संवेदनशून्यता। इन्होंने आगे स्पष्ट किया है कि मस्तिष्क के विचार केन्द्र ‘रीजनिंग’ तथा इसके लिए जिम्मेदार तंत्र ‘डिसीजन मेकिंग’ संवेदना और भावना से जुड़े होते हैं। इनका पारस्परिक साम्य ही उस संतुलन का आधार है, जिसे गीताकार ने आदर्श मानकर योग को ‘समत्वं योग उच्यते’ उक्ति से परिभाषित किया है।
पक्षियों में भी बुद्धि और भाव-संवेदना होती है, उनमें भी विचार व्यक्त करने की क्षमता होती है । उनकी चहचहाहट में प्रसन्नता, , पीड़ा, जानकारी आदि की सूचनाएं होती हैं जिन्हें उसकी बिरादरी के पक्षी सहजता से समझते हैं और उसी के अनुरूप आचरण करते हैं । उनके दैनन्दिन जीवन को गहराई से देखने पर ही पता चलता है जैसे सभी के जीवन का एक ही उद्देश्य है और वह यह कि 'प्रत्येक क्षण का आनन्द लो` । प्रकृति ने शायद उन्हें यही सिखाया है कि अपना प्रत्येक काम प्रसन्नता और प्रफूल्लता से करो । प्रकृति की प्रेरणा से ही पक्षी आजीवन उत्साह और उमंग से जीवन जीते हैंऔर सदा स्वस्थ और प्रसन्न रहते हैं । यही कारण है कि पक्षी यदा-कदा ही बीमार पड़ते हैं और जब कभी बीमार होते हैं तो अपना इलाज प्रकृति में ही ढूंढ़ लेते हैं ।
पिछले दो सौ वर्षों में मनुष्य ने प्रकृति के साथ अपने संबंध को पूरी तरह बदल दिया है। औद्योगिक क्रांति के बाद यानी मशीनी समाज के क्रमशः विकसित होने के साथ ही प्रकृति के साथ मनुष्य का रिश्ता बदल गया है. इन दो सौ वर्षों में मनुष्य ने अपनी सुविधाओं के विकास में जो प्रगति हासिल की है, वह मनुष्य समाज के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था। इस दूरी ने उसके अंदर की संवेदना को संकुचित किया। संवेदनाओं के इस संकुचन ने बेरहमी के साथ पारिस्थितिकी और पर्यावरण के दोहन को खुली छूट दी।
पर्यावरण को लेकर मानव समाज की दुर्गति मनुष्य के विकास के प्रति इस निरर्थक विश्वास के कारण हुई कि प्रकृति में हर वस्तु केवल उसी के उपयोग के लिये है । प्रकृति की उदारता, उसकी प्रचुरता और दानशीलता को मनुष्य ने अपना अधिकार समझा, इसी दृष्टिकोण से प्रकृति के शोषण से उत्पन्न असंतुलन की स्थिति भयावह हो चुकी है ।समाज में पारिवारिकता का ह्रास हो रहा है ,आपसी रिश्तों की मर्यादायें टूट रही हैं। आधुनिकता का नाम लेकर संबंधों में फूहड़ता पनप रही है। समाजों की नकारात्मक मानसिकता ने पारिवारिक संबंधों,प्रकृति ,पर्यावरण एवं मानवीय संवेदनाओं का क्षरण किया है। हवा,पानी,वृक्ष,जीव एवं सम्पूर्ण धरती इसका शिकार हो रहें हैं। पुरानी परम्पराओं ने इन सब में ईश्वर इस लिए प्रतिस्थापित किया था क्योंकि इनमें जीवन पलता है। किन्तु वर्तमान में इन सब का दोहन करके मनुष्य स्वयं को विखंडित एवं असुरक्षित कर रहा है। आज जरुरत है की प्रकृति के सान्निध्य में मनुष्य अपनी संवेदनाओं को उच्चतर स्तर पर विकसित करे और नई पीढ़ी को यह सबक देने की कोशिश हो कि प्रगति यदि मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों के आधार पर होती है तो वह शाश्वत ,सृजनशील एवं सबका कल्याण करने वाली होती है।
COMMENTS