हम सभी अपने जीवन में इस उत्तर को कई बार ढूँढते हैं कि जीवन क्या है और हर बार अपने मन को अपने आप ही उसी पुराने उत्तर से समझा लेते हैं कि जीव...
हम सभी अपने जीवन में इस उत्तर को कई बार ढूँढते हैं कि जीवन क्या है और हर बार अपने मन को अपने आप ही उसी पुराने उत्तर से समझा लेते हैं कि जीवन एक खूबसूरत सफर है जिसका पूरा होना तय है। दुनिया में सारी चीजें गतिशील और प्रगतिशील हैं। वास्तव में हम अपने चारों ओर बहुत चीजें देखते हैं, कुछ सजीव और कुछ निर्जीव। उन सबमें एक चीज नजर आती है कि जो गति में है या जिसमें गति है वही तो वास्तव में जीवन है। पृथ्वी की उत्पत्ति को हजारों वर्ष हो गये। पृथ्वी का निर्माण विभिन्न प्रकार की रासायनिक और भौतिक क्रियाओं का परिणाम है।
हमारे जीवन में अनेकों भौतिक और रासायनिक परिवर्तन किस आशा में होते हैं हम यह कभी नहीं सोचते। क्यों हमारे जीवन की धड़कन हर खूबसूरत पल को जी लेना चाहती है। क्यों हमारी आँखें दुनिया के सारे रंगों को देख लेना चाहती हैं। क्यों हमारी साँसें अनवरत चलती रहती हैं मृत्यु की प्रतीक्षा में या जीने की जिजीविषा में।
हम सभी यह जानते हैं कि मृत्यु निश्चित हैं फिर भी हम मरने के इन्तजार में कभी नहीं जीते बल्कि जीने की चाहत में जीते हैं और आखिर तक जीते चले जाते हैं। यह जीवन के प्रति हमारी आशा नहीं तो और क्या है जो बार-बार हमारे अन्दर जीने का उत्साह और जीवन के प्रति विश्वास बनाये रखती है। हम सभी जानते हैं कि जीवन के प्रति हमारा नजरिया जितना आशावादी होगा हम उतनी ही ऊँचाई पर पहुँचेगे।
मानव जीवन की गति अर्थात उसकी धड़कन जब तक उसमें समाई रहती है तभी तक हम मनुष्य को जीवित कहते हैं क्योंकि उस मनुष्य रूपी जीवित प्राणी से जिस पल धड़कन समाप्त हो जाती है उसी पल वह निष्प्राण होकर मुर्दा बन जाता है और वहीं जीवन का अन्त हो जाता है और फिर हम उस मुर्दे को चाहकर भी अपने पास ज्यादा देर रख नहीं पाते हैं क्योंकि मुर्दा या मृत्यु की अनवरत चलते जीवन में कोई जगह नहीं होती है।
इतिहास गवाह है कि जीवन ने आशा किसी भी पल नहीं छोड़ी है, यह सदियों से चली आ रही है वो चाहे सिन्धु घाटी सभ्यता हो या वैदिक सभ्यता या मेसोपोटामियाँ की सभ्यता या दजला फरात की सभ्यता, हर सभ्यता में मानव का यह विश्वास हमेशा कायम रहा था, कि मरे मराये लोग एक दिन फिर से जीवित होंगे और वे किसी दिन फिर जागेंगे। उनका यह विश्वास जीवन के प्रति एक आशा ही तो थी जो उन्हें जीने की प्रेरणा दे रही थी। इसीलिए आदि मानव मुर्दे के साथ उसकी सारी जरूरतों की चीजों को दफनाते थे या रखते थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें उन सब चीजों की जरूरत होगी।
अगर हम दूसरे अर्थों में देखें तो हम देखते हैं कि जीवन की प्रगतिशीलता या उसकी गतिशीलता उसमें समाई वह धड़कन है जो आखिरी साँस तक जीवन को जीवन्त बनाये रखती है। और वो साँसें हैं जो पूरे जीवन भर बिना रुके चलती ही रहती हैं। इस आशा में कि हम और ज्यादा जी लें और ज्यादा से ज्यादा जी लें। तभी तक हम मनुष्य को जीवित कहते हैं जब तक उसके हृदय में धड़कन बनी रहती है लेकिन अगले ही पल जब उस जीवित प्राणी से धड़कन समाप्त हो जाती है तो वह निष्प्राण होकर मुर्दा बन जाता है। तो क्या वहीं जीवन का अन्त हो जाता है? या यही जीवन का अन्त होता है। आज तक हम यह नहीं जान पाये कि आखिर वे धड़कनें दिल से गायब कैसे हो गईं वे साँसें जीवन का साथ छोड़कर क्यों गईं, कैसे गईं और कहाँ गईं।
विज्ञान की भाषा में हम अगर समझें तो हम देखते हैं कि भौतिक विज्ञान के अनुसार, ‘‘ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है और न ही समाप्त की जा सकती है केवल उसका रूप एक रूप से दूसरे रूप में बदलता रहता है।’’ तो इसका मतलब तो यही हुआ कि मृत्यु अन्त नहीं है बल्कि प्रारम्भ है एक नये जीवन का। विज्ञान ने हमारी साँसों, हमारी धड़कनों और हमारे प्राणों को एक ही नाम से परिभाषित कर दिया है जिसे हम ऊर्जा के नाम से जानते हैं। अगर इस ऊर्जा की ही बात करते हैं तो ये energy क्या है जिसे हम सीधे शब्दों में ऐसे ही समझ सकते हैं कि कार्य करने की क्षमता ऊर्जा कहलाती है। ऊर्जा एक रूप से दूसरे रूप में आखिर बदलती ही क्यों है इसका जवाब तो खुद Science के पास भी नहीं है।
अगर हम धर्मग्रन्थों या पुराणों की बात करें तो हम सभी जानते है कि हमारे धर्मगुरू और कई विद्वान यह लिख गये है कि उनके अनुसार जीव$आत्मा दो चीजें हैं। दुनिया में यही दोनों जब आपस में मिल जाते हैं तो जीवात्मा नामक नया शब्द बनता है जिसमें जीवन होता है और सम्पूर्ण विज्ञान की गति होती है। आत्मा के बारे में हम ऐसा मानते हैं कि आत्मा एक जीव से दूसरे जीव में प्रवेश कर जाती है, वह अमर होती है, उसे शस्त्र काट नहीं सकता, पानी गीला नहीं कर सकता है, हवा सुखा नहीं सकती है। जब जीव की मृत्यु हो जाती है तब आत्मा बाहर निकल जाती है क्योंकि वह तो मर नहीं सकती है कभी। और हम अपने जीवन में यह मान लेते हैं कि कहीं न कहीं इसे दूसरा जन्म मिल गया होगा।
क्या आत्मा को किसी ने देखा है? आत्मा शरीर से कैसे निकल जाती है कोई नहीं जानता। कुछ लोग मानते हैं कि ये प्रकाश पुंज के रूप में बाहर निकलती है पर आज तक दुनिया का कोई प्राणी हमें ऐसा नहीं मिला जिसने उस उजाले को देखा हो जो शरीर से बाहर निकलता है। पर हम यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति की आँखें खुली रह गईं हैं तो आँखों से प्राण रूपी आत्मा निकली होगी या मुँह खुला रह गया है तो मुँह से प्राण निकल गये होंगे। सही मायने में देखा जाये तो प्रकाश क्या है? प्रकाश एक जीवन ही तो है। इस प्रकाश पर सम्पूर्ण जीवन टिका हुआ है तो यह प्रकाश क्या है और आत्मा क्या है? क्या आत्मा प्रकाशमय है या प्रकाश रूपी आत्मा है? दोनों एक ही हैं या दोनों अलग-अलग? अब फिर से हम वहीं आ गये कि प्रकाश ऊर्जा है और ऊर्जा आत्मा है। इस प्रकार प्रकाश या आत्मा एक प्रकार की ऊर्जा है। यह ऊर्जा रूपी प्रकाश दुनिया को आलोकित करता है जिसके प्रकाश में हम अपना जीवन जीते चले जाते हैं क्योंकि प्रकाश या उजाला हमें विश्वास दिलाता रहता है जीने की चाहत ही हमारा मकसद होना चाहिए भले ही विपरीत परिस्थितियाँ ही क्यों न आजायें जीवन में अँधेरा बनकर। ये अँधेरा क्या है जिसे हम आज Science की भाषा में Blackhole के रूप में जानते हैं। क्या एक दिन सब black hole में परिवर्तित हो जायेगा? तो क्या हम आज इस डर से जीना छोड़ दें? दुनिया के हजारों वैज्ञानिक इस black hole को समझने में लगे हैं। पर हम उस डर में आज बिल्कुल भी नहीं जी रहे हैं कि जब पूरी दुनिया black hole में convert हो जायेगी और न ही हम black hole में covert हो जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। क्योंकि हमारे सामने नयी-नयी और बड़ी-बड़ी कल्पनाओं को साकार करने के लिए पूरी दुनिया को आलोकित करने वाला सूरज जो है जिसके उजाले में इतनी ताकत है कि हमें इतनी दूर से धरती पर सपने दिखाता है और फिर सपनों को साकार करने के लिए हमारे अन्दर विश्वास जगाता है कि हम ऐसा कर सकते हैं। हमें हर पल वो प्रेरणा देकर प्रेरित करता रहता है कि हम ऐसा जरूर करें। अगर सही अर्थों में देखा जाये तो सच तो ये है कि हम black hole नहीं कोई light hole ढूंढ़ रहे हैं नये प्रकार का। जिससे हम इस black hole को cover up कर सकें। हमारी तलाश इसकी नहीं है कि black hole कैसे बने हमारी तलाश इसकी है कि black hole क्यों बने।
सदियों से इतिहास गवाह रहा है इस बात का कि जीवन ने कभी हार नहीं मानी हैं न खुद से न दुनिया से और न ही प्रकृति से। सदियों से चली आ रही सभ्यताएँ चाहे वह सिन्धु नदी घाटी की सभ्यता रही हो या मिश्र की, या मेसोपोटामियाँ की या दजला फरात की हम जानते हैं कि यहाँ के निवासियों को न तो बहुत ज्यादा विज्ञान का ज्ञान था न ही उन्हें धर्मग्रन्थों, वेद या पुराणों का ज्ञान था। वे न तो आत्मा को जानते थे और न ही ऊर्जा को फिर भी जब वे मृत जीवन अर्थात मुर्दे को गाढ़ते थे तो उस पर कई तरह से लेप लगाते थे ताकि वे सुरक्षित रहें और उसकी जरूरत की सभी चीजें उनके साथ रख देते थे। उन्होंने एक बार ऐसा सुरक्षित किया कि कई तो आज तक सुरक्षित हैं जिन्हें हम ममी कहते हैं आखिर क्यों? क्योंकि आदि मानव के जीवन में कहीं न कहीं यह विश्वास जरूर जागा होगा कि ये एक दिन जरूर जीवित होंगे। सभ्यतायें बदलती रहीं समय दर समय उनकी ये आशा हमेशा कायम रही कि ये मरे मराये लोग एक दिन फिर से जीवित होंगे। ये क्या था उनका यह विश्वास जीवन के प्रति एक आशा ही तो थी जो उन्हें जीने की प्रेरणा दे रही थी इसलिए आदि मानव मुर्दे के साथ उसकी सारी चीजें भी रखते थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें उनकी एक दिन जरूरत जरूर पड़ेगी। वे मरे लोग कभी जिन्दा नहीं हुये पर उनकी इसी आशा में जीवन अपने अनवरत पथ पर चलता रहा बिना रुके, बिना झुके।
पृथ्वी पर हजारों भौतिक परिवर्तन और हजारों रासायनिक परिवर्तन हुये पर जीवन इसमें परिवर्तित होकर भी अपने मूल स्वरूप को नहीं परिवर्तित कर सका चाहकर भी। कभी ज्वालामुखी फट गये तो कभी समुद्र उफन पड़ा कभी भूकम्प आ गया तो कभी बादल फट गये, कभी बिजली गिर गई लेकिन उसने जीवन का अस्तित्व नहीं मिटा पाया। हम जानते हैं कि ये सारे परिवर्तन जीवन में केवल कुछ समय के लिए परिवर्तन जरूर लाये जो हमारे सामने भौतिक परिवर्तन बनकर कुछ समय के लिए उभरा। कई तो ऐसे रासायनिक परिवर्तन हो गये जो हमेशा-हमेशा के लिए चीजें बदल गये। पर इन सबके बीच जीवन तो एक ऐसा परिवर्तन है जो परिवर्तित होने के बाद भी परिवर्तित नहीं हो पाया। जीवन को जीने की जिजीविषा को हरा नहीं पाया। जीवन के प्रति बढ़ती चाहत को कोई भी परिवर्तन बदल नहीं पाया एक सोचने वाली बात यहाँ आती है कि जब हमारी पृथ्वी का निर्माण ही भौतिक और रासायनिक क्रियाओं का परिणाम है फिर पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति भी इन क्रियाओं की देन है जो परिवर्तनों के दौर से जीवन की शुरूआत से गुजर रहा है। फिर डर किसका? और कैसे परिवर्तित होते-होते एक कोशिकी जीव से आज multicellular जीवों का विकास हो गया। जो आज सभ्यता का आधुनिक मानव बन गया तो दूसरी तरफ ये भी एक इतिहास है जो जीव अपने को बदल नहीं पाये और विशालकाय से आज अनन्त सूक्ष्म में कहाँ लुप्त हो गये पता ही नहीं चला जिनका आज हम नाम भर जानते हैं जैसे डायनासोर। आखिर डायनासोर ही क्यों नहीं टिक पाये क्योंकि परिवर्तनों के दौर में अपने आप को परिवर्तित नहीं कर पाये यही हम जानते हैं और खो गये हमेशा के लिए पर उनके खोने से क्या जीवन रुका? नहीं ना। क्या उसने प्रतीक्षा की कि डायनासोर आ जायें तब आगे बढ़ेंगे। अगर जीवन को हम रोकना भी चाहें तो जीवन रुकता नहीं बल्कि कुछ समय बाद हमें महसूस होता है कि जीवन नहीं हम खुद ही रुक गये हैं और यह रुकी चीज वक्त की रफ्तार में जल्दी ही बेकार सिद्ध हो जाती है या रुके हुये पानी की तरह सड़ जाती है और उसमें कीड़े पड़ जाते हैं क्योंकि पानी तभी तक धारा कहलाता है जब तक चलता रहता है।
हमने अपने दैनिक जीवन में कई बार देखा है कि कहीं-कहीं कबाड़े में बहुत सी गाड़ियाँ रखी होती है लाइन से। ऐसे दृश्य ज्यादातर पुलिस लाइन के आस-पास दिखाई देते हैं। वे सभी वाहन शान्त भाव से भोलेपन को धारण करे ऐसे खड़े रहते हैं जैसे कि वे हिलना भी नहीं जानते हैं या कभी सड़कों पर गतिज ऊर्जा के आवेश में दौड़े ही न हों। बड़ा तरस आता है उन्हें देखकर। उनकी हालत देखकर समझ ही नहीं आता है कि कैसे इनकी मासूमियत को जबाब दें कि कभी ये सही थे। पर अब उन्हें कोई गाड़ी, कार, बाइक, हीरो होण्डा स्पिलैण्डर नहीं कहता है बल्कि एक सबका सामूहिक नाम ढूंढ़ लिया है हमने कबाड़ा। हम उन्हें एक शब्द में ही निपटा देते हैं कबाड़ा कहकर। अब सवाल यह आता है कि ये आखिर कबाड़ा क्यों हैं? इसका जबाब बड़ा आसान है कि गतिशीलता के अभाव में उन्हें गाड़ी तो कह नहीं सकते हैं अब कबाड़ा न कहें तो और क्या कहें? गाड़ी तो चलती का ही नाम होता है। खड़ी बिना चलने वाली गाड़ी अपने आप कब धीरे-धीरे कबाड़ा में तब्दील हो जाती है पता ही नहीं चलता है। ठीक ऐसा ही जीवन में होता है। जब तक जीवन में गति है तब तक वह जीवन है या जीवन गतिशील है। समझ ही नहीं आता है इस गति पर समय-समय पर हजारों किताबें लिखीं जा चुकी हैं। लोगों ने इसे समय-समय पर अपनी-अपनी तरह से परिभाषित किया है। कभी इसे नियमों में बाँधा गया तो कभी समीकरणों में पिरोया गया तो कभी इसे अनेक रूपों में बाँट दिया गया, पर गति अपनी गति को निर्बाध धारण करे बढ़ती रहे कभी इस रूप में कभी उस रूप में।
हम सभी जानते हैं कि अगर हमसे पूछा जाये कि दुनिया में सबसे तेज किसकी गति है तो इसके बहुत से उत्तर होंगे। साइक्लॉजी के स्टूडेंट बतायेंगे कि मन की गति सबसे तेज होती है तो वहीं physics की class बतायेगी कि प्रकाश की गति सबसे तेज होगी। यही बात अगर दुनिया के धावकों से पूछी जाये तो वे उसैन बोल्ट की गति को सबसे तेज बतायेंगे। ये सारी ही बातें बिल्कुल सही है।
गति में हमेशा एक आशा छिपी होती है अपने आप में आगे बढ़ जाने की। एक चाहत होती है दूर तलक जाने की। और ये चाहत की जीव को आखिर तक जीवन्त बनाये रखती हैं। चलने का नाम ही जीवन है।
- अनामिका शाक्य
एम.एस-सी. (रसायन शास्त्र)
ग्राम कैरावली पोस्ट तालिबपुर जिला मैनपुरी-205261
ईमेल- harishchandrashakya11@gmail.com
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