प्रविष्टि क्र. 85 एकाकी दिनों का एक दिन विक्रम आदित्य सिंह झटके के साथ नींद खुली, घडी सुबह के नौ बजकर बीस मिनट बजा रही थी। बाहर कोई दरव...
प्रविष्टि क्र. 85
एकाकी दिनों का एक दिन
विक्रम आदित्य सिंह
झटके के साथ नींद खुली, घडी सुबह के नौ बजकर बीस मिनट बजा रही थी। बाहर कोई दरवाजा खटखटा रहा था। मैंने आँखें मीचते हुए बाहर जाकर देखा तो अपना अखबार वाला नजर आया जो महीने का बिल लेकर आया था। मैंने बिल लेते हुए आज ही ऑनलाइन ट्रांसफर करने की बात कहकर उन्हें विदा किया।
आज सुबह ऐसे ही शुरू हुयी थी। जिनकी ऑफिस नौ बजे से शुरू होती हो वहां नौ बीस में नींद खुलना खतरे की घंटी है, दांव पर कैजुअल लीव। याद आया कि गयी रात तीन बजे तक मोबाइल पर सिनेमा का आनंद उठाया था और सुबह सात बजे बजते हुए अलार्म को बंद कर फिर से सो गया था। भूल ही गया था कि फिलहाल अकेला हूँ क्यूंकि पत्नी जी मायके गयी हैं बेटे को साथ लेकर अपने बड़े भाई की शादी करवाने। किचेन में जाकर चाय चढ़ाई और चाय के बनने के दौरान ही ऑफिस में बॉस को व्हाट्सएप्प किया कि तबीयत गड़बड़ लग रही है और थोड़े देर से ग्यारह - साढ़े ग्यारह तक ऑफिस जा पाउँगा। चाय पीते पीते जवाब आ गया था - "ओके", मुझे रामबाण मिला। अब जब बॉस की ओके है तब दुनिया से क्या डरना ??
दिन अगर इतने से भी बीत जाता तो मुझे लिखने का मौका ही नहीं मिलता। अकेले बंदे की सबसे बड़ी चिंता खाने पीने की ही होती है। बंदा नाश्ता क्या करे, खाये क्या, ऑफिस ले जाए क्या? इतना सोचने के लिए भी अगली चाय की आवश्यकता पड़ी। प्राइवेट नौकरी करता हूँ साहब, तमाम तरीके के चिंता - फिकरों से साथ जीने की आदत पड़ जाती है। इसपर से अगर घरेलू चिंताओं का मुकाबला करना हो तो पब्लिक फ्यूज़ न हो जाय? एक बारगी मन हो रहा था छुट्टी मार दूँ, मन बोझिल सा लग रहा था। ज्यादा सोचने का मौका मिला नहीं और मोबाइल की घंटी बज उठी, ईपीएफ ऑफिस से फ़ोन था और आज ही उनकी टीम इंस्पेक्शन को आने वाली थी। अब तो छुट्टी के बारे में सोचना संभव ही न था। चाय ख़त्म हो चुकी थी।
बॉस को जल्दी से फ़ोन करके जानकारी दी और आश्वासन दिया कि मैं जल्दी ही आ रहा हूँ। प्राथमिकता में अब खाना पीछे हो चुका था, जल्दबाजी में एक बिस्किट का पैकेट साथ लिया और ग्यारह बजे ही ऑफिस पहुँच गया। कागजी तैयारी शुरू कर दी गयी।
ऑफिस पहुंचने के बाद बहुतेरे प्रयोजन आपके लिए पड़ोस दिए जाते हैं। किसी कर्मचारी की छुट्टी का हिसाब तो किसी के खर्चे का। इंस्पेक्शन होगा आपका, अपन को तो अपना हिसाब अर्जेन्टली मांगता। बाधा दौड़ की माफिक हम अपनी तैयारी भी साथ साथ करते जा रहे थे। इस दौड़ में भूख का कुछ पता ही नहीं चला और बिस्किट भी बैग में पड़ा रहा। सहकर्मियों ने मौका भांपकर साथ में खाने का न्योता दिया। मिलजुल कर खाने की बात ही निराली है, कष्ट सिर्फ ये कि मेरे पास कुछ भी बांटने को नहीं था।
भोजन के दरम्यान ही पत्नी जी का कॉल आया था जो मिस कॉल में बदल गया था। उन्हें कॉल बैक करने पर पता चला कि बेटे जी की तबीयत गड़बड़ हो गयी है। उत्तर बिहार में फ़रवरी के महीने में भी भयंकर ठण्ड और शीट लहर का प्रकोप था, बेटे जी इसी चक्कर में फंस गए थे। जो सलाह देनी थी दी और ख्याल रखने का बोल के फ़ोन काटा। इस प्रकार चिंताओं में एक का इजाफा और हो गया था। खुद को पंगु समझने के अलावा कर क्या सकता था? शारीरिक रूप से बेटे के पास मौजूद नहीं रहने का दुःख भी था। इंसान ऐसे ही समय में ऊपर वाले को ज्यादा याद करता है सो मैंने भी किया, फिर लग गया अपने काम में। चिंता थी कि इंस्पेक्शन वाले कब आएंगे?
काफी प्रतीक्षा के बाद करीब चार बजे कंसल्टेंट के माध्यम से पता चला कि इंस्पेक्शन टीम कही ज्यादा उलझ गयी है सो आज आना नहीं हो पायेगा। मैं वापस से सुबह के समय में लौट चला था, कि ऐसा ही होना था तो वैसा हुआ क्यूँ? खैर - जब जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है की विचारधारा पर आत्म मंथन करने लगा। साड़ी तैयारी धरी रह गयी, कागजातों की फाइल बना कर अलमारी में जगह दे दी। वापस से फ़ोन करके बेटे जी के बारे में पूछताछ की, पता चला कि बुखार उतर चुका था पर दवाई आज भर एहतियातन चलनी थी। ऊपर वाले को धन्यवाद दिया और उम्मीद की कि बाकी समय भी सकुशल बीत जाय। इन चिंताओं से उबरने की ख़ुशी मैंने उसी बिस्किट पैकेट का सेवन किया।
कार्यालय का समय समाप्त होने को था। चिंता उसी दौर में वापस पहुँच चुकी थी कि नाश्ता और रात का खाना क्या होगा?? दुपहिया चलाते चलाते घर पहुँचने से पहले मैंने ठान लिया था कि आज की तारीख में और लोड नहीं लूँगा और भोजन बाहर से आएगा। फ्रेश होने के उपरान्त घर में मौजूद रेडीमेड नाश्ता का सेवन हुआ, चाय बनायी गयी और ठीक बाद मोबाइल एप्प से ही बिरयानी का आर्डर किया। नौ बजे भोजन घर आ चुका था। बेटे का फिर से हालचाल लिया। उससे बात भी हुयी, बोले अभी ठीक हूँ पापा, कल हम पूरा ठीक हो जायेंगे। आँखें थोड़ी सी नम थीं, बेटा अब बड़ा होने लगा है, समझने लगा है कि क्या बोलने से पापा खुश होंगे और क्या बोलने से नाराज?
पिछली रात की कम नींद के कारण आज जल्दी ही नींद आ रही थी। टीवी के सामने अखबार बिछाकर खाना परोसा। क्रिकेट का मैच आ रहा था भारत बनाम दक्षिण अफ्रीका,साथ में बिरयानी। मुझे तो आत्मीय सुख प्राप्त हो रहा था। भोजन समाप्त कर के जब अख़बार उठाया तो याद आया कि अनियमित दिनचर्या के कारण अखबार वाले को पैसा नहीं भेज पाया। निवृत्त होकर मोबाइल से भीम एप्प के माध्यम से पैसा भेजा और एसएमएस करके उन्हें सूचित किया और देरी के लिए क्षमा चाही।
अंततः बिस्तर पर आ ही गया, मैच ख़त्म होने तक इंतज़ार नहीं कर पाया। नींद जोरों से आसपास मंडरा रही थी। फ़ोन के माध्यम से माता पिता का हालचाल लिया और दिनचर्या साझा की। फिर पत्नी जी को फ़ोन लगाया और बताया कि आपकी बिरयानी भी हम ही खा गए। बेटे जी दवाओं के प्रभाव के कारण गहरी नींद में सो रहे थे। तबीयत स्थिर थी जानकर प्रसन्नता हुयी। पत्नी की चिंता भी भोजन पर ही अटकी थी, सुबह मैं क्या खाऊंगा उसका आश्वासन अभी चाह रही थीं। फ़ोन पर ही दुःख सुख साझा करते हुए शुभ रात्रि आदान प्रदान हुआ। यही सोचते हुए कब नींद आयी पता नहीं चला कि सुबह सात बजे अलार्म बंद नहीं करेंगे और पक्का से उठ जायेंगे।
एक आत्मज्ञान भी हुआ - विवाहोपरांत अकेले जीना संभव नहीं है। परिवार पर हम और हम पर परिवार पूर्ण आश्रित हो जाते हैं।
- विक्रम आदित्य सिंह
जमशेदपुर, झारखण्ड
परिचय - विक्रम आदित्य सिंह
मैं विक्रम आदित्य सिंह पिता श्री पीताम्बर सिंह वर्तमान में मानव संसाधन प्रबंधक के तौर पर जमशेदपुर स्थित एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में कार्यरत हूँ। मेरे पिताजी झारखण्ड सरकार में संयुक्त सचिव के रूप में कार्यरत हैं।
मेरा जन्म बिहार की राजधानी पटना में हुआ है।पिताजी की सरकारी नौकरी के कारण कई शहर देखे। मेरी प्रारंभिक शिक्षा जमशेदपुर (तत्कालीन बिहार) में हुयी। मध्य विद्यालय से मैट्रिक तक पटना में रहे। राज्य विभाजन के उपरान्त पिताजी रांची ले आये और इंटरमीडिएट और स्नातक रांची से पूर्ण हुयी। उस ज़माने में पढाई लिखाई अपनी मर्ज़ी से नहीं परिवार की मर्ज़ी से होती थी। पिताजी चाहते थे की मैं स्नातकोत्तर पूरा कर के प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करूँ लेकिन मैं एमबीए करने की जिद्द पर अड़ा रहा। 2007 - 2010 के दौरान दिल्ली में रहकर एमबीए किया फिर दो - एक नौकरी भी लगी लेकिन लम्बी नहीं चली।
संयोगवश फ़रवरी 2010 में अपने क्षेत्र जमशेदपुर में नौकरी का ऑफर आया जिसे मैंने लपक लिया। तब से आजतक यहीं स्थापित हूँ। इसी दौरान विवाह भी हुआ और चार वर्ष का पुत्र है।
व्यंग्य का नजरिया 1997 से शुरू हुआ जिसे मैंने किताबें पढ़ कर बढ़ाया। हरिशंकर परसाई मेरे प्रिय व्यंग्यकार रहे। हर एक ऐसा व्यंग्य जिसमें कार्यालय एवं उसके कर्मचारी जुड़े हों मुझे प्रिय है। हो सकता है कि इसका मुख्य कारण मेरे स्वयं का प्राइवेट नौकरी में कार्य करना हो।
अगर मेरे मौखिक या लिखित व्यंग्य से कुछ व्यक्तियों को भी मुस्कराहट दे पाया तो स्वयं को धन्य समझूंगा। माँ भवानी से इस निमित्त शक्ति मांगता रहता हूँ।
- विक्रम आदित्य सिंह,
व्यंगकार श्री आलोक पुराणिक पर केंद्रित पुस्तक "व्यंग्य का ए टी एम" में संस्मरणात्मक आलेख प्रकाशित ( संपादन - श्री अनूप शुक्ल / रुझान प्रकाशन - जयपुर द्वारा प्रकाशित )
27 – 03 – 2018
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