संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 95 : न जाने क्यों // विनोद कुमार दवे

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प्रविष्टि क्र. 95 न जाने क्यों विनोद कुमार दवे न जाने क्यों, मैं उस रोज़ अस्पताल की सीढ़ियों पर बैठकर रोया नहीं। *** ऐसी भी कोई लड़की होती है ...

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प्रविष्टि क्र. 95

न जाने क्यों

विनोद कुमार दवे

न जाने क्यों, मैं उस रोज़ अस्पताल की सीढ़ियों पर बैठकर रोया नहीं।

***

ऐसी भी कोई लड़की होती है क्या, इतनी शैतान, इतनी झगड़ालू। जितना उसका गुस्सा था, उतने में तो एक दो विश्वयुद्ध निपट जाते। स्कूल के दिनों से हम साथ थे। ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा होगा, जिस दिन उसने किसी से झगड़ा मोल न लिया हो। छोटे बॉय कट बाल, बड़ी बड़ी आंखें। पतली सी लंबी नाक पर हमेशा गुस्सा चढ़ा रहता। उसके गाल पर एक तिल था जो उसके मासूम होने का भ्रम पैदा करवाता था लेकिन जब उसकी जबान से कड़वे शब्दों की बौछार पड़ती तो भले भलों की गलतफहमी दूर हो जाती थी कि लड़कियां शर्मीली होती हैं। उसके पास हर किसी की कई पुश्तों तक को कोसने के लिए शब्दों का खजाना भरा पड़ा था। तत्सम, तद्भव से लेकर देशज शब्दों तक के उदाहरण उसकी कड़वी वाणी में खोजे जा सकते थे। खैर मुझे हमेशा उसने इस श्रवण-सुख से वंचित रखा। बालपन में तो उसके घरवाले उसे नादान समझते रहे, उन्हें उम्मीद थी, उम्र के साथ साथ उसमें बुद्धि आ जाएगी। लेकिन उसने सदा अपने घरवालों की इस ख़्वाहिश का गला घोंटे रखा। जिस उम्र में उसकी हमउम्र लड़कियां गुड्डे गुड़ियों के ब्याह रचाती, वह मुंडों को पटक पटक कर पीट रही होती। जब उसकी सहेलियां सपनों के राजकुमार को ढूंढ रही थीं, वह राजकुमारों को सपनों में डरा रही होती। उस की एक अलग दुनिया थी, जिसमें दखलंदाजी उसके लिए बर्दाश्त से बाहर थी।

कभी कभी स्कूल का वो पहला दिन याद आता है, एकदम धुंधला सा, मानो घने कोहरे के पीछे कोई याद छुप्पम-छुप्पी खेल रही हो, मानो सावन के बादलों की ओट में सूरज रह रहकर मुसकुरा रहा हो, मानो घुप्प अंधेरे में यादों का कोई जुगनू हवा की लहरों पर तैर रहा हो। उस दौर में अभिभावकों में प्राइवेट स्कूलों के प्रति आज की तरह कोई दीवानगी नहीं थी। गांवों में तो कोई नामोनिशान तक नहीं था प्राइवेट स्कूल का। शहरों में जरूर ऐसे स्कूल थे, जिन्हें अंग्रेजी स्कूल कहते थे। गांवों में तो सरकारी विद्यालय का ही सहारा था। नर्सरी केजी जैसी किसी कक्षा का अस्तित्व नहीं था। पढ़ाई का सफर पहली कक्षा से शुरू होता, अगर अध्यापकों की मेहरबानी रहती तो यह गाड़ी अनवरत चलती रहती, वरना फैल का ब्रेक लगते ही गाड़ी पटरियों से उतर कर पलट जाती, कोई खेतों में फसलों की देखरेख करने रुक जाता, कोई ढाबों पर दिन रात मेहनत मजदूरी करता नजर आता, कोई ढोर हांकता, कोई नौकरी की तलाश में मुंबई निकल पड़ता।

उस दिन गर्मी के कहर से मौसम पसीना पसीना हो रहा था, बारिश का कोई नामोनिशान नहीं था। सरकारी स्कूल में उस लड़की के पांव पड़ते ही मानो तूफान आ गया। उस लड़की की चीखों ने आसमान सिर पर उठा लिया था। घरवाले बड़ी मुश्किल से उसे टाँगाटोली कर लेकर आए, और कक्षा में पटक गये। मास्टरजी ने अपनी छड़ी संभाली, उस बच्ची ने आंखें निकाली। मास्टरजी की पैठ का सवाल था। एक बच्ची को भी अनुशासन में न रख सके तो मास्टरजी के आतंक का क्या होता। रौब जमाने के लिए मास्टरजी ने छड़ी से उसकी पीठ पर प्रहार क्या किया, उसके अंदर साक्षात मां काली अवतरित हो गई। स्लेट उठाकर उसने मास्टरजी के मुंह पर फेंक मारी। मास्टरजी अपने रौद्र रूप में आते तब तक वह स्कूल से नौ दो ग्यारह हो गई। मास्टरजी के चेहरे का रंग लाल होने की बजाय पीला पड़ गया था।

***

एक वो दिन था, एक आज का दिन है। एक लड़की जिसके चेहरे पर दुख की कोई बदली कभी नजर न आई, आज वो इतनी बदली-बदली सी दिखने लगी है। अस्पताल के बिस्तर पर लेटी इस लड़की में से वो लड़की कहाँ गई जो एक कच्ची कैरी तोड़ने के लिए आम के पेड़ पर चढ़ जाती थी, जो जामुन के पत्तों पर नमक मिर्च डाल कर उसे किसी विशेष व्यंजन की तरह बड़े चाव से खाती, जो एक दफा स्कूल जाने से बचने के लिए इमली के पेड़ पर छिप गई थी।

गर्मियों की छुट्टियों में उसके अत्याचारों से आजिज़ आकर बेर की झाड़ियां अपने कांटे बढ़ा दिया करती थी, जंगल जलेबी कितनी भी ऊंचाई पर क्यों न छिपी हो, उसके निशाने से न बच पाती थी। पूरे साल उसका आतंक खेतों की छाती पर मूंग दलता रहता।

जब हम नवीं कक्षा में थे, विद्यालय में एक नए पी.टी.ई. सर आये। लंबा कद, घनी काली ताव दी हुई मूँछें, लंबा ललाट, उभरी हुई मोटी नाक और रौबीली आवाज। उनके व्यक्तित्व में गजब का आकर्षण था, हम सब बच्चों के प्रति उनका विशेष स्नेह था। उन्होंने उस लड़की की प्रतिभा को पहचाना, उसके अंदर की उद्दंडता को एक नई दिशा दी। उसे खेल खेलने के लिए प्रेरित किया। दौड़ कूद से लेकर खो खो, कबड्डी तक में उस लड़की ने पी.टी.ई. युधिष्ठिर जी के मार्गदर्शन में महारत हासिल कर दी। स्कूल में कोई भी खेल प्रतियोगिता हो, युधिष्ठिर जी सबसे पहले उसी का नाम लिखते। तहसील स्तर से लेकर जिला स्तर तक की प्रतियोगिताओं में उसने परचम लहराना जारी रखा। जाने क्यों मुझे उसकी सफलता से बेतहाशा खुशी मिलती। खूबसूरती जैसी उसमें कोई बात नहीं थी लेकिन किशोरावस्था की दहलीज पर कदम रखते रखते दिल के किसी कोने में मैंने उसका नाम हमेशा के लिए लिख लिया था। हम शुरू से अच्छे दोस्त थे, लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी उसे यह बताने की, मुझे उस से प्यार था।

***

बारहवीं कक्षा में थे हम, उस रोज चपरासी कक्षा में खबर लेकर आया, तहसील स्तर पर खेलकूद प्रतियोगिता की। मेरा दिल बल्लियों उछल पड़ा, उस लड़की के साथ साथ मेरा भी नाम था। उसके नजदीक आने की चाहत में मैंने भी खेलों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। लेकिन उसके चेहरे पर प्रतियोगिता की कोई खुशी नहीं देखी मैंने। पिछले काफी समय से वो बीमार सी नजर आती थी। उसका शरीर भी काफी पतला पड़ गया था। मुझे फिक्र थी उसकी, लेकिन मैं उस से अपने प्यार का इजहार स्कूल या गांव से कहीं दूर ही करना चाहता था, ताकि अगर वो नाराज भी हो जाए, मैं पिटते हुए किसी को नजर न आऊं। मैंने उसे जैसे तैसे प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए मना ही लिया। उसने अपने चेहरे पर एक अजीब सा पीलापन लिए हुए मुझे देखा और हौले से मुसकुरा दी।

***

दो सौ मीटर की रेस में मुझे उसकी काबिलीयत पर पूरा भरोसा था। मैंने पूरी प्लानिंग कर रखी थी, वो पहले स्थान पर रहेगी, उस खुशी में मैं उसे बधाई देने के साथ साथ अपने प्यार का इजहार भी कर दूंगा। मैंने रात भर जागकर अपने हाथों से एक खूबसूरत कार्ड बनाया था, जिस पर पेंसिल स्केच से राधा और श्याम का सुंदर चित्र उकेरा और उसके नीचे ग्लिटरिंग बॉल पेन से आई लव यू भी लिखा। उसे बहुत सहेजकर मैं अपनी नोटबुक में रखे हुए रेस देख रहा था। स्टार्ट की आवाज गूंजते ही उसके क़दमों ने गति पकड़ ली। मैंने अपनी नोटबुक कसकर पकड़ ली। मेरी सांसें उफान पर थी, तेज गति से धड़कती मेरी धड़कनों को मैं बहुत शिद्दत से संभाले हुए था। वो सबसे आगे थी, मैं महसूस कर रहा था, फिनिश लाइन बहुत तेज गति से उसकी तरफ बढ़ रही हो। एकाएक यह क्या हुआ! मेरी नोटबुक हाथ से छिटक गई, मैं पागलों की तरह मैदान में भागा। मेरी जान फिनिश लाइन से दो कदम पहले जमीन पर औंधे मुंह पड़ी थी। मैंने उसका सिर अपनी गोद में लिया। उसकी पुतलियां मानो घूम गई थी। उसके जर्द चेहरे से मेरा रोम रोम कांप उठा। युधिष्ठिर सर ने एम्बुलेंस की मांग की। लेकिन वहां ऐसी कोई सुविधा नहीं थी। अस्पताल ले जाने के लिए उसे बाइक पर बिठाया। उसे संभालकर पकड़े हुए मैं पीछे बैठा था। मेरा दिल कर रहा था, उसे कसकर अपनी बाहों में जकड़ लूं और फूट फूट कर रो पडूँ। गुजरते हुए मैंने देखा, मेरा कार्ड लोगों के पांवों तले कुचला पड़ा था। मैंने धूल से सने दबे कुचले अपने अरमानों से अपनी नजर हटा दी थी।

***

अस्पताल में डॉक्टर नदारद था। कम्पाउण्डर ने बताया, कुछ नहीं बस कमजोरी है। ग्लूकोज की बोतल चढ़ने के बाद उसकी हालत में कुछ सुधार हुआ। कम्पाउण्डर ने कुछ दवाइयां लिखकर दी जो सरकारी दुकान पर उपलब्ध नहीं थी। पी.टी.ई. सर दवा लेने के लिए बाहरी दुकान पर गए। मैं स्टूल खींच कर उस लड़की के सिरहाने बैठ गया। मैंने अपना हाथ उसके माथे पर रखा। उसने आंखें खोलकर देखा और प्यारी सी मुस्कान दी। मेरी हिम्मत बढ़ गई। मैंने उसका माथा सहलाना जारी रखा और उसके कानों के पास अपने होंठ ले जाकर फुसफुसाया, “आई लव यू।“ वो अपनी थकी सी आवाज़ में मिठास भरकर बोली, “मैं भी।“ और मुझे मानो दुनिया की सारी खुशी मिल गई। आज मैं संसार का सबसे खुश इंसान था।

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उस घटना के बाद उसने खेल कूद से जैसे संन्यास ही ले लिया था। वो स्कूल आती, मैं भी जाता। लेकिन उस दिन के इजहार के बाद मेरी उस से आंख मिलाने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी। मैं जानता था, वो कक्षा में बैठी बैठी मुझे ताकती रहती, लेकिन मैंने न जाने क्यों उसे उपेक्षा के दलदल में धकेल दिया था। अब वो पहले वाली तेज तर्रार लड़की नहीं थी। जिसकी आवाज से पूरी स्कूल गूंजती रहती थी, अब उसकी आवाज कक्षा में भी सुनाई देना दूभर हो चुका था। नन्ही चिड़िया सी वो लड़की आती, अपने दोनों हाथ मेज पर टिकाये अधलेटी सी हालत में मुझे घूरती रहती और छुट्टी होने के बाद बिना किसी चहचहाहट के अपने घोंसले को उड़ जाती। शायद उसे इंतजार था मेरे होंठों का, जो उसके कानों के पास जाते और वे तीन शब्द फुसफुसाते, जो उसने अस्पताल के बेड पर बेहोशी की सी हालत में सुने थे। लेकिन मुझे जैसे मजा सा आने लगा, उसकी इस बेचैनी पर। उस दिन के बाद मैंने उस से नज़र तक नहीं मिलाई। मैं जानता था, वो उन अल्फ़ाज़ के इंतजार में है जिसने अस्पताल की हवाओं में कोई शहद घोल दिया था।

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बारहवीं बोर्ड का परिणाम घोषित हो चुका था। मैं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुआ था मगर वो लड़की उसी कक्षा में अटक गई। मैंने उस से काफी वक़्त से कुछ बात नहीं की थी। उसे नेगलेक्ट करके मुझे एक अजीब तरह की आत्म संतुष्टि हो रही थी। मुझे गर्व था कि कोई लड़की मेरी इस हद तक दीवानी है। आगे कॉलेज की पढ़ाई के लिए मुझे जयपुर जाना था, मेरे मामाजी वहीं रेलवे में किसी अच्छे पद पर कार्यरत थे। मैं उन तीन अल्फ़ाज़ का बोझ उसके नाजुक दिल पर लादकर बहुत निष्ठुरता से वो गांव छोड़ आया, जिसकी फ़िज़ा में उसके मासूम अरमानों की सुगंध बड़ी शिद्दत से मुझे तलाश रही थी।

***

जयपुर में मैंने बहुत उम्मीदों से कदम रखा था। मामा जी और मामी जी का स्नेह बचपन से मिलता रहा था तो मुझे शहर में रहने, खाने-पीने की कोई चिन्ता नहीं थी। लेकिन मैंने देखा, गांव वाले मामा और जयपुर वाले मामा में रात दिन का फर्क था। गांव में जिनका मीठा व्यवहार मुझे अत्यधिक प्रिय था, शहर में वे ही मामा जी एकदम अजनबी से नजर आते थे। मामी के रूखे सूखे व्यवहार के कारण जल्द ही उनके घर से मेरा मोह भंग होने लगा। शुरू शुरू में कुछ दिन बहुत प्यार से रखा, शायद उन्हें लगा मैं जल्द ही होस्टल में रहने जाने वाला हूँ। लेकिन इतने प्यारे सगे संबंधी होते हुए मैं होस्टल का सोचता भी कैसे? उन सगे संबंधियों के व्यवहार में परिवर्तन के साथ साथ मेरी रोटियों पर से घी की मात्रा कम होते होते एकदम खत्म ही हो गई, फिर सब्जी की जगह फफूंद लगे अचार ने ले ली। चाय तो एकदम बंद ही हो गई। पैसों की तंगी के कारण मैंने तिरस्कार को झेलना जारी रखा। सर्दी के मौसम की शुरुआत होते ही घर में ममेरे भाइयों के स्नान के लिए पानी गर्म होने लगा लेकिन मुझे बिजली बचाने की हिदायत के साथ ठंडे पानी से ही नहाना पड़ता। जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा, मेरी शाम असहाय सी हालत में एक बगीचे में गुजरने लगी। मामी के ताने फुसफुसाहट से शोर में बदल चुके थे। कॉलेज से आकर मैं बेबस चेहरा लिए दो तीन घंटों के लिए बगीचे की नरम घास पर पड़ा पड़ा अपने माँ पापा को याद करता रहता था। उसी बगीचे में मुझे संजय मिला, फार्मेसी का स्टूडेंट, सरकारी कोटे की सीट पर चयन तो हो गया था लेकिन होस्टल की भारी फीस से डरा डरा पिछड़ी बस्तियों में किराये के कमरे की तलाश में घूम रहा था। संयोग से वो मेरे पास के ही गांव का निकला। उसे एक रूम पार्टनर भी चाहिये था। मेरी मनचाही मुराद पूरी हो गई। हम दोनों शाम को जयपुर की गलियों में धक्के खाते सस्ते कमरे के लिए भटका करते। भूखे पेट ‘To Let’ के बोर्ड ढूंढते, मकान मालिकों से किराया कम करने की मिन्नतें करते। कुछ महलों से गालियां खाने को मिली। एक टूटे फूटे मकान में चाय नाश्ते की मनुहार से दिल भर आया। एक जगह काफी मिन्नतों के बाद मकान मालिक ने किराया थोड़ा कम कर लिया। इतने दिन भटकने के बाद आखिर हमें कमरा मिल ही गया। मैंने एडवांस किराया और मेरी कॉलेज आईडी मकान मालिक के पास जमा करवाई। शाम को जब मैंने मामी जी को कमरे की बात बताई, उनके चेहरे की खुशी देखते ही बनती थी। फिर स्नेह का मुखौटा पहन मामी बोली, “अरे बेटा अपना घर होते हुए भी किराये के कमरे में रहोगे क्या?”

मैं कुछ न बोला। शायद उन्हें लगा कि ज्यादा मनुहार की तो मैं रुक जाऊंगा। अपनी आवाज़ में मिश्री सी मिठास घोलकर वे बोली, “कोई बात नहीं बेटा। यहां तुम्हारी पढ़ाई भी डिस्टर्ब हो रही होगी। वहां मन लगाकर पढ़ना।“

उस रात घर में मुझे भी स्वादिष्ट खाना परोसा गया। रोटी, दो तरह की सब्जियां, दाल, चावल, मिठाई, नमकीन, पापड़। आज रोटियां घी में तैर रही थी। अचार भी एकदम अलग था, खट्टा सा बाजार का अचार। आज मुझे मालूम हुआ मुझे परोसा जाने वाला फफूंद वाला अचार घर में बना हुआ पुराना अचार था। खाना खाने का दिखावा करते हुए इस भोजन में मैं गांव वाले मामा जी का स्नेह खोजता रहा।

अगली सुबह मामी ने बहुत प्यार से मेरा सामान पैक करवाया। मुझे तरह तरह की हिदायतों और ‘असीम स्नेह’ के साथ विदा किया। उनके दिल की खुशी आंखों में झलक रही थी। मैंने मन ही मन इस चौखट पर कभी कदम न रखने की कसम खाते हुए नकली मुस्कान से साथ उन रिश्तेदारों को अलविदा कहा।

मैंने और संजय ने मकान मालिक की लंबी चौड़ी शर्तों को सुनने के बाद अपना सामान कमरे में रख दिया। फिर मैं संजय के कॉलेज पहचान पत्र की फोटोकॉपी जमा करवाने मकान मालिक के पास गया। फोटोकॉपी देखते ही मकान मालिक के चेहरे का रंग बदल गया। मैं जब कमरे में लौट रहा था, वापिस नया रूम ढूँढने की आशंका से त्रस्त था।

घंटे भर में ही मकान मालिक ने दरवाजे पर दस्तक दी। वही हुआ जिसका मुझे अंदेशा था। मकान मालिक बोला, “मेरा बेटा और बहू आ रहे है। उन्हें इस कमरे की जरूरत होगी। अपना एडवांस वापिस लो और कमरा खाली कर दो।“

रात के आठ बजे रहे थे। हम दोनों ने अपना बोरिया बिस्तर समेटा और फुटपाथ पर आ गये। पीछे मकान मालिक अपनी पत्नी से कह रहा था, “कैसा गिरा हुआ लड़का है। ब्राह्मण होकर अछूत के साथ रहने चला। काश सुबह ही दूसरे लड़के की भी जाति पूछ ली होती। अब रूम धुलवाना पड़ेगा।“

एक अपराध बोध से ग्रस्त होने के कारण मैंने संजय से नज़रें नहीं मिलाई। हम दोनों जानते थे, इस दुनिया में दो ही जातियां है, अमीर और गरीब। हमने एक मंदिर के बगीचे में रात गुजारने का फैसला किया, अगली सुबह अपना बोरिया बिस्तर खींचते उठाते हम दोनों को नया कमरा ढूंढने निकलना था।

***

वक़्त ने अपने आप को संभाल लिया था। एक गरीब पिछड़ें इलाके में हम दोनों बड़े आराम से रह रहे थे। थोड़ी बहुत समस्याएं तो थी, जैसे पानी कब्रिस्तान में बने एक हैंडपम्प से भरकर लाना पड़ता था, शौच के लिए पब्लिक टॉयलेट या रेलवे की पटरियों का रुख करना पड़ता। कॉलेज काफी दूर थे और पैदल सफर के सिवाय कोई आसरा न था।

कुछ माह बाद जैसे हमारी लॉटरी खुल गई। संजय ने उसके लिए एक अस्पताल में पार्ट टाइम जॉब का जुगाड़ बैठा लिया था। मैंने भी पार्ट टाइम रिसेप्शनिस्ट का काम संभाल लिया। हम दोनों को रहने के लिए अस्पताल का हॉल मिल गया जिसमें मरीज के परिजन अपना दुख भरा समय काटते। हमें रोने चीखने आवाजों के बीच किताबें पढ़ने की आदत डालनी पड़ी।

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मैं छह महीनों से अपने गांव नहीं गया था। दिसंबर अंतिम सप्ताह की छुट्टियां थी। मैं घर जाने के नाम पर रोमांचित था। घर, जहां माँ मेरा इंतज़ार कर रही थी। गांव, जहां के दोस्तों की याद मुझे बेतहाशा सता रही थी। और सब को याद करते करते अचानक मुझे याद आया, गांव, जहां मैं उस लड़की को एक अंतहीन इंतज़ार के लिए छोड़ आया था...

सुबह की ट्रेन से मुझे निकलना था। रात मैंने पूरी करवटों में काटी। आज बहुत समय बाद उस लड़की की याद मुझे इस हद तक सता रही थी। आज उसकी याद समाई हुई थी, मेरे ख्वाबों ख्यालों में, मेरे उन तीन अल्फ़ाज़ में, मेरी फुसफुसाहट में, मेरे पागलपन में, उस उपेक्षा में जिसने उसे कहीं का नहीं छोड़ा होगा। क्यों मैंने उसे उस इजहार के बाद इस तरह अकेला छोड़ दिया? क्यों मैंने उसे पलट कर देखा तक नहीं? उपेक्षा के उस दलदल में वो किस गहराई तक धंस चुकी होगी? मैंने दिल में यह ठान ली, इस बार घर जाकर उस लड़की से अपनी सगाई के लिए माँ से बात करूंगा। उसे पाने के अहसास मात्र से मेरा रोम रोम पुलकित हो उठा। मेरे हृदय के उपवन में गुलाबों की सुगंध फैल गई, मोर अपने पंख फैलाकर नाचने लगे, तितलियां मंडराने लगी, भौंरे मचलने लगे। इस कैशोर्य में उस जवान होती लड़की की यादों की महक से मेरा अंग अंग महक उठा। उसके ख़्वाबों में मैं पूरी तरह डूब चुका था कि दरवाजा बजा। संजय कैंसर यूनिट में अपनी नाईट ड्यूटी से लौट आया था। मैंने भी उठकर अपना बैग संभाला। संजय बोला, “ अरे गांव जा रहे हो तो कैंसर वार्ड में हो आओ। तुम्हारे गांव की कोई मरीज है। आज का दिन भी शायद ही निकाले। लास्ट स्टेज पर है।“

मैंने ब्रश करते हुए उसे इशारों में पूछा कि क्या हुआ?

“ब्लड कैंसर है, क्या पता मर ही गई होगी अब तक तो।“

फिर अपनी आदत अनुसार उसने पूरा मेडिकल बॉयोडाटा खोल दिया, “तुम नहीं जानते, उसे AML है। ल्यूकेमिया बहुत खराब बीमारी है। AML बोन मेरो का कैंसर है। इसमें स्टेम सेल से व्हाइट ब्लड सेल्स ज्यादा क्वांटिटी में प्रोड्यूस होती रहती है, लेकिन मेच्योर नहीं हो पाती। इम्मेच्योर व्हाइट ब्लड सेल्स की क्वांटिटी ब्लड में बहुत ज्यादा बढ़ जाती है जिस से रेड सेल्स और प्लेटलेट्स सही से काम नहीं कर पाती है। बॉडी का इम्यून सिस्टम खराब हो जाता है। पहले पता चल जाए तो रोगी बच भी सकता है लेकिन लास्ट स्टेज में...”

“क्या यार? सुबह सुबह सारा रटा हुआ माल बक दिया। बचाकर रख, एग्जाम में काम आएगा तेरे।“

मुझे घर जाने की बहुत जल्दी थी और संजय की आदत थी, अपनी मेडिकल साइंस झाड़ने की। मैं जल्दी जल्दी तैयार होकर रेलवे स्टेशन की ओर पैदल ही निकल पड़ा। रोज़ की तुलना में मेरे कदम सुस्त थे। दिमाग भारी भारी सा लग रहा था। पता नहीं क्या सूझा कि मैं वापिस अस्पताल की और मुड़ गया। कुछ ही समय में मैं कैंसर यूनिट में था। स्टाफ मेंबर होने के कारण मुझे अपने गांव के मरीज के पास पहुंचने में कोई अड़चन नहीं हुई। यहां होकर जाना मैंने, शायद मुझे यहां नहीं होना चाहिये था...

***

उसकी माँ बेड पर उसके सिरहाने बैठी थी। मैं पागलों सा उसे ताक रहा था, जैसे वो मुझे घूरा करती थी कक्षा में। मैं चाहता था, मैं उसके पास जाऊं, उसका सिर अपनी गोद में लूं। उसका माथा सहलाते हुए उसके कानों के पास अपने होंठ ले जाकर फुसफुसाऊँ, वे तीन लफ़्ज़ जिन्हें सुनकर वो उस दिन मुसकुरा दी थी। लेकिन अतीत खुद को नहीं दोहराता। सूजी हुई रक्ताभ आंखों वाली अपनी माँ की गोद में लेटे लेटे उसने मेरी आँखों के सामने अंतिम विदा ले ली। मैं नज़रें फेरकर उस कमरे से बाहर निकल आया उसी तरह, जैसे मैंने इजहार के बाद से हमेशा उसकी उपेक्षा की थी।

बाहर आते ही मेरा बैग हाथ से छूट गया ठीक वैसे ही, जैसे उस दिन मेरी नोटबुक गिर पड़ी थी। मैं अपने अरमानों को देख पा रहा था, राधा कृष्ण की स्केच वाले उस कार्ड की तरह दबी कुचली हालत में। मेरी जान औंधे मुंह गिर पड़ी थी फिनिश लाइन के पार, मगर मैं दौड़ा नहीं उस ओर। न जाने क्यों, मैं उस रोज़ अस्पताल की सीढ़ियों पर बैठकर रोया नहीं।

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परिचय-

नाम=विनोद कुमार दवे

पिताजी का नाम= श्री आनंदी लाल

माताजी का नाम= श्रीमती मैथी देवी

जन्म दिनांक= 14-11-1990


कई प्रमुख पत्र पत्रिकाओं यथा, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, अहा! जिंदगी, कादम्बिनी , बाल भास्कर आदि में रचनाएं प्रकाशित। अन्तर्जाल पर विभिन्न वेब पत्रिकाओं पर निरंतर सक्रिय। 15 साझा संकलन प्रकाशित। 16 साझा संकलन प्रकाशन की प्रकिया में।

पुरस्कार/सम्मान= प्रतिलिपि कविता सम्मान ।

विनोद कुमार दवे

206,बड़ी ब्रह्मपुरी

मुकाम पोस्ट=भाटून्द

तहसील =बाली

जिला= पाली

राजस्थान

306707


ई मेल= davevinod14@gmail.com

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 95 : न जाने क्यों // विनोद कुमार दवे
संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 95 : न जाने क्यों // विनोद कुमार दवे
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