संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 99 : संस्मरणात्मक कहानी : सिग्नल के पार जिन्दगी // डॉ. लता अग्रवाल

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प्रविष्टि क्र. 99 सिग्नल के पार जिन्दगी डॉ. लता अग्रवाल लगभग हर रोज मेरा उससे सामना होता, मैला सा पेटीकोट उस पर कभी कमीज तो कभी कंधों उतरता ...

प्रविष्टि क्र. 99

सिग्नल के पार जिन्दगी

डॉ. लता अग्रवाल

लगभग हर रोज मेरा उससे सामना होता, मैला सा पेटीकोट उस पर कभी कमीज तो कभी कंधों उतरता ब्लाउज, जो किसी की मेहरबानी को दर्शाता। किसी साड़ी के टुकड़े को लज्जा वस्त्र बना खुद को उसमें समेटने का असफल प्रयास करती वह , वैसे पुरूषों की नजर से देखूँ तो कोई विशेष आकर्षण नहीं था उस देह में, या फिर रहा भी हो तो गरीबी का ग्रहण डस गया था । कंधे पर कपड़े की मैली सी झोली लटकाए, नंगे पैर सड़क पर आवाजाही करती, फटी एडियां, पक्का रंग, दुबली काया.... गोद में कुपोषित बच्चा लिए जिसके चेहरे पर शायद जूठन लगने की वजह से मक्खियां भिनभिना रही होतीं। बोर्ड ऑफिस पर सिग्नल के लाल होते ही वह किसी अदृष्य शक्ति की भांति प्रकट हो कार के कांच पर दस्तक देती, जैसे ही नजर उस पर उठती, मन कसैला ही होता। पूरे बदन पर मैल की मोटी सी परत जमी दिखाई देती लगता काफी अरसे से उसने कपड़ों की तरह खुद को भी नहीं धोया । उम्र कोई 22 से 25 के बीच रही होगी।

उस वक्त उसकी मुद्रा दयनीय होती, कभी बच्चे की ओर तो कभी अपने उभार लिए हुए पेट की ओर इशारा कर दया की पात्र बन भिक्षा पात्र आगे कर देती | अधिकांश कार में बैठी सवारी उसकी ओर नजर उठाकर भी नहीं देखतीं, वह इसके लिए पहले से ही तैयार रहती ,शायद ये उनके लिए रोजमर्रा की बात हो, या फिर वह जानती है कि कार की तरह उनके दिल और आँखों में भी शीशे चढ़े हैं । फिर भी उसके प्रयास में कहीं कोई हताशा नहीं झलकती | कभी -कभार कोई संवदनशील व्यक्ति कार का कांच खोलकर उसकी हथेली में एक सिक्का रख देता। सिग्नल के हरा होते ही फिर गाडियां उसके दाएं बाएं से निकल जाती। वहीं ट्रेफिक पुलिस सीटी से उसे अवश्य सचेत करता।

वह पुनः अपने नियत स्थान पर आ खड़ी होती और फिर अगले सिग्नल का इंतजार करती। ठंड हो गर्मी या बरसात वह अपनी ड्यूटी पर तैनात रहती। बारिश में अवश्य एक बड़ी सी पोलीथीन ओढे उसमें बच्चे को सिमटाए सिग्नल से अपना तालमेल बैठाती। चिलचिलाती घूप में जहाँ हम अपने बच्चों को घर की चार दीवारी से बाहर नहीं देखना नहीं चाहते, सोचती ये कैसी माँ है जो अपने बच्चे को साथ ले सड़कों पर लोगों के आगे हाथ पसारे खड़ी रहती है। क्या हमदर्दी भी एक व्यवसाय हो सकता है इस कलयुग में...? क्या ये अबोध बच्चे उसके इस व्यवसाय का जरिया हैं...? पता नहीं। मेरा रोज ही उस ओर से आना जाना रहता। सोचती क्यूं करती है ये ऐसा, आखिर क्या मजबूरी है...?, यूँ हादसों से लोहा लेती, क्या कोई और काम नहीं करने योग्य...? अनगिनत सवाल जेहन में उठते और वह इन सबसे बेफिक्र अपनी ही धुन में रत ...।

हर साल उसकी स्थिति में इजाफा यह होता कि गोद का बच्चा गले में बँधी झोली में आ जाता, झोली का बच्चा उँगली थामें माँ का हमराह बनता, और पेट में एक नया बीज अंकुरित हो चुका होता। पिछले तीन वर्षों का यह मेरा अनुभव रहा। मगर उसका व्यवसाय न बदला। वह यूँ ही कारों के आगे दस्तक देती दिखाई देती। मेरी नजर अक्सर सिग्नल पर रूकते ही उसे खोजती। सोचती क्या मुझे संवेदना है उस औरत के प्रति....? शायद नहीं... । फिर क्यों हर रोज वहाँ से निकलते मेरी नजर उसे खोजती...?फिर क्यों उसे लेकर कई सवाल जेहन में कुदबुदाने लगते हैं... ? मुझे चिंता थी इस बात की कि कहीं किसी कार का पहिया उसे रोंदता हुआ न निकल जाए। कहीं उसकी अंतिम सांसें इन्हीं सड़कों पर किसी गाड़ी के पहिये तले तो नहीं लिखी ...? उफ़ ! जाने क्या मजबूरी है इसकी जो ये जोखिम उठाए है। प्रतिदिन सैंकड़ों लोग जो सुरक्षा के साथ सफर करते हुए भी हादसों का शिकार हो जाते हैं और यह औरत खतरों से बेपरवाह अपने साथ अपने बच्चों का जीवन भी दाव पर लगाए है। हम शायद इसलिए डरते हैं कि हमारे बाद हमारे परिवार क्या होगा , जतन से बसाया घर, तिनका-तिनका जोड़ी पूँजी का क्या होगा। लगता है इसके पास खोने को कुछ है ही नहीं इस तन के सिवा। जब पेट खाली होगा तो इस तन का भी क्या करेगी।...? सिग्नल बंद था या शायद खराब उस दिन, सिग्नल की लाइट के साथ भागने की जल्दबाजी जो नहीं थी संयोग से उसका सामना कार वालों के बाद मुझसे हो गया। मैं मानों भरी बैठी थी...उलट पड़ी।

‘‘तुम्हें डर नहीं लगता रोज इस तरह वाहनों के आगे आती हो। कोई रोकता नहीं तुम्हें...? तुम्हारा पति कुछ नहीं कहता...?’’ वह चुप हो गई। शायद उसके पास मेरे इस प्रश्न का कोई उत्तर ही न हो....? शायद उसका कोई पति ही न हो...? या..या..उसने मेरे सवालों के जवाब देना उचित न समझा...? फिर ये बच्चे...? क्या इन बच्चों का कोई बाप नहीं...? तो क्या वह....? ,ऐसे कैसे हो सकता है उसमें तो ऐसा कोई आकर्षण नहीं.... यदि ऐसा है तो क्या पुरूष सिर्फ स्त्री देह का प्यासा है चाहे वह किसी की भी हो...? क्या इन बच्चों की तकदीर में इस फुटपाथ पर जन्म लेकर इसी पर उम्र काटना लिखा है...? क्या उनकी जिन्दगी इसी सिग्नल के आस पास है...? अगर ऐसा है तो क्या चंद पैसों की खातिर यह अपनी देह से खिलवाड़ नहीं कर रही...? अपने साथ बच्चों के भाग्य को भी धिक्कार नहीं रही ...? अफसोस! मेरे सारे प्रश्न अनुत्तरीय रहे।

‘‘ ओ! मेडम....! जरा सम्हल कर ....क्या घर से अनबन कर निकली हो ...? सामने का वाहन नजर नहीं आ रहा....।’’ अचानक सामने से आते वाहनवाले ने चिल्लाते हुए कहा ।

‘‘उफ! ..इसका कुछ हो न हो इसके चक्कर में मैं जरूर हादसे की शिकार हो जाउँगी।’ सॉरी भैया , कहते हुए मैने अपनी राह ली ।

फिर बहुत दिनों तक वह वहाँ दिखाई नहीं दी। मैंने सोचा शायद बीमार हो गई होगी। गुरूवार का दिन था वहाँ से गुजरते मैं साईं बाबा के दर्शन करती हूँ, घर जाकर निकल पाना संभव नहीं। दर्शन कर जैसे ही बाहर निकली कतारबद्ध बैठे मांगने वालों पर नजर गई तो देखा वह तो यहाँ बैठी है| ओह ! उसका फूला हुआ पेट...तो क्या फिर...? हाँ ! मेरा शक सही था। पास में एक बच्चा फटी और मैली सी शर्ट पहने हाथ में कटोरा पकडे़ उसमें चंद सिक्के डाल उन्हें उछालकर खुश हो रहा है, यही तो है गीता का ज्ञान, कोई भी काम करो खुशी और पूरे मनोयोग से। विद्वान कहते हैं,जीवन के हर कोने में दर्शन समाया है। गोद में साल सवा साल का बच्चा नंगे बदन, बहती नाक लिए उसके सूखे स्तनों को चूस रहा है। संभवतः बड़े पेट के कारण वह ठीक से बैठ भी नहीं पा रही थी। पैरों पर काफी सूजन थी देखकर लगता था प्रसव का समय निकट आ गया है। मैंने उसके करीब जाकर बच्चे के हाथ में दो लड्डू प्रसाद स्वरूप रखे और उससे कहने लगी,

‘‘तुम्हें तकलीफ है तो क्यों बैठी हो ...घर क्यों नहीं जातीं...? आराम करो जाकर ।’’

मेरी बात सुन वह हल्के से हंस दी....जिसमें मुझे हंसी कम पीड़ा अधिक नजर आ रही थी।

‘‘घर! घर कहां है हमार...?’’

‘‘फिर कहाँ रहती हो..?’’

‘‘इ हा....ई हैं।’’

‘‘तुम्हारा पति भी.... ?’’

‘‘वह खामोश हो इधर-उधर देखने लगी।

‘‘तो क्या इनका संसार यूँ ही सड़कों पर ....? उसकी खामोशी चुभ रही थी मुझे

‘‘क्या वह कुछ नहीं करता ...?

‘‘उ कहां कुछ करता है । दारू पीके पड़ा रहता है।’’

‘‘कितना कमा लेती हो इस तरह से....।’’

‘‘बस 25-50 रूपया , कभी उ भी नहीं।’’

‘‘क्या इससे पूरा पड़ जाता है..?’’

‘‘कहां.....।’’

‘‘फिर क्यों इस तरह सड़क पर मारी-मारी फिरती हो, खुद को और बच्चों को भी जोखिम में डालती हो। कोई टक्कर मार गया तो जिन्दगी भर को अपाहिज हो जाओगी। जानती हो ना....!’’

वो मेरा मुंह तक रही थी,

‘‘इससे तो अच्छा हो किसी के घर झाडू बर्तन कर कमा लोगी।’’

‘‘कौन देगा हमें काम....? आप देंगी काम....?’’

मैं आवाक ! इसकी तो उम्मीद ही नहीं की थी। अपने पर दाव देख झुंझला गई मैं ,खुद को कोसती वहाँ से चल दी। नाटकबाज औरत है ..., जानबूझकर ऐसा जीवन जी रही है, लोगों से सहानुभूति पसंद है उसे, मरने दो मुझे क्या...? दिन भर में इतना भी नहीं कमा पाती कि खुद का पेट भर सके उस पर पति की दारू.... छाती से चिपका वह कृश्काय बालक, पेट में धड़कती नन्हीं जान..., भूख से व्याकुल खुद उसका शरीर...,अपना पेट भर नहीं पा रही...बच्चे को पोषण कैसे मिलेगा...? ये जीवन में कभी नहीं उभर पाएंगे...। जाने दो मुझे क्या... अब नहीं पूछूंगी। खुद को भाषण देती वहाँ से चल पड़ी, जानती जो थी भाषण से पोषण नहीं होता।

अब वह सिग्नल के पास दिखाई नही देती ,उसने कारों का पीछा करना छोड़ दिया था, शायद! उसे मंदिर के अहाते की पनाह भली लगी ...!, या फिर यहाँ-वहाँ भागने की शक्ति नहीं रही उसमें...शायद! चैराहों से अधिक यहाँ कमा लेती है...या फिर दो-दो बच्चों के साथ भारी पेट लेकर भाग दौड़ नहीं कर पा रही ...? या फिर एक माँ अपने साथ अपने बच्चों की जिन्दगी खतरे में नहीं डाल सकती ...? पता नहीं क्यों मंदिर ही उसका मुकाम हो गया था।

उस दिन भी गुरूवार था। मैंने देखा वह बैठी है पेट का वह बालक जो अब डेढ़-दो माह का हो गया होगा उसे कपड़े में कुछ इस तरह लपेट रखा था कि बस आँख ही दिखाई दे रही थी। वह उस बालक की दुहाई देकर भीख मांग रही थी इतने नन्हें बालक को देख लोगों कीं सवेदना जाग रही थी। लोग पास बिछे कपड़े पर कुछ सिक्के डाल रहे थे। छोटा बच्चा उन्हें सहेजकर ढिग लगा रहा था। औरत बार-बार हथेली को सिर पर लगा, देने वालों का शुक्रिया अदा कर रही थी। मैंने उसे प्रसाद देते हुए पूछा,

‘‘ क्या हुआ, बेटा या बेटी...?’’

उसने मेरी बात को अनसुना कर दिया और मुझे अनदेखा। मैं एक बार फिर आहत हुई। एक अनपढ़ गंवार, मैली-कुचैली, जाहिल औरत से बार – बार अपमानित हो मन चोटिल हो गया। खुद को कोसने लगी , आखिर क्यों चली आती हूँ बार -बार अपना अपमान कराने ?’’

तभी एक औरत जो शायद उसी की बिरादरी की थी। उसके पास बैठ भीख मांगती हो , उसकी प्रतियोगी शायद ... , एक वर्दी वाले को साथ लेकर आयी ।

‘‘देखो साब! इस बच्चे को , यही है वह जिसके बारे में मैं बता रही थी ।’’

वर्दी वाला डंडा ठोकर कर औरत को घमकाते हुए कह रहा था,

‘‘किसका है ये बच्चा ?’’

‘‘साहब मेरा बच्चा है , सच्ची कह रही , भरोसा नहीं तो पूछ लो सबसे ।’’

‘‘साली ! मुझे कानून बताती है। खोल इस बच्चे को....इस तरह क्यों लपेट रखा ?’’

देखते ही देखते भीड़ जमा हो गई।

‘‘खोलती है कि लगाऊं डंडा...?’’

‘‘खोलती है .... साब खोलती है ... ।’’

कहते हुए उसने प्रतिशोध भरी आंखों से उस औरत को घूरा...वह जो मानो अपनी जीत पर इठला रही थी। हाँ ! उसकी प्रतिद्वंदी थी, बच्चे पर से कपड़ा हटते ही कुछ बदबू सी महसूस की लोगों ने नाक पर कपड़ा लगा लिया।

तभी वह औरत चिल्ला पड़ी,

‘‘देखा साहब! मैं सही थी , ये बच्चा मर चुका है। कैसी कुलटा औरत है अभी भी उसके नाम पर मांग रही है।’’

लोग अचंभित थे.... वर्दी वाला चिल्लाया,

‘‘क्या ये सच है...? बोल सच क्या है...?’’ उसके डंडा खड़खडाने से दोनों बच्चे सहमकर उससे चिपक गए।

‘‘सच बताती है कि ले चलूं बड़े साहब के पास।’’ वर्दी वाले ने ऊँचे स्वर में कहा ।

इस बार वह कांपते हाथों को जोड़ बोली,

‘‘नहीं साब बड़े साब के पास नहीं.... वो मुझे बंद कर देगा....मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं साब कोई नहीं है उनका....मैं बताती हूँ साब! सच्ची-सच्ची बताती हूँ । ये बच्चा जिंदा नहीं है साब......।

‘‘क्या....?’’

सभी के चेहरे पर आश्चर्य के भाव थे।

‘‘हाँ साब! ये मर गया है।’’

‘‘कब मरा....?’’

‘‘कल ।’’

‘‘फिर इसे दफनाया क्यों नहीं। इस तरह लेकर क्यों घूम रही हैं ..?’’

‘‘क्या करती साब! तीन पेट खाली है। इस बच्चे को दिखाकर कुछ मांग लेती थी । सो परसों रात ये भी मर गया। सोचा एक दो दिन और मांग लूँ फिर तो दफनाना ही है।’’

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डॉ लता अग्रवाल

73 यशविला, भवानीधाम फेस-1

नरेला शंकरी

भोपाल-462041


लेखिका परिचय

नाम- डॉ लता अग्रवाल

शिक्षा - एम ए अर्थशास्त्र. एम ए हिन्दी, एम एड. पी एच डी हिन्दी.

प्रकाशन - शिक्षा. एवं साहित्य की विभिन्न विधाओं में 53  पुस्तकों का प्रकाशन. जिनमें 2कविता 2कहानी 2समीक्षा संग्रह , ५ बाल संग्रह, २० रोल प्ले , 79 कहानियों का अब तक लेखन, लगभग 400 पेपर्स. कहानी . कविता. लेख प्रकाशित आकाशवाणी में पिछले 9 वर्षों से सतत कविता, कहानियॉं का प्रसारण . दूरदर्शन पर संचालन. पिछले 22 वर्षों से निजी महाविद्यालय में प्राध्यापक एवं प्राचार्य ।

सम्मान -

1. पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग (मेघालय) द्वारा साहित्यक अवदान पर “महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान “

2. उद्गार मंच द्वारा लघु कथा “साँझ बेला” को सर्वश्रेष्ठ कथा पुरस्कार |

3. वनिका पब्लिकेशन (गागर में सागर) मंच द्वारा लघुकथा “अधूरा सच” को सर्वश्रेष्ठ कथा का पुरस्कार

4. उद्गार मंच द्वारा कविता “एक पाति प्रधानमंत्री के नाम ” को उत्कृष्ट कविता पुरस्कार |

5. प्रतिलिपि द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में कहानी “ हादसा” को द्वितीय पुरस्कार |

6. लघुकथा “मैं ही कृष्ण हूँ” को वनिका पब्लिकेशन एवं नव लेखन मंच द्वारा श्रेष्ठ लघुकथा

7. मध्यप्रदेश लेखिका संघ भोपाल द्वारा कृति ‘पयोधि होजाने का अर्थ’ को श्रीमती सुषमा तिवारी सम्मान |

8. विश्व मैत्री मंच द्वारा गुजरात यूनिवर्सिटी अहमदाबाद में , कृति तू पार्थ बन’ को ‘राधा अवधेश स्मृति सम्मान |

9. छत्तीसगढ़ साहित्य मंडल रायपुर द्वारा साहित्यिक अवदान हेतु ‘ प्रेमचंद साहित्य सम्मान

10. " साहित्य रत्न" मॉरीशस हिंदी साहित्य अकादमी ।

11. "श्रीमती सुशीला देवी भार्गव सम्मान " हरप्रसाद शोध संस्थान आगरा।

12. " कमलेश्वर स्मृति सम्मान" कथा बिंब मुम्बई।

13. "श्रीमती सुमन चतुर्वेदी श्रेष्ठ साधना पुरस्कार  " अखिल भारतीय भाषा परिषद भोपाल।

14. "श्रीमती मथुरा देवी सम्मान " सन्त बलि शोध संस्थान उज्जैन।

15. "तुलसी सम्मान " तुलसी मांस संस्थान भोपाल।

16. "डा उमा गौतम सम्मान" बालकल्याण शोध संस्थान भोपाल।

17. "कौशल्या गांधी पुरस्कार  " समीर पत्रिका भोपाल।

18. "विवेकानंद सम्मान" विपिन जोशी मंच इटारसी।

19. " शिक्षा रश्मि सम्मान" ग्रोवर मंच होशंगाबाद ।

20. "प्रतिभा सम्मान " अग्रवाल महा सभा भोपाल।

21. "माहेश्वरी सम्मान " कला मंदिर परिषद भोपाल।

22. "सारस्वत सम्मान " समानांतर साहित्य संस्थान आगरा।

23. "स्वर्ण पदक " राष्ट्रिय समता मंच दिल्ली।

24. " मनस्वी सम्मान" हिंदी साहित्य सभा आगरा।

25. अन्य की सम्मान एवं प्रशस्ति पत्र।

निवास - 73 यश बिला भवानी धाम फेस  - 1 , नरेला शन्करी . भोपाल - 462041

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रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 99 : संस्मरणात्मक कहानी : सिग्नल के पार जिन्दगी // डॉ. लता अग्रवाल
संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 99 : संस्मरणात्मक कहानी : सिग्नल के पार जिन्दगी // डॉ. लता अग्रवाल
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