दोहरी जिम्मेदारी सत्तर की उम्र पार कर रहे रमेश और उनकी पत्नी राधा अपनी बहू रमा की तारीफ करते नहीं अघाते । जब भी कभी उनसे मिलने कोई रि...
दोहरी जिम्मेदारी
सत्तर की उम्र पार कर रहे रमेश और उनकी पत्नी राधा अपनी बहू रमा की तारीफ करते नहीं अघाते । जब भी कभी उनसे मिलने कोई रिश्तेदार या पड़ोसी आये - रमा की तारीफों का सिलसिला चालू हो जाता । आगंतुक भी रस ले लेकर रमा की बडाई करते। साथ ही अपनी पढ़ी लिखी बहुओं का रोना रोते।
रमेश उन्हें दिलासा देते और कहते - भाई जमाने के साथ चलना सीख लो। थोड़ी समझदारी रखो और अपने बच्चों को स्वतंत्र जिंदगी जीने का अवसर दो । बहू को बेटी सिर्फ कहो ही नहीं उसे बेटी मानो भी । फिर देखो आपकी बहुएं भी रमा की ही तरह सेवा करेंगी ।
हां , स्वभाव तो अब हमको ही अपना बदलना होगा। सामंजस्य की पहल भी हमको ही करना होगी।
आज भी रमेश के एक मित्र सुधीर उनसे मिलने आए थे। आते ही बोले - भाई रमेश । कहां गई - रमा बिटिया । आज तो उसने मुझे कांजीबड़ा खाने के लिए बुलाया था । कहीँ दिख नहीं रही ।
... तभी राधा अंदर से - कांजीबड़ा और मिठाई लेकर आती हुई बोलीं - अरे , भाई साहब । रमा ने ऑफिस जाने के पहले ही बना लिए थे और कहकर गई है - अंकल को जी भर के खिलाना , मांजी।
अंकल को मेरे हाथ के कंजीबड़ा बहुत पसंद हैं ।
तो , लीजिये - अपनी चहेती बिटिया के हाथ के - कांजी बड़ा । रमा भी आती ही होगी - ऑफिस से। - कहते हुए राधा हंसने लगी ।
अभी सब स्वादिष्ट व्यंजन का आनंद ले ही रहे थे कि तभी रमा भी आ गई । अंकल को चरण स्पर्श किया और बोली - पिताजी पहले अपनी आँखों में ड्रॉप डलवाइये । मुझे पता है आपने अभी तक ड्रॉप नहीं डाला होगा - यह कहकर रमा ड्रापर उठा लाई।
रमेश और उनके मित्र की आँखों में सजलता साफ दिख रही थी - रमा के कर्तव्य पालन से।
तभी राधा बोली - बेटा , पहले मुँह हाथ तो धो ले । आते ही सबकी फ़िक्र करने लगती है।
रमा ने ड्रापर डाला और मुस्कुराते हुए अपने कमरे में चली गई।
राधा बोली - देखा भाई साहब । कितना ध्यान रखती है सबका हमारी रमा बेटी ।
सुबह घर का सारा काम करके जाती है ऑफिस और आते ही फिर अपने कामों में लग जाती है । मुझे तो कुछ करने ही नहीं देती।
कहती है - माँ , पिताजी । आप सबकी जिम्मेदारी मेरी है । आपने भी तो मेरी खुशियों का ध्यान रखा। मुझे जॉब करने की अनुमति दी अन्यथा मेरा इतना पढ़ा लिखा किस काम आता ।
आपने सदा मुझ पर विश्वास किया। इस विश्वास और अपनी जिम्मेदारियों को भला कैसे छोड़ सकती हूँ मैं।
हां , राधा बहन। सच में आपने और रमेश भाई ने अपनी समझ से बहू को बेटी बना लिया - कहते हुए रमेश के मित्र सुधीर ने उनसे विदा ली ।
जाते वक्त सुधीर के मन में भी एक संकल्प था - अपनी बहू को जॉब करने की अनुमति देने का जो बहुत दिनों से उनसे अनुमति चाह रही थी ।
आज रमा और उसके परिवार की खुशहाली का राज सुधीर को समझ आ गया था ।।
वह समझ गए थे - खुशी , खुशियां देकर ही मिलती है। और बहु को बेटी सा अधिकार देने का महत्व भी।
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लघु कहानी - नया सवेरा
रूप लावण्य और संस्कारों की धनी रूपा ने जब अपने यौवन में कदम रखा तो उसके मन में अनेक सुनहरे सपने खिलने लगे ।
सदा खिलखिलाती रूपा - अक्सर गुनगुनाती रहती थी - वो सुबह कभी तो आएगी ... !
कई बार जानकर भी अनजान बनते हुए मैने उससे पूछा था , इस गाने के पीछे छुपे भावों को पर वह हौले से मुस्कुरा कर टाल जाती ।
कभी कभी कहती - कुछ नहीं भाई । ये पंक्ति मुझे घर की कमजोर परिस्थितियों से जूझने की प्रेरणा देती हैं।
रूपा मुझसे ऐसा कह जरूर देती थी मगर मैं समझता था इसके पीछे छुपा उसका दर्द । जानता था उसके घर के हालात ठीक नहीं । स्वाभिमानी पिता सब कुछ छोड़ - छाड़ कर तंगहाली का जीवन जी रहे थे । कुछ भी काम उन्हें उनकी उच्च शिक्षा के अनुरूप नहीं लगता । दो बेटे पिता की बेरुखी और तंगहाली से परेशान होकर दूसरे शहरों में जा बसे थे । उन्हें घर के हालातों से कोई लेना - देना नहीं था ।
हारकर और अपने सपनों को मारकर रूपा एक अशासकीय संस्थान में काम करने लगी । घर में मां सिलाई - कढ़ाई कर लेती । जिंदगी तो कट रही थी पर अब रूपा की वह खिलखिलाहट धीरे - धीरे गुम होती जा रही थी । हां ,अब भी अक्सर गुनगुनाती जरूर थी - वो सुबह कभी तो आएगी ।
..... और आख़िरकार एक दिन वो सुबह भी आ ही गई जब रूपा दुल्हन बनी अपने ससुराल चली गई । साल भर सब कुछ ठीक ठाक रहा पर ये सुबह , रूपा के की वह सुबह नहीं थी जो उसके जीवन को उजास से भर पाती ।
नियति ने कुछ और ही लिख रखा था रूपा के जीवन में । फिर आई वह अँधेरी रात भी , जिसने ह्रदयाघात से छीन लिया उसके पति को । बज्र सा प्रहार हुआ था रूपा पर । पति के जाने के बाद ससुराल में कितने दिन प्रताड़ित होकर रहती रूपा । वापस आ गई मायके अपने ।
रूपा के मजबूर पिता भी यही चाहते थे । रूपा मायके में रहकर ही पुनः नोकरी करने लगे ताकि घर में मदद मिल सके । उन्हें रूपा की भावनाओं की कद्र हो ऐसा उनके व्यवहार से कभी लगता नहीं था । रूपा भी क्या करती , जाने लगी फिर से काम पर । अब वह न तो गुनगुनाती थी और न ही खिलखिलाती थी । मुझसे भी कम ही बात करती थी ।
आखिर रक्षाबंधन के दिन जब रूपा ने मेरी कलाई पर राखी बांधना चाहा तो मैने पहली बार अपना हाथ पीछे खींच लिया । वह अचकचा गई ।
बोली - भैय्या । ये क्या ।
क्या आपकी यह अभागन विधवा बहन अब राखी बांधने के योग्य भी नहीं रही । बचपन से मैने आपको राखी बांधी है , कभी आपने अपना हाथ नहीं खींचा । फिर आज ये क्यों ? कहते हुए फफक पड़ी थी रूपा ।
अपने सीने से लगाते हुए रुंधे गले से कहा था - मैंने - नहीं रे रूपा । ऐसा सोचा भी कैसे तूने ।
हाँ , रुचना लगाने से पहले आज पहली बार तेरा ये भाई तुझे कुछ देना नहीं बल्कि कुछ मांगना चाहता है । बोल - करेगी अपने इस भाई की इक्षा पूरी ।
वह कुछ कहती , इससे पहले ही मैने कहा - तुझे फिर से शादी करना होगा । पूरा जीवन पड़ा है अभी । मायके में भी ज्यादा दिन नहीं रह पाएगी रूपा। समझदारी से जीवन चलाना होता है। यह जरूरी नहीं कि जो एक बार घट गया वह दुबारा भी घटे । किसी की चिंता मत कर और अपने भविष्य के बारे में सोच ।
यह सुन , भींग गई थी पलकें रूपा की । उसने मेरी कलाई आगे खींची और बांध दिया - रक्षासूत्र ।
यह कहते हुए - वो सुबह भी कभी तो आएगी ही .......और फिर आई एक दिन वह नई सुबह भी जब मंदिर के प्रांगण से विदा हो गई नया संसार बसाने रूपा ।
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- देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।
प्रधान सम्पादक युवा प्रवर्तक
मालवीय गंज , इटारसी।