हास्य - नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक छ: // राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

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हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक छ: मंज़र एक “आहिर: औरत फातमा का आसेब” नए किर...

हास्य नाटक

“दबिस्तान-ए-सियासत”

राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक छ:

मंज़र एक “आहिर: औरत फातमा का आसेब”

नए किरदारों का परिचय - फ़क़ीरा और रमजान [चुग्गा खां के बच्चे] !

[मंच रोशन होता है ! स्कूल का बरामदा दिखाई देता है ! शमशाद बेग़म गलियारे में खड़ी है ! वह दीवार घड़ी को देख रही है, छुट्टी का वक़्त हो गया है ! वह जाकर, छुट्टी की घंटी लगा देती है ! स्कूल की बच्चियां घर जाने के लिए बस्ता उठाये, झट क्लास छोड़कर सीधी ग्राउंड में चली आती है ! मगर उतावली करने में, इन मेडमों का क्या कहना ? वे सभी अपने आगे चल रही बच्चियों को एक ओर धकेलकर, ख़ुद आगे बढ़ जाती है ! इस तरह ये मेडमें, इन बच्चियों से पहले झट मेन गेट से बाहर निकल जाती है ! बड़ी मेडम के कमरे के बाहर, जो बरामदा है....वहां खड़े दाऊद मियां, इन मेडमों को देखकर अचम्भे से मुंह में उंगली डाल बैठते हैं ! बरबस उनके मुख से, व्यंग भरा जुमला निकल जाता है !]

दाऊद मियां – वाह री, दुनिया ! क्या हो गया है, इन मुलाज़िमों को ? मेरे सिवाय, सभी को घर जाने की उतावली है !

[बरामदे में तीन कुर्सियां, और एक टेबल भी रखी है ! एक कुर्सी पर, दाऊद मियां आराम से बैठ जाते हैं...वहां पहले से शेरखान साहब भी, कुर्सी पर बैठे ऊंघ ले रहे हैं ! अब दाऊद मियां से बिना बोले रहा नहीं जाता, वे झट शेरखान साहब को जगाते हुए उनसे तेज़ आवाज़ में कहते हैं !]

दाऊद मियां – [तेज़ आवाज़ में, कहते हैं] – सुस्ताना छोड़ो मियां, अब उठ जाओ ! स्टाफ़ जा चुका है, और एक भी चपरासी नज़र नहीं आ रहा है ? ख़ुदा जाने, घर चले गए या स्कूल छोड़कर कहीं और जगह चले गए...मटरगश्ती करने ? [तल्ख़ आवाज़ में] अब तो ख़ुदा बचाए, इन कमबख्तों से ! ‘ये कमबख्त बन गए हैं, अफ़सर..!’ अब कौन आएगा, स्कूल के कमरों को बंद करने ? अब, ताले लगाएगा कौन ?

[शेरखान साहब जग जाते हैं, अब वे अपनी आँखें मसलते हुए दाऊद मियां से कहते हैं !]

शेरखान – [आँखें मसलते हुए] - ऐसा न कहो हेड साहब, आज़कल ऐसा कहना तहज़ीब के खिलाफ़ है ! इन फोर्थ क्लास एम्प्लोयी को, अब आप फोर्थ क्लास अफ़सर कहना शुरू कर दीजिये ! फिर देखना, ये लोग आपका काम कितनी फुर्ती से करते हैं ! अब ऐसा कहना ही, आपके हित में है !

[तभी आक़िल मियां अपने कमरे को बंद करके, ताला लगा देते हैं ! उनके कानों में, शेरखान साहब की कही बात सुनायी दे जाती है ! अब वे भी अपना बैग उठाये उधर चले आते हैं, वहां रखी कुर्सी पर बैठते हुए वे कहते हैं !

आक़िल मियां – [कुर्सी पर बैठते हुए, कहते हैं] - इनको कुछ कहा तो...लेने के देने पड़ जायेंगे, हेड साहब ! शेरखान साहब` सही कह रहे हैं ! अगर इस नूरिये बन्ने ने कहीं सुन लिया तो अल्लाह की कसम, सच्च कहता हूं “यह नूरिया बन्ना आपकी कड़वी बात को पचा न पायेगा, और बदऔसान होकर छुप जाएगा कहीं बाहर किसी दुकान के अन्दर..! और आप, उसके इन्तिज़ार में यहीं बैठे रहेंगे !”

दाऊद मियां – और कुछ कहना बाकी रह गया हैं, तो बक दीजिये ?

आक़िल मियां – अब चपरासी यहाँ एक भी दिखाई नहीं दे रहा है, हुज़ूर...अब स्कूल किसके भरोसे छोड़कर जायेंगे, जनाब ? अभी-तक यह नाईट ड्यूटी वाला चपरासी नूरिया बन्ना भी, कहीं नज़र नहीं आ रहा है ? अगर अधिक देर तक रुके रहे, तो ख़ुदा की पनाह....इन बदअंदेशी मोहल्ले वालों का, क्या कहना ? वे ज़रूर हम पर आरोप लगाते हुए यही कहेंगे कि, ‘लोगों की आँखों में धूल झोंककर, हम स्कूल में गुल खिला रहे हैं !’ जनाब, मुझे उनकी आँखों में नहीं आना, अब रुख़्सत होता हूं...

दाऊद मियां – भगते कहाँ हो, मियां ? हमें क्या करना, इन मोहल्ले वालों की बकवास सुनकर ? वे लोग बेख़बर रहे, या हमारी ख़बरें इकट्ठी करके अचार डालें उन ख़बरों का ? हमें डर किसका, हम कौनसे बज़्मेरक्स का प्रोग्राम बनाने वाले ? अब छोड़ो, बेकार की बातों को ! लोगों का काम है कहना ! अब तुम गुल मत कहो, मियां ! गुड़ कहो, गुड़ पड़ा है...बस, घी और और चून सामने की दुकान से लाना है ! अब आप दोनों निकालिए अपनी जेब से दस-दस रुपये, अभी बनता है जायक़ेदार हलुआ !

आक़िल मियां – हां हेड साहब, वज़ा फरमाया आपने ! कुछ बनाइये..वक़्त तो कटेगा ही, और दूसरा यह भी फ़ायदा है “कहीं छुपा हुआ होगा यह नूरिया बन्ना, तो इस बन रहे हलुए की महक़ पाकर झट छुपे स्थान से बाहर निकल आएगा !”

[फिर क्या ? आक़िल मियां अपनी जेब से दस रुपये निकालकर, दाऊद मियां को थमा देते हैं ! दाऊद मियां झट शेरखान साहब से, दस रुपये ले लेते हैं ! फिर स्टील की बरनी और सामाने ख़ुरोनोश लाने की थैली लेकर, वे अपने क़दम मनु भाई की दुकान की तरफ़ बढ़ा देते हैं ! दाऊद मियां के जाते ही, बग़ीचे से पेड़ों की पत्तियों को छूता हुआ हुआ ठंडी हवा का झोंका बहता है ! इस ठंडी-ठंडी मनोहारी हवा के झोंके से, शेरखान साहब वापस अपने ख़्यालों की दुनिया में खो जाते हैं ! शेरखान साहब को ऊंघ में पाकर, बेचारे आक़िल मियां अब बैठे-ठाले किससे गुफ़्तगू करे ? फिर क्या ? जनाब झट बैग से, पेन और काग़ज़ बाहर निकालते हैं ! फिर पास रखी टेबल को, अपने पास खींच लेते हैं ! फिर उस पर काग़ज़ को रखकर शेर लिखना शुरू करते हैं, लिखने के बाद वे उस शेर को ज़ोर से बोलते हुए ऊंघ में पड़े शेरखान साहब को सुना देते हैं !]

आक़िल मियां – [शेर पेश करते हैं] – बाद:साजी करना छोड़िये जनाब, मौज़ूदे नीमबाज़ जब बहे, बादे नसीम !

[इधर आक़िल मियां ने अधूरा शेर ही बोला था, और हो जाता है करिश्मा ! ख़ुदा जाने, नूरिया बन्ना कहाँ से निकलकर, अलादीन के जिन्न की तरह वहां दिखाई दे जाता है ! और उस शेर की तारीफ़ में, कह बैठता है !]

नूरिया – क्या हासिले तरह शेर पेश किया, हुज़ूर ? वाह, आप तो कमाल के शाइर निकले ! हुज़ूर के मुंह से, शेर सुनने का मौक़ा इस नाचीज़ को कभी-कभी ही हासिल होता है ! यह आसियत [रात] की ड्यूटी, जो ठहरी हमारी..हमें, जनाब के नज़दीक नहीं आने देती ! हमारी इल्तज़ा है हुज़ूर, आप बस सुनाते रहिये ऐसे जाज़िबेनज़र शेर !

[अब नूरिया नीम निग़ाह डालकर, शेरखान साहब के पास चला आता है ! उन्हें नीमतस्लीम करके, हुक्म लेने के लिए खड़ा रहता है !]

शेरखान – [जम्हाई लेते हुए] – ला रे नूरिया, आबेजुलाल ! इन आँखों पर छिड़काव करते हैं अभी, तभी यह ऊंघ इन आँखों से जायेगी !

[नूरिया मटकी में लोटा डूबाकर ले आता है, पानी ! शेरखान साहब अब लोटा लिए जाली के दरवाज़े के पास आकर, अपनी आंखों पर छिड़काव करते हैं ! छिड़काव करने के बाद, वे वापस लोटा उसे थमा देते हैं ! फिर कुर्सी पर बैठते हुए, कहते हैं !]

शेरखान – नूरिया यार, अभी हलुआ बना नहीं...और, तू धमक गया साले ! तूझे पहले ही महक़ आ गयी, क्या ?

नूरिया – [हाथ जोड़कर] – हुज़ूर, इस ख़िदमतगार की नीम निग़ाही से, कोई बच नहीं सकता ! हुज़ूर, हम ज़रा मनु भाई की दुकान से गुटका लेकर, बैठ गए थे साबू भाई के गोदाम की दलहिज़ पर ! वहां गुटका चबाते हुए हमने हेड साहब को देखा..जो मनु भाई की दुकान पर खड़े सामाने ख़ुरोनोश ख़रीद रहे थे ! उनको देखते ही हमने अंदाज़ लगा डाला कि, अब कुछ खाना-पीना होगा ! फिर, नीमदस्त जमेगी..और, उसके बाद..

शेरखान – [रुमाल से मुंह पोंछते हुए] - आगे बोल, नूरिया ! चुप क्यों हो गया, यार ?

नूरिया – फिर हम बाकी कैसे रहें, हुज़ूर ? हम तो जनाब, ख़ुशअख्तर ठहरे..ख़ुदा के फ़ज़लो करम से ! फिर हम वहीं बैठे रहे, और देखते रहे कि ‘हेड साहब क्या क्या, ख़रीद रहे हैं ?’

शेरखान – गुटका तूने वहां बैठकर चबा लिया, फिर...

नूरिया – अरे हुज़ूर, गुटका तो हमने कब का थूका..उसके बाद तो हम वहां बैठे बामज़ नमकीन खाते हुए, हेड साहब को देख रहे थे..हमारी नीमनिग़ाह उन पर गढ़ी हुई थी, और हम देख रहे थे कि ‘वे क्या ख़रीद रहे हैं ?’

[तभी मेन गेट पार करके, शमशाद बेग़म आती दिखाई देती है ! उसके हाथ में सामाने ख़ुरोनोश का थैला है, उनके पीछे-पीछे दाऊद मियां तशरीफ़ लाते हैं !]

शमशाद बेग़म – [पास आकर] – खा रहा था, बामज़ नमकीन ? नूरिया बन्ना, ज़रा नियाज़बंद बनो ! बेचारे हेड साहब इस सामाने ख़ुरोनोश का थैला उठाये आ रहे थे, और तू वहां खड़ा-खड़ा इन्हें देख रहा था ?

शेरखान - अरे नूरिया, तू उनका थैला नहीं उठा सकता था ? क्या शर्म आती है, काम करने में...?

दाऊद मियां – जाने दीजिये, शेरखान साहब ! अरे ख़ाला, आप इसे क्यों डांटती हैं ? यह ठहरा कोदन, बेचारा क्या जाने ? हमें, कौनसी शिताबी है ? अभी आये हैं...बनायेंगे, आराम से ! जब तैयार हो जाएगा हलुआ, तब क्या लुत्फ़ आएगा खाने में ? बस ख़ाला, यही सोचा करें...

शमशाद बेग़म – यह नहीं हो सकता, हेड साहब ! आप बनाएं, और हम बैठे-बैठे खाएं ? मैं सब बना दूंगी, हुज़ूर ! बस, आप इस नूरिये बन्ने से कह दें, बाद में बर्तनों को मांज दे...बैठकर !

दाऊद मियां – [नूरिये से] – सुन लिया, नूरिये ? अभी-अभी, ख़ाला ने क्या फ़रमाया ? वक़्त पर काम हो जाना चाहिए, समझ गया ?

नूरिया अपनी पेंट की मोहरी को घुटने तक लाकर, पिंडली ख़ुजाने लगता है ! फिर, शायराना अंदाज़ में कहने लगता है !]

नूरिया – [पिंडली को ख़ुजाते हुए] – यह साक़िब है, मेरे साकैन में चली आयी ! फिर कैसे कहूं कहूं ख़ुदा, सब काम हो जाएगा !

आक़िल मियां – अपना इलाज़ करवा, नूरिये ! साक में ख़ारिश अच्छी नहीं..बना देगी तूझे, डायबिटीज का मरीज़ ! फिर, कहना मत..हिदायत नहीं दी मैंने, तुझको.. !

दाऊद मियां – इलाज़..इलाज़, के अल्फ़ाज़ न बोलो मियां ! परेशान हूं, नज़ले से ! हलुआ बामज़ बनवाना है तो, आओ बैठो काम करो ! जितनी मदद करोगे, काम उतनी जल्दी ख़त्म हो जाएगा !

[अब दाऊद मियां आंगन पर दरी बिछाकर बैठ जाते हैं, फिर सामाने ख़ुरोनोश के थैले से मिर्च, हरा धनिया, अदरक और आलू बाहर निकालते हैं ! फिर नूरिये को आलू काटने के लिए देते हैं ! बाकी लाया गया सामान, शमशाद बेग़म लेकर वापस गैस के चूल्हे के पास चली जाती है..हलुआ बनाने ! अब गैस के चूल्हे के पास खड़ी शमशाद बेग़म, कड़ाव में घी का छमका लगाती है ! फिर उसमें चून डालकर, उसे चमच से हिलाती है ! जिसकी ख़ुशबू, दाऊद मियां के नथुनों में चली आती है ! और, वे क़हक़हा बुलंद करते हैं !]

दाऊद मियां – वाह, वाह ख़ाला ! क्या कहना है, आपकी पाक-कला का ? हाय अल्लाह, क़ुरबान हो जाऊं, क्या महक़ आ रही है ? [क़हक़हां बुलंद करते हैं !]

[अल्लाह रहम, न जाने कहाँ से भिनभिनाती हुई एक मक्खी आकर उनकी नाक पर बैठ जाती है ! उसे हटाने के लिए मियां का हाथ नाक पर चला आता है ! हाय अल्लाह ! न जाने मियां को ऐसी क्या सूझी, जो ख़ुद मिर्चें काटने बैठ गए, और नूरिये को आलू दे डाले..काटने के लिए ? बस वही मिर्चों को छूआ हुआ हाथ नाक पर लग जाता है, और मियां की नाक जलने लगती है ! फिर क्या ? लगातार लग जाती है, छींकों की झड़ी !]

दाऊद मियां – [छींकते हुए] – आंक छीं..आंक छीं..! हाय ख़ुदा, मार डाला रे...!

[जेब से रुमाल निकालकर, नाक सिनकते हैं ! उनकी ऐसी हालत देखकर, झट चमच टेबल पर छोड़कर शमशाद बेग़म चली आती है ! दाऊद मियां के पास आकर, वह उनसे चाकू छीन लेती है ! फिर, उनसे कहती है !]

शमशाद बेग़म – [दाऊद मियां के हाथ से चाकू छीनकर, कहती है] – हेड साहब, किसने कहा था आपसे ? कि, आप काम करें ! फिर, बैठे-ठाले हुज़ूर आप नाक जला बैठे ? आते ही, कह दिया था आपको कि ‘आप कोई काम न करें !’ हम बैठे हैं ना, हुज़ूर...आपकी ख़िदमत में !

शेरखान – [नूरिये से] – बन्ना, ज़रा हाथ तेज़ चलाओ...! अरे बेशर्म अगर तू मिर्च काट लेता तो, हेड साहब का नाक न जलता ? [दाऊद मियां से] अब उठिए, हेड साहब ! ज़रा, आराम कर लीजिये ! यह नूरिया बन्ना अब काट लेगा, धाणा-मिर्च वगैरा ! बस, आप उठ जाइए ! आप फ़िक्र न करें !

शमशाद बेग़म – [नूरिये को चाकू थमाती है] – नूरिया बन्ना ! अगर तूझको बामज़ गरमा-गरम पकोड़े खाने है तो, यह ले चाकू और काट ले सारी मिर्चें ! साथ में, हरा धनिया और अदरक महीन-महीन काट लेना ! [दाऊद मियां से] अब, उठिए हुज़ूर !

[अब दाऊद मियां उठकर, हाथ-मुंह धोते हैं ! फिर शेरखान साहब के पहलू में रखी कुर्सी पर, बैठ जाते हैं !]

शेरखान – बाबा भला करे !

दाऊद मियां – सच्च है, बस अब तो ऐसे ही चलेगा ! बस, अब देण नहीं करनी ! जैसे चलता है, उसे वैसे ही चलने दो....

शेरखान – अगर देण की तो..बना बनाया काम, बिगड़ जाएगा ! बाबा भला करे, बाबा सबका भला करे !.

[स्कूल का मेन गेट खोलकर, चुग्गा खां आते दिखाई देते हैं ! उनको आते देखकर, शेरखान खड़े हो जाते हैं ! और, आक़िल मियां चहलक़दमी करते हुए, बरामदे के दूसरी ओर चले जाते हैं, जहां जाली के पास एक ही कतार में ख़ूबसूरत पुष्पों के गमले रखे हैं ! अब शेरखान साहब, दाऊद मियां से कहते हैं !]

शेरखान – लीजिये हेड साहब, बाबा भला करे ! [चुग्गा खां को आते देखकर, ज़ोर से कहते हैं] बा...अदब होशियार...कबूतरे आज़म चुग्गा खां, तशरीफ़ ला रहे हैं !

नूरिया – [मिर्च काटता हुआ, कहता है] – हाय अल्लाह ! थैली में पैसे कम, और आ गए फ़कीर ज़्यादा ! जो घटते थे, वे भी आ गए, हुज़ूर ! बामज़ हलुए की महक, अब दूर-दूर से लोगों को यहाँ खींच लायी ! बाबा भला करे !

[चुग्गाखां आते हैं, आते ही वे शेरखान साहब के निकट आकर नीमतसलीम करते हैं !]

चुग्गा खां – [नीमतस्लीम करते हुए] – आदाब हुज़ूर ! बाबा भला करे !

[शेरखान साहबअब, वापस कुर्सी पर बैठ जाते हैं !]

शेरखान – सलाम मियां ! इस वक़्त, यहाँ कैसे ? खैरियत है ? आज़ आपको, बाबा याद कैसे आ गए ?

चुग्गा खां – क्या करूँ, बाबाजी ? परेशान हो गया, इन रिश्तेदारों से ! चार रोज़ हुए जनाब, ख़ालाजान को गाँव गए...और, आज़ ख़ाज़न तशरीफ़ लाई है ! ख़ातूनेखान: का कहना है कि, ‘घर-खर्च बढ़ गया है..आप, जल्द पैसों का बंदोबस्त कीजिये ! मैं जानती हूं, आपके ख़ाजिन आक़िल मियां रहमदिल इंसान ठहरे ! उनसे, ज़ाइदअज़ उम्मीद की जा सकती है !’

शेरखान – आप क्या चाहते हैं, आख़िर ? आक़िल मिया की ज़ाइच [जन्म-पत्री] पढ़ना छोड़िये, काम की बात कीजिये..आख़िर आप, चाहते क्या हैं ?

चुग्गा खां – बाबा भला करे ! आक़िल मियां की ज़ाइच पढ़ने की, मुझे ज़रूरत नहीं ! मगर, आपका साथ मिलना चाहिए हमें..अगर आपका साथ मिल गया, तो हमारा काम फ़तेह ! बस हुज़ूर, आप आक़िल मियां के पास हमारी शिफ़ाअत लगा दें कि, वे इस तिहिदस्त को कुछ रुपये उधार दे देवें ! हुज़ूर, आप तो तो ख़ुद हम ग़रीबों के तिफ़्लेअश्क पोंछने वाले फ़क़ीर ठहरे ! तभी आपको, हम सभी बाबाजी कहते हैं !

शेरखान – हम फ़क़ीर ज़रूर हैं, इसलिए तामात नहीं करते ! ना किसी से लेना, ना किसी को देना ! तुम्हारी तसन्नो से [ख़ुशामद] हम फ़कीरों को, क्या लेना और देना ? हम ठहरे अल्लाह पाक के बन्दे, बस अल्लाह की इबादत में...

चुग्गा खां – तश्कीक में न डालो, हुज़ूर ! इस एजुकेशन महकमें में परमोशन पाना इतना आसन नहीं है, उस वक़्त आप जैसे रहमदिल इंसान मेरे लिए फ़रिश्ता बनकर आये, और आपकी तशावुर के बाद हमारा नाम परमोशन की फ़ेहरिस्त में जुड़ गया ! तश्कुर है, आपको...

शेरखान – [बात काटते हुए, कहते हैं] – तुम्हारी बातें ज़रूर हमज़ाद है, चुग्गा भाई ! मगर काम हो जाने के बाद, आप इस बाबा को भूल जाया करते हैं मियां ! याद करो, आपने क्या कहा था ? परमोशन की फ़ेहरिस्त में नाम जुड़ जाने के बाद, शिरनी चढ़ाऊंग़ा...भय्या, ये अल्फ़ाज़ तुम्हारे हैं...यह समझ लो, यह बाबा शिरनी का भूखा नहीं है, मोहब्बत का...

चुग्गा खां – [कान पकड़कर] – तौबा, तौबा...हुज़ूर, माफ़ कीजिये ! बाबा भला करे, इस बार आप आक़िल मियां के पास हमारी शिफ़ाअत लगा दीजिये...सारी कसर निकाल दूंगा, हुज़ूर ! इस आने वाले वेकेसन में, बाबा को शिरनी ज़रूर चढ़ेगी !

नूरिया – [खुश होकर] – मान जाइए, बाबाजी ! चुग्गा खां के मुंह में, घी-फ़ानिज़ ! अगले हफ्ते दाल, बाटा व चूरमे की पार्टी...तैया..र ! वाह, फिर क्या कहना ? [हाथ में आलू लेकर डांस करता है, और साथ में गीत भी गाता है] आई एम ए डिस्को डांसर..हो हो, आई एम ए डिस्को डांसर हो हो..

[मियां शेरखान उसका डांस को देखकर, हंस पड़ते हैं !]

शेरखान – [हंसते हुए, कहते हैं] – हा..हा..हा, क्या नाचता है, यह नामुराद ? ज़ोलिद:बयां है, कमबख्त ! अब जा, एक बार आक़िल मियां को बुला ला !

[नूरिया झट चल देता है, आक़िल मियां को बुलाने ! अब चुग्गा खां पानी की मटकी के पास जाते हैं, पानी लाने !]

चुग्गा खां – [शेरखान साहब को पानी से भरा लोटा थमाते हुए, कहते हैं] – लीजिये हुज़ूर ! युसुबत [सूखे] हलक़ को, आबेजुलाल से तर कीजिये !

[शेरखान पानी पीकर, लोटा वापस थमा देते हैं ! तभी नूरिया के साथ, आक़िल मियां तशरीफ़ लाते हैं ! आक़िल मियां कुर्सी पर बैठते हैं ! और इधर नूरिया बन्ना वापस आलू-मिर्च काटने बैठ जाता है, दरी पर !

चुग्गा खां – [आक़िल मियां के हाथ में, लोटा थमाते हुए] – हुज़ूर, आप भी लीजिये आबेजुलाल ! ज़रा, हलक़ को तर कीजिएगा !

[आक़िल मियां पानी पीकर, लोटा वापस चुग्गा खां को थमा देते हैं !]

आक़िल मियां – क्या अकूबत है, मियां ? बच्चों के अक़ीक का प्रोग्राम है, या अक़रिब गाँव से आने वाले हैं ? ऐसा सुना है, मियां..आपकी गली आसेबज़द: है ? कहीं आप, आसीम: तो ना हैं ? यही बात है, ना मियां ?

[सुनकर, चुग्गा खां के ज़ब्हा पर फ़िक्र की रेखाएं उभर आती है ! वे ग़मगीन होकर, कहते हैं !]

चुग्गा खां – [फिक्रमंद होकर कहते हैं] – क्या करें, हुज़ूर ? आप तो फ़हीम हैं, आपसे क्या छुपाना ? अभी तसलीमात बयान करता हूं..पहले आप अपने कमरे की चाबी दीजिएगा, कमरा खोल देता हूं ! फिर आप क़िबला, तशरीफ़ फ़रमाई कीजिये !

शेरखान – वज़ा फरमाया, चुग्गा खां ने ! कमरे में बैठकर, असूदगी के साथ आसेबज़द: होने की कहानी सुनेंगे और साथ में हलुए के लुत्फ़ का फ़हद: जो अलग होगा ! ऐसे खुले में बैठने से, मेहमानों में बढ़ोतरी होना भी वाज़िब है !

शमशाद बेग़म – [शमशाद बेग़म गैस के चूल्हे पर, पानी से भरकर भगोना रखती है] – अन्दर बैठना ही फ़ाइज है, फ़हुवल मुराद है... [भगोने में, चाय की पत्ती और फ़ानीज़ डालती है] अभी, चाय बनाकर लाती हूं !

[आक़िल मियां से चाबी लेकर, चुग्गा खां आक़िल मियां का कमरा खोलते हैं ! फिर लोटे को वापस मटकी के ढक्कन पर रखकर, वापस लौट आते हैं ! अब दाऊद मियां को छोड़कर, आक़िल मियां व शेरखान कमरे में आकर बैठ जाते हैं ! चुग्गा खां वहां रखे स्टूल पर बैठ जाते हैं ! अब चुग्गा खां अपने ऊपर गुज़रे किस्से को, सुनाना शुरू करते हैं !]

चुग्गा खां – [किस्सा बयान करते हुए] – सितारे गर्दिश थे, हुज़ूर ! गली में मकान ख़रीदने के दौरान, मोहल्ले वालों ने ख़ूब समझाया, हुज़ूर...कि, जिस मकान को आप ख़रीदने जा रहे हैं..उसी के पड़ोस में आहिर: औरत रहती है ! आप उससे, कोई रसूख़ात न रखें !

आक़िल मियां – और भी, कुछ बताया होगा ?

चुग्गा खां – कहा हुज़ूर, कि..ऐसे लोगों से दूर का सलाम ही मुनासिब है, नज़दीक आने पर बेइज्ज़त होने का ख़तरा मंडराता रहेगा ! वज़्हेखुसूमत से, क्या कर गुज़ारें...? तब तो, अल्लाह पाक ही बचाएगा ! मगर...

आक़िल मियां – मगर, ऐसी क्या है वज़्हेवरात ?

[वाकये को याद करते, चुग्गा खां की ज़ब्हा पर पसीने के कतरे छलकने लगे ! अब वे कंधे पर रखे नेपकीन से, एक-एक कतरे को साफ़ करते हैं ! फिर, आगे बयान करते हैं !]

चुग्गा खां – क्या कहूं, हुज़ूर ? ख़ातूनेख़ान: को बहुत समझाया कि, उस आहिर: औरत से दूर रहे ! मगर क़िस्मत ख़राब थी, उसने तो हमारे दिल के ख़्याल को उस ज़ाहिल औरत के सामने ज़ाहिर कर डाला !

आक़िल मियां – वाह, चुग्गा मियां ! कमाल की बीबी है, आपकी ?

चुग्गा खां – अरे जनाब, वह तो ऊपर से हमें कोसती हुई कहने लगी कि, “मियां ! दिन-भर स्कूल में बैठकर गुलछर्रे उड़ाते हैं आप, और यहाँ आपको हमारी हमकिरानी आपसे बर्दाश्त नहीं होती ? बड़े वफ़ा दुश्मन ठहरे, आप !’

[हलुए और पकोड़ों से भरी प्लेटें लेकर, शमशाद बेग़म कमरे में आती है ! चुग्गा खां उससे प्लेटें लेकर, दस्तरख़्वान सज़ा देते हैं ! अब सभी, हलुए और पकोड़े पर अपने हाथ साफ़ करते नज़र आते हैं !]

चुग्गा खां – [पकोड़े खाते हुए] – ख़ानदानी वज़ा के खिलाफ़ हम जा नहीं सकते, हुज़ूर ! ऊंची आवाज़ में बोलना, हमारी तहज़ीब के ख़िलाफ़ ठहरा ! बस चुप्पी साध ली, हुज़ूर ! वैसे हमारे एहबाबों ने मरहूम के मुत्तालिक मशहूर कर रखा है, साहेब !

शेरखान – [हंसते हुए] – ऐसा क्या कह दिया, उन्होंने ? हम भी तो, आपके एहबाब ठहरे !

चुग्गा खां – [रुंआसे होकर] – ठहरा दिया हमें, जोरू का गुलाम ! कि, ‘हम डरते हैं, अपनी जोरू से !’ मगर, सच्च यह है कि, ‘हम जोरू के गुलाम नहीं हैं, बस ख़ाली ख़ानदानी रस्म से बंधे हैं !’

[कुछ देर चुप्पी छाई रहती है ! सभी हलुआ और पकोड़े खाने का, लुत्फ़ उठा रहे हैं ! आख़िर, चुप्पी तोड़ते हुए, चुग्गा खां आगे का किस्सा बयान करते हैं !]

चुग्गा खां – ख़ुदा की कसम, हम करते नहीं गफ़्फ़ारी ! ख़ुदा गवाह है, वह गफ़्फूर है...रहमदिल है, उसने बख़्श दिया हमें ऐसा ख़ानदानी तख़रीब सलामती का काम, हुज़ूर इस पेशे से हमारा ख़ानदान बड़े-बड़े नवाबों की ख़िदमत करता आ रहा है !

शेरखान – वाह चुग्गा भाई, वाह ! कमाल के आदमी निकले, आप..! मगर, हमें समझ में नहीं आता कि, ‘ये नवाब आपको ही, क्यों बुलाते हैं ?’

चुग्गा खां – इन नवाबों के ख़ानदान का तख़रीब, हमारे बही-खातों में दर्ज है ! जब कभी उनके यहाँ, ख़ानदान-ए-चराग़ रोशन होता है...तब हमें, इज़्ज़त के साथ बुलाया जाता है ! अरे जनाब, इनके बुजुर्गों ने तो कई एकड़ ज़मीन इनायत की है, हमारे ख़ानदान को !

आक़िल मियां – क्या कहने लग गए, चुग्गा खां ? वापस आप हमेशा की तरह, आख़िर पढ़ने बैठ गए मियां.. अपने ख़ानदान की तख़रीब ? अजी इस ब्यौरे को हम आपसे, कई दफ़े सुन चुके हैं ! आख़िर, बात वही रही..कबूतर को कुआ ही नज़र आता है ! इस वक़्त आपका कुआ ठहरा, ख़ानदान की तख़रीब !

चुग्गा खां – ऐसी बात नहीं है, हुज़ूर ! गुस्ताख़ी माफ़ करें, हम ज़रा पुराने ख़्यालों में खो गए ! चलिए, अब तसलीमात अर्ज़ करता हूं सुनिए...हुज़ूर, एक रोज़ हम मुंडेर पर चले आये ! हमने क्या देखा, हुज़ूर ? कि, ‘पड़ोस के मकान में लग़ा बोर का झाड़ बहुत फ़ैल गया है ! इतना फ़ैल गया हुज़ूर कि, हमारी क़रीब आधी मुंडेर को ढ़क डाली उस कमबख्त बोर के झाड़ ने !’

शेरखान – [हंसते हुए] – अच्छा हुआ, बोर की डालियां फ़ैल गयी ! अगर आप फ़ैल जाते तो, मोहल्ले वाले थक जाते...मगर, आप हटते नहीं !

चुग्गा खां – मुज़हाक मत कीजिये ! हम तो आपके ख़िदमतगार हैं, हुज़ूर ! अब सुनिए, उसकी कई डालियों ने हमारे मकान की आधी मुंडेर रोक डाली..अब आपसे क्या कहूं, हुज़ूर ?

शेरखान – फिर क्या ? आपको, काहे की फ़िक्र ? उस झाड़ से बोर के फल आपकी मुंडेर पर गिरते जाते, और आपका काबिना उन्हें बीनकर खाने का लुत्फ़ उठाता रहा....क्यों, सही कहा ना मैंने ?

चुग्गा खां – बोर के फल को मारो, गोली ! वहां तो जनाब, कचरा इतना फ़ैल गया कि ‘उसे साफ़ करना कठिन हो गया !’ जितना कचरा उठाओ, और दूसरे दिन उससे भी ज़्यादा कचरा वापस तैयार ! कचरा ख़त्म होने का नाम ही नहीं, हुज़ूर !

आक़िल मियां – [हंसते हुए] – बदनसीब ठहरे, आपके मकान की मुंडेर पर अलमारियां रखी हुई नहीं है...अगर होती तो आप, स्कूल के तरह आप वहां भी अलमारियों के पीछे कचरा छुपा देते ! क्यों चुग्गा खां, वाज़िब है ना ?

शेरखान – अरे, कौनसा कचरा यार ? चुग्गा खां थोड़ा दिमाग़ पर ज़ोर देते, और बुला लेते किसी ग्वाले के रेवड़ को...सारा कचरा चर जाती उसकी भेड़-बकरियां ! ऊपर से मिन्गनियों के ढेर लग जाते, जिसे इकठ्ठा करके चुगा खां यहाँ स्कूल में ले आते ! बग़ीचे के लिए खाद आ जाती, और साथ में इनकी हर्ज़बुर्ज़ भी मिट जाती...खाद का फ़ायदा भी, स्कूल को हो जाता ! आम के आम, गुठली के दाम !

चुग्गा खां – सलाह के लिए, शुक्रिया ! हुज़ूर, आप पहले हमारा किस्सा सुन लीजिये ! फिर क्या करते, हम ? हमने झट उठायी कुल्हाड़ी, और मुंडेर पर फ़ैली हुई डालियों को काट डाली ! हाय अल्लाह, हमारी क़िस्मत ही ख़राब निकली ! डालियां काटते वक़्त, मुझे उस आहिर: औरत ने देख लिया ! बस फिर वह ज़ाहिल औरत ज़ोर-ज़ोर से बकने लगी, गलीज़ गालियाँ !

शमशाद बेग़म – क्या कहा, मियां ? ऐसी गलीज़ गालियाँ, एक औरत के मुंह से ?

चुग्गा खां – सच्च कहा, ख़ाला आपने ! [आक़िल मियां की तरफ़ देखते हुए] हुज़ूर, ऐसी गालियाँ हमने भी कभी नहीं सुनी..क्या करें, हुज़ूर ? हम तो शर्म के मारे, उतर गए सीढ़ियां ! मगर, वह बदमाश औरत चुप नहीं हुई !

शमशाद बेग़म – वह काहे चुप रहे, करमज़ली ? कमबख्त का मायका रहा होगा, तवायफ़ों की गली में !

चुग्गा खां – शायद, आपका कहना सच्च हो ? वह बकती रही, ‘नासपीटे तेरे ख़ानदान को चराग़ देने वाला कोई नहीं रहें ! अरे ओ, घास मंडी के कीड़े ! मेरा पेड़ काटता है, मरुंगी तब भूतनी बनकर....’

[तभी ज़ोरों की आंधी चलती है, बग़ीचे के पेड़ की डालियां तेज़ी से हिलती है ! अचानक परिंदों का झुण्ड, दरख़्तों पर बनाए घोसलों को छोड़कर..तेज़ी से, आसमान में उड़ता है ! इधर, कहते-कहते चुग्गा खां के बदन के रौंगटे खड़े हो जाते हैं ! इधर उनके हाथों में, ठंडी सिहरन दौड़ने लगती है ! उधर चूल्हे के पास खड़ी शमशाद बेग़म जो किस्सा ध्यान से सुन रही है, उसका दिल भी धक्-धक् करने लगता है ! तभी अचानक एक चुहिया, बरामदे में खड़ी बिल्ली की गंध पाकर..टी-क्लब की अलमारी के ऊपर उछलकर उससे बचने के लिए छलांगें लगाती है ! उस चुहिया का आभास पाकर, वह बिल्ली उछलकर चुहिया के ऊपर छलांग लगा बैठती है ! मगर, निशाना चूक जाता है और वह बिल्ली पास खड़ी शमशाद बेग़म के ऊपर गिर पड़ती है ! अचानक उसके गिरने से, शमशाद बेग़म के मुंह से चीख़ निकल उठती है ! उस चीख़ को सुनकर, चुग्गा खां घबरा जाते हैं ! फिर क्या ? दर्दनाक चीख़ के साथ, वे ज़ोर से कह बैठते हैं !]

चुग्गा खां – [डरकर चिल्लाते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – आ....ई....ई..ओ मेरी अम्मा, मर गया ! यहाँ भी आ गयी, चुड़ैल ! अरी, ओ फातमा आहिर:, छोड़ दे मुझे ! मैं बाल-बच्चेदार आदमी हूं, तू मेरे बीबी-बच्चों पर तो रहम खा !

[उधर डर के मारे शमशाद बेग़म का पूरा बदन सिहिर उठता है, वह आहिर: फातमा के आसेब से बचने के लिए हाथ में थामी हुई पकड़ को फेंक देती है ! जो सीधी जाकर सेबरजेट की तरह, चुग्गा मियां की टाट को चटका देती है ! दोनों हाथ ऊपर करके, चुग्गा खां चिल्ला उठते हैं !]

चुग्गा खां – [डरकर दोनों हाथ ऊपर करके, चिल्लाते हैं] – अरे अब्बाजान...मार डाला, इस आहिर: फातमा ने !

[उनके चिल्लाने से, सभी घबरा जाते हैं ! सभी भगकर कमरे से बाहर आ जाते हैं, और जैसे ही इनके क़दम बड़ी बी के कमरे की खिड़की के पास पहुंचते हैं...वहां उन्हें दाऊद मियां के दीदार हो जाते हैं, जो ज़ोरों से ठहाके लगाकर हंसते जा रहे हैं ! किसी तरह अपनी हंसी दबाकर, वे कहते हैं !]

दाऊद मियां – [हंसी दबाकर, कहते हैं] – अरे कमबख्तों ! ज़रा, मर्द बनों ! भीगी बिल्ली की तरह, क्यों भाग आये ? वह आने वाली कोई चुड़ैल नहीं थी, बेचारी बिल्ली आयी थी ! ऐसे डर गए सभी, मानों यहाँ शेर आ गया हो ? अब बैठ जाइए जाकर, कमरे में ! बेखौफ़ होकर चलिए, मैं भी आपके साथ चल रहा हूं !

[अब सभी अपने ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को, साफ़ करते हैं ! तभी, आक़िल मियां बोल उठते हैं !]

आक़िल मियां – [माथे का पसीना, साफ़ करते हुए] – अरे हेड साहब, आपने यह क्या कह डाला कि 'शेर आ गया..’ ? शेर कैसे आ सकता है, जनाब ? हमारे पास तो पहले से ही एक शेर, यानी शेरखान साहब बैठे थे !’

शमशाद बेग़म – [शेरखान की तरफ़ देखते हुई, कहती है] – क्या समझे, हुज़ूर ? कहीं आपके आबा-ओ-अजदाद, काग़ज़ी शेर से ताल्लुकात तो नहीं रखते हैं ? मुझे तो अब ऐसा ही लगता है, वे उस काग़ज़ी शेर के कुल के ही होंगे ?

[शमशाद बेग़म की बात सुनकर, मियां शेरखान आब-आब हो जाते हैं ! अब सभी वापस आकर, कमरे में बैठ जाते हैं ! बैठने के बाद, आक़िल मियां चुग्गा खां से कहते हैं !]

आक़िल मियां – [चुग्गा खां से] – कहिये, चुग्गा खां ! आगे क्या हुआ ?

चुग्गा खां – वह आहिर: औरत कहने लगी कि, ‘अब तूझे चैन से जीने नहीं दूंगी, और न मरने दूंगी ! अगर मैं मर गयी, तो इसी बोर के झाड़ पर भूतनी बनकर बैठ जाऊंगी ! आख़िर, तूने मुझे समझा क्या है ?’

[अब सभी अपनी प्लेट में रखे हलुए और पकोड़ों पर, अपना हाथ साफ़ कर चुके हैं ! चाय तैयार हो चुकी है, शमशाद बेग़म तश्तरी में चाय से भरे प्याले रखकर कमरे में आती है !]

शमशाद बेग़म – अरे, ओ फ़क़ीरे के अब्बा ! तुम्हारा पाला एक बदतमीज़ औरत से पड़ा, हाय अल्लाह यह औरत मर्दों के सामने कतरनी की तरह ज़बान चलाती है..? [चाय के प्याले, सबको थमाती है !]

चुग्गा खां – [चाय की चुश्कियाँ लेते हुए] – आगे सुनो, ख़ालाजान ! हमारी क़िस्मत ही, ख़राब निकली ! इस वाकये के बाद वह आहिर: औरत जब-तक ज़िंदा रही, तब-तक हमारे पूरे कुनबे को परेशान करती रही ! और मरी कमबख्त, अमावस की काली रात को ! सबको लगा कि, वह मरने के बाद इस बोर के झाड़ पर भूतनी बनकर बैठ गयी है !

[शमशाद बेग़म सबको चाय के कप थमाकर, गैस के चूल्हे के पास वापस आ गयी है ! और आकर एक कप में, भगोने से चाय लेकर पीने लगती है !]

शमशाद बेग़म – [चाय की चुश्की लेती हुई, कहती है] – यह काली रात ही ऐसी होती है, जब चुड़ैलें काली रस्मों को अंजाम देती है ! मैं तो यह ज़रूर कहूंगी, चुग्गा मियां ! अमावस की रात को वह आहिर: औरत, मरकर ज़रूर भूतनी बनी होगी ?

चुग्गा खां – आगे सुनो ! एक रोज़ तेज़ आंधी चली, हुज़ूर ! मुंडेर पर सूख रहे कपड़े, फर-फर उड़ने लगे ! बेचारा फ़कीरा दौड़ा घर के बाहर, और रमज़ान दौड़ा मुंडेर पर कपड़े लाने ! तक़रीबन सभी कपड़े आ गए, मगर बेग़म को...ख़ुदा जाने क्या हो गया ?

आक़िल मियां – कह दीजिये, क्या हुआ आपकी बीबी को ?

चुग्गा खां - वह कपड़े गिनकर क्या बोली, हुज़ूर..इन प्यारे-प्यारे बच्चों को ? तल्ख़ी से बोली, “हरामज़ादों ! बाप पर गए हो, आख़िर ! कमबख्तों, मेरी सलवार लाना भूल गए ? बोर के झाड़ पर टंगी मेरी सलवार, तुम-दोनों को नज़र नहीं आयी ?”

शमशाद बेग़म – कपड़े कितने आये या कितने नहीं आये, यह सब घर की औरत ही जानती है ! सभी मर्दों का एक ही काम है, बैठे-बैठे तमाशा देखना ! घर की सारी जिम्मेदारी, एक औरत ही संभाल सकती है !

चुग्गा खां – आप किस्सा सुनती रहे, ख़ाला ! बीच में बोला न करें !

शेरखान – सबकी ख़ातूने ख़ान:, ऐसी ही होती है ! कोई हाथ चलाती है, तो कोई ज़बान !

दाऊद मियां – अरे ओ, शेरखान साहब ! ग़नीमत है कि, आपकी बीबी के पास ज़बान है, शमशीर नहीं ! न तो वह आपके मोहल्ले के कम से कम तीन-चार मुसाहिबों को ज़मीन पर ढेर कर देती ! और इस जुर्म में आप भी, अन्दर धर लिए जाते ?

चुग्गा खां – हुज़ूर, इनकी ख़ातूने ख़ान: की तारीफ़ बाद में करना...अभी आप हमारी बेग़म का किस्सा सुन लीजिये !

दाऊद मियां – सुनाइये, जनाब ! अल्लाह कसम, आपको किसने रोका है ?

चुग्गा खां – सुनिए जी...वह आगे बोली, “आँखें खोलकर, काम किया करो ! हाय अल्लाह, क्या यही सलीका सिखाया तुम्हारे बुजदिल बाप ने ?” इतना कहकर, उसने आव देखा न ताव ! बस, झट सीढ़ियां चढ़कर पहुंच गयी छत्त पर ! वहां जाकर, ज़ोर-ज़ोर से बकने लगी...

शमशाद बेग़म – [डरती है, और इमामजामीन को चूमती हुई कहती है] – अरे मियां, वह काली रात थी ! आपने कैसे जाने दिया, अपनी बीबी को...छत्त पर ? हाय अल्लाह, वहां तो चुड़ैलों का नाच हो रहा होगा ?

चुग्गा खां – अरे ख़ाला, बीच में मत बोलो ! आपकी बात सुनकर, मेरे तो पाँव थर-थर कांप रहे हैं ! ख़ुदा रहम, ख़ुदा रहम ! [दुआ के लिए, अपने हाथ ऊपर उठाते हैं] या मेरे परवरदीगार, इस फातमा आहिर: के आसेब को यहाँ आने न देना ! [उठे हुए हाथ, वापस नीचे लेते हैं] आमीन !

आक़िल मियां – यह क्या ? ख़ुद डर गए, मगर आप दूसरों को डराओ मत ! ख़ालाजान को अभी घर जाते वक़्त, सुनसान तालाब के किनारे-किनारे चलते हुए रास्ता पार करना है ! जानते हो, तुम ? कुछ दिन पहले उस तालाब के किनारे ऑटो-ड्राइवर रामदीन का क़त्ल हुआ था ! ख़ुदा खैर करे, कहीं वह ख़बीस बनकर तालाब के किनारे चक्कर न काट रहा हो ?

चुग्गा खां – [डरते हुए] – अरे जनाब, ऐसा मत कहिये..सबको घर लौटना है ! पहले आप, किस्सा झट सुन लीजिएगा ! मुझे भी इस काली रात में, सुनसान रास्ता पार करना है ! सुनिए, बीबी का कहना बिलकुल सही था...वास्तव में उसकी सलवार, बोर की डाल पर टंगी थी ! बस हमने तो बेग़म के गिरने की “धड़ाम” करती आवाज़, उसकी चीख़ के साथ सुनायी दी ! चीख़ सुनकर, हम अंडर पर चले आये ! मुंडेर पर जाकर, क्या देखा ?

[अब सभी अपनी चाय पी चुके हैं, चाय पीने के बाद सभी अपने ख़ाली कप टेबल पर रख देते हैं !]

शमशाद बेग़म – [ख़ाली कप उठाती हुई, कहती है] – अरे चुग्गा मियां, डराने का काम मत करो ! हमें घर लौटते वक़्त तालाब के किनारे-किनारे चलना है ! ख़ुदा जाने, कहीं रामदीन का भूत हमारा रास्ता न रोक दे ?

[चुग्गा खां क्यों सुने, ख़ाला की बात ! उनको तो आक़िल मियां से रुपये उधार लेकर, जल्दी घर लौटना है ! शमशाद बेग़म काम में लिये गए सारे बरतनों को, धोने के लिए नल के नीचे रख देती है ! फिर, सबको पानी पिलाने के लिए मटकी के पास चली आती है ! उधर चुग्गा कह रहे हैं, कि..]

चुग्गा खां – सुनो हाथ में सलवार पकड़े, वह फर्श पर अचेत पड़ी थी ! अरे जनाब, वह थी अमावस की भयानक रात..आसमान में बिजलियाँ चमक रही थी, पेड़ों की डालियों पर बैठे उल्लू कूक रहे थे ! बस्ती के बाहर, सियार मुंह ऊपर किये हुए ऊंची आवाज़ में एक साथ कूक रहे थे ! फिर क्या ? हमने पड़ोसियों की मदद लेकर, बेग़म को नीचे दालान में लाकर सुलाया ही था..!

[बस, इतना ही कहा, चुग्गा खां ने...? तभी सायं-सायं की आवाज़ करती तेज़ हवा बहती है, और एक बार हवा का झोंका ऐसा आता है...जिससे ज़ोर की आवाज़ करती हुई, कमरे की सारी खिड़कियाँ एक साथ खुल जाती है ! खिड़कियों के एक साथ खुलते ही, स्कूल की सारी बत्तियां गुल हो जाती है ! अचानक खुली खिड़की के निकट एक सफ़ेद साया गुज़रता हुआ, चार दीवारी फांदकर गायब हो जाता है ! डर की एक लहर उठती है, और इस सन्नाटें में सबके रौंगटे खड़े हो जाते हैं ! अब इस सन्नाटें को चीरती हुई शमशाद बेग़म के पांवों की पदचाप, धीरे-धीरे सुनायी देती है ! उसकी पदचाप के साथ, पांवों में पहने पायलों की खनकती आवाज़ इस गहन अन्धकार में साफ़-साफ़ सुनायी देती है ! पायलों के बजने की झुन...झुन....झुन करती यह आवाज़, धीरे-धीरे इतनी नज़दीक आ जाती है...कि, सबके पाँव थर-थर कांपने लगते हैं ! अचानक यह पायलों की खनक चुग्गा खां के बिलकुल पास आ जाती है, और न मालुम वह क्यों ठंडे पानी से भरे लोटे को चुग्गा खां के हाथ में थमा देती है ? फातमा आहिर: के ख़्यालों में खोये चुग्गा खां को, अपनी हथेली बर्फ जैसी ठंडी महशूश होने लगती है ! ऐसा अहसास होता है, मानों उसकी हथेली से किसी ख़बीस ने खून चूष लिया हो ? ऐसी हालत में चुग्गा खां, अपने हाथ में बर्फ के सामान ठन्डे लोटे को थाम तो लेते हैं...मगर, यह क्या ? इस ठंडक का अहसास पाते ही, चुग्गा खां घबरा जाते हैं ! और उधर खिड़की के बाहर चुग्गा खां की निग़ाहें गिरकर, न मालुम कौनसा मंज़र देख लेती है ? जिसे देखकर, उनके तो होश उड़ जाते हैं ! चारदीवारी के पास, वो सफ़ेद साया वापस चला आया है, और अब वह धीरे-धीरे चल रहा है..जिसके पीछे-पीछे एक दाढ़ी वाला काला साया भी धीरे-धीरे चल रहा है, जिसके पांवों में बंधे घुंघरू छन-छन की आवाज़ करते हुए लगातार बजते जा रहे हैं ! उन दोनों सायों को देखते ही चुग्गा खां डर के मारे थर-थर कांपने लगते हैं, और बरबस उनके मुंह से चीख़ निकल जाती है ! अब ऐसी हालत में चुग्गा खां इन कांपते हाथों में, लोटा कैसे संभाल पाते..? बचने के लिए, झट उसे उछाल देते हैं ! मगर, यह क्या ? वह लोटा खिड़की की तरफ़ न जाकर, कमरे में अन्दर दाख़िल हो रहे नूरिया बन्ना के सर को चटका देता है ! उधर डर से थर-थर कांप रहे चुग्गा खां, चीख़ते हुए ज़ोर से बोल उठते हैं !]

चुग्गा खां – [चीख़ते हुए] – मर गया, अब्बा हुज़ूर ! अरी ओ चुड़ैल, अब तो मेरा पीछा छोड़ ! अमावस की रात को आकर, बांकले खा लेना !

नूरिया – [चोटिल हुए सर को, दबाता हुआ] – बांकले नहीं, जनाब ! अब तो आपसे चार दफ़े दाल, बाटी और चूरमे की पार्टी वसूल करेंगे ! ख़ुदा रहम ! आपने तो मेरे सर को तरबूज समझकर, फोड़ डाला ..?

चुग्गा खां – [चीख़ते हुए] – अरे, ख़बीस की औलाद ! तेरी दाल, बाटी और चूरमे की पार्टी गयी जहन्नुम में ! तूझे खिलाये, मेरी जूत्ती ! मैं तो बांकले खिलाऊंगा, उस चारदीवारी के पास खड़े..[चारदीवारी के पास खड़े साए की तरफ़, उंगली उठाकर] उस आसेब को !

[चुग्गा खां की चीख़ सुनकर, चारदीवारी के पास खड़े सफ़ेद साए की आवाज़ अब डरावनी हंसी के ठहाकों में बदल जाती है ! ठहाकों के साथ, उस साए की आवाज़ अट्टहास करती हुई दूर-दूर तक गूंज उठती है !]

सफ़ेद साया – [अट्टहास करती हुई, आवाज़ गूंज़ती है] – हाहा..हाहा....हा ! अरे, ओ चुग्गा मियां ! बांकले कौन खायेगा, यार ? हम तो खायेंगे, गुलाब हलुआ ! [फिर क्या ? हंसी के ठहाके गूंज़ाता हुआ वह सफ़ेद साया, दीवार फांदकर चला जाता है !]

शमशाद बेग़म – अरे ओ, फ़क़ीरे के अब्बा ! बेमाना ग़म को लेकर क्यों बैठ गए, तुम ? अरे लोगों की तख़रीब लिखने वाले मुअज्ज़म, ज़रा अपनी तख़रीब भी लिख डालो !

चुग्गा खां – [घबराते हुए] – अब क्या लिखना बाकी रह गया, ख़ाला ? यहाँ तो बीत रहा है वाकया, उसे देखकर सारा खून ज़मने लगा है ?

शमशाद बेग़म – चुग्गा खां, अब मैं बेमहाबा अर्ज़ करती हूं ! अब हमारी जोईदनी दूर करो जल्द ! डरो मत, वह साया भूत नहीं था...कमबख्त, पानी की टंकी का चौकीदार रज्जब था, और दूसरा दाढ़ी वाला काला साया उसका बकरा था मियां ! जिसे बकरीद के रोज़ हलाल होना है, इस कारण उसकी टांगों में रज्जब ने बाँध रखे हैं घुंघरू ! अब एक बार बोल दो कि, हम काम निपटाकर घर जायें या नहीं...............?

[नूरिया लोटे में पानी भरकर लाता है, फिर उस लोटे को टेबल पर रख देता है !]

चुग्गा खां – [हौसला रखते हुए] - क्या बेदिरेग बयान करें, ख़ाला ? उस काली आमवस्या की रात का जिक्र है, कुछ ऐसी है बेदिली छा जाती है....[पानी पीते हैं] आप मुज़्तर है, सुनने के लिए..बेदिली अब क्या काम की ? ख़ामोशी से सुनें, फिर क्या ? बीबी हाथ-पाँव फेंकने लगी ! क़ाबू में नहीं आ रहा था, उसका जिस्म ! बकती जा रही थी, गलीज़ गालियाँ !

शमशाद बेग़म – हाय परवरदीगार ! ऐसी-ऐसी, गालियां..? आपने अपने ख़ानदान में, कभी नहीं सुनी होगी ? उस घड़ी को याद करके, अभी तुम्हारा दिल थम गया होगा ? हाय अल्लाह ! मुज़्तरिबुलहाल सब देखना पड़ा, आपको ? यही कहना चाहते हो, चुग्गा खां ?

चुग्गा खां – जी हां, वह भी उन पड़ोसियों के साथ ! उनमें से कोई कह रहा था “अजी, यह तो आसेबज़द: है ! ज़रा याद करो, अभी तेज़ आसिफ़ [आंधी] चली, बोर के पेड़ पर आसेब है, बस आप तो मोमिनों की मस्ज़िद वाले मुल्लाजी को बुला लाओ ! वे आसेब निकालने के, फ़ज़िले अज़ल्ल है !

शेरखान – अरे चुग्गा मियां, आपका किस्सा सुनते-सुनते डर के मारे हमारी नींद उड़ गयी ! आगे बोलो, मियां !

चुग्गा खां – इतना सुनते ही, बेग़म की आवाज़ बदल गयी...ऐसा लगने लगा “कहीं दूर से कर्कश गुर्राहट की आवाज़ आ रही है !” उसने झट उस पड़ोसी का गला पकड़ लिया, और धमकाती हुई कहने लगी “साले ज़ेरेमश्क तेरी यह हिम्मत, जौफ़ेबाह का मरीज़ ! मेरे सामने बोलता है..ज़िंदा थी, तब दूर भागता था ! बोर के पेड़ का नाम लिया, तो तेरी खैर नहीं !”

आक़िल मियां - फिर, क्या हुआ ?

चुग्गा खां – इतना कहकर, उसने पड़ोसी का गला छोड़ दिया ! और, बेग़म वापस बेहोश हो गयी ! पड़ोस में रहने वाले कम्पाउंडर साहब को आप जानती हैं ना, ख़ाला ?

शमशाद बेग़म – हां, हां जानती हूं ! तूर्रे वाली टोपी पहनने वाले अल्लानूर साहब को, कौन नहीं जानता ? उनकी एक दख्तर अपनी स्कूल में पढ़ती है, क्लास सातवी में !

चुग्गा खां – बस, उन्होंने आकर एक नशे का इंजेक्शन लगाया, तब कहीं जाकर वह रात ख़ामोशी से बीती ! उस दिन के बाद ख़ाला मैं इतना डर गया, अमावस की रात से...रोम-रोम खड़े हो जाते हैं मेरे, उस वाकये को याद करके ! अब तो हर अमावस की रात, बेग़म को दौरा पड़ता है पागलपन का !

शमशाद बेग़म – सुना है, आपकी ख़ाजन आयी हुई है ?

चुग्गा खां – ख़ालाजान ! चार रोज़ बाद ख़ाजन तो चली जायेगी, तब क्या होगा ? सोचता हूं, अम्मीजान को गाँव से बुला लूं ! अब समझ गयी ना, ख़ाला..क्यों मैं बार-बार घर जाता हूं ? [रुंआसे होकर कहते हैं] कबूतर हूं ना...कबूतर को कुआ ही दिखाई देता है..बार-बार !

[तेज़ हवा का झोंका आता है, खिड़कियाँ व दरवाज़े हिलते हैं ! फिर वापस छा जाती है, ख़ामोशी ! सुर्यास्त हुए, काफी वक़्त बीत गया है ! आकाश की लालिमा, अब कहीं नज़र नहीं आ रही है ! धीरे-धीरे, आसियत का गहन अन्धकार फ़ैल गया है ! इस ख़ामोशी में, अब शमशाद बेग़म के लबों से कही बात गूंज उठती है !]

शमशाद बेग़म – बड़ी दर्दनाक दास्ताँ है, मियां ! [आक़िल मियां से] हुज़ूर, इनकी मदद ज़रूर करना ! ये बेचारे, ज़रूरतमंद ठहरे ! एक तारीख़ को रुपये वापस लौटा देंगे, हुज़ूर ! अम्मीजान को लाना भी ज़रूरी है, न तो ये रात की ड्यूटी कैसे देंगे..यहाँ ?

[अब शमशाद बेग़म थैली उठाकर, चुग्गा खां से कहती है !]

शमशाद बेग़म – मियां, मैं अब रुख़्सत हो रही हूं ! आसियत का अँधेरा फैलता जा रहा है ! क्या करूँ, अकेली औरत हूं ! रास्ते में तालाब के सूने तट से गुज़रना पड़ेगा, मियां आपको कोई जल्दी नहीं है ! बस, आप बरतन साफ़ करके घर चले जाना !

चुग्ग खां – डरना मत, रामदीन के ख़बीस से ! पूरे रास्ते, पीर दुल्हे शाह का वज़ीफ़ा पढ़ते जाना ! ख़ुदा करीम है, वह सब ठीक करेगा !

[शमशाद बेग़म थैली में टिफिन रखती है, फिर थैली लिए चल देती है ! नूरिये बन्ना की प्लेट ख़ाली हो जाती है, अब वह कड़ाव में चमच डालकर हलुआ लेता है, और उसे अपनी ख़ाली प्लेट में डाल देता है ! फिर उसे लुत्फ़ से खाता हुआ वह, वहां बैठे मुलाज़िमों को सुनाने लगता है !]

नूरिया – हलुआ खाओ पेट भर, भूल जाओ आसेब को !

[सुनकर, सभी हंसने लगते हैं ! नूरिया हलुआ खाकर, मस्त हो जाता है ! फिर क्या ? साईकल की चाबी को हाथ में लेकर उसे गोल-गोल घुमाता हुआ, वह मिथुन चक्रवर्ती की स्टाइल में डिस्को डांस करने लगता है ! सभी तालियाँ बजाते हुए, उसका ज़ोश बढ़ाने लगते हैं ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है !

अंक छह मंज़र दो आया था मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ने और अब गले पड़ गए रोज़े ?” राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

[मंच रोशन होता है ! सुबह का वक़्त है, चुग्गा खां स्कूल के बरामदे में चहलक़दमी करते हुए टी क्लब की टेबल के पास आते हैं ! वहां टेबल के पास ही कबूतरों के अनाज का डब्बा रखा है ! उस डब्बे को खोलते हैं, फिर उसमें कटोरी डूबाकर वे कबूतरों का अनाज [मक्की और गवार] बाहर निकालते हैं ! फिर कबूतरों को चुग्गा चुगाने के लिए, ग्राउंड में चले आते हैं ! वहां आकर चुग्गा खां कबूतरों को बुलाने के लिए उन्हें आवाज़ देते हैं “आओ, आओ !” आसमान में उड़ रहे कबूतरों के झुण्ड की निग़ाह, धान के कटोरे पर गिरती है ! चुग्गा खां झट अनाज के दानों को भौम पर बिखेर देते हैं ! उन दानों पर निग़ाह पड़ते ही, कबूतरों का झुण्ड ज़मीन पर उतरकर अनाज के दाने चुगने लगता है !]

चुग्गा खां – [आसमान को देखते हुए] – मुल्ला उमर की चादर छोटी थी, फिर भी पाँव पसार दिए ज़्यादा ! हाय अल्लाह, फिर तो गज़ब हो गया ! मियां बुश ने, आव न देखा न ताव...बस दाग दिए गोले बम के...अफ़गानी ज़मीन पर !

[बग़ीचे में पौधों को पानी दे रहे मियां मेमूना भाई, न जाने क्यों इनके बोले गए जुमले पर अपने कान दे बैठते हैं ! सुनते ही, वे ठहाके लगाकर हंस पड़ते हैं ! फिर पानी के पाइप को दूब में खुला छोड़कर, चुग्गा खां के नज़दीक चले आते हैं !]

मेमूना भाई – अमां यार, आसमान से, नीचे उतर आओ...बुश के आस्मोंशिग़ाफ़ दनदनाते गोलों को छोड़ो, मियां ! बड़ी बी ने भेजा है ख़त, तुम्हारे नाम ! जो इन आस्मोंशिग़ाफ़ दनदनाते गोलों से कम नहीं...अब इस ख़त को पढ़ लो, पहले ! पढ़ते ही, आपके हाथ के तोते उड़ जायेंगे !

[मेमूना भाई जेब से ख़त निकालकर, उनके हाथ में दे देते हैं ! उस ख़त को पढ़ते ही, चुग्गा खां का दिल कांप जाता है !]

चुग्गा खां – [होंठों में ही] – किस नापाक दोज़ख के कीड़े ने, बड़ी बी को काट खाया..और जिसके कारण, इस आहनें ज़िगर मोहतरमा ने रद्द कर दी हमारी छुट्टियां ? हाय अल्लाह, अब क्या करूँ ?

[बड़बड़ाते हुए मियां, वापस आ जाते हैं बरामदे में ! फिर अनाज के डब्बे में ख़ाली कटोरी रखकर, अपने क़दम वापस बग़ीचे की ओर बढ़ा देते हैं ! चलते-चलते, वे बड़बड़ाते भी जा रहे हैं !]

चुग्गा खां – [बड़बड़ाते हुए] – हाय अल्लाह, इस बेदर्द मोहतरमा ने अलग से लगा दी, हमारी आसियत [रात] में ड्यूटी..इस स्कूल में ! इस दफ़े बरसात आयी है, बिल्कुल सही वक़्त पर ! ज़माना अच्छा होगा..कुओ में अभी पानी है, बड़ी मुश्किल से रुपयों का जुगाड़ करके हमने राईड़े की फ़सल उगा डाली ! सोचता हूं, भय्या दो पैसे कमा लूँगा ! मगर यह कमबख्त बिजली आती है, रात को..और उस वक़्त खेत में पानी देने के लिए, हमारा गाँव में ही रहना ज़रूरी है...छुट्टियां लेकर !.

[चुग्गा खां को बड़ाबड़ाते हुए आ रहे हैं, बग़ीचे में ! इनको आते देख लेते हैं, मेमूना भाई ! फिर क्या ? पाइप को बग़ीचे की दूब में खुला छोड़कर, झट उनके पीछे लग जाते हैं !]

चुग्गा खां – [बड़ाबड़ाते हुए] – और रात को, हम स्कूल में ! अब खेत में पानी कैसे दूंगा, मेरे मोला ? अब इस रात की ड्यूटी ने, हमारी इन्जाहेमराम हराम कर दी...बड़े जतन से लोगों का अहसान लेकर, रुपयों का इंतज़ाम किया था ! अब ये फ़सलें तैयार खड़ी है, मगर अब इन फ़सलों को पानी कैसे दें ?

[एक घंटे पहले इस नूरिये ने केला खाकर, उसका छिलका बग़ीचे में फेंक दिया था ! अब इस वक़्त चुग्गा खां की तरफ़ बढ़ते मेमूना भाई इतनी तेज़ी से चल रहे हैं, जनाब को रास्ते में पड़ा केले का छिलका नज़र नहीं आ रहा है, कारण यह है..आली जनाब को, मियां चुग्गा खां को छेड़ने में मज़ा आता है ! उनको छेड़ने के लिए उन्होंने उतावली से चुग्गा खां की ओर जाने के इए क़दम बढ़ाया है और देखा नहीं ज़मीन की तरफ़...फिर क्या ? छिलके को न देख न पाने की वाज़ह से मेमूना भाई...चारों खाना चित्त होकर, ज़मीन पर गिर पड़ते हैं ! और उठते वक़्त फिर इनका पाँव केले के छिलके पर आ जाता है..ख़ुदा रहम, यह क्या ? मेमूना भाई एक बार और, नीचे गिरते हैं ! तभी बग़ीचे में बैठी बच्चियों की निग़ाह ज़मीन पर पड़े मेमूना भाई पर गिर जाती है, फिर क्या ? वे ज़ोर-ज़ोर से, हंसती है ! मगर, चुग्गा खां को इस मंज़र से कोई लेना-देना नहीं ! वे तो बड़बड़ाते हुए, बग़ीचे में लगी पत्थर की बैंच पर आकर बैठ जाते हैं ! बच्चियों का ख़िलखिलाकर हंसना मेमूना भाई को ऐसा लग रहा है, मानों कोई शैतान का ख़ालू उनके पूरे बदन पर कांटें चुभाता जा रहा है ? बेचारे मेमूना भाई गुस्से को बर्दाश्त करते हुए, उस बैंच की तरफ़ बढ़ते हैं ! जहां पहले से, चुग्गा खां बैठे हैं ! मगर, अभी-तक उनका बड़बड़ाना ज़ारी है !]

चुग्गा खां – [बड़ाबड़ाते हुए, कहते हैं] – कभी कोई वक़्त था, जब दाऊद मियां हम पर पूरा भरोसा करते थे ! और कहते थे ‘चुग्गा खां ड्यूटी के प्रति वफ़ादार [सादिक़] हैं ! मगर जबसे हमने ड्यूटी से भगकर घर जाना शुरू किया है, और रंगे हाथ पकड़े गए...तब से दाऊद मियां और बड़ी बी, हम पर भरोसा नहीं करती ! यही कारण है, बड़ी बी और दाऊद मियां ने साज़िश रचकर, ऐसे वक़्त हमारी रात की ड्यूटी लगा दी..जब हमारी ज़रूरत, खेत में खड़ी फ़सल को पानी देने की थी ! सारा मंसूबा, धरा रह गया ! सभी जानते हैं, बिना पानी सब सून ! हाय, मदीना पीर ! यह क्या हो गया, परवरदीगार ? अजी पानी नहीं तो साख़ ख़त्म, फिर कौन करेगा, इंसान पर भरोसा ? यह तो हमारी साख़ ही ऐसी, जिससे चल रही है घर-गृहस्थी की गाड़ी ! यहाँ तो महिना ख़त्म होने पहले, घर का राशन ख़त्म !

[इनका अभी-तक बड़बड़ाया जाना, मेमूना भाई को अख़रने लगा ! मगर, यहाँ तो चुग्गा खां को किसकी परवाह ? जनाब तो, बड़ाबड़ाते ही जा रहे हैं !]

चुग्गा खां – [बड़ाबड़ाते हुए] – बस, इस साख़ के कारण ही, आक़िल मियां से रुपये उधार मिल जाते हैं ! फिर क्या ? एक तारीख़ को उधार चुकाना, और दस तारीख़ को वापस रुपये उधार लेना ! इस तरह हमारी बेंक में जमा राशि, खर्च होने से बच जाती है...मगर जनाब, इसके लिए कई बार पापड़ बेलने पड़ते हैं ! आख़िर, इस साख़ को बचाने के लिए !

[अब मेमूना भाई से रहा नहीं जाता, उनके पास आकर उनके कंधें झंझोड़ डालते हैं ! अब कहीं जाकर, चुग्गा खां वर्त्तमान में लौट आते हैं !]

मेमूना भाई – क़िस्मत की भैंस बैठ गयी, पानी में ! क्या आप इस शागिर्द से, गुफ़्तगू करेंगे ? [चुग्गा खां को चुप पाकर, उखड़ते हुए बोलते हैं] वाह, हमें क्या पड़ी है ? किसी के फटे में, अपना पाँव फंसाए ? चलते हैं, भाई !

[मेमूना भाई चलते हैं, और जाकर बग़ीचे में वापस पानी देना शुरू करते हैं ! अब चुग्गा खां अपने दोनों हाथ अल्लाह से दुआ माँगने के लिए ऊपर उठाते हैं !]

चुग्गा खां – [दोनों हाथ ऊपर उठाकर, दुआ माँगते हैं] – ए ख़ुदा, मैं तेरी इतनी ख़िदमत करता जा रहा हूं, मगर तू मेरे ऊपर रहम नहीं खाता ? तुम तो जानते ही हो, इन भोले-भाले कबूतरों के लिए अनाज का बंदोबस्त करना इतना आसान नहीं है ! ख़ुदा रहम, इन बेरहम मोहतरमाओं को सवाब के बारे में समझाते समझाते... मेरी ज़बान थक गयी...

[कहते-कहते चुग्गा खां की आँखें नम हो जाती है, जेब से रुमाल बाहर निकालकर वे आँखें पोंछते हैं ! फिर वापस, दोनों हाथ उठाकर अल्लाह पाक से कहते हैं !]

चुग्गा खां – ए मेरे मोला, आख़िर कितनी बार कहूं इनसे कि ‘अज़गर करे ना चाकरी, पंछी करे न काम ! बख्शे मियां रसूल जो, दिल से करे ज़क़ात !’ इतनी कोशिश करने के बाद, ख़ुदा रहम ! यह डब्बा भरता है, अनाज से ! इतनी इंजाज के ख़ातिर इन दुश्मनों ने, मुझे एक नाम दे दिया ‘चुग्गा खां’ !

[बेचारे चुग्गा खां, आख़िर क्या करें ? हताश होकर, साईकल उठाते हैं...उस पर सवार होकर घर की ओर बढ़ते हैं ! रास्ते में बराबर अल्लाह पाक से इल्तज़ा करते जा रहे हैं !]

चुग्गा खां – [साईकल चलाते हुए] – तू अकबर है, करीम है ! मेरी इंजाह पूरी कर, और बचा दे मुझे ख़ातूने ख़ान: के खौफ़ से ! क्या करूँ, मेरे अल्लाह..अब तो मेरा घर जाना भी, इतना आसान नहीं रहा ! वह तो नाईट ड्यूटी का नाम सुनते ही, भड़क जायेगी !

[कुछ मिनट बाद, वे अपने ग़रीबखाने पहुंच जाते हैं ! दरवाज़े के पास खड़ा फ़कीरा इनको देखते ही, इनसे लिपट जाता हैं..प्यार से !]

फ़कीरा – आज़ अब्बा जल्दी आ गए...जल्दी आ गए ! अब चलेंगे, मेले में ! अब्बू, मुझे बन्दूक ज़रूर दिलाना !

चुग्गा खां – [उसे हटाते की कोशिश करते हुए] – हट जा, मेरे शहज़ादे ! मेला शाम को होगा, अभी मेला लगा नहीं ! मुझे शाम को वापस स्कूल जाना है ! कारण यह है, मेरी लग गयी है नाईट ड्यूटी ! बता बेटे, तब कैसे चलूँगा तेरे साथ मेले में ? बन्दूक तो बेटे, बाद में ख़रीद लेंगे ! मेरे बच्चे तू रोना मत, तू मेरा बहादुर बेटा है !

[उधर घर के अन्दर फ़कीरे की अम्मी तमतमायी हुई, कहती जा रही है !]

फ़क़ीरे की अम्मी – [गुस्से में] – ला दो बन्दूक, और चला दो दनादन मुझ ग़रीब पर ! जान-बूझकर लगवा दी, अपनी नाईट ड्यूटी ! सब जानती हूं, क्या करते हो तुम ? रात की चौकीदारी में आहिर: औरतों के साथ अपना वक़्त गुज़ारते हो...?

[नज़दीक आकर चुग्गा खां उसके लबों पर, हाथ रखकर उसे चुप करवा देते हैं ! फिर कहते हैं, उससे]

चुग्गा खां – [उसके लबों पर, हाथ रखते हुए] – बेग़म, क्या कह रही हो ? तुम्हारी आवाज़ सुनकर, मोहल्ले वाले क्या का क्या समझ लेंगे ?

[फ़क़ीरे की अम्मी लबों पर रखा हाथ दूर करके, कहती है !]

फ़क़ीरे की अम्मी – [भड़ककर, हाथ हटाती हैं] – भाड़ में जाओ तुम, और तुम्हारे ये मोहल्ले वाले ! ख़रीदकर लाई हुई कनीज़ नहीं हूं, जो तुम्हारे कहते ही मैं चुप हो जाऊं ? इज़्ज़त की बात करते हो मियां, और यहाँ रात में मुझे घर पर अकेला छोङकर चले जाते हो ? यह कहाँ का इंसाफ़ है ?

चुग्गा खां – [हाथ जोड़कर] - बस करो, बीबी ! अभी आवाज़ सुनकर, कहीं यहाँ हमारे पड़ोसी एकत्रित न हो जाय ?

फ़क़ीरे की अम्मी – [कमर पर, अपने दोनों हाथ रखती हुई] – बस..तुम्हें तो रोटियाँ तोड़ते वक़्त बीबी का ख़्याल आता है..कह देती हूं, फ़क़ीरे के अब्बा ! या तो छोड़ दो रात की चौकीदारी, या फिर कहना मत मरी फातमा का आसेब लग आया मुझे !

[कहते-कहते उनकी ख़ातूने ख़ान की आँखों से, तिफ़्लेअश्क गिर पड़ते हैं ! यह मंज़र देखकर, चुग्गा खां का दिल पसीज जाता है ! आहूचश्म से निकले उसके आंसूओं को, पोंछते हैं ! अपनी मेहरारू का ग़म मिटाने के लिए, अब चुग्गा खां बेग़म को बाहों को भरते हुए कहते हैं !

चुग्गा खां – [बेग़म को बाहों में भरते हुए, कहते हैं] – नाराज़ मत हो, मेरी आहूचश्म मेहरारू ! देख, तेरे पास फ़क़ीर और रमज़ान जैसे बहादुर बच्चे हैं...अम्मीजान को ख़त भेजा है, वह भी जल्द आज़ आ जायेगी ! फिर, काहे का डर ? अल्लाह पाक के मेहर से, फातमा का आसेब कोसों दूर...समझी, फ़क़ीरे की अम्मी ?

फ़क़ीरे की अम्मी – क्या कहा, मियां ? उस नकचढ़ी सास को लाकर, यहाँ बैठाओगे..? घर का कोई काम-धाम वह करेगी नहीं, बीच चौक में बैठी-बैठी पान की गिलोरी चबाती रहेगी...और, छत्तीस बार चाय मांगकर मुझे परेशान अलग से करेगी !

[बेचारे बीबी के आगे, चुग्गा खां क्या बोलते ! चुप्पी साध लेते हैं ! वक़्त बीतता जा रहा है, कुछ वक़्त गुज़र जाने के बाद सूरज पश्चिम दिशा की ओर अस्त होता नज़र आता है ! गाँव से अम्मीजान आ चुकी है, वह दालान में बैठी-बैठी पान-दान से पान की गिलोरियां तैयार करके पान की डिबिया में रखती जा रही है ! कुछ ही एर में गिलोरियां तैयार हो जाती है, तब वह एक गिलोरी को उठाकर अपने मुंह में ठूंसती है ! अब चुग्गा खां आले में रखी टोर्च उठाते हैं ! फिर कोने में रखी लाठी हाथ में थामकर, अम्मीजान से कहते हैं !]

चुग्गा खां – स्कूल जा रहा हूं, अम्मीजान ! दुल्हन का ध्यान रखना ! ख़ुदा हाफ़िज़ !

[चुग्गा खां साईकल पर सवार होकर स्कूल की ओर बढ़ते हैं ! कुछ ही दूर गए होंगे, तभी एक काली बिल्ली उनका रास्ता काटकर निकल जाती है ! इस अपशुगुन को देखकर मियां का दिल थम जाता है..मगर वे ख़ुदा रहम, ख़ुदा रहम कहते स्कूल पहुंच जाते हैं ! अब, स्कूल का मंज़र सामने आता है ! वे स्कूल में दाख़िल होते हैं ! साईकल को खड़ी करके, वे जाली का ताला खोलते हैं ! स्कूल के बरामदे और ग्राउंड की सभी ट्यूबलाइटें जला देते हैं ! फिर वापस आकर बड़ी बी के कमरे के बाहर रखे स्टूल पर बैठ जाते हैं ! स्टूल के पास ही टेबल रखी है, जिस पर इनकमिंग फ़ोन रखा है !

चुग्गा खां – [होंठों में ही] – जी का जंजाल है, मेरे मोला ! वक़्त गुज़ारने के लिए, करनी पड़ती है मशक्कत ! ऐसा ही लिखा है, मेरी क़िस्मत में ! अब काहे का डर, बेग़म को ? जब घर पर मज़बूत दिल वाली मेरी अम्मा मौज़ूद है...वह सब संभाल लेगी, मेरे मोला ! अब, काहे की फ़िक्र ?

[वक़्त काफ़ी गुज़र गया है, इस वक़्त दीवार पर टंगी घड़ी के दोनों कांटें बारह के अंक पर आकर रुक गए हैं ! और साथ में, घड़ी से निकली टन-टन की आवाज़ सुनायी देती है ! तभी ठंडी हवा बहकर चुग्गा खां के बदन में ठंडी सिहरन पैदा कर देती है ! यह ठंडी सिहरन उनके बदन में रौंगटे खड़े कर देती है ! उनके दिमाग़ में फातमा आहिर: के आसेब का ख़्याल आते ही, स्कूल की बिजली गुल हो जाती है ! बिजली के गुल होते ही, दरवाजे के पास सोया कुत्ता सहसा उठ जाता है ! ऐसा लगता है, मानों उसके पास कोई डरावना साया चल रहा है ? उसकी आहट पाकर, वह कुत्ता ऊंचा मुंह करके कूकने लगता है ! उसकी “कू..ऊ.ऊ..ऊ” करती आवाज़ हवा को चीरती हुई, चुगा खां के कानों में सुनायी देती है ! उसके कूकने की आवाज़ सुनकर, मोहल्ले के कई कुत्ते उसके साथ एक ही सुर में कूकने लगते हैं ! तभी, टेलिफ़ोन की घंटी झनझना उठती है ! इस ठंडी रात में, इन गूंज़ती आवाज़ों से

चुग्गा खां का बदन थर-थर कांपने लगता है ! फिर क्या ? किसी तरह दिल को थामते हुए, चुग्गा खां क्रेडिल से चोगा उठाते हैं ! फिर उस कान के पास ले जाते हुए, कहते हैं !]

चुग्गा खां – [चोगे को कान पर, रखते हुए] – हल्लू, कौन साहब ?

[फ़ोन से कोई आवाज़ नहीं आती, केवल हवा की सायं-सायं आवाज़ सुनायी देती है ! जनाब चुग्गा खां घबरा जाते हैं, डर के मारे उनका बदन जौफ़ेबाह के मरीज़ की तरह थर-थर कांपने लगता है ! उनके मुंख से यह जुमला निकल उठता है !]

चुग्गा खां – [थर-थर कांपते हुए, कहते हैं] – अरी ओ फातमा आहिर: की भूतनी, क्या अब तू मुझे फ़ोन पर डराने लग गयी है, कमबक्ख्त ! बोल, क्या बकती है कमजात !

फ़ोन से आवाज़ आती है – ‘अब्बा, मैं फ़कीरा बोल रिया हूं, फातमा चाची का भूत नहीं ! यह भूत अम्मीजान को को परेशान कर रहा है, अब्बा ! अम्मीजान पागलों की तरह, अपने हाथ-पाँव फेंक रही है ! और अब्बा, क्या कहूं, आपसे ? उसके मुंह से झाग निकल रहे हैं ! आप अभी घर आ जाओ, अब्बा ! मुझे डर लग रहा है, न जाने अब अम्मी का क्या होगा ?

चुग्गा खां – अभी आता हूं, बेटे ! तुम फ़ोन रखो !

[चोगा क्रेडिल पर रखते हैं, तभी एसा लगता है..कोई जाली पर छाई पांच पत्ती की बेल को झंझोड़ रहा है ! जाफ़री की जाली पर निग़ाह डालते हैं..जहां नीले फूलों से भरी हुई पांच पत्ती की बेल फ़ैली हुई है ! अचानक उस बेल के पत्ते ज़ोर से हिलते हैं ! तभी एक काली परछाई उभरती है, उस परछाई के लम्बे-लम्बे सींग व लम्बी रीश [दाढ़ी] साफ़-साफ़ नज़र आने लगती है ! अब वह परछाई गुर्राहट के साथ, हिलती है ! और वह, उस पांच पत्ती की बेल को झंझोड़ डालती है ! तभी पेड़ों के झुरमट में उलटा लटका हुआ चमदागड़ों का झुण्ड, अचानक “सी या ओ” की आवाज़ करता हुआ एक साथ आकाश में उड़ जाता है ! इन चमगादड़ों के पीछे-पीछे, डालियों पर बैठे उल्लू भी फन्नाटे की आवाज़ करते एक साथ उड़ते हैं ! यह मंज़र देखते ही, चुग्गा खां के होश उड़ जाते हैं ! अब उनको पूरा वसूक हो जाता है कि, अब इस स्कूल में भूत और चुड़ैलों का डरावना करिश्मा शुरू हो गया है ! सहमें हुए चुग्गा खां लाठी लाने के लिए, उठते हैं...और लोहे की घंटी के तरफ़ बढ़ते हैं, जहां कोने में उन्होंने अपनी लाठी रख छोड़ी है ! मगर, बदक़िस्मती से वे अन्धेरे में उस पच्चास किलो की लोहे की घंटी को देख नहीं पाते ! ख़ुदा रहम, फिर यह क्या हो गया ? उनका सर टकरा जाता है, उस घंटी से ! सर टकराते ही वह घंटी धड़ाम से आकर उनके पांव पर गिरती है, और वे वे ज़ोर से चीख़ उठते हैं ! हाय अल्लाह, यह पाँव का दर्द तो नाक़बिले बर्दाश्त रहा ! दर्द बर्दाश्त न होने से बेचारे चुग्गा खां नीचे बैठ जाते हैं, और अपना पांव दबाने लगते हैं ! उठते दौरान वे पास रखे स्टूल को देख नहीं पाते, आर उससे टक्कर खा बैठते हैं ! तभी उस पर रखा लोहे का डंडा आकर उनके पांवों पर गिरता है ! यह दोहरी चोट, बेचारे चुग्गा खां ने कैसे बर्दाश्त की होगी ? वह तो अब, ख़ुदा ही जाने ! उस घंटी के नीचे गिरने से, टन..टन..टन करती ज़ोर की गगन-भेदी आवाज़ उस ठंडी रात में गूंज़ उठती है ! यह आवाज़, दूर-दूर तक चली जाती है ! मगर वह परछाई, चुग्गा मियां को छोड़कर, कहीं जाने का नाम नहीं ले रही...? बस, वह तो और तेज़ी से गुर्राने लगती है ! फिर क्या ? बेचारे चुग्गा खां हिम्मत करके, टोर्च जला देते हैं, उसकी रोशनी से वे लाठी ढूंढ लाते हैं ! फिर, वे टोर्च के रोशनी उस परछाई पर फेंकते हैं ! रोशनी गिरते ही, वह परछाई बेहताशा भगने लगती है ! उसे भागते देखकर, जनाब के दिल में साहस का संचार हो जाता है ! अब वे लाठी लिए हुए उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं ! अब आगे-आगे वह परछाई और पीछे-पीछे चुग्गा खां, लाठी लिए दौड़ रहे हैं ! तभी वह परछाई बिल्डिंग के पिछली तरफ़..ठीक आक़िल मियां के कमरे के बिलकुल पीछे मोड़ खाकर आगे बढ़ती है ! मगर चुग्गा खां, कहाँ हार मानने वाले ? वे तो बराबर, उसका पीछा करते जा रहे हैं..बेहताशा दौड़ते हुए ! अपना पीछा होते देख, वह परछाई कुलांचे मारकर दीवार फांद जाती है ! दीवार फांदकर, वहां बोर के झाड़ के पीछे चली जाती है ! दीवार के पास ही, जलदायकर्मियों के सरकारी आवास हैं ! फिर न जाने इस परछाई को क्या होता है ? वह झट वहां झाड़ियों के झुरमट से गुज़रती हुई आगे चारदीवारी के पास चली जाती है ! फिर वहां से दीवार फांदकर, बग़ीचे में चली जाती है ! और इधर चुग्गा खां के पाँव, ज़मीन पर रखी ईटों की कतार से टक्करा जाते हैं ! इस बदहवाशी हालत में बेचारे भूल जाते हैं, कि “पिछले महीने रात की ड्यूटी के दौरान...साक़िब मियां ने अस्थायी यूरीनल बनाने के लिए, वहां कतार में ईटें जमाई थी ! इन ही ईटों से टक्कर खाकर चुग्गा खां, चारो खाना चित्त हो गए हैं ! चोट लगने से, बेचारे चुग्गा खां दर्द के मारे ज़ोर से चीख़ते हैं ! उनकी चीख सुनकर पड़ोस के सरकारी आवास में रहने वाले रज्जब मियां की नींद टूट जाती है ! वे झट जलती लालटेन लिए चारदीवारी के पास आकर खड़े हो जाते हैं ! उनकी सफ़ेद दाढ़ी, बुगले के पंख के समान सफ़ेद कपड़े और हाथ में जलती लालटेन लिए वे जिन्ने जिन्न की तरह डरावने दिखाई दे रहे हैं ! सहसा उन्हें वहां पाकर, मियां के होश उड़ जाते हैं ! ख़ुदा रहम, उन्हें तो अब वह रूहानी फिल्म “बीस साल बाद” का डरावना मंज़र लगने लगा ! बेचारे रज्जब मियां को क्या पत्ता ? वे तो ठहरे, जलदाय महकमें के मुलाज़िम ! सोने के पहले, रज्जब मियां अपने दाढ़ी वाले बकरे को खूंटे से बांधकर रखा था ! अब उसे वहां न पाकर, उसे ढूंढ़ते हुए बकरे को आवाज़ देने लगे !]

रज्जब मियां – [आवाज़ देते हुए] – दिलावर..! ओ दिलावर..! दिलावर मेरे बहादुर बेटे, कहाँ चल दिए ?

[अचानक उनकी निग़ाहें, बग़ीचे की मुलायम-मुलायम घास पर गिरती है..जहां वह बकरा आराम से घास चार रहा है ! उसे घास चरते देखकर, रज्जब मियां वापस कहते हैं !]

रज्जब मियां – अच्छा बेटा, तू यहाँ है ? वाह बेटे, वाह ! बड़े आराम से स्कूल के बग़ीचे की घास चर रहा है ?

[अचानक उनकी नीम बाज़ निग़ाहें, ज़मीन पर पड़े चुग्गा खां पर गिरती है ! जिस स्थान पर चुग्गा खां गिरे हैं, वहां आस-पास पैख़ाना [मल] बिख़रा है ! ऐसी नापाक जगह पर चुग्गा खां को पड़े पाकर, वे झट उनके निकट आते हैं ! फिर, उनसे कहते हैं !]

रज्जब मियां – अरे मियां, यह क्या ? हाय अल्लाह, तुम यहाँ कैसे ? क्या हो गया, तुमको ? पाख़ाने की नापाक़ जगह पर, चारों खाना चित्त ? अरे हुज़ूर, यहाँ कहीं भी अपनी नज़र दौड़ाओ..वहां पैख़ाना नज़र आता है ? ऐसी नापाक ठौड़ पर, कैसे पड़े हो मियां ? कहीं, आसेब-वासेब का चक्कर तो नहीं...?

[उनकी बात सुनकर, चुग्गा खां का सर शर्म से झुक जाता है ! रज्जब मियां को, चुग्गा खां से क्या लेना-देना ? वे झट दीवार फांदकर, वापस चले जाते हैं...अपने आवास में ! अब चुग्गा खां कराहते हुए, किसी तरह उठते हैं ! फिर लंगडाते हुए, बरामदे की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा देते हैं !]

चुग्गा खां – [बड़बड़ाते हुए] – कमबख्त फ़र्जी आसेब का लक्कड़ दादा आ गया अपनी तक़रीर पेश करने ? कमज़ात को इतनी शर्म नहीं आयी कि, किसी चोट खाए आदमी को हाथ थामकर उठाया जाता है..न कि उसका खून जलाने के लिए, तक़रीर पेश की जाती है ! आ गया कमबख्त, बकरीद के बकरे से प्यार जतलाने ? ए मेरे मोला, आसेब की भयानक शक्ल बनाकर आ गया डराने यह कमबख्त बकरीद का बकरा ? अब तू मुझे क्या-क्या मंज़र, दिखलाकर डराता रहेगा ?

[जाफ़री की तरफ़ जा रहे चुग्गा मियां, जैसे ही वे दरवाज़े के पास आते हैं, “म्याऊं..म्याऊं” की आवाज़ निकालती हुई एक काली बिल्ली चिहुंकती हुई उनकी छात्ती पर छलांग लगा बैठती है ! मियां के दिल की धड़कन बढ़ जाती है, बदन का रोम-रोम खड़ा हो जाता है ! बेचारे डर के मारे चीख़ उठते हैं ! जाफ़री की ओर बढ़ते अपने क़दमों को, वे क्या रोक पाते ? उसके पहले बदक़िस्मती से जाफ़री की सीढ़ियां उतरती हुई एक परछाई उनसे टकरा जाती है ! बेचारे चुग्गा खां चीख़ते हुए, नीचे गिर पड़ते हैं ! इधर इनका गिरना, और उधर इस कमबख्त लाईट का वापस आ जाना एक सयोंग ! बरामदे की सभी बत्तियां जल उठती है, अब मालूम होता है, वह कोई आसेब की परछाई नहीं...परछाई की जगह मनु भाई हैं ! इधर बेचारे मनु भाई की भी यही दशा...जो चुग्गा खां की रही ! बेचारे लोहे के डंडे के गिरने की आवाज़ और चुग्गा खां की चीख़ सुनकर, उनकी मदद करने आये थे ! मगर अँधेरे में इनसे टक्कर खाकर, ख़ुद खौफ़ के गिरफ़्त में आ गए ! अब धड़कते दिल को थामते हुए, मनु भाई कुर्सी पर आकर बैठते हैं ! फिर क्या ? धौंकनी की तरह चल रही साँसों को वे सामान्य नहीं कर पाते, और डर को काबू में करने के वास्ते...मटकी से लोटा भरकर, ले आते हैं ! और ज़मीन पर पड़े चुग्गा खां को होश में लाने के लिए, उनके चेहरे पर पानी का छिड़काव करते हैं !]

चुग्गा खां – [कराहते हुए, उठते हैं] – ख़ुदा रहम ! आज़ बच गया, बाल-बाल !

मनु भाई – [मुस्कराते हुए, कहते हैं]] – कहाँ उलझ गए, मियां..आसेब के जाल में फंसकर ? प्यारे, ध्यान रखा करो ! आज़ तो बाबा गौस ने बचा दिया आपको..[सहारा देकर, उन्हें उठने में मदद करते हैं..फिर उन्हें ले जाकर, बरामदे में रखे स्टूल पर बैठाते हैं !] समझदारी रखा करो, मियां ! अपने बचाव के लिए, अपनी बांह पर इमामजामिन बांध लिया करो !

चुग्गा खां – ऐसी क्या बात है, हुज़ूर ? इस जगह, पहले बड़े-बड़े कई अगिनित खड्डे नज़र आते थे ! यहाँ लोग जापे में मरे बच्चों को दफ़नाते थे, अरे भाईजान इसे क़ब्रिस्तान ही समझो ! आसेब, चुड़ैल, ख़बीस व जिन्न वगैरा का आना-जाना लगा रहता था, इस ज़मीन पर !

चुग्गा खां – हाय अल्लाह ! अब समझ में आया, हमें कभी-कभी रात के बारह बजे के बाद पायल बजने की आवाज़ सुनायी क्यों देती है ?

मनु भाई – बस यही बात है, मैं आपको आगाह करना चाहता था ! रात के बारह बजे के बाद, कभी आप बाहर निकला न करें ! हाय अल्लाह, आज़ इधर आपका चिल्लाना सुना..

चुग्गा खां – फिर, क्या हुआ, जनाब ?

मनु भाई – और इधर हम दुकान पर लगा रहे थे, ताला ! बस जनाब, दौड़े-दौड़े चले आये मदद को..रास्ते में बदशिगुनी बिल्ली ने रास्ता काट लिया, और इधर आपको पाया बेहोश !

चुग्गा खां – शुक्रिया, जनाब ! हमारी ऐसी बुरी हालत में आप तशरीफ़ लाये, और हौसला अफ़जाई की ! आपके एहबाब से दब गया, हुज़ूर ! इस नाईट ड्यूटी में, आपका ही सहारा है ! जनाब, सोजत वाले नूर मियां की मज़ार से लाया इमामजामिन घर पड़ा है, कल ज़रूर पहन लूंगा !

मनु भाई – ज़रूर पहन लेना, भाई ! आज़ की रात, अमावस की रात है ! इस रात को, अक्सर ये चुड़ैलें बिल्ली के रूप में आती है और अपना शिकार ढूंढ़ लेती है ! ख़ुदा रहम, आपकी छात्ती पर चढ़ने वाली बिल्ली ज़रूर चुड़ैल या डायन होगी ! अल्लाह ने आज़, आपको बचा लिया !

चुग्गा खां – सच कहा, आपने ! अरे वह परछाई क्या थी, जनाब ? हमने तो समझ लिया, फातमा आहिर: का आसेब आ गया..हमसे बदला लेने ! आज़कल मेरे सितारे गर्दिश है, मनु भाई !

मनु भाई – अरे चुग्गा खां, गफ़लत में न रहें ! वह बकरा असल में बकरा नहीं था, वह तो ख़बीस होगा ! उसने बकरे का रूप ले लिया था, अगर वह असल में बकरा होता...तो इस तरह आप, पैख़ाने की नापाक़ ठौड़ पर नीचे नहीं गिरते ? ख़बीसों की आदत ही कुछ ऐसी होती है, ये आदमी को नापाक़ ठौड़ पर पहले आदमी को नीचे गिरा देते हैं... फिर, उनका खून चूष लेते हैं !

चुग्गा खां – [डरते हुए] – ए अल्लाह, तूझे बहुत बहुत शुक्रिया ! मेरी जान बच गयी, नहीं तो मार देता मुझे..यह ख़बीस ! [मायूसी से] गर्दिशज़द चोट खाकर उठा हूं..पाँव में चोट लगी है, अल्लाह जाने, कब ठीक से चल-फिर पाऊंग़ा ?

मनु भाई – कुछ तकलीफ़ हो तो, मुझे फ़ोन पर इतला करना !

चुग्गा खां – याद आया, मनु भाई ! अभी फ़ोन आया था, हुज़ूर ! ख़ातूनेखान: की तबीयत नासाज़ है...ज़रा आपको तकलीफ़ दूंगा, मैं थोड़ी देर के लिए घर जाकर वापस आ रहा हूं ! तब-तक आप यहीं बैठे रहें, मेरे आने के पहले आप रुख़्सत मत होना ! अभी आता हूं, हुज़ूर !

मनु भाई – [होंठों में ही] – हाय अल्लाह, आया था मस्ज़िद में नमाज़ पढ़ने और अब गले पड़ गए रोज़े ? यह क्या फ़ितरत है, इन्सानों की ? ए मदीना पीर ! इस इंसान को इसकी बीबी के खौफ़ से बचा रहा हूं...मगर ए ख़ुदा मुझे बचा देना अपनी बीबी के खौफ़ से, बस इसको जल्द लौटा देना स्कूल में...ताकि, मैं घर जल्द जा सकूं ?

[अब मनु भाई के ज़वाब का इन्तिज़ार, चुग्गा खां क्यों करें ? उनकी क़िस्मत में, बिल्ली ने छीका तोड़ दिया ! बस अब चुग्गा खां, मौक़े का फ़ायदा लेने में पीछे नहीं रहते हैं..झट लपक पड़े, मलाई खाने ! झट साईकल पर सवार होकर, चल देते हैं अपने घर की ओर ! थोड़ी देर में चुग्गा खां पहुंच जाते हैं, अपने घर ! वहां जाकर, वे क्या देखते हैं ? दालान में कुर्सी पर बैठी इनकी ख़ातूने खान: आराम से चाय की चुश्कियाँ लेती हुई चाय पी रही है ! उसके पास पड़े स्टूल पर गरमा-गरम पकोड़ों से भरी प्लेट है...उसे पकोड़ों के साथ चाय का लुत्फ़ उठाते देख, चुग्गा खां के दिल पर क्या गुज़री होगी ? वह ख़ुदा ही जाने ! अचानक वह अपने शौहर को देखकर, झुंझला जाती है ! फिर क्या ? ताने देती हुई, मोहतरमा कहती है !]

फ़क़ीरे की अम्मी – [ताने देती हुई, कहती है] – क़ायदे आज़म, इस वक़्त आप घर कैसे ? चाय-काफ़ी की तलब हुई या पेट की आग सताने लगी ? यह कमबख्त तुम्हारी भूख, न रात देखती है न दिन..और, स्कूल से उठाकर यहां ले आती है आपको ? मक्की की रोटी और सरसों की सब्जी खाने आ गए, आख़िर ?

[इतना कहकर, उठकर चली आती है, किचन में ! उसके पीछे-पीछे चुग्गा भी चले आते हैं किचन में ! उधर जीने के पास बैठी सास को सुनाने के लिए ज़ोर-ज़ोर से बकती है !]

फ़क़ीरे की अम्मी – [सास को सुनाती हुई, ज़ोर से कहती है] – ए मदीना पीर, यह फ़ाजिर मर्द तो मुझे कब्र से बाहर निकालकर कहेगा कि ‘चल रसोई में, मक्की की रोटी और सरसों की सब्जी बना दे ! मुझे ज़ोरों की भूख लगी है !’ मेरा मरने में ही, सबका फ़ाइद है !

चुग्गा खां – [चौंकते हुए] – क्या कह रही हो, बेग़म ? मैं माज़रे से फ़हमीद हूं, फ़क़ीरे का फ़ोन आया था ! वह कह रहा था.. जल्द आओ, [डरते हुए] अम्मी की तबीयत... नासाज़ है !

[बेनियाम होकर बेलन उठाती है, फिर फ़क़ीरे की अम्मी कहती है !]

फ़क़ीरे की अम्मी – [हाथ में बेलन उठाकर] – क्या कहा, शौहर-ए-नामदार ? क्या मैं अक्लेकुल हूं, जो ऐसा कहकर आपको बुलाऊंगी ? आपको इस वक़्त घर बुलाकर मुझे अपना भेजा चटवाना नहीं है, मियां ! एक तो आपने मेरी नकचढ़ी सास को लाकर, यहाँ बैठा दिया ?

चुग्गा खां – आंचे मत बोलो, बेग़म ! अम्मी सुन लेगी, तो बेफ़िजूल मेरा सर-दर्द तुम दोनों बढ़ा दोगी !

फ़क़ीरे की अम्मी – [रुखे सुर में] – क्यों नहीं बोलूंगी ? मियां, तुम्हें क्या पत्ता ? यह मेरी नकचढ़ी सास बार-बार चाय मांगती है, आख़िर कितनी बार चाय बनाकर इसे दूं ? कमबख्त का चाय पीते गला जल जाए, मेरी बला से ! तुमसे मुझे कोई ज़ाईद अज़ उम्मीद नहीं, तुम्हारे अन्दर कहाँ इतनी क़ाबिलियत..मेरे तिफ़्लेअश्क पोंछने की ?

चुग्गा खां – [बीबी की खुशामद करते हुए] – नाराज़ मत हो, मेरी मेहरारू !

फ़क़ीरे की अम्मी – [चिढ़ती हुई] – हाय अल्लाह, जानते नहीं..? मुक़तज़ाए उम्र का तकाज़ा है, कमज़ोर हो गयी हूं...अब इतना काम नहीं कर सकती ! अगर तुम घर के काम में मदद नहीं कर सकते, तो मेरे काम को बढ़ाओ मत ! [रोती हुई] मेरा जीना हराम कर दिया है, आपने...

चुग्गा खां – परेशान मत हो, बीबी ! ख़ुदा पर भरोसा रखो, सब ठीक हो जाएगा !

फ़क़ीरे की अम्मी – की अम्मी – [रोती हुई] – हाय अल्लाह ! अब्बा हुज़ूर हमारा निकाह आगरा वाले ठेकेदार झमकू मियां से करवा देते तो आज़, हम शाही ज़िंदगी बसर कर रहे होते ? अब तो हमारे क़िस्मत में यह बावर्ची खाना लिख दिया अल्लाह पाक ने, अब क्या करें इस पेटू शौहर का ?

[बेग़म की ये बातें सुनकर, चुग्गा खां को रंज होने लगा ! बेचारे बुझे दिल से उठते हैं...और, रुख़्सत होने की बात करते हैं ! मगर, भले मानुष को जाने कौन देता ? यहाँ तो उनकी बीबी, उनका रास्ता रोककर बीच में खड़ी हो जाती है !]

चुग्गा खां – [बुझे दिल से] - बेग़म, अब तो रही-सही भूख ख़त्म हो गयी...तुम्हारा बड़ा भाषण सुनकर ! आप नहीं जानती, बेचारे मनु भाई स्कूल में बैठे मेरा इन्तिज़ार कर रहे होंगे ?

फ़क़ीरे की अम्मी – [अपने लबों पर मुस्कान लाती हुई, कहती है] – अब इतनी रात बीते, कहाँ जा रहे हैं आप ? कोई मर्द अपनी ख़ातूनेखान: को रात को इस तरह तन्हाई में छोड़कर जाता है, क्या ? [फ़क़ीरे को आवाज़ देती है] अरे ओ फ़क़ीरिया, ज़रा इधर आना तो..

[थोड़ी देर बाद, फ़क़ीरा आता है !]

फ़क़ीरे की अम्मी – [फ़क़ीरे से कहती है] – फ़क़ीरा ज़रा अपने अब्बू के लिए, चाय बनाकर बेडरूम में लेते आना ! बेचारे, थके हुए आये हैं घर !

[फ़क़ीरा चाय बनाने बैठ जाता है, अब फ़क़ीरे की अम्मी चुग्गा खां हाथ पकड़कर कहती है !]

फ़क़ीरे की अम्मी – [चुग्गा खां का हाथ पकड़कर, कहती है] – अब चलिए ना, क्यों देरी कर रहे हैं आप ?

चुग्गा खां – [हैरानी के साथ, मन में बड़बड़ाते हैं] – यह कोई जीना है ? चित्त भी बेग़म की, और पुट भी बेग़म की ! बस इस बेग़म ने बना दिया हमें, “साहब...बीबी के गुलाम” ! सच कहते हैं, लोग हमें...”कबूतर को दिखता है, कुआ” ! आख़िर कुए में उसका घोंसला होता है, जो जान से प्यारा होता है..बस, हमें भी यही पसंद है ! बीबी हमारे बिना नहीं रह सकती, और हम बीबी के बिना नहीं रह सकते !

[तभी चुग्गा खां को मनु भाई की याद आती है, जिन्हें वे स्कूल में बैठाकर आये हैं ! अब ख़ुद को कोसते हुए कहते हैं !]

चुग्गा खां – हाय अल्लाह, बेचारे भोले मोमीन को गिरवी बैठाकर, यहाँ चला आया..बीबी से मिलने ? [फ़क़ीरे को आवाज़ देते हैं !] अरे ओ, फ़क़ीरिया...

[चाय लिए फ़क़ीरा आता है, टेबल पर चाय का कप रखकर, कहता है !]

फ़क़ीरा – अब्बू चाय पी लीजिये ! अब कहिये, आप क्या कह रहे थे अभी ?

चुग्गा खां – [चाय का कप उठाते हुए] – बेटा फ़क़ीरा, ज़रा रहमान मियां के घर जाकर स्कूल फ़ोन लगाना..फिर, वहां बैठे मनु भाई से कहना कि “अब मैं रात को वापस स्कूल लौटूंगा नहीं, इसलिए आप स्कूल का ताला लगाकर उसकी चाबी साबू भाई के घर रख दें ! और सुन, मनु भाई से अदब से बात करना, उनको सलाम कहना भूलना मत !

[फ़क़ीरा फ़ोन लगाने चला जाता है, चुग्गा खां और उनकी बीबी के लबों पर मुस्कान फ़ैल जाती है ! अब झट चुग्गा खां उठते हैं, और जाकर कमरे का किवाड़ बंद करके कमरे की लाईट गुल कर देते हैं ! प्यार भरी सिसकारी की आवाज़ सुनायी देती है ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है !

अंक छह मंज़र तीन ड्यूटी चोर चुग्गा खां...?

[मंच रोशन होता है, चुग्गा खा के मोहल्ले का मंज़र सामने आता है ! मोहल्ले के बासिन्दे अपने-अपने मकानों की छत्तों पर खड़े हैं ! खड़े-खड़े वे आसमान की ओर ताक रहे हैं ! सुर्यास्त हो गया है, आसमान में लालिमा फ़ैल चुकी है ! तभी आसमान में चाँद के दीदार होते हैं, और मस्जिद से रोज़ा खोलने का एलान होता है..और इसके साथ बंदूक दागने की आवाज़ अलग से सुनायी देती है ! इस आवाज़ के बाद, मस्जिद के लाउडस्पीकर पर अज़ान सुनायी देती है ! अब इस एलान को सुन, लोगों के बीच ख़ुशी छा जाती है ! रमजान माह का एक रोज़ा ख़त्म हो गया है, एक सब्र का इम्तिहान पूरा हुआ ! सभी इसी ख़ुशी को ज़ाहिर करते हुए, सीढ़ियां उतरते हैं ! फिर नमाज़ पढ़ने के लिए, मस्जिद की तरफ़ क़दम बढ़ाते हैं ! आसियत का अँधेरा धीरे-धीरे बढ़ रहा है, चुग्गा खां लाठी और टोर्च लिए घर के बाहर आते हैं ! फिर साईकल पर सवार होकर, स्कूल जाने के लिए साईकल को आगे बढ़ा देते हैं ! स्कूल पहुंचकर जाली के दरवाज़े पर लगे ताला को खोलते हैं, फिर अन्दर दाख़िल हो जाते हैं ! बरामदे और ग्राउंड की बत्तियां जलाकर, वे टेलिफ़ोन के पास रखे स्टूल पर बैठ जाते हैं ! बैठे-बैठे इनके दिमाग़ में बीती घटनाएं, ताज़ी होने लगती है ! इन घटनाओं को याद करते-करते वे ग़मगीन हो जाते हैं, आँखों के आगे ये सारी घटनाएं तस्वीर की तरह छाने लगती है ! उनको पछतावा होता है कि, ‘बीबी के ऐसे बर्ताव के कारण उनको रात की ड्यूटी का तौर-तरीक़ा बदलना पड़ा, और इसी कारण दाऊद मियां व बड़ी बी उनसे खफ़ा हैं ! जिसके कारण उन दोनों ने मिलकर नाईट ड्यूटी ऐसे वक़्त लगाई है, जब खेती के लिए इनका गाँव में रहना बहुत ज़रूरी है ! अब बीबी का बुलावा आना, उनका घर लौटना, बीबी का मिलिटन जैसा बर्ताव और फिर मोहब्बत से उनको बेडरूम में लेकर जाना वगैरा मंज़र कई बार उनके मानस-पटल पर छा जाते हैं ! बेचारे चुग्गा खां अपने दिमाग़ की हलचल को, कंट्रोल नहीं कर पाते ! बरबस, बेचारे बड़बड़ाने लगते हैं !]

चुग्गा खां – [बड़ाबड़ाते हुए] – हाय परवरदीगार, अब क्या करूँ ? [सोचने का अंदाज़ दिखलाते हैं] ‘अब यों करते हैं, रात के बारह बजे तक स्कूल में रहना, फिर बाद में हमारी ड्यूटी चैक करने आने वाला कोई स्कूल आने वाला नहीं ! फिर क्या ? घर जाकर आराम से सोना, और दूसरे दिन तड़के उठकर स्कूल में वापस लौट आना ! फिर स्कूल की बाउंड्री के पास पैख़ाना जाते मोहल्ले वालों को, डपटकर वहां से भगाना ! इसके बाद, दैनिक स्कूल कार्य, जैसे सफ़ाई करना, पानी छानकर मटकियां भरना वगैरा-वगैरा कामों से फारिग़ हो जाना ! इसके बाद पाख़ाने से निपटकर, हेड-पम्प के पास बैठकर स्नान कर लेना..इस तरह घर के पानी की भी बचत हो जायेगी ! तब-तक सुबह के सात बज जायेंगे ! सात बजते ही, स्कूल शुरू होने की पहली घंटी बजा देना..तब-तक पहली पारी के चपरासी स्कूल आ जायेंगे ! तब उनको स्कूल का चार्ज देकर वापस घर लौट आना ! इस तरह स्कूल का काम भी पूरा, और बीबी भी ख़ुश !’

[दिन बीत रहे हैं, इस तरह का रूटीन बनाकर चुग्गा खां अमन-चैन के साथ नाईट ड्यूटी को अंज़ाम देते जा रहे हैं ! मगर, काठ की हंडिया रोज़ आग पर नहीं चढ़ती ! आख़िर, इस ग़लत आदत से अर्जित किया सुख-चैन ज़्यादा दिन नहीं टिकता है ! और शामत आ जाती है, चुग्गा खां की ! ना तो चुग्गा खां की आदतों में सुधार आता नज़र आ रहा है, और न और कोई चपरासी उनकी नाईट ड्यूटी लेने के लिए रज़ामंद होता दिखाई दे रहा है ! उधर दाऊद मियां को, अपने बच्चोंकी लापरवाही और अपव्यय करने की आदत मंज़ूर नहीं ! और इधर इनकी ख़ातूनेखान: की हर सही-ग़लत बात में बच्चों का सपोर्ट करते रहने की बुरी आदत...जो, उन्हें गवारा नहीं ! बस अब रोज़-रोज़ के इन झगड़ों से दूर रहने के लिए वे, रोज़ आधी रात के बाद घर आने लगे हैं ! अब न तो दाऊद मियां बच्चों को नज़र आते हैं, और न बच्चों के साथ बेफालतू का विवाद बढ़ता है ! बस इस उसूल पर चलते हुए दाऊद मियां का ‘रात के ११ बजे तक का वक़्त, मनु भाई की दुकान पर गुज़रने लगा है ! मनु भाई की ग्राहकी, अक़सर रात को ज़्यादा होती है ! कारण यह है कि, कोटन मिल में काम करने वाले मज़दूर रात के क़रीब ८ बजे तक मिल से अपने घर लौट आते हैं ! इन लोगों को, सामान लाने के लिए दिन में वक़्त नहीं मिलता है ! यही कारण है, रात के आठ बजे से क़रीब १० बजे तक मनु भाई ग्राहकी से निपटकर, बाकी का वक़्त बही ख़ाता लिखने में लगाते हैं ! इस काम में, दाऊद मियां उनकी बहुत मदद किया करते हैं ! यहां दुकान पर वक़्त बिताते दाऊद मियां कई बार स्कूल की तरफ़ देख लिया करते हैं, और चुग्गा खां पर बराबर नज़र रखने लगे हैं ! इस तरह हमेशा की तरह अभी भी दाऊद मियां मनु भाई की दुकान पर रात के ११ बजे तक बैठे हैं, स्कूल के बरामदे और ग्राउंड में बत्ती का उज़ाला देखकर वे तसल्ली कर लेते हैं कि ‘चुग्गा खां मुस्तैदी से, रात की ड्यूटी दे रहे हैं !’ फिर चुग्गा खां की तारीफ़ करते हुए, उनकी शान में कसीदे पढ़ते नज़र आ रहे हैं !]

दाऊद मियां – [मनु भाई से] – मनु भाई, चुग्गा खां स्कूल के बहुत वफ़ादार मुलाज़िम है ! जनाब, वे अभी भी जग रहे हैं ! और, मुस्तैदी से रात की ड्यूटी दे रहे हैं !

[जब दाऊद मियां बही ख़ाता लिखने में मदद करते हैं, इनका यह काम मनु भाई को बहुत पसंद है ! मगर, उनका अनावश्यक हफ्वात हांकना उनको पसंद नहीं ! क्योंकि, इनके बोलते रहने से जनाब हिसाब में त्रुटियाँ कर बैठते हैं ! इस तरह उनको हिसाब लिखते वक़्त, किसी का बोलना अच्छा नहीं लगता है ! आख़िर बात यह है कि, एक तो जनाब इनका क़ीमती वक़्त बरबाद करते हैं और ऊपर से ‘उनकी कही हर झूठी बात को सच्च में बदलने के लिए जनाब की हां में हां मिलाते रहो...?’ मगर सच्चा मोमीन ऐसा काम कभी कर नहीं सकता, क्योंकि ख़ना [मिथ्या] बोलना पाप है ! यहाँ तो मनु भाई चुग्गा खां की आदतों के बारे में जानते हैं कि ‘मियां कब तक स्कूल में रहते हैं, और कब जलती हुई लाइटें छोड़कर अपने घर चले जाते हैं ?’ अब ऐसी स्थिति में ‘चुग्गा खां का ड्यूटी के प्रति वफ़ादार होने की बात पर, इनके लिए दाऊद मियां की हां में हां मिलाना कितना कठिन होगा ?’ यह तो, उनका ख़ुदा ही जनता है ! आख़िर बर्दाश्त न होने पर, वे दाऊद मियां को सुना देते हैं !]

मनु भाई – दाऊद मियां आप ज़रूर स्कूल के सादिक़ ठहरे, और आपको इतनी रात बीते अपनी ख़ातूने खां: की कोई परवाह नहीं ! मगर हम तो वफ़ादार ठहरे, अपनी ख़ातूने खान: के ! देखिये आप, दिन-भर कड़ी मेहनत करके अब रात के ११ बजे हम दुकान डोडी करके अपनी ख़ातूने खान: के पास जायेंगे ! आपकी तरह हमारी कहाँ ऐसी क़िस्मत, जो अपनी ड्यूटी से शाम के पांच बजे फारिग़ हो जायें ?

दाऊद मियां – [नाखुश होकर] – जाइए...जाइए ! आपको रोका किसने है ? जाकर मिलिए अपनी ख़ातूने खां: से, बाहें फैलाकर ! ख़ुदा कसम, हमें काहे का एतराज़ ?

मनु भाई – मुआफ़ी चाहता हूं, अब आपको यहाँ से उठने की ज़हमत दे रहा हूं ! क्योंकि, अब हम दुकान डोडी कर रहे हैं !

दाऊद मियां – [दुकान से उठते हुए] – चलिए मनु भाई, हम भी चलते हैं ! मगर, जाने के पहले एक बार स्कूल का राउंड काट लेना अच्छा होगा !

[दाऊद मियां स्कूल के में गेट की तरफ़ बढ़ते हैं, उधर मनु भाई दुकान डोडी करके अपने घर चले जाते हैं ! अब दाऊद मियां अन्दर आकर क्या देखते हैं ? ग्राउंड और बरामदे की बत्तियां जली हुई है ! टेलीफ़ोन के निकट ही चार टेबलें लगातार एक साथ रखी हुई है, जिस पर चुग्गा खां ने अपना बिस्तर लगा रखा है ! कम्बल और तकिया इस तरह रखे हैं, मानों कोई आदमी कम्बल ओढ़कर सो रहा है ? चक्कर काटते-काटते वे, जाली के दरवाज़े के पास चले आते हैं ! ख़ुदा रहम, न मालुम दाऊद मियां की नज़र क्यों दरवाज़े पर लगे बड़े हरिसन ताले पर गिरती है ? जिसे देखकर, दाऊद मियां का सर चकरा जाता है ! कहाँ तो दाऊद मियां चुग्गा खां का ड्यूटी के प्रति वफ़ादार [सादिक़] होने के रुंझान की तारीफ़ करना, जिनकी तारीफ़ में कसीदे पढ़ते-पढ़ते वे थकते नहीं ! और अब, उनके सामने एक ड्यूटी चोर का मंज़र आ जाना..उनके लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त है ! वे एकदम हो जाते हैं, बेनियाम ! और बरबस उनके मुख से, अल्फ़ाज़ फूट पड़ते हैं !]

दाऊद ममियां – [बेनियाम होकर] – जनाबे आली ने, यह क्या तमाशा खड़ा कर रखा है ? आदमी अन्दर, और गेट पर ताला ? माशाअल्लाह, मियां ने आख़िर अपनी क़रामत दिखला ही डाली ! अब, यह कमबख्त सादिक़ कहाँ ? यह तो ड्यूटी चोर निकला ! वाह रे, वाह..ड्यूटी चोर चुग्गा खां..? अब सही मौक़ा आने पर, इस कबूतर को कुए से बाहर निकालकर ही दम लूंगा !

[दाऊद मियां जिस वसूक को लिए, इनको वर्कर समझते आ रहे थे...वह टूट गया ! इस रंज को लिए दाऊद मियां, अपने घर की ओर क़दम बढ़ाने लगे ! धीरे-धीरे उनके पांवों की आवाज़ दूर तक सुनायी देती है ! मंच पर, अंधेरा छा जाता है !]

अंक छह मंज़र ४ “चुग्गा खां के अब्बू की तबीयत नासाज़ होना, और उनकी मज़बूरी......!” - राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

[मंच रोशन होता है, इस वाकये को बीते कुछ दिन गुज़र जाते हैं ! मगर, दाऊद मियां अभी-तक इस वाकये को भूले नहीं है ! हमेशा की तरह चुग्गा खां, अपनी नाईट ड्यूटी अपनी बनाए प्लान के अनुसार दे रहे हैं ! अब आसियत का अँधेरा बढ़ता जा रहा है ! स्कूल की बिल्डिंग का मंज़र दिखाई देता है ! जहां बरामदे व ग्राउंड की बत्तियां जली हुई है ! बरामदे की दीवार पर टंगी घड़ी देखकर, ऐसा लगता है कि ‘अभी रात के नौ बजे हैं !’ तभी, फ़ोन की घंटी बजती है ! वहां पहले से बैठे चुग्गा खां, क्रेडिल से फ़ोन का चोगा उठाते हैं !]

चुग्गा खां – [चोगा उठाकर] – हल्लू ! कौन साहब बोल रिया है ?

फ़ोन से आवाज़ आती है – [रुदन करती हुई, आवाज़ आती है] – भाईजान, आपका छोटा भाई रसूल बोल रिया हूं ! अब्बा हुज़ूर की तबीयत नासाज़ है, उन्हें दिल का दौरा पड़ा है भाईजान ! [रसूल के रोने की आवाज़ सुनाई देती है] आप जल्दी से जल्दी गाँव आ जायें, ना मालूम अल्लाह पाक कब उन्हें बुला ले ?

चुग्गा खां – [फ़ोन से] – फ़िक्र न करो, रसूल ! हम अभी गाड़ी पकड़कर, गाँव आ रहे हैं ! तुम अब्बा हुज़ूर और अम्मीजान का ख़्याल रखना ! बस, हम आ ही रहे हैं !

[चुग्गा खां ने कह तो दिया कि ‘वे आ रहे हैं, जल्द !’ मगर, ऐसे वक़्त जाएँ कैसे ? जब स्कूल में, सेकेंडरी बोर्ड इमतिहान के पेपर रखे हों ? इस वक़्त २४ घंटें, पेपर की हिफ़ाज़त बाबत चौकीदार का रहना बहुत ज़रूरी है ! अगर ऐसे वक़्त, गाँव न गया तो, ख़ुदा ना ख्वास्त: अब्बा हुज़ूर इस ख़िलक़त से रुख़्सत हो गए तो उनका मुंह नहीं देख पाने का पछतावा ज़िन्दगी-भर सताता रहेगा ! ये विचार उनके दिमाग़ में छा ही रहे थे, तभी बिजली गुल हो जाती है ! चारों तरफ़ अंधेरा फ़ैल जाता है ! सायं-सायं करती हवा बहने लगती है ! तभी तेज़ आसिफ़ [आंधी] चलती है, पेड़ों के पत्तों को छोड़ो, उनकी डालियां भी तेज़ी से हिलने लगती है ! अचानक, मेन गेट खुलने की आवाज़ सुनायी देती है ! चुग्गा खां जाली के पास आकर, मेन गेट पर नज़र डालते हैं ! मेन गेट की फाटक खुली है और एक सफ़ेद साया हेड-पम्प की तरफ़ क़दम बढ़ाता हुआ नज़र आता है ! ध्यान से देखने पर, वह सफ़ेद साया सफ़ेद साड़ी पहनी हुई एक बला नज़र आती है ! जिसके बाल खुले हैं, जो हवा में लहरा रहे हैं ! इन खुले लहराते बालों को देखके ऐसा लगता है कि, मानों ‘वह बला किसी क़ब्रिस्तान से आ रही कोई चुड़ैल हो ? और उसके एक हाथ में जलती हुई लालटेन, और दूसरे हाथ में सफ़ेद बाल्टी ! बाल्टी पर अंकित लाल सुर्ख खून के माफ़िक छींटें लगे हैं, उन छींटों को देखकर, ऐसा लगता है मानों वह बाल्टी न होकर किसी इबलीस का खून भरा खप्पर हो ?’ धीरे-धीरे वह बला, अपने क़दम हेड-पम्प की तरफ़ बढ़ाती है ! तभी मनु भाई की दुकान पर रखे ट्रांजिस्टर पर फिल्म बीस साल बाद’ का गीत “गुमनाम है कोई, बदनाम है कोई..किसको ख़बर..” इस सन्नाटे को चीरता हुआ गूंज उठता है ! अब चुग्गा खां से रहा नहीं जाता, उन्हें ऐसा लगता है...मानों, ‘उस बला के फैलाए हुए ज़ाल ने कुछ ऐसा क़ुव्वते जाज़बा पैदा कर लिया है...जिसके खिंचाव को चुग्गा खां अहसास करते हुए, स्वत: अपने धूज़ते पांवों को हेड-पम्प की तरफ़ बढ़ाते जा रहे हैं !’ ज्यूं-ज्यूं वे उसके निकट आते हैं, उस बला का चेहरा धुन्धला सा नज़र आने लगता है ! उन्हें वह चेहरा, उस आहिर: पड़ोसन के चेहरे से मिलता-जुलता लगता है ! अब उनके दिलो-दिमाग़ में, उस आहिर: औरत की शक्ल छा जाती है ! अब इस समय मियां की हालत के बारे में कुछ पूछो ही मत, डर के मारे उनके बदन के सारे रौंगटे खड़े हो गए हैं..डर के मारे उनके मुख से, चीख़ निकल उठती है ! चीख़ते हुए वे, ज़ोर से कहते हैं !]

चुग्गा खां –[डरकर, ज़ोर से चीख़ते हुए कहते हैं] – अरी, ओ फातमा ! तू मरने के बाद भी, तू हमें चैन से जीने नहीं देती ? अरी कलमुंही, अब तो मेरा पीछा छोड़ ! अल्लाह मियां, तूझे दोजख़ नसीब करें !

[यह सुनते ही, वह बला जल-भुन जाती है ! बाल्टी को हेड-पम्प के पास रखकर वह गलीज़ गालियों की बौछार कर देती है !]

बला – [गलीज़ गालियाँ बकती हुई, कहती है] – अरे ए रंडी की दस मर्दों की औलाद, तू है कौन मुझे रोकने वाला ? तेरा खून पी जाऊंगी, तेरी छात्ती पे चढ़ के ! यह मोहल्ला मेरा, यह स्कूल मेरी ! तू कौन होता है रे, मुझे मना करने वाला ? अब और बकेगा तो मर्दूद, तेरे मुंह में दहकते अंगारे डाल दूंगी...!

[तभी बत्तियां जल उठती है, ट्यूबलाईट की झीनी-झीनी रोशनी में उस बला का चेहरा साफ़-साफ़ नज़र आता है, उसका चेहरा देखकर चुग्गा खा आब-आब हो जाते हैं ! अब वे उस आतिश रुख़ मोहतरमा को पहचान जाते हैं, यह मोहतरमा और कोई नहीं...यह तो गुस्सेल चपरासिन मुमु बाई निकली ! यह तो ऐसी शैतान की ख़ाला है, जो भड़कने के बाद चुप होने का नाम नहीं लेती ! उसका चेहरा देखकर, बेचारे चुग्गा खां की हालत ऐसी रोने जैसी बन जाती है..जैसे वे अब रोये...कब रोये ?]

मुमु बाई – [अंगार उगलती हुई, चिल्ला-चिल्लाकर कहती है] - अरे ए हिज़ड़े की छठी औलाद, अब तू चुप क्यों हो रहा है, मेरा मुंह देखकर ? पाख़ाना के कीड़े, तू मुझसे सवाल करता है..क्यूं आयी इस स्कूल में ? ले सुन, नामुराद..मैं हेड-पम्प का पानी लेने आयी हूं, न कि तेरे जैसी कुंजड़े के मुंह मे पैख़ाना करने ? अब समझा, करमज़ले ?

[सुनते ही चुग्गा खां घबरा जाते हैं ! सर्दी का मौसम होने के बाद भी, फ़िक्र के मारे उनकी ज़ब्हा से पसीने के कतरे नज़र आने लगते हैं ! मगर यह बेरहम मोहतरमा तो, चुप होने का नाम ही नहीं लेती ? ख़ुदा रहम, उसकी जोलिंद: बयानी तो अब बंद होने का नाम ही नहीं लेती ?]

मुमु बाई – क्या, चुपचाप बैठ गया रे ? कहीं तू अपनी ज़बान को, चील-कौओं को चुगाकर तो नहीं आ गया मर्दूद ?

[फिर क्या ? इस गहन रात में वह बाका फाड़कर रोती है, ज़ोर-ज़ोर से ! दोनों हाथ ऊपर ले जाकर, अल्लाह पाक से कहती है !]

मुमु बाई – [रोती हुई, अल्लाह पाक से कहती है] – या अल्लाह ! तूने मेरी भरी जवानी में मेरे शौहर को छीन लिया मुझसे ! तू क्या जनता है, एक बेवा की ज़िन्दगी क्या होती है ? वह नौकरी करे, या अपने बच्चों को संभाले ?

[इतना कहकर, इस ठंडी रात में वह हेड-पम्प के पास आकर नीचे बैठ जाती है ! फिर, ज़ार-ज़ार रोने लगती है ! ऐसी हालत में बेचारे चुग्गा खा, अपने अब्बू के बारे में क्या सोच सकते हैं ? यहाँ तो मुमु बाई ने नयी आफ़त खड़ी कर डाली ! अब उनको सौ फीसदी शक हो जाता है, अगर उसके रोने की आवाज़ इन बेरहम मोहल्ले वालों ने सुन ली..तो ये कमबख्त ज़रूर, उनकी आबरू रेज़ी कर देंगे ? बेचारे, अब करें क्या ? चुपचाप खड़े-खड़े मुमु बाई की की कही बातें सुनने लगे, और दिल को मज़बूत करके उसके कड़वे शब्द सुनने की हिम्मत जुटाते हैं ! उधर वह ज़ोर-ज़ोर से बकती हुई, चुग्गा खां को सुनाने लगी !]

मुमु बाई – [रोती हुई, ज़ोर-ज़ोर से बकने लगी] – तूझे क्या पड़ी है, तेरी घर वाली है घर पर काम करने वाली ! मगर मुझे तो कमाना भी पड़ता है, और बच्चों के लिए खाना भी बनाना पड़ता है ! इतनी रात बीते, अब आरिफ़ आया है ! अब उसे चाहिए, घुसल जाने के लिए गुनगुना पानी !

चुग्गा खां – तो क्या हो गया, हेड-पम्प का पानी गुनगुना है..ले जाइए, आपको मना किसने किया मुमु बाई ?

मुमु बाई – यह हेड-पम्प तेरे बाप का है..जो पानी ले जाने की इज़ाज़त ऐसे दे रहा है, मानों तेरे बाप ने इस हेड-पम्प को ख़रीद रखा है ?

चुग्गा खां – [घबराकर, कहते हैं] – अरे मुमु बाई, मैंने कब कहा कि यह हेड पम्प मेरे बाप का है ? इतनी काहे गर्म हो रही हो, तुम ?

मुमु बाई – तुम मर्द समझते हो, बेवा औरतों को ? जानते हो, रोटी पकाकर अब फारिग़ हुई हूं..सोचा, थोड़ी देर लेटकर कर लूंगी आराम ! मगर इस छोरे ने हुक्म दे डाला, हेड-पम्प का पानी फ़ातिर है..लेकर आ जाओ, अम्मी ! अब इतनी रात बीते यहाँ आयी, क्या सोचते होंगे मोहल्ले वाले ?

[दिल में लगी आग के गुब्बार निकल जाते हैं, अब मुमु बाई शांत हो जाती है ! खड़ी होकर हेड-पम्प के नीचे बाल्टी रखती है ! फिर, चुग्गा खां के हाल-चाल पूछने लगती है !]

मुमु बाई – [चुगा खां के ज़ब्हा पर, निग़ाह डालती हुई कहती है] – तुम्हारी ज़ब्हा पर इस कड़ाके की ठण्ड में, ये फ़स्ले खिजां कैसे ? जनाब, कहीं भाभी वापस आसेबज़द: हो गयी क्या ?

[सहानुभूति के दो शब्द, चुग्गा खा को क्या मिले ? मियां के दिल को शान्ति मिल जाती है, अब वे अपनी ज़ब्हा पर छाये पसीने के एक-एक कतरे को रुमाल से साफ़ करते हैं ! पसीने को पोंछकर, वे कहते हैं !]

चुग्गा खां – आपने दुनिया देखी है, मुमु बाई ! भरी जवानी में आपका सुहाग उजड़ गया, फिर काबिना को पालने के लिए आपने कितने पापड़ बेले होंगे ? उस दौरान, आपने किसी पर भरोसा किया ?

मुमु बाई – बिना वसूक किये, इस दुनिया का काम नहीं चलता ! क्या तुम जानते नहीं कि, आदमी हमेशा आदमी के काम आता है ! मगर, तुम कहना क्या चाहते हो मियां...आख़िर ?

चुग्गा खां – अब कैसे कहूं, मुमु बाई ? दुःख के मारे यह ज़बान नहीं खुल रही है ! [दुःख के मारे, उनकी आँखें नम हो जाती है] अब कहते कहते...

मुमु बाई – कलेजा मज़बूत रखो, मियां ! मुसीबतें दुनियादारी में आती रहती है, इंसान को हौसला नहीं खोना चाहिए !

चुग्गा खा – घबरा नहीं रहा हूं, मुमु बाई ! बात दूसरी है, अभी छोटे भाई का फ़ोन आया ! वह कह रहा था कि “अब्बा हुज़ूर अजलगिरफ़्त है !” इस कारण मुमु बाई मुझे गाँव तुरंत जाना है ! मगर, क्या करूँ ?

मुमु बाई – मगर क्यों, किसने रोका है आपको ? जाइए, जाइए ! ख़ुशी से जाइए !

चुग्गा खां – मगर, जाऊं कैसे ? ख़ास समस्या है, सेकेंडरी बोर्ड इमतिहान के पेपर्स की हिफ़ाज़त ! २४ घंटे इसकी हिफ़ाज़त के लिए, स्कूल में चौकीदार का रहना सख्त ज़रूरी है ! अब इतनी रात बीते, किसको बुलाकर यहाँ बैठाऊं ? समझ में नहीं आता मुमु बाई, अब क्या करूँ ?

मुमु बाई – जाओ मियां, जाओ तुम ! बाप तो मरने जा रहा है, और तुमको स्कूल के काम की लगी है ? तुम नहीं, तो क्या ? कोई और आकर, हिफ़ाज़त के लिए तैनात हो जायेग़ा ! बस, तुम जाते वक़्त स्कूल की चाबियाँ मेरे घर पर रखते जाना ! दाऊद मियां को कह दूंगी...

[तभी मुमु बाई की निग़ाह ख़ाली बाल्टी पर गिरती है, जिसे उसने अभी-तक हेड-पम्प चलाकर नहीं भरी है ! उस ख़ाली बाल्टी को देखते ही, मुमु बाई की फ़िक्र बढ़ जाती है..अभी-तक उसने हेड-पम्प से बाल्टी क्यों नहीं भरी ? बेचारा आरिफ़, गुनगुने पानी का इन्तिज़ार कर रहा होगा ? फिर क्या ? झट मुमु बाई पम्प चलाकर, बाल्टी भर लेती है !]

मुमु बाई – [पम्प चलाती हुई, कहती है] - हाय अल्लाह ! कहाँ बैठ गयी, बेफिजूल की बातें करने ? बेचारा आरिफ़ घर पर भूखा बैठा होगा, और मैं यहाँ बैठी क्या कर रही हूं ?

[इतना कहकर, मुमु बाई बाल्टी में पानी भर लेती है ! फिर बड़बड़ाती हुई, अपने घर की ओर चल देती है ! बेचारे चुग्गा खां पीछे से उसे, आवाज़ लगाते रह जाते हैं !]

चुग्गा खां – [आवाज़ लगाते हुए, कहते हैं] – अरी, ओ मुमु बाई ! ज़रा सुनना..

[फिर क्या ? बरामदे व ग्राउंड की बत्तियां जलती छोड़कर चुग्गा खां झट लाठी और टोर्च लेते हैं, फिर जाली के दरवाज़े पर ताला जड़ देते हैं ! इसके बाद साईकल पर सवार होकर मुमु बाई के घर की ओर चल देते हैं ! वहां दरवाज़ा धकेलकर वे ज़ोर से मुमु बाई को आवाज़ लगाकर, कहते हैं !]

चुग्गा खां – [ज़ोर से आवाज़ देकर, कहते हैं] – अरी, ओ मुमु बाई ! स्कूल की चाबियाँ दरवाज़े के पास वाले आले में रख रहा हूं ! सुन लिया, मुमु बाई ? अब, रुख़्सत हो रहा हूं !

[अब वे मुमु बाई के ज़वाब का इन्तिज़ार किये बिना, चुग्गा खां अन्दर आकर आले में स्कूल की चाबियाँ रख देते हैं ! फिर दोनों किवाड़ों को ढ़ककर, वे रुख़्सत हो जाते हैं ! उनके जाने के बाद, मुमु बाई आती है ! और दालान के पास लगे नल के पास बैठकर, बरतन मांजने बैठ जाती है ! पास के बेड रूम में सो रहे आरिफ़ मियां के खर्राटे, तेज़ी से गूंज़ते जा रहे हैं ! तभी गली में गश्त लगाने वाला चौकीदार आता है, उसे देखते ही गली के कुत्ते ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगते हैं ! खर्राटों और कुत्तों के भौंकने की आवाज़, दोनों मिलकर अपना अच्छा-ख़ासा ताल-मेल बैठा देती है ! अब उसकी लाठी की ठक-ठक करती आवाज़, मुमु बाई के कानों में सुनायी देती है ! लाठी को बजाता हुआ, चौकीदार आगे बढ़ता है ! उसकी लाठी की मार के डर से, गली के कुत्ते दुबककर भाग जाते हैं ! चौकीदार गली के रहने वालों को सावधान करता हुआ, ज़ोर से आवाज़ लगाता है ! फिर, वह आगे बढ़ जाता है !]

चौकीदार – [आवाज़ लगाता हुआ, आगे बढ़ता है] – जागते रहो...जागते रहो ! [लाठी ज़मीन पर पटक कर, बजाता है]

मुमु बाई – [बरतन मांजती हुई, ज़ोर से कहती है] – अरे हरामखोर, हम जागेंगे तब तू क्या करेगा..करमज़ले ?

[मुमु बाई की कर्कश आवाज़ सुनकर, चौकीदार मुमु बाई के आंतक से कांप जाता है ! उसे मालुम है, अगर अभी इस फातमा से बहस करने यहाँ रुक गया तो...ख़ुदा जाने, यह जंगजू औरत न मालुम कब बाएं चढ़ाए लड़ने आ जाए ? फिर क्या ? तब उसको, अपनी इज़्ज़त बचानी मुश्किल हो जायेगी ! यह ख़्याल दिमाग़ में आते ही, वह चौकीदार सर पर पाँव रखकर भग जाता है ! धीरे-धीरे, मंच पर अंधेरा छा जाता है !]

अंक छह मंज़र ५ राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

“अरे हुज़ूर, अभी चुग्गा खां ड्यूटी पर नहीं है !”

[मंच रोशन होता है, मुमु बाई के घर का मंज़र सामने आता है ! अब मुमु बाई बरतन मांजकर, उठती है ! फिर, वाशबेसिन के पास जाकर अपने हाथ धोती है ! तभी उसकी निग़ाह, दीवार-घड़ी पर गिरती है ! घड़ी रात के ग्यारह बजे का वक़्त बता रही है ! अब मुमु बाई को अब फ़िक्र सताने लगी कि, “उसने चुग्गा खां से क्यों कहा कि ‘वह स्कूल की चाबियाँ उसके घर रख दे ? चुग्गा खां तो चला गया, अब सेकेंडरी बोर्ड के पेपर्स की हिफ़ाज़त करेगा कौन ?’ अगर किसी ने, उन एग्जामिनेशन पेपर्स चुरा लिये तो..? हाय अल्लाह, तब इस लापरवाही बरतने की सारी जिम्मेवारी उस पर आ जायेगी !” इस तरह ख़ुद पर पेपर्स की हिफ़ाज़त का जुम्मा पड़ने से, वह घबरा जाती है ! अब वह दाऊद मियां को, चुग्गा खां के जाने की इतला करे या नहीं ? इसी उधेड़बुन में लगी मुमु बाई बार-बार क्रेडिल से चोगा उठाती है, और वापस रख देती है ! आख़िर, वह किसी तरह का आख़िर तजवीज़ [निर्णय] नहीं ले पाती कि उसे क्या करना है ? उस कारण इसी रंज से, दुखी होकर बड़बड़ाने लग जाती है !]

मुमु बाई – [बड़बड़ाती हुई] – हाय अल्लाह ! यह कैसी मुसीबत ले ली, मैंने मोल ? क्यों चाबियां रखवायी मैंने, अपने घर पर ? ज़माना ख़राब है, जागते इंसान की आँखों से कोई इबलीस चोर सुरमा चुरा लेता है ! यह बस्ती ठहरी मज़दूरों की ! यहाँ के लोग आये दिन आये दारु पीकर, उत्पात मचाते रहते हैं ! फिर इन लोगों के बच्चे, कौनसे शरीफ़ हैं ?

[आंगन में चौकी रखकर, बैठती है ! फिर पास ही आले में में रखा, चांदी का पानदान उठाती है ! उसमें से एक पान की गिलोरी बाहर निकालकर, अपने मुंह में ठूंसती है ! तभी, दरवाज़े पर दस्तक होती है ! वह उठकर, दरवाज़ा खोलती है ! सामने उसकी बूढ़ी अम्मीजान मरियम बीबी खड़ी दिखाई देती है ! वह अन्दर दाख़िल होकर, मुमु बाई के पास बैठ जाती है ! फिर वह, हड़बड़ाहट में कहती है !]

मरियम बीबी – [हड़बड़ाहट में, कहती है] – अरी छोरी, मैं क्या सुनकर आ रही हूं...क्या, तू जानती है ? तूने स्कूल की चाबियाँ अपने घर पर रखवा ली, क्या यह सच्च है ?

मुमु बाई – अम्मा, अब क्या कहूं तुमको ? इन स्कूल वालों को मुझ पर इतना ताइद [एतबार] है, वे स्कूल की चाबियाँ मेरे घर पर ही अक्सर रखा करते हैं ! चाबियाँ आज़ मैंने पहली बार नहीं रखी है, ये लोग तो रोज़ रखते आये हैं !

मरियम बीबी – [फटकारती हुई, ज़ोर से कहती है] – ज़ाहिल कहीं की, कुछ समझती ही नहीं ? जानती नहीं, चोरी कौन करता है और पकड़ा कौन जाता है ? आज़ के दिन ही नेकबख्त फ़तेह अली साहब के रिहाइशखाने पर, पुलिस ने चोरी का माल बरामद किया है ! उनके लाडले बेटे मंसूरे को, पुलिस पकड़कर ले गयी है !

मुमु बाई – [चौंकाती हुई, कहती है] – क्या कहा ? मंसूरा...? हाय अल्लाह, यह छोरा तो अल्लाह मियां की गाय सरीख़ा लगता था ! जानती हूं, अक्सर वह छोरा सेकेंडरी स्कूल में बिजली का काम करता है...ख़ुदा रहम, छोरे पर, बड़ी बी कितना भरोसा रखती है ?क्या ज़माना आया, अम्मा ? अब किस आदमी पर वसूक रखे, और किस पर न रखें ?

मरियम बीबी – देख बेटी, इमतिहान के पेपर्स रखे हैं स्कूल में ! तू जानती नहीं, कल तेरा भतीजा अल्लानूरिया क्या बक रहा था..? प्राइमरी स्कूल की बिल्डिंग के स्टोर के कमरे में इमतिहान की पुरानी कोपियां रखी थी, इन कोलोनी के छोरों ने उनकी चोरी की ! फिर उन कोपियों को, रद्दी के भाव कबाड़ी को बेच डाली !

मुमु बाई – [अचरच करती हुई, कहती है] – हाय अल्लाह, यह क्या मैं सुन रही हूं ? क्या, यह सच्च है ?

मरियम बीबी – हां बेटी, अब ये नामाकूल सेकेंडरी स्कूल में चोरी करने का प्लान बना रहे हैं ! वे बोर्ड इमतिहान के पेपर्स की चोरी करेंगे, फिर एक-एक पेपर को पांच-पांच सौ रुपये में बेचेंगे ! तू तो ठहरी, कोदन....तूझमें कोई अक्ल नाम की कोई चीज़ नही, जो बिना सोचे ज़ोखिम उठा रही है ?

[मुमु बाई की ज़ब्हा पर फ़िक्र की रेखाएं नज़र आने लगी, आख़िर परेशान होकर वह दोनों हाथ अपने सर पर रखकर बैठ जाती है ! हिदायत देकर अब मरियम बीबी उठती है, और जाते-जाते कहती है !]

मरियम बी – [जाते-जाते, कहती है] – मैंने आग़ाह कर दिया है, तूझे ! अब तू छोटी बच्ची नहीं रही, जिसे बार-बार समझाती रहूँ ? दो बच्चों की मां है तू, अब तू अक्ल से काम लेना ! जाती हूं, छोरी ! अल्लाह, तूझे सलामत रखे !

मरियम बी रुख़्सत होती है, अब मुमु बाई क्रेडिल से चोगा उठाकर दाऊद मियां के नंबर डायल करती है ! अब फ़ोन पर घंटी सुनायी देती है, थोड़ी देर में दाऊद मियां की आवाज़ सुनायी देती है !]

दाऊद मियां – [फ़ोन पर] – हेल्लो, कौन साहब बोल रहे हैं ?

मुमु बाई – [फ़ोन से] – मैं मुमु बाई बोल रही हूं, हेड साहब !

दाऊद मियां – फ़रमाइए, मोहतरमा !

मुमु बाई – [फ़ोन से] – अरे हुज़ूर, अभी चुग्गा खां ड्यूटी पर नहीं है ! वे अपने काबिने के साथ, गाँव चले गए हैं ! स्कूल की चाबियाँ, मेरे घर पर रखकर गए हैं ! मैंने आपको इतला दे दी है, अब आप जाने और आपका काम जाने ! जल्द घर आकर, स्कूल की चाबियाँ ले जाइएगा !

[इतना कहकर, मुमु बाई चोगा क्रेडिल पर रख देती है ! फिर, लम्बी-लम्बी साँसें लेती हुई दीवार घड़ी को देखती है ! घड़ी में रात के, बारह बजे हैं ! इधर काली रात होने के कारण, छत्त पर बिल्लियों की गुर्राहट की आवाजें सुनायी देती है ! जो धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है ! और उधर गली के कुत्ते, एक सुर में कूकने लगते हैं ! मुमु बाई को, इन शुगुन-अपशुगुन से क्या लेना-देना ? वह तो इन्तिज़ार करने लगी, दाऊद मियां आये, और ले जाए चाबियाँ..तब, वह खूंटी तानकर सो जाएगी आराम से ! थोड़ा वक़्त बीत जाता है, और बाद में दरवाज़े पर दस्तक सुनायी देती है ! बड़बड़ाती हुई मुमु बाई, दरवाज़ा खोलती है !]

मुमु बाई – [बड़बड़ाती हुई] – अब, आ गया करमज़ला ! रात के बारह बजे हैं, यह कोई आने का वक़्त है ?

[मुमु बाई दरवाज़ा खोलती है, सामने दाऊद मियां खड़े दिखाई देते हैं ! फिर क्या ? मुमु बाई झट आले में रखी चाबियाँ लेकर उन्हें थमा देती है, और कह देती है !]

मुमु बाई – संभाल लीजिये अपनी चाबियां, अब मेरी जिम्मेवारी ख़त्म हो गयी ! अब जाइए, जनाब ! मुझे नींद आ रही है, ख़ुदा हाफ़िज ! [फिर भड़ाक से, दरवाज़ा बंद कर देती है !]

दाऊद मियां – [बाहर खड़े-खड़े, बड़बड़ाते हैं] – यह क्या ? यह मोहतरमा तो बड़ी बदतमीज़ निकली ? मुझसे इंसानियत की नज़र से यह भी नहीं कहा कि ‘हेड साहब अब स्कूल में कौन रुकेगा ? अगर आप रुकते हैं तो आपके ओढ़ने के लिए चादर और बिछाने के लिए चटाई वगैरा दे दूं ?’ मगर इसने तो तहज़ीब को कुए में डालकर, दरवाज़ा बंद कर डाला !

[आख़िर मुंह चढ़ाए दाऊद मियां, स्कूल की तरफ़ क़दम बढ़ा देते हैं ! थोड़ी देर बाद स्कूल पहुंचकर, वे स्कूल का ताला खोलकर बरामदे में दाख़िल होते हैं ! बड़ी बी के कमरे का ताला खींचकर देख लेते हैं कि, ताला अच्छी तरह से लगाया गया या नहीं ? उसे सुरुक्षित पाकर, वे बरामदे में रखे बड़े संदूक पर लेट जाते हैं ! यह बॉक्स उस बॉक्स जितना बड़ा है, जो क़ब्रिस्तान में लाश दफ़नाने के लिए काम आता है ! यह बॉक्स, परीक्षा सामग्री रखने के लिए काम आता है ! दाऊद मियां को, लेट जाने के बाद नींद आना उनके नसीब में नहीं ! जबकि स्कूल में वे कुर्सी पर बैठे-बैठे आराम से खर्राटे ले लिया करते हैं, मगर यहाँ अभी रात में इन शैतान मच्छरों के संगीत ने उनकी नींद हराम कर डाली ! पूरी रात ये मच्छर उनके कान और नाक के पास भन-भनाकर संगीत सुनाते रहे, सुबह क़रीब पांच बजे ठंडी हवा के झोंकों के कारण ये मच्छर पलायन कर गए ! तब कहीं जाकर, दाऊद मियां क़रीब एक घंटा आराम से सोये होंगे..तभी सुबह छह बजते ही दरवाज़े पर मेमूना भाई दस्तक देने लगे, और मियां की आँख खुल जाती है ! दाऊद मियां उठकर, दरवाज़ा खोलते हैं !] उनको देखकर, मेमूना भाई को अचरच होता है..और वे, दाऊद मियां से कह बैठते हैं ! ]

मेमूना भाई – हेड साहब, आदाब ! अभी हुज़ूर, आप यहाँ कैसे ? कहीं आपकी मेम साहिबा से झगड़ा तो नहीं हो गया ? या फिर कहीं ऐसा तो न हुआ हो, रात को आप घर देरी से पहुंचे और दरवाज़ा खोला नहीं गया...? [उस बड़े संदूक पर निग़ाह डालते हुए] यह क्या, हेड साहेब ? अरे हुज़ूर, बिना बिस्तर कैसे लेट गए आप ? कमरे के अन्दर चुग्गा खां का बिस्तर रखा है ना..तकिया और चादर वगैरा ले लेते, आप ? कहीं जनाब यह मच्छरों का झुण्ड आपको काट लेता तो, मलेरिया की बीमारी मोल लेनी पड़ती आपको !

दाऊद मियां – [गुस्से से, कहते हैं] – मुझे क्या मालुम, कहाँ रखा है चुग्गा खां का बिस्तर ? चुग्गा मियां बिना कहे, चल दिए अपने गाँव ! आख़िर,बोर्ड के पेपर्स की हिफ़ाजत करनी थी, इसलिए अचानक यहाँ आना पड़ा ! मुझे कोई शौक नहीं, मच्छरों का संगीत सुनने का !

मेमूना भाई – अरे हुज़ूर, आप साहब लोग पले हैं नवाबी में ! टी-क्लब के पीछे वाले कमरे में आप जायेंगे, क्यों ? अलमारी के ऊपर चुग्गा खां का बिस्तर रखा हैं..ज़रा देख लेते, आप..? आप ठहरे हेड साहेब, मच्छरों का संगीत हमारे जैसे चपरासियों के ही नसीब में है ! हुजूरे आला, कहाँ ऐसे...

[मेमूना भाई की कही गयी सही-सही बातें दाऊद मियां के दिल में चुभने लगी, उन्होंने नाराज़ होकर चुप्पी साध ली ! फिर पाँव पटकते हुए, हेड-पम्प की तरफ़ चले जाते हैं ! वहां वे अपने हाथ-मुंह धोते नज़र आते हैं ! मंच पर, अँधेरा छा जाता है !]

अंक छह मंज़र ६ राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

“साहब...गुलाम बीबी के”

[मंच रोशन होता है, स्कूल के बरामदे का मंज़र दिखाई देता है ! दीवार पर टंगी दीवार घड़ी, सुबह के ग्यारह बजने का वक़्त बता रही है ! रूख्सत विला इतला रहने का वाकया, को बीते क़रीब बीस रोज़ हो गए हैं ! अभी मेमूना भाई बग़ीचे में पौधों को पाइप से पानी दे रहे हैं ! तभी उदास चेहरा लिए चुग्गा खां आकर, बग़ीचे में लगी पत्थर की बैंच पर बैठ जाते हैं ! अब मेमूना भाई पौधों की क्यारियों में पाइप को खुला छोड़कर, चुग्गा खां के पास आते हैं ! वहां उनके पास आकर, वे बैंच पर बैठते हैं ! अब उनके बीच, गुफ़्तगू शुरू होती है !]

चुग्गा खां – [मायूसी से] – क्या करूँ, मियां ? हेड साहब भी कमाल के निकले, मुझसे पूछा न ताछा..बाइशेरश्क, चल दिए बड़ी बी के कान भरने ! फिर क्या ? बड़ी बी ठहरी, कान की कच्ची ! उन्होंने बिना-सोचे-समझे, मुझे वापस नाईट-ड्यूटी पर बुला डाला !

मेमूना भाई – ज़माना ख़राब है, मियां ! अब तो किसी पर भरोसा नहीं रहा..आप ख़ुद देख लीजिएगा, इस मुमु बाई को सारा वाकया बताकर ही, आप रुख़्सत हुए थे ! मगर, उसने दाऊद मियां को कुछ नहीं बताया ! फिर बड़ी बी ने, आपकी छुट्टियां रद्द करके आपको ड्यूटी पर वापस बुला लिया !

चुग्गा खां – [ग़मगीन होकर] – आख़िर, हुआ क्या ? हुक्म की तामिल करने, मैं वापस आया ड्यूटी पर ! और उधर, अब्बा हुज़ूर का इंतकाल हो गया ! उनके इंतकाल के बाद, छुट्टियां मंज़ूर करके मुझे गाँव भेजा गया..वह कोई अहसान नहीं, मुझ पर ! मेरे अब्बाजान तो चले गए...[रोते हैं]

मेमूना भाई – हाय अल्लाह, दुनिया से जाते हुए आप अपने अब्बा हुज़ूर का मुंह न देख सके ! [सर को सहलाते हुए] अब रोओ मत, हिम्मत रखो ! मियां तुम तो जानते ही हो, यह सब ख़ुदा के हाथ में है !

चुग्गा खा – [रोते हुए, कहते हैं] – इस बेरहम बड़ी बी को देखो ज़रा, आते ही मुझे थमा दिया नाईट ड्यूटी करने का हुक्म ! और क्या कहूं, मेमूना भाई ? इधर हमारी ख़ातूनेखान ने हमें धमकी दे डाली कि इस बार मैं नाईट ड्यूटी हाथ में ली तो वह रूठकर अपने पीहर चली जायेगी ! हाय अल्लाह, अब क्या करूँ ? इधर गाँव में हमारे खेत में लहराती राइड़े की फ़सले....

मेमूना भाई – [दिलासा देते हुए, कहते हैं] – यार तू तो मेरा दोस्त है, तू बोल मेरे लायक कोई काम हो तो..? ज़रूर कहना !

चुग्गा खां – [ख़ुश होकर] – ऐसा करो, मेमूना भाई ! आप मेरी जगह नाईट ड्यूटी कर लें, इस बार ! सच्च कहता हूं, आपको किसी तरह की तकलीफ़ नहीं आयेगी ! क्योंकि, अभी इमतिहान भी नहीं चल रहे हैं !

मेमूना भाई – [शांति से, समझाते हुए] – देखो, चुग्गा भाई ! तुम फ़िक्र काहे करते हो ? राईड़े की फ़सल तैयार होगी, तब तुम उस फ़सल से तेल निकलवाओगे ! फिर, तुम उस तेल को बाज़ार में बेचोगे, तब तुम्हारे घर चार पैसे आयेंगे ! मगर मियां तुम अब यह बताओ कि, ‘अगर मैं तुम्हारी जगह रोज़ रात को स्कूल में नाईट ड्यूटी दूंगा, तब मुझे क्या फ़ायदा होगा ? तुम तो मियां, इस तरह पैसे कमा लोगे..मगर, मुझे क्या मिलेगा ? आना-जाना कुछ नहीं, फिर क्यों मैं नाईट ड्यूटी दूं ?

[अब चुग्गा खां को सारा माज़रा समझ में आ जाता है, कि ‘इस ख़िलक़त में में प्रेम व मोहब्बत से कोई काम करवाना संभव नहीं ! आज़ के इंसान, अब पैसे की भाषा समझने लगे हैं ! आपसी सम्बन्ध तो ख़ाली कहने और कहलाने की औपचाकरिता रही है ! इससे काम नहीं बनता ! इस तरह अब, चुग्गा खां व्यवहारिकता को समझ गए हैं ! फिर क्या ? फ़ायदा तो चुग्गा खां को ज़्यादा ही होगा, आख़िर इन दोनों के बीच सौदा पट जाता है कि, “अब आज से चुग्गा की जगह मेमूना भाई नाईट ड्यूटी देंगे, उसकी एवज़ में फ़सल कटने के बाद चुग्गा खां मेमूना भाई के घर दो पीपे भरकर राईड़े का तेल पहुंचा देंगे ! वह भी, उनसे बिना दाम लिए !” काम बन गया, चुग्गा खां का ! बस, चुग्गा खां भी ख़ुश, और मेमूना भाई भी ख़ुश ! स्कूल में पंखें के नीचे, सपरिवार सोने का आनंद मेमूना भाई को अलग ! इस तरह घर पर बिजली का मीटर भी नहीं चलेगा, और साथ में स्नान और कपड़े धोने के लिए स्कूल में भरपूर जल के उपयोग का भी आनंद ! बस, फिर क्या ? ख़ुशी से अपने घर चल देते हैं, चुग्गा खां ! घर का दरवाज़ा खोलकर, वे अन्दर दाख़िल होते हैं ! दाख़िल होने के बाद, वे क्या देखते हैं ? उनकी बेग़म अपनी पड़ोसन से गुफ़्तगू कर रही है, और साथ-साथ दोनों मोहतारमाएं हंसी के ठहाके भी लगाती जा रही है ! उनकी गुफ़्तगू में बाधा डालते हुए, चुग्गा खां अपनी बेग़म को खुश-ख़बर सुना देते हैं !]

चुग्गा खां – [ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए] – ख़ुश-ख़बरी..ख़ुश-ख़बरी ! बेग़म, तुम सुनकर खुशी से बाग़-बाग़ हो जाओगी ! नाईट ड्यूटी रद्द हो गयी है, गाँव चलने के लिए सामान बाँध लो बेग़म !

[ख़ातूनेखान, आख़िर चाहती क्या..? बस यही, कि ‘चुग्गा खां की नाईट ड्यूटी किसी तरह रद्द हो जाए..और क्या ?’ घर बैठे मिल गए लड्डू...फिर तो मोहतरमा का चहकना, वाज़िब है ! फिर क्या ? वह चहकती हुई, चुग्गा खा से कहने लगी !]

फ़क़ीरे अम्मी – [चहकती हुई, कहती है] – अब जल्दी करो, मियां ! जल्द नहाकर आ जाओ, मैं चूल्हे पर चाय चढ़ा रही हूं ! बहुत अच्छा हुआ, अब ख़ुदा के मेहर से मैं सरसों की रोटी और मक्की की रोटी लेकर आऊंगी खेत..फिर किसी झाड़ के नीचे बैठकर खायेंगे ! और, हम दोनों मिलकर गायेंगे “बीते रे दिन अब आयो रे...”

[कपड़े लेकर चुग्गा खां नहाने के लिए, घुसलखाने में दाख़िल होते हैं ! उन्हें नहाने में व्यस्त मानकर, दोनों मोहतारमाएं अपनी गुफ़्तगू वापस शुरू करती है ! मगर नहाते हुए चुग्गा खां को, इन दोनों की बातें साफ़-साफ़ सुनायी दे जाती है ! पड़ोसन कह रही है...]

पड़ोसन – फ़क़ीरे की अम्मी, अब तेरी तबीयत कैसी है ? मुझे तो ऐसा लगता है, तूझे तो कुछ हुआ ही नहीं !

फ़क़ीरे की अम्मी – [मुस्कराती हुई, कहती है] – ठीक है, तो ठीक ही रहूँगी..ख़राब हुई, कब ? अरे शन्नो बी, ये तो बीबी के अजमाए हुए तरीक़े हैं..किस तरह अपने शौहर को, अपने क़ाबू में किया जाय ? ख़ुद को फातमा आहिर: का आसेबज़द: नहीं दिखलाती, तो मियां कब अपनी नाईट ड्यूटी रद्द करवाते...?

[अब दोनों मोहतरमाएँ, ठहाके लगाकर हंसती है ! उधर यह उनकी हंसी, चुग्गा खां के कानों में गिरती है ! जो दहकते अंगारों के तरह, उनके दिल को जलाने लगती है ! अपनी बीबी का ऐसा बर्ताव देखकर, चुग्गा खां हैरान रह जाते हैं ! इस शकिस्ता-दिल को थामे, बरबस उनके मुंह से यह जुमला निकल जाता है !]

चुग्गा खां – [ग़मज़दा होकर] – हाय अल्लाह ! यह क्या, सुन रहा हूं मैं ? इस बीबी ने आख़िर हमको बना डाला “साहब....गुलाम बीबी के...?”

[चुग्गा खां को लगा कि, “अब इन दोनों मोहतरमाओं के ठहाकों को, बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे !” फिर क्या ? बाथ-रूम का नल फुल स्पीड से चालू करके नहाने लगते हैं ! नहाते-नहाते, चुग्गा खां फिल्म अभिनेता गोविंदा की तरह ज़ोर-ज़ोर से गाने लगते हैं – “मैं तो जोरू का गुलाम, बनाकर रहूँगा...” धीरे-धीरे, मंच पर अंधेरा छा जाता है !]

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर 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रचनाकार: हास्य - नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक छ: // राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
हास्य - नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक छ: // राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
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