कविताएँ सरिता प्रसाद मर्द का दर्द रोज रोज की भागा दौड़ी नए नए है प्रतिस्पर्धाएँ तय सीमाएँ और काम के बोझ तले दबती जाती है ये जिन्दगी बेचारा आख...
कविताएँ
सरिता प्रसाद
मर्द का दर्द
रोज रोज की भागा दौड़ी
नए नए है प्रतिस्पर्धाएँ
तय सीमाएँ और काम के बोझ तले
दबती जाती है ये जिन्दगी
बेचारा आखिर क्या करे
सिर पर पड़ी परिवार की
इतनी बड़ी जिम्मेदारियाँ
जाए तो जाए कहाँ
सिर पर भार पड़ी है
चलना संयम से है
कहीं डगमगा न जाए कदम
हर एक जिम्मेदारियाँ निभानी है
अश्रु को दबाए हुए नयनों में
दर्द को दबाए हुए सीने में
रो भी नहीं सकते वरना
ये जमाना भी हँसेगा
कहते हैं कि मर्द को दर्द नहीं होता
दर्द तो होता है बहुत सीने में
दबाए रखते हैं इन्हें
दिखाते नहीं जमाने को
दर्द के साथ मुस्कुराहट भी दब गई है
झुक गए हैं कमर बोझ उठाते-उठाते
उफ तक कह नहीं सकते
अभी भी जिम्मेदारियाँ उठानी है
अभी भी फर्ज निभाना है
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प्यासी ये धरती फिर से लहलहाई
चैत - बैसाख की तपती धूप,
नदी, तालाब, कुओं तक सूखा है पड़ा
वो चिलचिलाती धूप,
तन-मन को रही है सूखा
सभी जीव हैं त्रस्त,
तपिश सहते-सहते
कि अचानक आकाश है घन घनाया,
जाने आकर कहाँ से,
काले - काले बादल छाए
ठंडी - ठंडी तेज चली हवाएँ,
जन - जन का मन हर्षाया
वो गरगराहट वो सरसराहट,
वो मेघों का आपस में टकराना
वो बिजली का चमकना,
झमझमाती जाने कहाँ से आई वर्षा रानी
रात घनघोर अँधियारी छाई,
रात भर झमाझम सी पायल सी छनकाई
अब सुबह का समय,
है शांति छाई,
जीव तृप्त वृक्ष तृप्त,
है धरा और प्राण तृप्त
अब सारा जहां है तृप्त
जाने ये कैसी है अद्भुत शांति छाई
कितने दिनों से प्यासी थी यह धरती,
तृप्त हुयी आत्मा,
मन भी हर्षाया
तृप्ति का अनमोल - अद्भुत खजाना,
जाने कहाँ से वर्षा रानी ले आई
प्यासी ये धरती फिर से लहलहाई ।
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नापाक हरकतें
क्या मिला तुझे उस बेगुनाह का रक्त बहाने में
क्या मिला तुझे उस परिवार का घर जलाने में
क्या मिला तुझे दो पल की खुशियों के बदले में
किसी का जहां ही उजड़ गया
ऐ नादान महसूस कर उस दर्द को
नन्ही जान ने शायद दुनिया भी नहीं देखा हो
उसके सर से पिता का साया उठ गया
पत्नी के गुजर जाने से
पति का घर संसार ही लुट गया
तेरी ये नापाक हरकतें
किसी की दुनियाँ उजाड़ रही है
मत ले हमारे सब्र का इम्तिहान
अगर तुझ पर ऐसा ही बीत जाए तो क्या होगा
हम तो चाहे जैसे भी सह लेंगे
तेरे लिये उस जलजला को सहना कितना मुश्किल होगा ।
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डर गया डर
डर गया डर अब भाग कर कहाँ जाएगा
अपने कर्मों का फल अब गिन–गिन कर पाएगा
भाग गया सरगना मुँह छुपा रखा है किसी कोने में
छोड़ गया बेसहारा अपने गुर्गों को रोते में
चिथड़े उधेड़ रहे हैं बौखलाए हुए भुक्तभोगी
अब कैसे बचोगे अब कहाँ जनता बख्शेगी
कितनों के माँ बाप और बच्चों को मारा है तुमने
क्या सिक्ख क्या ईसाई कितनों के अस्मत को लूटा है तुमने
ऐ जल्लादों पाप का घड़ा भर गया है तुम्हारा
अभी ये कुछ भी नहीं और बुरा हाल होगा तुम्हारा
कहाँ गए वो किस्से कहानियों की बातें
आज जब अपनी जान पर बन आई है
सलामती की भीख मांग रहे हो
बड़े ही बेदर्दी से एक–एक को मारा है तुमने
उन अनजान बेकसूर और बेगुनाहों को
माफी के लायक नहीं है ये
दया की भीख न देना इनको
एक दिन तो यही होना था
आतंक के साम्राज्य को ढहना था
बड़े से बड़े चट्टानों को
चकनाचूर होते देखा है हमने
दहशत की लंका को
ढहते देखा है हमने
अंत अभी बाकी है यारो
खात्मा कर दो उस
आतंक के इस साम्राज्य को
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गुड़िया
बीज बनकर आई थी कोख में
वक्त बीत गया यूं ही कष्ट में
जन्म लेकर आ गई गोद में
नन्ही सी गुड़िया स्वर्णिम वो लम्हे
गुलाबी गुलाबी समा हुआ था
नाजुक हाथों के छुअन से तेरे
मन का आँगन खिल उठा था मेरा
मेरे बगिया के फूल बनकर तू आई
खुशियों की दुनिया आकर बसा दी
रौनक बनकर जीना सीखा दी
तू खुशबू है इस बगिया की
तू नूर है मेरी दुनिया की
वक्त का पहिया यूं ही घूमता गया
समय का घोड़ा दौड़ता गया
आज तू कितनी बड़ी हो चली है
उड़ान भरने को पर फड़फड़ाने चली है
तेरे पास होने पर कुछ आभास नहीं होता
दूर जाने पर याद तेरी आती है
आजा तुझे प्यार से चूम लूँ
बांहों की डाली में तुझको झुला लूँ
तेरी नजरे उतारूँ तुझको संवारु
इन थोड़े से लम्हों को सबसे चुरा लूँ
तुझे प्यार देकर खुद को जोड़ लूँ
नन्ही सी प्यारी सी कोमल सी गुड़िया
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औरत
ईश्वर इस जहां में
खुद को फुरसत में पाया होगा
तभी औरत तुम्हें बनाया होगा
औरत ही है वह जो
नौ महीने बीज को
गर्भ में अपने सँजोती है
लालन-पालन कर उसको
इंसान का रूप देती है
रोते बिलखते बच्चों को
ममता का सहारा देती है
उठते-गिरते लड़खड़ाते कदमों को
उँगलियों का सहारा देती है
अपनी छुअन से सारे दुख हर लेती है
योग्यता शिक्षा और संस्कारों
से सुसज्जित कर
एक शरीर में इंसान का निर्माण करती है
कि वह ममता की छांव में
योग्यता और संस्कारों की नाव में
व्यक्ति में व्यक्तित्व का निर्माण कर
एक सभ्य सुगठित परिवार और समाज
तथा देश का निर्माण कर सके
जो संसार की निर्मात्री है
तभी तो ईश्वर इस जहां में
जब खुद को फुरसत में पाया होगा
तभी औरत तुम्हें बनाया होगा
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आज भी वह मंजर याद आता है
आज भी वह मंजर याद आता है ,
लोगों की सिसकियाँ उनकी चीत्कार ,
बवंडर से भरा वह दृस्य ,
आज भी कलेजा दहला जाता है।
सोई दुनिया जागी सवेरा हुआ,
पर कहीं किसी के घर में अंधेरा हुआ।
माँ-बाप तो कहीं बच्चे,
एक दूसरे से जुदा हुए,
सोचकर वो दृस्य दिल घबराता है,
आज भी वो मंजर याद आता है।
आकाश में तारे आज भी टिमटिमाते हैं,
आज भी किसी की आंखों में टकटकी लगी है,
अपनों के इंतजार में आज भी खड़ा है।
चीत्कार कि आवाज आज भी सहमा जाता है,
आज भी वह मंजर याद आता है।
कही लाशों के ढेर कही मलबों के ढेर,
मलबों में दबी जीने की लालसा भड़ी आँखें,
सो गई चीड़ निद्रा में इंतजार करते-करते।
आज भी वो मंजर याद आता है।
आस्था की चाह आज भी जगमग है,
दहशत है दिल में फिर भी लोग जाते हैं,
उस शिव के भरोसे अपनी नैया सौंपकर,
उनके चरणों में आज भी शीश झुकाते हैं।
आज भी वो मंजर याद आता है।
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यह कहाँ का इंसाफ है!
अपनी असमर्थता दूसरों पर थोप देना
यह कहाँ का इंसाफ है!
दोष कोई एक करे
उसके साथ सभी को शामिल कर लेना
यह कहाँ का इंसाफ है!
जो ले गया लूट कर तिजोरी को
सही है सिकंजे में जकड़ना उसको
व्यवस्था के डोर को कसना सही है
परंतु पूरी व्यवस्था को दोषी ठहराना
यह कहाँ का इंसाफ है!
जब उधड़ने लगते हैं कमियों के चिथड़े
अपने दोषों को दूसरों पर मढ़ना
यह कहाँ का इंसाफ है!
इतनी हिम्मत बढ़ गई है इन लुटेरों की
जब चाहा लूट कर चल दिये
इनके किए की सजा भुगतती आम जनता
यह कहाँ का इंसाफ है!
सामर्थ्य हो ऐसी कि
पकड़ लाये इन लुटेरों को
चाहे भले छुपे हों दुनिया के किसी कोने में
अपनी असमर्थता की भड़ास निकालना
यह कहाँ का इंसाफ है!
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इतना आसान नहीं होता
एक औरत के लिए
आकाश को छूना
इतना आसान नहीं होता
अपने सपनों को
साकार करना
इतना आसान नहीं होता
अपने संसार का भार
सिर पर लिए हुए
सारे दुख सुख को
झेलते हुए
अपने सपनों को
रूप देना
इतना आसान नहीं होता
परिवार समाज के
रंग बिरंगे शब्दों को झेलकर
साहस और हिम्मत को
अपनी ढ़ाल बनाकर
अपनी इच्छाओं को
पूरा करना
इतना आसान नहीं होता
अपने दर्द को अनदेखा कर
सबकी मरहम बनती है वो
सचमुच इतना आसान नहीं होता
सिर पर अपने कई
जिम्मेदारियाँ उठाते हुए
भले बोझ तले
खुद क्यों न दबी रहे
फिर भी उफ नहीं करती वो
तभी तो वीरांगना
कहलाती है वो
दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी
का रूप लिए हुए
निरंतर चलती है वो
कभी माँ कभी बेटी
कभी बहु तो कभी अर्धांगिनी
कभी बहन कभी सच्ची-सलहकारिणी
बनकर पग पग पर
चलती है वो
तभी तो एक दिन
महारानी लक्ष्मी बाई सी बनती है वो
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धरा
क्यों क्रोधित है धरा
क्या तेरा जी भर आया है
है दर्द जख्म तेरे सीने में भरा
क्या सह सह कर तेरा कलेजा भर आया है
जब पूत ही कपूत हो जाते है
माँ का सीना ऐसे ही थर्राता है
है आतताइयों से तेरा आँचल जर्जर
पुत्र प्रेम है जो तुझको भरमाया है
न दिख रहा है इन निर्लज्जों को तेरा अश्रु
ये तो स्वार्थी है स्वार्थ के पुजारी है
व्यर्थ के दर्द तेरे सीने में उभरी है
ऐसा लगता है ये दर्द नहीं हैं तुझे सहन
तभी तू इतनी क्रोधित है धरा
तेरा सीना तभी थर्राया है
है दूर अश्रु अब तो
दर्द अब तेरा उभर आया है
क्यों क्रोधित है धरा
क्या तेरा जी भर आया है ।
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सरिता प्रसाद
द्वारा - उमेश प्रसाद
प्रसाद निकेतन, टुंगीदीघी, उत्तर दिनाजपुर, वेस्ट बंगाल।
ई-मेल आई.डी(email I.d) – saritapd123@gmail.com
कितनी आसान हो गई या कर दी गई है कविताई, रही-सही कसर आभासी मीडिया ने पूरी कर दिखाई; कोई भी घटना-प्रसंग, समस्या; हर कहीं कलम आजमाई. व्याकरण के सामान्य लिंग, वचनादि के नियमों के निर्वाह के प्रति कोई रूचि, न चिंता, न जिम्मेदारी निभाई; बहुत आसान है अब कविताई भाई, बधाई!
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ लाजवाब है ... एक से बढ़ कर एक ...
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