कहानी // ग्रहण // हरीश कुमार ‘अमित’

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ग्रहण हरीश कुमार ‘अमित’ ‘‘सुधीर, तुम पढ़ो.’’ कहते हुए मास्टर जी ने उसकी तरफ़ इशारा किया है. सुनते ही वह एकदम से हड़बड़ा गया है और बैंच से उठने ...

ग्रहण

हरीश कुमार ‘अमित’

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‘‘सुधीर, तुम पढ़ो.’’ कहते हुए मास्टर जी ने उसकी तरफ़ इशारा किया है.

सुनते ही वह एकदम से हड़बड़ा गया है और बैंच से उठने की कोशिश करने लगा है. मगर हड़बड़ाहट ने उसका संतुलन थोड़ा-सा बिगाड़ दिया है और वह अपने साथ बैठे लड़के पर गिरते-गिरते बचा है. एक हाथ में अंग्रेजी की किताब थामे, दूसरे हाथ से डेस्क का सहारा लेकर वह खड़ा हो गया है.

इस बात पर क्लास के सभी लड़के ख़ामोश बैठे रहे हैं, पर उसके साथ वाली लाइन के तीसरे बैंच पर बैठे संजीव की हँसी छूट गई है. और कोई मौका होता तो वह भी मुस्करा पड़ता, लेकिन इस वक़्त उसका मुँह उतरा हुआ है. अफ़सोस उसे संजीव की हँसी पर नहीं, इस बात पर हो रहा है कि मास्टर जी ने उसे पाठ की हिन्दी करने के लिए कह दिया है. पाठ तो उसे अच्छी तरह से आता है, लेकिन वह पढ़ेगा कैसे? किताब के अक्षर तो आजकल उसे इतने अस्पष्ट-से दिखाई देने लगे हैं कि सबके सामने पढ़ पाना उसके लिए नामुमकिन-सा ही हो गया है. घर में तो आँखों के आगे हाथ रखकर दो उंगलियों के बीच में से देखते हुए वह किसी तरह पढ़ लिया करता है, पर स्कूल में तो ऐसा नहीं किया जा सकता न. शर्म आती है.

नवीं क्लास शुरू हुए चार महीने हो चुके हैं, मगर अंग्रेजी के इन मास्टर जी ने आज पहली बार उसे पाठ की हिन्दी करने के लिए कहा है. छठी क्लास से वे ही उसे अंग्रेजी पढ़ा रहे हैं और यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि वह क्लास का सबसे होशियार लड़का है और जितना पढ़ाया गया हो, उतना उसे अच्छी तरह से आता होता है. क्लास में जब भी किसी लड़के को पाठ नहीं आता, ये मास्टर जी उससे ज़्यादा होशियार लड़के को पढ़ने के लिए कहते हैं. अगर उस लड़के की भी ग़लतियाँ निकलती हैं, तो उससे तेज़ लड़के को पढ़ने के लिए कहा जाता है. इस तरह पढ़ने के लिए उसकी (सुधीर की) बारी कभी आती ही नहीं, क्योंकि उससे पहले किसी-न-किसी लड़के ने सही-सही पाठ सुना दिया होता है और वह किताब सामने रखकर सुनने और कल्पना की आँखों से पढ़ते हुए पाठ को समझने की कोशिश करता है. सिर्फ़ उसी दिन उसकी आँखें पढ़ भी पाती हैं जिस दिन भाग्यवश छत के किसी छेद से धूप का कोई टुकड़ा उसकी किताब पर पड़ रहा हो. किताब धूप में रखी होने पर पढ़ने में उसे कोई तकलीफ़ नहीं हुआ करती. पढ़ तो वह तब भी लिया करता है जब कुछ-कुछ अंधेरे में बैठा हो. मगर इस साल तो उन्हें कमरा ही ऐसा मिला है जिसमें धूप, हवा और रोशनी काफ़ी आती है - उसके हिसाब से तो काफ़ी ज्यादा, वरना इससे पिछली क्लासों में तो उसकी कोशिश ज़रा-ज़रा अंधेरी जगह पर ही सीट लेने की रहती थी. ऐसा नहीं कि कम रोशनी में उसकी नज़र सामान्य हो जाया करती है, मगर फिर भी ऐसे में पढ़ने-लिखने में कोई ज़्यादा तकलीफ़ होनी उसे बंद हो जाती है. आसपास की चीज़ें भी दस-बारह फुट तक उसे काफ़ी हद तक साफ दिखाई देने लगती हैं. वरना धूप में तो आठ-दस फुट दूर खड़े आदमी को पहचान पाना भी उसके लिए मुश्किल काम होता है.

लेकिन आज का पाठ तो किसी भी दूसरे लड़के को नहीं आया. हिन्दी करने में हरेक कोई-न-कोई ग़लती करता ही रहा और आखि़र मास्टर जी को उसे ही पढ़ने के लिए कहना पड़ा.

हिन्दी या संस्कृत का पीरियड होता तब तो उसे परेशानी होती ही नहीं थी क्योंकि उन दोनों विषयों के मास्टर जी लड़कों को मेज़ के पास बुलाकर पाठ सुनते हैं. उन पीरियडों में जब कभी उसे पढ़ने के लिए कहा जाता है, वह मास्टर जी की मेज के पास किसी ऐसी जगह पर जाकर खड़ा हो जाता है जहां खिड़की से या छत के किसी छेद से धूप का कोई टुकड़ा किताब के पन्ने पर पड़ सकता हो. इस तरीके से सही-सही पाठ सुनाकर मास्टर जी की शाबाशी हासिल करने में वह आसानी से कामयाब हो जाया करता है. संयोगवश मास्टर जी की मेज़ की तरफ़ वाली छत में तीन-चार छेद हैं भी ऐसी-ऐसी मौके वाली जगहों पर कि सूरज का कोण बदलते रहने के बावजूद कोई-न-कोई छेद अपने हिस्से की धूप उसे उधार दे ही दिया करता है. बाकी दूसरे विषयों, गणित, सामाजिक ज्ञान, साधारण विज्ञान और ड्राइंग की क्लासों में पाठ पढ़ने की ज़रूरत पड़ती ही नहीं, इसलिए उन विषयों के पीरियडों में कम-से-कम ऐसी किसी दिक्कत से तो उसका वास्ता नहीं पड़ता.

मगर इस वक़्त का मामला तो बहुत गड़बड़वाला हो गया है. धूप की स्थिति देखने के लिये उसने सारे कमरे पर एक नज़र फेरी है. सर्दियाँ होने की वजह से सूरज डूबने ही वाला है और कमरे की छत से झाँक रहे धूप के टुकड़े दीवारों पर काफी ऊँचे चढ़ चुके हैं. मास्टर जी समेत सारी क्लास खामोशी में डूबी हुई उसके पाठ पढ़ने का इन्तजार कर रही है. अब ज़्यादा-से-ज़्यादा वह यही जता सकता है कि पाठ उसे नहीं आता, पर ऐसा करने के लिए भी तो पाठ पढ़ना ज़रूरी है. अंग्रेजी पढ़कर फिर चाहे उसकी हिन्दी ग़लत क्यों न कर दी जाए, पर पाठ तो पढ़ना ही पडेगा. लेकिन पाठ पढ़ पाना उसके बस में है कहां? उसका दिमाग़ तेज़ी से काम करने लगा है. तबीयत खराब होने का बहाना कर दे? पर अभी, मास्टर जी के उससे पाठ पढ़ने के लिए कहने से पहले तक तो वह जोशोख़रोश से उन मुश्किल शब्दों के अर्थ उन्हें बता रहा था जो पाठ की हिन्दी करते वक़्त दूसरे लड़कों को नहीं आ रहे थे. इसलिए यह बहाना तो अच्छा लगेगा नहीं.

संजीव की हँसी में उसे अपने बचने की राह नज़र आई है. उसने फौरन अपना मुँह रूआँसा बना लिया है और किताब हाथ में लेकर चुपचाप खड़ा यूँ जताने की कोशिश करने लगा है जैसे संजीव के हँसने से उसने अपने आप को बहुत बेइज़्ज़त महसूस किया हो. उसकी ओर शिकायत-भरी नज़रों से एक बार उसने देख भी लिया है.

‘‘क्यों भई, पढ़ क्यों नहीं रहे?’’ मास्टर जी को अपने इस सवाल का जवाब सिर्फ़ उसकी चुप्पी मिला है. उसने सोच लिया है कि पढ़ने के लिए अगर मास्टर जी ने उससे एक बार भी और कहा तो वह बस रोने लगेगा. सिर्फ़ ऐसा करने में ही उसे अपने बचने की सूरत नज़र आ रही है.

‘‘क्यों भई, संजीव के हँसने की वजह से नहीं पढ़ रहे? अच्छा चलो, बैठ जाओ. और सुनो संजीव, आज के बाद मेरी क्लास में ऐसे किसी पर कभी मत हँसना.’ मास्टर जी उसके और संजीव के पढ़ाई में होशियार होने की वजह से दोनों का लिहाज़ करते हैं.

वह चुपचाप बैठ गया है. चलो इस बार तो बच गए. आगे की आगे देखा जाएगी.

आँखें तो उसकी दरअसल जन्म से ही खराब हैं. उसके घर वालों को कहना है कि उसके पैदा होने से कुछ अरसा पहले उसके बीजी काफी बीमार हो गए थे. अंग्रेजी दवाओं से जब कोई फायदा नहीं हुआ तो एक वैद्य का इलाज किया गया था. डॉक्टरों के मुताबिक उन्हीं अंग्रेजी दवाओं और देसी दवाओं का रिएक्शन उसकी आंखों पर हो गया था. बचपन से ही अपनी उम्र के दूसरे बच्चों के मुकाबले उसे कम दिखाई देता था. मगर इसके बावजूद तीसरी क्लास तक उसका काम अच्छा-खासा चलता रहा था. लेकिन चौथी क्लास में पीछे बैठने पर सामने ब्लैकबोर्ड पर लिखे हुए को साफ़-साफ़ पढ़ सकना उसे मुश्किल लगने लगा था. तब उसने कुछ आगे बैठना शुरू किया था. और फिर तो और ज़्यादा आगे बैठने का यह सिलसिला चल ही पड़ा था. छठी क्लास तब आते-आते वह क्लास में सबसे आगे बैठा करता था. और फिर धीरे-धीरे उसे यहाँ से भी साफ-साफ दिखने में दिक्कत होने लगी थी. हां, कापी-किताब में लिखा हुआ वह अब भी किसी तरह पढ़ लिया करता था.

पिताजी उसके सरकारी नौकरी में थे - किसी ठीक-ठाक से ओहदे पर. उसकी आँखों के इलाज के लिए उन्होंने उसे कई डॉक्टरों को दिखाया था. डॉक्टरों का ख़याल था कि लड़का अभी छोटा है. इसे थोड़ा बड़ा होने दीजिए, तभी इसका इलाज किया जा सकेगा. उनके मुताबिक उसकी दोनों आंखों में मोतियाबिन्द था और ऑपरेशन ही उसका इलाज था. ऐनक लगाने से भी उसकी समस्या कोई हल हो जाने वाली नहीं थी. इसलिए वह बगैर ऐनक और इलाज के काम चला रहा था.

वह वही जानता था कि नज़र की कमज़ोरी के कारण उसे कितनी दिक्कत हुआ करती है, लेकिन इस बारे में उसने घर में कभी किसी को बताया नहीं था. वजह इसकी यही थी कि एक तो वह बहुत दब्बू और शर्मीले किस्म का लड़का था और दूसरे, उसके ख़्याल से घरवालों को अपनी तकलीफ़ के बारे में बताने से उनका दिल ही दुखना था, क्योंकि इसका कोई इलाज फिलहाल उनके पास भी था जो नहीं. ऑपरेशन अभी उसका एक-दो साल से पहले होना नहीं था और तब तक उसे किसी तरह गुज़ारा चलाना था. नज़र कमज़ोर होने के कारण जो शर्मिन्दगी उसे दूसरों, ख़ासतौर से स्कूल में अपने साथ पढ़नेवालों, के सामने उठानी पड़ती थी, वह भी वही जानता था. कम दिखने के कारण कई बार उससे ऐसी-ऐसी हरकतें हो जाया करतीं, जिनसे बाद में उसके हिस्से दूसरों की हँसी और व्यंग्य-वाण ही लगा करते.

सातवीं क्लास तक आते-आते ब्लैकबोर्ड पर लिखे हुए को पढ़ पाना उसके लिए बिल्कुल नामुमकिन हो गया था. बस कालेपन पर सफेद-सफेद-सा कुछ लिखा हुआ उसे नज़र आता. कॉपी-किताब में लिखे हुए को पढ़ने में भी उसे मुश्किल होने लगी थी. कॉपी-किताबों और उसकी आँखों के बीच का फासला धीरे-धीरे घटता जा रहा था.

और उस दिन तो हद ही हो गई थी. स्कूल में आधी छुट्टी के वक़्त वह किसी लड़के के पीछे-पीछे भाग रहा था. भागते-भागते अचानक उसके एक पैर से चप्पल निकल गई. वह रूक गया था. आसपास नज़रें गड़ा-गड़ाकर देखने पर भी चप्पल उसे कहीं नज़र नहीं आई थी. उसे पसीना छूटने लगा था - इस डर से नहीं कि कहीं चप्पल न गुम हो गई हो, बल्कि इस असहायता की वजह से कि उसकी आंखें पास ही कहीं गिरी हुई चप्पल को भी ढूँढ नहीं पा रही थी. जो लड़का उसके आगे-आगे भाग रहा था, वह उसे अपने पीछे न आता देख रूक गया था और उसे रूककर कुछ ढूँढता हुआ पा वापिस उसकी तरफ़ आने लगा था. उस लड़के ने उसके पास पहुंचते ही उसके सात-आठ फुट दूर पड़ी चप्पल उठाकर उसके पैरों के पास रख दी थी. उसकी आँखों की कमज़ोरी वाली बात वह जानता था. चप्पल पहनते ही वह ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा था. उस लड़के के उससे इस तरह हँसने की वजह पूछने पर वह कहने लगा था कि वह तो चप्पल न ढूँढ पाने की एक्टिंग कर रहा था. अपनी झेंप मिटाने का यह बहाना उसके दिमाग में अचानक ही न जाने कैसे आ गया था.

और उस दिन की बात भी उसे अक्सर याद आती रहती है. बड़ी दीदी के लिए कोई दवा लाने वह बाज़ार गया था. अब जिस दुकान पर जाकर उसने दवा माँगी, उसके हिसाब से वह दवाइयों की ही होनी चाहिए थी. मगर चटख धूपवाला वक़्त होने की वजह से उसकी आँखों ने उसका साथ नहीं दिया और उसका अन्दाजा ग़लत बैठा. वह दुकान किसी घड़ीसाज़ की निकली. घड़ीसाज़ ने जिस व्यंग्यभरे लहज़े से साथवाली दुकान की तरफ इशारा किया, वह उसके दिल में बहुत गहरे तक चुभ गया था. घड़ीसाज़ की दुकान पर मौजूद एक-दो सेल्समैनों और दो-तीन ग्राहकों की मिली-जुली हँसी ने इस चुभन को और भी तीखा कर दिया था. बाद में घर आकर अकेले में वह काफ़ी देर तक रोता रहा था.

इम्तहान के दिनों में भी उसे काफी तकलीफ़ हुआ करती है. जिस पेपर में उसके बैठने की जगह ज़रा अंधेरे में आ जाए उसमें तो खै़र उसे मुश्किल नहीं होती. उससे पढ़ा भी ठीक जाता है, लिखे जाने वाले कागज़ की लाइनें भी साफ़ नज़र आती हैं और लिख भी वह ठीक तरह से लेता है. लेकिन बदकिस्मती से अगर उसकी सीट दरवाज़े या खिड़की के पास आ जाए, तब तो मुसीबत ही टूट पड़ती है. प्रश्नपत्र तो वह किसी तरह आँखों पर ज़ोर डालकर पढ़ लिया करता है, पर इस तरह से लगातार तीन घंटे तक लिखा तो नहीं जा सकता न. दस-पंद्रह मिनट बाद ही आंखें दर्द करने लगेंगी और उनसे पानी बहना षुरू हो जाएगा. रोशनी में तो कागज़ पर खिंची लाइनें भी उसे सही-सही पता नहीं चलतीं. ऐसे में वह यूँ किया करता है कि काफी ज़ोर लगाकर लिखी जानेवाली लाइन के शुरू की जगह मालूम कर लिया करता है और फिर वहाँ से लिखना शुरू कर देता है. अपनी तरफ से तो वह सीधी लाइन में ही लिख रहा होता है, लेकिन असल में जो कुछ उससे लिखा जाता है, उसमें शायद ही कोई लाइन आखि़र तक सीधी रह पाती हो. तकरीबन आधी लिखी जा चुकने के बाद कोई लाइन ऊपर की ओर चली गई होती है और कोई नीचे की ओर. मगर इसके बावजूद ज़्यादातर विषयों में सबसे ज्यादा नंबर उसी के आया करते हैं. कुल जोड़ में तो पाँचवी क्लास में हमेशा वही पहले नंबर पर आ रहा है, चाहे वह इम्तहान तिमाही हों, छमाही हों या सालाना.

स्कूल वह हमेशा पाँच-सात मिनट पहले ही पहुँच जाया करता है. उसे डर रहता है कि कहीं स्कूल लग जाने की घंटी न बज गई हो और प्रार्थना के लिए क्लासों की लाइनें न बन गई हों, क्योंकि ऐसे में अपनी क्लास की लाइन ढूँढने में उसे बड़ी दिक्कत हुआ करती है. एक-दो बार तो अपनी क्लास की लाइन पहचान न पाने की वजह से वह किसी दूसरी लाइन में खड़ा हो गया था और बाद में उसे बड़ी शर्मिन्दगी उठानी पड़ी थी. घंटी बजने से पहले क्लास में पहुँच जाने पर तो क्लास में मौजूद लड़कों के साथ आराम से अपनेवाली लाइन में पहुँचा जा सकता है.

क्लास में जब भी कोई मास्टर जी लड़कों से कुछ पूछते हैं, वह हमेशा सिर झुकाए बैठा रहता है, क्योंकि अगर मास्टर जी जवाब में खड़े हाथों में से उसके हाथ की तरफ इशारा कर दें तो वह तो उनका इशारा समझ ही नहीं पाएगा. सिर झुकाकर बैठने पर तो मास्टर जी को उसका नाम पुकारना ही पड़ेगा.

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आज उनके स्कूल का इन्स्पेक्शन है. सर्दियाँ होने के कारण सब क्लासें बाहर धूप में लगी हुई हैं. संस्कृत के पीरियड के दौरान इंस्पेक्टर साहब उनकी क्लास में आए हैं. उनके साथ हेडमास्टर साहब भी हैं जिन्होंने आते ही उसकी तारीफ़ के पुल बाँधने शुरू कर दिए हैं कि यह हमारी क्लास का सबसे होशियार लड़का है; हमेशा फर्स्ट आया करता है; जो पूछो झट से बता देता है; वग़ैरह-वग़ैरह.

‘‘ये बात है! तो मिस्टर सुधीर, ऐसा करो कि इंग्लिश और संस्कृत की अपनी किताबें निकालो और उनके सोलहवें पाठ के छठे पैरे की ट्रांस्लेशन कर दो फटाफट!’’ इंस्पेक्टर साहब उसी से कह रहे हैं.

‘‘वाह इंस्पेक्टर साहब, पूछनी ही थी तो कोई मुश्किल बात पूछते. यह भी कोई बात पूछी है. ये दोनों पाठ तो मुझे रटे हुए हैं.’’ सोचते हुए बड़े जोश से अपने बस्ते से वे दोनों किताबें उसने निकाली हैं और फिर उनमें से अंग्रेजी की किताब लेकर खड़ा हो गया है. उसकी उंगलियाँ तेज़ी से सोलहवाँ पाठ ढूँढने लगी हैं. पाठ मिल जाने पर उसके छठे पैरे से दो-तीन शब्द ही अभी उसने पढ़े हैं कि..... अरे यह क्या! उसकी किताब के पन्नों पर चमक रही धूप एकदम से उड़ गई है. उसने सिर उठाकर सूरज की तरफ देखा है. आसमान बादलों में भरता जा रहा है और धूप निकलने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे. उसने मजबूरी से किताब के पन्नों की ओर नज़र फेरी है. अस्पष्ट-से अक्षर उसे अपना मुँह चिढ़ाते लग रहे हैं.

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हरीश कुमार ‘अमित’,

304, एम.एस. 4,

केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56,

गुड़गाँव-122011 (हरियाणा)

ई-मेल : harishkumaramit@yahoo.co.in

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रचनाकार: कहानी // ग्रहण // हरीश कुमार ‘अमित’
कहानी // ग्रहण // हरीश कुमार ‘अमित’
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