उपन्यास - रात के ग्यारह बजे - भाग 6 - राजेश माहेश्वरी

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उपन्यास रात के ग्यारह बजे - राजेश माहेश्वरी भाग 1   ||  भाग 2 ||  भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 || भाग 6 गौरव की जुबानी नागपुर की कहानी सुनकर...

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उपन्यास

रात के ग्यारह बजे

- राजेश माहेश्वरी

भाग 1  ||  भाग 2 ||  भाग 3 || भाग 4 || भाग 5 ||


भाग 6

गौरव की जुबानी नागपुर की कहानी सुनकर मानसी और राकेश स्तब्ध रह गये। मानसी ने कहा कि मुझे इस बारे में इतनी जानकारी नहीं थी। मैं आनन्द और पल्लवी के चरित्र से आश्चर्यचकित हूँ।

राकेश बोला- इसमें आश्चर्य की क्या बात है। दोनों की दोस्ती एक समझौता है। दोनों ही अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति में लिप्त हैं। पचमढ़ी का मौसम और खराब होता जा रहा था। बरसात और तेज हो गई थी। अब वहां पर रूकने का कोई मतलब नहीं था। इसलिये वे पचमढ़ी छोड़कर ट्रेन से वापिस रवाना हो गए। रास्ते में मानसी ने राकेश को पचमढ़ी में आनन्द से हुई बातें और गौरव के उसे आनन्द के प्रति आकर्षित करने के लिये किये गये प्रयास के संबंध में भी बतलाया। राकेश ने सारी बातें गम्भीरता पूर्वक सुनी किन्तु कोई उत्तर नहीं दिया। इस प्रकार अनेक खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ पचमढ़ी यात्रा का समापन हुआ।

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पचमढ़ी से लौटकर आज तीन दिन बाद राकेश घर पर बिस्तर पर पड़ा था। उसकी पत्नी आज बहुत प्रसन्न थी और सो चुकी थी। राकेश की आंखों से नींद गायब थी। उसका मन अशान्त था। आनन्द उसका पुराना मित्र था। उसके दोहरे चरित्र के संबंध में जानकारी प्राप्त होने पर उसे आश्चर्य हो रहा था। उसकी नजर में आनन्द अभी तक अत्यधिक भावुक, सीधा, सरल,ईमानदार और परोपकारी व्यक्ति था। उसने कुछ दिन पहले ही गौरव को बम्बई ले जाकर उसका एक मेजर आपरेशन करवाया था। उसकी पूरी सेवा भी स्वयं की थी और सारे खर्च भी वहन किये थे। उसका अपने मित्र के प्रति समर्पण एवं लगाव देखकर राकेश अभीभूत था। वह एक खानदानी धनाढ्य था जिसे धन की कोई कमी नहीं थी। कहीं-कहीं वह बहुत उदार हो जाता था तो कहीं-कहीं वह बहुत अधिक कंजूस भी हो जाता था। जैसे यदि वह चाहता तो मानसी की बेटियों आरती और भारती की पढ़ाई-लिखाई की पूरी व्यवस्था कर सकता था किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। मानसी को लेकर उसने जो कुछ किया था वह चौंका देने वाला था। राकेश के कारण ही वह मानसी और पल्लवी के संपर्क में आनन्द आया था। राकेश ने ही उनकी मित्रता कराई थी। आनन्द पल्लवी की ओर पहले आकर्षित हुआ था। वह चाहता तो मानसी के प्रति सहृदयता दिखलाता और आज मानसी के दिल में भी उसके प्रति सम्मान का भाव होता। लेकिन उसने उसकी जरा सी मदद करने से भी मुंह मोड़ लिया था। तभी तो राकेश को उसकी सहायता करना पड़ी थी। अब वही आनन्द मानसी के लिये कुछ भी करने को तैयार था। यहां तक कि वह राकेश की और अपनी वर्षों पुरानी मित्रता को भूलकर उसके साथ कुटिलता पूर्ण व्यवहार कर रहा था।

गौरव भी राकेश का पुराना मित्र था। वह भी उसी के साथ आनन्द के संपर्क में आया था और उनके बीच भी मित्रता कायम हुई थी। वह दोनों के साथ अपने संबंध भली-भांति कायम रखे था। वह जिसके साथ होता था उसके ही मन की बात करने में निपुण था। वह मन का बुरा आदमी नहीं था। कभी भी किसी को कोई गलत सलाह नहीं देता था। उसमें केवल एक ही कमजोरी थी कि वह बहुत अधिक कंजूस था। चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए ऐसे ही लोगों के लिये कहा गया होगा। महुआ-मूसर की हांकने में वह बहुत प्रवीण था। सामने वाले को अपनी ओर आकर्षित करने में वह सिद्धहस्त था। एक बियर में वह आपा खो कर मन के सारे भेद उगल देता था। उसने मानसी से जो कुछ कहा-सुना या किया वह उसने आनन्द के कहने पर ही किया होगा। अपने मन से वह ऐसा कुछ कर ही नहीं सकता था।

पल्लवी का पिछला जीवन बहुत कठिनाइयों और अभावों में बीता था। स्वाभाविक है कि उसका बचपन और किशोरावस्था बहुत अधिक लालसाओं से भरी हुई रही होगी। ऐसे में उसे जो लोग मिले उन्होंने उसे जिस धारा में मोड़ा वह उसी धारा में बह गई क्योंकि उसे उसमें अपनी लालसाओं की पूर्ति का रास्ता दिख रहा था। वह उचित और अनुचित को नहीं समझ सकी और आज भी नहीं समझती है। इस स्थिति ने ही उसे वह रुप दिया है जो आज उसका है। आनन्द से उसका परिचय राकेश के कारण ही हुआ था। इस परिचय से उसका जीवन संवर सकता है। यह बात राकेश ने भी उसे समझाई थी कि आनन्द उसके जीवन में किसी देवदूत के समान आया है, इसे खोना मत।

पल्लवी के समान ही मानसी का भी बचपन और किशोरावस्था अभावों में बीती, किन्तु उसका स्वभाव पल्लवी से अलग रहा। उसने अपने जीवन को संवारने के लिये वैसे प्रयास स्वीकार नहीं किये जैसे पल्लवी ने कर लिये। वह अपने परिश्रम और पुरूषार्थ के माध्यम से जीवन को संवारना चाहती है। राकेश के माध्यम से भी उसने केवल साधन जुटाने का प्रयास किया जिससे वह अपने परिश्रम के दम पर आगे बढ़ सके और अपने परिवार को सम्हाल सके। वह अपनी पुत्रियों को अभावों में नहीं देखना चाहती और उनके जीवन के प्रति सजग है। उसकी सोच में पल्लवी से पूरी भिन्नता और परिपक्वता है।

राकेश अपने विषय में सोचता है तो पाता है कि उसके लिये तो आनन्द और गौरव की खुशियां ही महत्वपूर्ण थीं और आज भी हैं। मानसी और पल्लवी तो अनजाने ही उनके बीच आ गईं हैं। आनन्द की मनः स्थिति के कारण जब वह पल्लवी के करीब आ रहा था तो उसने इसका कोई विरोध सिर्फ यह सोचकर नहीं किया था क्योंकि इसमें उसे आनन्द के चेहरे पर संतोष और प्रसन्नता दिख रही थी। गौरव की भूमिका तो तटस्थ थी किन्तु मानसी के साथ तो वह केवल इस कारण से जुड़ गया क्यों कि वह एक सहृदय और सच्ची महिला थी। वह एक ऐसी मां थी जिसे अपने बच्चों का जीवन संवारना था। वह अभावों से संघर्ष कर रही थी। इसी लिये वह उसकी मदद को आगे आया था। अब आनन्द मानसी की ओर खिंच रहा है और मानसी उससे दूर रहना चाहती है। इस सारे मकड़जाल के विषय में सोचता-सोचता ही राकेश कब सो गया उसे पता ही नहीं चला।

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समय तेजी से बीतता जा रहा था। राकेश जब सो कर उठा वह अपने आप को तरो-ताजा व प्रसन्नचित्त अनुभव कर रहा था। उसने अपने शयनकक्ष के परदे खोले तो सूर्योदय हो रहा था। सत्य का प्रकाश विचारों की किरणें बनकर चारों दिशाओं में फैल रहा था। वह प्रफुल्लित मन से चिन्तन कर रहा था। उसके मानस पटल पर पचमढ़ी की सभी घटनाएं एक-एक कर आ-जा रही थीं। सुख और सौहार्द्र का वातावरण उसे सृजन की दिशा में प्रेरित कर रहा था। आज की दिनचर्या का प्रारम्भ गम्भीरता से नये प्रयासों की समीक्षा कर रहा था। तमसो मा ज्योतिर्गमय के रुप में दिन का शुभारम्भ हो रहा था। वह मन हृदय व आत्मा में आगे आने वाले समय को देखने का प्रयास कर रहा था।

राकेश ने मानसी को वचन दिया था कि वह आरती को हीनताबोध से मुक्त करने के लिये प्रयास करेगा। उस दिशा में आगे बढ़कर उसने अपने मनोचिकित्सक मित्र के पास आरती को परीक्षण के लिये भिजवाया। वहां उसका पूरा परीक्षण करने के बाद चिकित्सक उसे कुछ सामान्य टानिक लिख देता है।

बाद में जब राकेश ने उससे संपर्क किया तो उसने बतलाया- आज समाज में लोग इतने भागमभाग में फंसे हुए हैं कि वे अपने बच्चों के लिये समय ही नहीं निकाल पाते। इससे बच्चों को माता-पिता का जो प्यार, जो संरक्षण और जो मार्गदर्शन मिलना चाहिए वह नहीं मिल पाता। वे अपने माता-पिता और घर के लोगों से उतना नहीं जुड़ पाते जितना उन्हें जुड़ना चाहिए। उनका जुड़ाव या तो अपने बाहरी मित्रों से होता है या फिर टी. वी., वीडियो गेम आदि से होता है। बाहरी मित्रों में भी उनके साथ अधिकांशतः वे ही मित्र जुड़ते हैं जो उनके ही समान परिवार से उपेक्षित होते हैं और जो अपने रास्ते से भटककर चमक-दमक भरे रास्तों पर आगे बढ़ गये होते हैं। स्वाभाविक है कि ऐसे हमजोलियों का साथ उनकी भावनाओं को और भड़काता है।

जो बच्चे टी. वी. से अधिक जुड़े होते हैं उनमें भी विस्फोटक प्रवृत्तियों का जन्म होता है क्योंकि सामान्यतः वे उसमें शिक्षाप्रद या खेलकूद से संबंधित चेनलों को देखने के स्थान पर या तो सीरियल देख रहे होते हैं या फिर वे फिल्में देखते हैं। आज के प्रतिस्पर्धात्मक व्यापारिक युग के चैनल जो सीरियल दिखाते हैं वे भावनाओं को भड़काने वाले होते हैं वरना उन्हें कौन देखेगा। जो फिल्म दिखलाई जाती हैं वे प्रायः हिन्सा और वासना पर आधारित होती हैं। इनमें हिंसा और वासना का वीभत्स रुप ही परोसा जाता है। परिणाम स्वरुप बच्चों में भी हिन्सात्मक और वासनात्मक विचारों, चेष्टाओं और आकांक्षाओं की जड़ें फैल जाती हैं जो आजीवन उनके साथ रहतीं हैं। जब इनकी पूर्ति नहीं होती तो हीनताबोध आता है। वे मानसिक बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। आरती का प्रकरण भी कुछ ऐसा ही है। उसमें अनेक उच्च-वर्गीय कामनाएं जन्म ले चुकी हैं। इसका कारण उसका ऐसे स्कूल में पढ़ना जिसमें उसके परिवार की अपेक्षा बहुत उच्च वर्गीय परिवार के बच्चे पढ़ते हैं, प्रमुख है। इसके अतिरिक्त वह ऐसे क्षेत्र में रहती है जहां अधिकांश सम्पन्न वर्ग के लोग रहते हैं। उनके रहन-सहन और खान-पान में और आरती के परिवार के रहन-सहन और खान-पान में भी बहुत अन्तर है। इन्हीं सब बातों ने उसमें हीनता बोध भर दिया है। इसीलिये उसमें फिल्म इन्डस्ट्रीज के प्रति बहुत अधिक जुड़ाव पैदा हो गया है, क्योंकि उसे वहां अपनी सारी कामनाओं की पूर्ति नजर आती है। अभी उसकी उम्र ऐसी नहीं है कि वह इस वास्तविकता को समझ सके। इसीलिये अभी तो आवश्यक है कि उसकी इन उच्च आकांक्षाओं की पूर्ति की जाए और फिर जब वह इस ओर से संतुष्ट हो जाए तो एवं उसमें कुछ परिपक्वता आ जाए तो उसे जीवन की वास्तविकताओं से धीरे-धीरे परिचित कराया जाए। उसे समाज में उच्च स्थान पाने के लिये आवश्यक श्रम और प्रयासों का ज्ञान कराया जाए। यह उपचार बड़े धैर्य और विवेक के साथ लम्बे समय तक करना होगा तभी वह सामान्य हो सकेगी।

वह उससे काफी देर तक वार्तालाप करने के बाद उसके हीनताबोध के तीन प्रमुख कारण राकेश को बतलाता है। पहला आरती ने कुछ माह पूर्व अपनी माँ को उसके पिता के द्वारा बेरहमी से पीटा जाते देखा था। उसके मन में बचाव करने की तीव्र अभिलाषा थी किन्तु वह मजबूर और असमर्थ थी। इसका प्रभाव उसके मानस पटल पर बहुत गहरा सदमे के रुप में पड़ा। दूसरा वह जिस विद्यालय में पढ़ने जाती थी। वहां पर दूसरे बच्चे अमीर घरों से थे जबकि उसके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। इसके कारण उसे हीनता का बोध होता था जिसका उसके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था। तीसरा उसकी इच्छा भी अन्य बच्चों के समान अच्छे-अच्छे रेस्टारेण्ट, बड़े-बड़े शॉपिंग माल और बड़े-बड़े खर्चे करने का होता था क्यों कि उसके सहपाठी प्रायः इनकी चर्चा करते थे। किन्तु धन के अभाव के कारण वह ऐसा करने में असमर्थ थी इसी कारण उसके मन में फिल्म उद्योग का भूत सवार हो गया था कि वह हीरोइन बनकर अपार धनराशि कमाएगी और अपने जीवन के सारे अभावों को दूर कर लेगी। समाज में उसका मान-सम्मान होगा और बड़े-बड़े लोग उसके पीछे-पीछे घूमेंगे।

यह जानने के बाद राकेश आरती के पिता को अपने कार्यालय में बुलाता है उन्हें प्रेमपूर्वक समझाता है कि हिन्सा या मारपीट किसी समस्या का निदान नहीं हैं। यह और भी समस्याओं को बढ़ा देती है। हमें प्यार और समझदारी से बच्चों एवं परिवार के अन्य सदस्यों से व्यवहार करना चाहिए। यही पारिवारिक सुख, शान्ति एवं उन्नति का पर्याय बनता है। उन्होंने भी इसे स्वीकार किया और भविष्य में इस दिशा में सतर्क रहने का आश्वासन दिया।

इसके बाद राकेश उनके घर आने-जाने का क्रम बढ़ जाता है। वह जब भी उसके घर जाता है आरती से जरुर बात करता है। धीरे-धीरे उसके और आरती के बीच खुलकर बात होने लगती है। कई बार वह मानसी और आरती को अपने साथ घुमाने भी ले जाता है। कभी वह उन्हें किसी अच्छे रेटारेण्ट में ले जाकर खाना आदि खिलाता है तो कभी कपड़ों आदि के शो रुम में ले जाकर उन्हें कपड़े और अन्य वस्तुएं दिलवाता है। इस प्रक्रिया में उसके काफी पैसे खर्च होते हैं किन्तु इससे आरती में भी काफी गुणात्मक परिवर्तन आना प्रारम्भ हो जाता है।

राकेश को अपने पारिवारिक कारणों से बम्बई जाना था। वह इस अवसर का लाभ उठाने का प्रयास करता है। वह आरती और मानसी को भी अपने साथ बम्बई ले जाता है। राकेश की मित्रता राजश्री प्रोडक्शन के स्टाफ से बहुत पुरानी थी। वह आरती और मानसी को वहां फिल्म की शूटिंग दिखाने ले जाता है। वहां वह उनकी मुलाकात फिल्म के प्रोडक्शन मेनेजर से भी करवाता है। वह आरती के सामने ही उससे आरती के मन की बात बतलाता है। वे आरती को समझाते हैं- बारह से अठारह साल तक की बालिकाओं को फिल्म इंडस्ट्रीज में काम मिलना कठिन होता है। बारह से कम उम्र की बच्चियों को बच्चों का रोल एवं अठारह से अधिक की बच्चियों को हीरोइन या साइड हीरोइन या अन्य कोई रोल मिल जाता है। इसलिये अभी तुम्हारी उम्र पढ़ाई की है, तुम मन लगाकर पढ़ाई करो, उसके बाद तुम मुझसे संपर्क करना मैं तुम्हारी मदद अवश्य करुंगा। अभी अपना समय बेकार ही नष्ट मत करो। इसका आरती पर बहुत प्रभाव पड़ा और उसके दिमाग से फिल्म का भूत लगभग उतर गया। बम्बई में राकेश उन्हें अच्छे रेस्टारेण्ट और होटलों में उन्हें ले जाता है। वह उन्हें अच्छी शॉपिंग भी करवाता है। इससे वे काफी प्रसन्न होते हैं क्योंकि उन्होंने तो कभी ऐसे स्थानों में जाने की कल्पना भी नहीं की थी।

बम्बई में उनके पास पर्याप्त समय था। एक दिन जब वे भोजन करने के बाद होटल में आकर बैठे थे और सोने की तैयारी कर रहे थे तभी मानसी ने राकेश से पूछा- आप जो कर रहे हैं इससे क्या इसके भविष्य में कोई अन्तर आने की संभावना है ? राकेश ने उसे समझाया- ईश्वर ने सभी को कोई न कोई प्रतिभा दी है और यह प्रतिभा परिचय की मोहताज नहीं होती। अनुकूल वातावरण मिलने पर वह स्वयं उभर कर सामने आती है। आवश्यकता होती है अनुकूल वातावरण की। किस्मत और परिस्थितियों के कारण उस प्रतिभा के सामने आने में देर हो सकती है। एक बात और है कि जहां प्रतिभा होती है वहां रचनात्मकता और सृजन होता है। प्रतिभा ईश्वर द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक सौन्दर्य है। उचित वातावरण मिलने पर यह खिल उठता है और उसके अभाव में यह घुट-घुट कर दम तोड़ देता है। एक की प्रतिभा जब खिलती है तो वह दूसरों को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। इससे समाज में भी सकारात्मक वातावरण का निर्माण होता है। हमें केवल उचित वातावरण देना है।

आरती में जिस क्षेत्र में भी प्रतिभा होगी वह उभर कर सामने आएगी और वह उस दिशा में आगे बढ़ जाएगी। यही उसके जीवन की सही दिशा होगी।

जिस प्रकार हम सपने देखते हैं उसी प्रकार बच्चे भी सपने देखते हैं। उनका भी अपना सपनों का संसार होता है। उनके अपने सपने होते हैं। बचपन एक ऐसी अवस्था है जिसमें आंखों में सिर्फ और सिर्फ प्यार होता है। उनकी खुली आंखों में भी प्यार होता है और उनकी बन्द आंखों में भी प्यार होता है। उनके सपनों में परियों की कहानियां होती हैं। वे नानी की कहानियां सुनकर अपने आप में खो जाते हैं। हमें उनसे उनका बचपन नहीं छीनना चाहिए। हो यह रहा है कि हम अपने स्वार्थ के लिये और अपने परिश्रम से बचने के लिये उन्हें टी वी और फिल्मों में उलझा देते हैं। हमारे पास उन्हें सुनाने के लिये कहानियां ही नहीं हैं और कहानियां हैं तो उन्हें सुनाने का समय नहीं है। हम इस बात को भूल जाते हैं कि उनका यह बचपन फिर नहीं आएगा। हमें उन्हें उनके बचपन को पूरी तरह खुलकर जीने देना चाहिए। उनके सर्वांगीण विकास के लिये यह बहुत आवश्यक है।

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(क्रमशः अगले भाग में जारी...)

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रचनाकार: उपन्यास - रात के ग्यारह बजे - भाग 6 - राजेश माहेश्वरी
उपन्यास - रात के ग्यारह बजे - भाग 6 - राजेश माहेश्वरी
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