वार्तालाप जिज्ञासुओं से - डॉ. महेन्द्र भटनागर की कु. पी. एषिल नाच्चियार से बातचीत

SHARE:

वार्तालाप जिज्ञासुओं से प्रश्नोत्तर : प्रश्न - कु. पी. एषिल नाच्चियार के / उत्तर - डा. महेंद्रभटनागर के रचनाकारों का कविता के प्रति आकर्षण क...

image

image

वार्तालाप जिज्ञासुओं से

प्रश्नोत्तर :

प्रश्न - कु. पी. एषिल नाच्चियार के / उत्तर - डा. महेंद्रभटनागर के

रचनाकारों का कविता के प्रति आकर्षण का क्या रहस्य है?

साहित्य-रचना में रुचि रखने वाले सर्वप्रथम कविता के प्रति आकृष्ट होते हैं। मानों कि उनकी अन्तः चेतना में साहित्य और कविता पर्यायवाची हैं। इसका कारण हमारे संस्कार हैं। कविता से हमारा नाता प्रथम रहा है। मुद्रणालय के अभाव में संसार का अधिकांश साहित्य कविता में ही रचा गया। कविता मनुष्य के कंठ में सुगमता से रच-बस जाती है। आदिकाल से कविता को लोकप्रिय बनाने में संगीत की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण रही है। जन्म से मृत्यु तक हमारे समस्त लोकाचार संगीत-बद्ध कविता से सम्पृक्त रहे हैं। इससे कविता की रोचकता में निरन्तर वृद्धि हुई। कविता के प्रति हमारे विशेष लगाव का रहस्य यही है। प्राचीनतम साहित्य में कवि की महिमा का गायन भी कोई कम नहीं हुआ। यथा-‘कवि रस तथा भाव का विमर्शक होता है।’ ‘काव्य’ लोकोत्तर वर्णना में निपुण कवि का कर्म होता है।’, ‘कवि क्रान्तदर्शी होता है-कवयः क्रान्तदर्शिनः’ ‘कवि अन्तर्निहित-तत्त्व का ज्ञानी होता है।’,‘तत्त्व-दर्शन से युक्त होने के कारण कवि कवि कहा जाता है।’, ‘कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू।’ आदि। ऐसे साहित्य-सृष्टा बहुत कम होंगे; जिन्होंने अपने साहित्यिक जीवन के प्रारम्भ में काव्य-रचना न की हो। भले ही कवि-कर्म में सफल न होने के कारण; वे आगे चल कर अन्य साहित्य-विधाओं की ओर उन्मुख हो गये। व्यक्ति स्वभाव से कवि होता है अर्थात् संवेदनशील होता है। भले ही, जीवन-भर वह एक भी काव्य-पंक्ति की रचना न करे। चूँकि उसमें रचना-सामर्थ्य नहीं होती; इसलिए उसे भावक कहा गया। कवि संवेदना को-विचारणा को-शब्दार्थ एवं कला के विभिन्न उपादानों द्वारा प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करता है। अभिव्यक्ति-कौशल ही उसे सार्थक कवि बनाता है।

प्रत्येक भाषा का अपना कविता-शिल्प होता है। कवि को इसमें पारंगत होना पड़ता है। कविता-शिल्प के अभाव में रचना गद्य-विधा का रूप ले लेती है। चूँकि उसमें भी अनुभूति, संवेदना, भाव, विचार, कल्पना, फंतासी, बिम्ब, प्रतीक, अलंकार-वक्रता, शब्द-परिशोधन आदि की उपस्थिति रहती है; इस कारण वे गद्यात्मक ‘कविताएँ’ भी आधुनिकता-बोध सम्पन्न बौद्धिक पाठकों को अरुचिपूर्ण नहीं लगती। अनूदित कविताओं का रूप-स्वरूप बहुत-कुछ इसी प्रकार का होता है। काव्यानुवाद में मूल भाषा का सौन्दर्य रूपान्तरित नहीं हो सकता। इसी कारण, काव्यानुवादों से सामाजिकों का उतना आवर्जन नहीं हो पाता; जितना आनन्द मूल भाषा के जानने वालों को आता है। अनूदित कविता पुनर्रचना बन कर ही मूल कविता के समान या उससे अधिक प्रभावी हो सकती है।

कविता का प्रभाव गद्य की तुलना में अधिक होता है। गद्य हमें वैचारिक उत्तेजना दे सकता है; किन्तु हमारे हृदय और मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव अंकित नहीं कर पाता। कविता का प्रभाव प्रेरक होता है। वह हमें सक्रिय बनाता है। गद्य से आशय उपदेश या भाषण से ही नहीं; वरन् गद्य में रचित विविध विधाओं के साहित्य से भी है- कथा-साहित्य, नाटक आदि से।

कविता वह ग्राह्य नहीं; जिसमें सम्प्रेषणीयता का अभाव पाया जाता है। जो शब्द-क्लिष्ट ही नहीं; अर्थ-क्लिष्ट भी होती है। दूसरे, वह कविता भी सम्मानित नहीं हो सकती जिसमें अश्रील, नग्न, घिनौने, गाली-गलौज भरे वर्णन निहित रहते हैं।

महाकवि तुलसीदास के अनुसार :

हृदय सिन्धु मति सीप समाना,

स्वाती सारद कहहिं सुजाना।

जो बरसै बर बारि बिचारू,

होंहि कवित मुक्ता मनि चारू।

भावों की सशक्त अभिव्यक्ति काव्य में किस रूप में होती है-कविता में या गीत में? और क्यों?

भावों की अभिव्यक्ति गीत में अधिक प्रबल रूप में होती है-यह तथ्य सर्वमान्य है। लघु-विस्तारी होने के कारण गीतों में भावाभिव्यक्ति को अधिक तीव्रता व सघनता मिलना स्वाभाविक है। गीत-रचना मंथर गति से आगे नहीं बढ़ती। कविता में मात्र भावाभिव्यक्ति ही नहीं; विचारों की अभिव्यक्ति भी होती है। विचार-कविता के नाम से एक विशिष्ट कविता को रेखांकित भी किया गया है। लेकिन गीत को विचार-गीत के नाम से कम-से-कम अभी-तक तो अभिहित नहीं किया गया है। कल्पना-तत्त्व एवं भाव-तत्त्व गीत और कविता दोनों में द्रष्टव्य हैं। कविता में वर्णनात्मकता के लिए पर्याप्त अवकाश रहता है; किन्तु गीत में सूक्ष्म संकेत रहते हैं। उत्कृष्ट गीत ध्वनि-प्रधान होते हैं। लक्षणा का भी वहाँ अस्तित्व है। किन्तु मात्र अभिधामूलक गीतों की सृष्टि से मानव-हृदय उद्वेलित नहीं हो पाता। अपवाद हो सकते हैं। कविता में भी ध्वनि और लक्षणा को वरीयता दी जाती है; किन्तु उसमें सहज-स्वाभाविक कथन-भंगिमा भी विद्यमान रहती है। वीर रस की ओजस्वी कविताओं में यह तथ्य विशेष रूप से द्रष्टव्य है :

बुंदेलों-हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसीवाली रानी थी!

हास्य-रस की कविताएँ तो सीधी-सपाट होती ही हैं। उनमें शब्द-चमत्कार अधिक पाया जाता है। व्यंग्यार्थ होता है; किन्तु गूढ़ नहीं। व्यंग्यार्थ समझने में जन-साधारण को कोई कठिनाई नहीं होती। निष्कर्षतः कहा जा सकता है, गीत हो या कविता भावों की प्रबल-प्रभावी अभिव्यक्ति रचनाकार के व्यक्तित्व और उसके काव्य-संस्कारों पर निर्भर है। भावों का वाणी में अवतरण विशिष्ट अभिव्यक्ति-सौन्दर्य की माँग करता है। काव्य-कला के विभिन्न उपकरणों के प्रयोग से भावाभिव्यक्ति निखरती है; उसकी धार में तीव्रता आती है।

आत्माभिव्यंजना, संगीतात्मकता, रागात्मक अनुभूति, सौन्दर्यमयी कल्पना, वेदना-तत्त्व, संक्षिप्तता एवं कोमलकांत पदावली आदि अनेक गीति-तत्त्वों में से आप किन तत्त्वों को प्रमुखता देना चाहेंगे?

एक सफल-सार्थक गीत में अनेक गुण होते है; यथा-आकार लघु। विस्तार सीमित। भावों की तीव्रता और एकाग्रता बनाये रखने के लिए। एडगर एलेन पो के अनुसार, ‘प्रेरणा स्वभाव से ही क्षणिक होती है और केवल लघु कृतियों में ही निबद्ध होती है।’

गीत में संगीतात्मकता अनिवार्य है। विभिन्न वाद्यों के योग से गीत मानव-हृदय की अतल गहराइयों का स्पर्श करने में सक्षम हो उठता है। संतों ने संगीत का सहारा लिया। चाहे अनेक वाद्य-यंत्रों के साथ भक्ति-पदों का गायन हो; चाहे चिमटे या इकतारे पर साखियों-दोहों का उच्चार।

आत्म-अभिव्यक्ति गीत का प्रमुख गुण है। गीत व्यक्तिपरक होते हैं। बाह्य-तत्व उसमें गौण रहता है। यह आत्म-अभिव्यक्ति कोई निराली, अद्भुत, अटपटी नहीं होती। अतः गीतकार की आत्माभिव्यंजना जन-जन की आत्माभिव्यंजना बन जाती है। इसी कारण सामाजिकों का आवर्जन होता है। उन्हें आनन्दानुभूति होती है।

गीत में नुकीलापन होता है-केन्द्रीयता होती है। उसमें भावों, अनुभूतियों, विचारों की तीव्रता होने का रहस्य यही है।

गीत में भावों की अभिव्यक्ति अकृत्रिम, आडम्बर-रहित रहती है। गीतकार अलंकारों-प्रतीकों-बिम्बों के फेर में नहीं पड़ता। उसमें भावावेश स्वयं फूट बहता है। गीत इसी कारण अधिक हृदय-स्पर्शी होता है। इसका आशय यह नहीं कि बौद्धिक तत्त्व से उसे कोई सरोकार नहीं। गीत एक व्यवस्थित कलात्मक रचना है-प्रलाप नहीं। उसमें छंद का विधान रहता है। भाषा-सौन्दर्य पाया जाता है।

शिल्प की दृष्टि से गीत का स्थान ऊँचा है या कविता का?

शिल्प की दृष्टि से गीत कविता की अपेक्षा अधिक कलात्मक सतर्कता की माँग करता है। गीत में विषयानुकूल छंद-चयन का ही नहीं; शब्द-चयन का भी अत्यधिक ध्यान रखना पड़ता है। संक्षिप्त होने के कारण गीत की एक-एक पंक्ति सधी नपी-तुली होती है। उसमें कसावट होती है। शैथिल्प तो कविता में भी होना नहीं चाहिए; किन्तु अभिव्यक्ति-प्रवाह में बहुत-कुछ ऐसा भी समाविष्ट हो जाता है जो मूल भाव या विचार को वहन नहीं करता-भले ही कविता उसे निबाह ले जाती हो।

साहित्य का परम लक्ष्य समष्टिगत हित है। पर, गीतों में विलक्षणता-वैयक्तिकता की छाप रहती है। इस पर आपके विचार जानना चाहूंगी।

साहित्य का परम लक्ष्य समष्टिगत हित ही है। गीत भी इस शर्त को पूरी करते हैं। विलक्षणता या वैयक्तिकता यदि असामान्य होगी तो अवश्य वह सामाजिकों को आकर्षित नहीं कर सकेगी। व्यक्ति समाज की इकाई है; समाज का अंग है। उसकी व्यक्तिगत अनुभूतियाँ-अभिव्यक्तियाँ विलक्षण हो सकती हैं। पर अजूबी नहीं। विलक्षणता गीतकार/कवि को वैशिष्टय प्रदान करती है। वक्र-कथन और निजता से उसकी-सृष्टि निखरती है। उसमें नयापन आता है। वैयक्तिकता यदि उलझी हुई अथवा अस्वस्थ होगी तो उससे सामाजिकों का तादात्म्य सम्भव नहीं हो सकेगा। ऐसे रचनाकारों का अस्तित्व क्षणिक होता है। उन्हें समाज अंगीकार नहीं करता।

कवि से बढ़कर गीतकार से हमारा आत्मीय संबंध गहरा प्रतीत होता है। क्या मात्र गेयता से ही यह सम्भव होता है? अन्य कारण हो तो बताएँ।

निःसंदेह, इसका कारण गेयता है। संक्षिप्ति भी। गीत मानव-कंठ में सहज ही रच-बस जाते हैं। यही स्थिति सुभाषितों की है, दोहा-सोरठा, चतुष्पदियों आदि की है। जिनमें जीवन का गहन अनुभव निहित रहता है। छंद व तुकाश्रित रचनाएँ अपने अभिव्यक्ति-सौन्दर्य के कारण मानव को प्रभावित करती हैं। माना कि छंद-तुक पर निर्मित रचना कृत्रिम होती है; वह रचनाकार के विशिष्ट भाषा-संस्कार पर निर्भर रहती है। इस प्रक्रिया में भावावेश बाधित ज़रूर होता है। लेकिन अनुभवी-अभ्यस्त रचनाकार कृत्रिमता को हावी नहीं होने देते। उनका यही कौशल अथवा चमत्कार उन्हें सिद्ध-शिल्पी प्रमाणित करता है। यह वैशिष्टय सूक्ष्म शब्द-साधना और निरन्तर अभ्यास से आता है। क्योंकि अभिव्यक्ति का आधार तो भाषा ही है। यह भाषा यदि जन-भाषा होगी तो उसका प्रभाव-क्षेत्र अधिक व्यापक होगा।

‘A song, in true sense, transcends language' : एक अंग्रेज़ी कथन है कि गीत सही अर्थ में भाषातीत होता है। इस कथन पर आपके विचार।

गीत को भाषातीत कहकर हम उसे रहस्यवादी बना देते हैं। मानव के अनुभव, तर्क, विश्वास, वर्णन-शक्ति से परे की गयी रचना अस्पष्ट होगी। भाषातीत अभिव्यक्ति को उत्कृष्टता की सीमा से भी आगे की रचना हम भले ही मानें; भाषातीत रचनाकार को हम अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न भले ही मानें। सामान्य मस्तिष्क को तो ऐसी रचनाएँ दुरूह ही सिद्ध होंगी। अन्तर्दृष्टि यदि स्पष्ट नहीं तो ज्ञान अथवा बोध किस मानसिक प्रक्रिया से सम्भव होगा? आज के बौद्धिक-वैज्ञानिक युग में ‘इलहाम’ की विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी है।

लोकगीतों के बारे में आपके विचार जानना चाहूंगी।

लोकगीत अर्थात लोक में प्रचलित गीत। तीव्र भावाभिव्यक्ति के कारण लोकगीत को गीतिकाव्य का ही एक रूप माना जाना चाहिए। गीत की तरह लोकगीत भी लघु-विस्तारी होता है। वर्णनात्मक अथवा नाटकीय चमत्कार वाले लोकगीतों को छोड़कर। माना कि लोकगीतों में कला-सौष्ठव साहित्यिक गीतों की अपेक्षा कम पाया जाता है। गीति-रचना वैयक्तिक अधिक होती है; जबकि लोकगीत सार्वजनिक जीवन से अधिक सम्पृक्त रहता है। लोकगीतों की अपनी एक परम्परा होती है। वस्तुतः लोकगीतों का रचयिता तो एक ही व्यक्ति (अज्ञात) होता होगा; किन्तु उसमें लोक द्वारा समय-समय पर अनेक परिवर्तन-परिवर्धन होते रहते हैं। और इस प्रकार लोकगीत व्यक्ति-रचनाकार से कटकर लोक-मानस का अंग बन जाता है। लोकगीतों में लोक-संस्कृति का समावेश पाया जाता है। कुछ लोकगीत केवल स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले होते हैं; कुछ स्त्री-पुरुष द्वारा मिल कर सामूहिक रूप से गाये जाते हैं। अधिकतर लोकगीत ऋतुओं-पर्वों पर, किसी अनुष्ठान-विशेष पर, कार्यों पर (चक्की चलाते समय। फसल काटते समय।) होते हैं। साहित्यिक गीत रचने वाले गीतकार लोकगीतों से प्रेरणा अवश्य ग्रहण करते हैं।

प्राचीन काल के गीतों की अपेक्षा ‘नवगीत’ में शास्त्रीय बंधन ढीला होता जा रहा है। इस संबंध में आपके क्या विचार हैं।

नवगीत को इधर नवान्तर गीत के नाम से भी पुकारा जाने लगा है। नवगीत में प्राचीन काल वाले पदों-मुक्तकों जैसे शास्त्रीय बंधन तो देखने में नहीं आते; किन्तु गीत/प्रगीत (लिरिक) के समकक्ष वे अपना स्वतंत्र अस्तित्व अवश्य स्थापित करना चाहते हैं; जिससे नवगीत अभिधान का औचित्य सिद्ध हो सके। छंद-तुक का निर्वाह नवगीत में भी मिलता है। नवगीतकार लोकभाषा को अपना कर भी अपनी नवीनता सिद्ध करने की चेष्टा करता है। विशिष्ट अभिव्यक्ति-भंगिमा से रचना में नयापन आता ज़रूर है। परम्परागत रचना से पार्थक्य स्पष्ट दिखायी दे-ऐसी भावना रचनाकर्मी में अवश्य विद्यमान रहती है। कुछ नवगीत मुक्तछंद (छंद-मुक्त नहीं) में भी लिखे गये हैं। (द्रष्टव्य : ‘री हवा’ शीर्षक नवगीत। रचना-काल सन् 1949, रचयिता : महेंद्र भटनागर। इसमें भरपूर गेयता है। सांगीतिक सौन्दर्य है।) नवगीत की अवधारणा को स्पष्ट करने के यत्न नवगीत के पुरस्कर्ताओं ने समय-समय पर किये है। देखिए -राजेन्द्रप्रसाद सिंह, शम्भुनाथ सिंह, मधुकर गौड़, देवेंद्रनाथ शर्मा ‘इन्द्र’ आदि के वक्तव्य।

आपके गीतों में आशा-निराशा के समवेत द्वंद्व की झलक है। ऐसा क्यों?

निराशा-आशा एक ही सिक्के के दो पहलू है। जीवन में निराशा का भाग अधिक है। हमें पग-पग पर असफलताओं का सामना करना पड़ता है। मनुष्य का जीवन जटिल राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तंत्र से जकड़ा हुआ है। व्यक्ति न तो अपनी इच्छानुसार जीवन-यापन कर सकता है; न अपने सपनों को साकार। आन्तरिक और बाह्य प्रभाव उसे क़दम-क़दम पर नियंत्रित करते रहते हैं। जब-जब हमें निराशा हाथ लगती है; हम हताश होने लगते हैं। लेकिन हताशा जीवन का नाम नहीं। ऐसे क्षणों में ही मनुष्य अपनी आन्तरिक शक्तियों को टटोलता है, उन्हें मज़बूत करता है और आशा का दामन थामता है। आशा उसे बल प्रदान करती है। वह पुनः सक्रिय हो उठता है। आशावादी दर्शन निस्सार व खोखला नहीं माना जा सकता। वास्तविकता जो भी हो; आशा मनुष्य में नवीन शक्ति का संचार करती है। जीवन और जगत के प्रति उसमें आस्था उत्पन्न करती है। यह वह दृष्टिकोण है जो मनुष्य के भाग्य को बदल डालता है। निराशा भोगने वाले ही आशा के सौन्दर्य और उसकी सार्थकता का अनुभव कर सकते हैं। निराशा है तो निराशा की अभिव्यक्ति भी होगी। निराशा जीवन का कठोर यथार्थ है। लेकिन निराशा के कारण पस्तहिम्मत होना स्वस्थ जीवन-दर्शन नहीं।

आपके प्रिय गीतकार व कवि कौन-कौन हैं? अपनी प्रिय रचनाओं के बारे में बताएँ।

रचनाकार की सम्पूर्ण कला-सृष्टि / गीति-सृष्टि समान रूप से रोचक, उत्कृष्ट व प्रभावी नहीं होती। फिर भी, जिन कवियों की रचनाओं ने मुझे आकर्षित-प्रभावित किया; वे हैं-कबीर, तुलसी, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, ग़ालिब, निराला, महादेवी वर्मा, बच्चन, नेपाली, केदारनाथ अग्रवाल, सुमन, नीरज आदि। गीतों की तालिका तैयार करना समय-साध्य है। फिलहाल इतना ही।

क्या अनुवादित गीत में मूल गीत की आत्मा सुरक्षित रहती है?

गीत का अनुवाद करना सर्वाधिक कठिन कर्म है। गीत की अन्तर्वस्तु का ही अनुवाद सम्भव है; उसकी आत्मा को अन्य भाषा में उतारने का अर्थ-उस गीत की पुनर्रचना। मेरा आशय उन गीतों से है, जिनमें ध्वन्यार्थ होता है। अन्य गीत जो अपनी अन्तर्वस्तु मात्र से पहचाने जाते हैं सुगमतापूर्वक अनूदित हो सकते हैं। इन गीतों को सामान्य कोटि में नहीं रखा जा रहा। ऐसे गीतों में भी भाव होते हैं, कल्पना की उड़ान होती है, बिम्ब व प्रतीक होते हैं।

आगामी कवियों व गीतकारों के लिए क्या सुझाव देना चाहेंगे?

भावी कवियों-गीतकारों को आज सुझाव देने का कोई अर्थ नहीं; क्योंकि रचनाकार समसामयिक परिवेश की उपज होता है। भविष्य में कब और कहाँ क्या परिदृश्य होगा-कौन बता सकता है। भावी रचनाकारों का विवेक जाग्रत रहे; बस यही अपेक्षा है।

आदर्श पत्रिका के स्वरूप के विषय में आपके विचार क्या हैं?

आदर्श साहित्यिक पत्रिका के मानदण्ड अनेक हो सकते हैं। सर्वप्रथम तो उसे युग-सापेक्ष होना चाहिए। तत्कालीन साहित्यिक परिवेश ही उसमें प्रतिबिम्बत न हो; समसामयिक सांस्कृतिक, राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य/परिप्रेक्ष्य भी उसके व्यक्तित्व में हो। अनेक सम्पादक मात्र अपनी रुचि के रचनाकारों/लेखकों को अपनी पत्रिका में स्थान देते हैं। कहीं-कहीं तो गुटबंदी स्पष्ट दिखाई देती है। यह दलबंदी यदि मात्र विचारधारा तक सीमित हो तो बात एक सीमा तक समझ में आती है। व्यक्तिगत मैत्री-संबंधों के आधार पर रचनाकारों/लेखकों को अतिरंजित महत्त्व देना सम्पादकीय गरिमा के अनुरूप नहीं। रचनाओं के प्रकाशन में कुछ पत्रिकाएँ वित्तीय सहयोग को तरजीह देती हैं। जो उन्हें वित्तीय सहयोग प्रदान करते हैं; उनकी रचनाएँ ऐसी पत्रिकाओं में प्रकाशित करना; लगता है सम्पादक की विवशता होती है। लेकिन जब ऐसे पात्रों को आवश्यकता से अधिक महत्त्व देकर उनके कर्तृत्व का आकलन भी किया जाता है तो उसे ऐतिहासिक असंगति ही कहा जाएगा। ऐसी चेष्टाएँ न वर्तमान में स्वीकार्य होती है; न भविष्य में मान्य हो सकती हैं। अनेक निर्माणावस्था वाले स्तरीय रचनाकार/लेखक ऐसी पत्रिकाओं में स्थान नहीं पा पाते। यहाँ बात मैं उच्च-स्तर की पत्रिकाओं के संदर्भ में ही कर रहा हूँ। ऐसी पत्रिकाओं के लब्ध-प्रतिष्ठ सम्पादक, जब निष्पक्ष नहीं होंगे तो सामयिक साहित्य को क्षति निश्चित रूप से पहुँचेगी। अनेक साधारण स्तर के आलोचक ऐसी पत्रिकाओं के पुराने अंकों के आधार पर, जब ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में साहित्यालोचन-कर्म करते हैं तो बहुत-कुछ तो उनकी दृष्टि से अनदेखा रह ही जाता है; अनेक भ्रांतियों और ग़लत निष्कर्षों को भी वह जन्म देता है; और इस प्रकार भूल बार-बार दुहराई जाती है। इसका मार्जन साहित्येतिहास के वस्तुपरक अध्ययन-विश्लेषण द्वारा ही सम्भव है; और ऐसी स्थिति एक-न-एक दिन आती ज़रूर है-भले ही अनेक वर्षों/युगों के बाद।

आदर्श पत्रिका के सम्पादक को अपने व्यक्तिगत अहं से मुक्त रहना चाहिए। उसे रचनाकार को महत्त्व देना ही होगा। रचना-संशोधन की आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की सम्पादन-क्षमता वर्तमान में अप्रासंगिक हो गयी है। हिन्दी भाषा अपने प्रारम्भिक चरण से बहुत आगे बढ़ चुकी है। अभिव्यक्ति की नयी-नयी भंगिमाएँ निरन्तर आकार ले रही हैं। साहित्य आगे बढ़ रहा है। नये-नये साहित्य-रूप अस्तित्व में आ रहे हैं। अन्य भाषाओं के समान हिन्दी-साहित्य भी विश्व-साहित्य से प्रभावित हो रहा है। हिन्दी की आदर्श पत्रिका की गूँज आज देश-व्यापी ही नहीं; विश्व-व्यपी होनी चाहिए। हिन्दी-रचनाओं के अनुवाद देश की भाषाओं में ही नहीं-विश्व की भाषाओं में भी हों; हो रहे हैं।

जिस पत्रिका का अपना व्यक्तित्व नहीं; जिस पत्रिका का सम्पादन-मुद्रण सुरुचिपूर्ण नहीं; जिस पत्रिका में प्रूफ़ की अशुद्धियाँ रह जाएँ-ऐसी पत्रिका स्तरीय पत्रिका की कोटि में परिगणित ही नहीं हो सकती। साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाओं को स्थान बिना किसी पूर्वाग्रह के मिले-नये-लब्धप्रतिष्ठ का, महिला-पुरुष का, इस या उस राजनीतिक, धार्मिक मतवाद का, तथाकथित दलित-सवर्ण का, शत्रु-मित्र देश का आदि-आदि का विचार किये बिना।

Ä

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: वार्तालाप जिज्ञासुओं से - डॉ. महेन्द्र भटनागर की कु. पी. एषिल नाच्चियार से बातचीत
वार्तालाप जिज्ञासुओं से - डॉ. महेन्द्र भटनागर की कु. पी. एषिल नाच्चियार से बातचीत
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIYhF3shSue-uLDNWICBSoigr4RHUNh_cFhGUqx8flJIPkk0HgbXgQwBO1KiXRJmiewnGRCzDgYFVmrMjlEKE3rMagioSFuuyc8Pf9nmYiNwOHbb5oACR8u2d0CW__8Pe2Hhma/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIYhF3shSue-uLDNWICBSoigr4RHUNh_cFhGUqx8flJIPkk0HgbXgQwBO1KiXRJmiewnGRCzDgYFVmrMjlEKE3rMagioSFuuyc8Pf9nmYiNwOHbb5oACR8u2d0CW__8Pe2Hhma/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/09/blog-post_76.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/09/blog-post_76.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content