2 अक्तूबर - गांधी जयंती विशेष - चरखे में 'जीवन का संगीत' और खादी में 'जीने की रीत' // डॉ. चन्द्रकुमार जैन

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चरखे में 'जीवन का संगीत' और खादी में 'जीने की रीत' डॉ. चन्द्रकुमार जैन -----------------------------------------------------...

चरखे में 'जीवन का संगीत' और खादी में 'जीने की रीत'


डॉ. चन्द्रकुमार जैन

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गांधी और शांति अध्ययन के सम्मानित प्रवक्ता

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गांधी जी ने 1920 के दशक में गाँवों को आत्म निर्भर बनाने के लिए खादी के प्रचार-प्रसार पर बहुत जोर दिया था। स्मरण रहे कि खादी सिर्फ एक वस्त्र नहीं, स्वदेशी वस्तुओं और स्वदेश-प्रेम को बढ़ावा देने के लिए परिष्कृत विचार, शुद्ध भावना और एक स्वदेशी संवाद सेतु है। उसमें शांति की अवधारणा भी निहित है। हमें समझना होगा कि खादी महज़ कपड़ा नहीं है बल्कि एक जीवन शैली है। गांधी के लिए खादी अहिंसक भावधारा के रूप में उनकी आत्मा का संगीत बन चुकी थी। गांधी जी ने चरखे में जीवन का संगीत सुना और खादी में जीने की रीत का गहन अनुभव कियाबापू ने खादी को आत्मसात कर लिया था।   


इतिहास गवाह है कि एक प्रसंग में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने  महात्मा गांधी को ‘आधा नंगा फ़कीर’ कहा था। गांधी ने इस तल्ख़ टिप्पणी को बहुत सहजता से लिया था। शायद इसलिए कि चर्चिल वही देख और बोल रहे थे जो गांधी चाहते थे। एक भारतीय बहुत ही कम खादी के कपड़े पहने पानी के जहाज से इंग्लैण्ड की धरती पर उतरा था, यह ऐलान करने के लिए कि अब हर भारतीय के मन में पूरे आत्मसम्मान के साथ अपने दम पर जीने की चाह परवान चढ़ने लगी है। इतना ही नहीं, एक बार महात्मा गांधी ने चरखा चलानेवालों के लिए दो उदाहरण सामने रखे थे। पहला उदाहरण उन्होंने रखा था मुग़ल बादशाह औरंगजेब का जो अपनी टोपियां खुद ही बनाता था और दूसरा उदाहरण था कबीर का जिन्होंने गांधी के मुताबिक इस कला को अमर बना दिया था। झीनी-झीनी चदरिया बुनने वाले कबीर को तो गांधी ने बादशाहों का बादशाह कहकर अपनी भावना को प्रमाणित किया था।

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सच कहा जाए तो गांधी ने खादी को आज़ादी की लड़ाई में एक अचूक अस्त्र के रूप में अपनाया।  वह पराधीन भारत को आत्मनिर्भर बनाने की ज़ोरदार पहल भी थी। स्वदेशी आन्दोलन पहले से चल रहा था पर गांधी ने इसे विचार से लेकर आचार तक जन जीवन का अंग बनाने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी। खाड़ी उनके लिए एक अहिंसात्मक हथियार था। उसमें ' पूरब ' का आधार था और उसकी आभा भी।  वे लगातार समझाते रहे कि खादी सस्ता, शालीन और भारतीय परिवेश के लिए नितांत अनुकूल वस्त्र है। उसमें अपरिग्रह का उच्च भाव भी निहित था। चरखे की महिमा यह थी कि कोई भी इस पर सूत कात सकता था। उसमें राजा से लेकर रंक तक, वृद्ध से लेकर किशोर तक और किसी भी जाति, संप्रदाय और लिंग की कोई भी दूरी माने नहीं रखती थी। इस तरह बापू का चरखा समता, और समानता का वाहक बन गया था। लोढ़ाई, पिंजाई, ताना मारना, मांड़ लगाना, रंगाई और बुनाई की दुनिया में स्वावलम्बन की सीख की धुन सुनी जा सकती थी।

खादी के जन्म की कहानी भी कम रोचक नहीं है। अपनी आत्म कथा में बापू लिखते हैं -  मुझे याद नहीं पड़ता कि सन् 1915 में मैं दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान वापस आया , तब भी मैंने चरखे के दर्शन नहीं  किये थे। कोठियावाड़ और पालनपुर से करधा मिला और एक सिखाने वाला आया । उसने अपना पूरा हुनर नहीं बताया । परन्तु मगनलाल गाँधी शुरू किये हुए काम को जल्दी छोड़ने वाले न थे । उनके हाथ मे कारीगरी तो थी ही । इसलिए उन्होने बुनने की कला पूरी तरह समझ ली और फिर आश्रम में एक के बाद एक नये-नये बुनने वाले तैयार हुए । आगे गांधी जी लिखते हैं - हमें तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे । इसलिए आश्रमवासियों ने मिल के कपड़े पहनना बन्द किया और यह निश्चय किया कि वे हाथ-करधे पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेंगे । ऐसा करने से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला । इन बुनकरों को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जायेगा ।

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लेकिन गांधी जी के अनुसार न तो कहीं चरखा मिलता था और न कहीं चरखे का चलाने वाला मिलता था । कुकड़ियाँ आदि भरने के चरखे तो हमारे पास थे, पर उन पर काता जा सकता है इसका तो हमें ख़याल ही नहीं था । एक बार कालीदास वकील एक वकील एक बहन को खोजकर लाये । उन्होंने कहा कि यह बहन सूत कातकर दिखायेगी । उसके पास एक आश्रमवासी को भेजा , जो इस विषय में कुछ बता सकता था, मैं पूछताछ किया करता था । पर कातने का इजारा तो स्त्री का ही था । बापू स्पष्ट करते हैं कि सन् 1917 में मेरे गुजराती मित्र मुझे भड़ोच शिक्षा परिषद में घसीट ले गये थे । वहाँ महा साहसी विधवा बहन गंगाबाई मुझे मिली । वे पढी-लिखी अधिक नहीं थी , पर उनमें हिम्मत और समझदारी साधारणतया जितनी शिक्षित बहनों में होती है उससे अधिक थी । उन्होंने अपने जीवन में अस्पृश्यता की जड़ काट डाली थी, वे बेधड़क अंत्यजों में मिलती थीं और उनकी सेवा करती थी । उनके पास पैसा था , पर उनकी अपनी आवश्यकताएँ बहुत कम थीं । उनका शरीर कसा हुआ था । और चाहे जहाँ अकेले जाने में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती थी । वे घोड़े की सवारी के लिए भी तैयार रहती थी । इन बहन का विशेष परिचय गोधरा की परिषद में प्राप्त हुआ । अपना दुख मैंने उनके सामने रखा और दमयंती जिस प्रकार नल की खोज में भटकी थी, उसी प्रकार चरखे की खोज में भटकने की प्रतिज्ञा करके उन्होंने मेरा बोझ हलका कर दिया ।

उल्लेखनीय है कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा चंपारण सत्याग्रह पर लिखी गई किताब के अनुसार सत्याग्रह में जितना महत्वपूर्ण अंग्रेजी सरकार के शोषणकारी कानूनों का विरोध था, वहीं इन सत्याग्रहों को जन-आंदोलन बनाने के लिए गांधी जी की कार्यपद्धति में शिक्षा, सामुदायिक विकास और खादी की कताई-बुनाई जैसे बुनियादी कार्य भी शायद उतने ही महत्वपूर्ण थे। ज़ाहिर है कि चरखा और खादी आरम्भ से ही गांधी जी के जीवन और जीवन दर्शन के अभिन्न अंग रहे।

कवि सोहनलाल द्विवेदी की उक्त पंक्तियाँ भी खादी के विषय में बड़ी मर्म की बात कह देती हैं -

खादी के धागे धागे में

अपनेपन का अभिमान भरा,

माता का इसमें मान भरा

अन्यायी का अपमान भरा।

खादी के रेशे-रेशे में

अपने भाई का प्यार भरा,

माँ-बहनों का सत्कार भरा

बच्चों का मधुर दुलार भरा।

खादी की रजत चंद्रिका जब

आकर तन पर मुसकाती है,

तब नवजीवन की नई ज्योति

अन्तस्तल में जग जाती है।

याद रखना होगा कि खादी पर गांधी जी के दृष्टिकोण में निहित मर्म और सूत के एक-एक धागे के साथ जुड़ी स्वाधीनता, संवेदना, आत्म सम्मान की भावना को समझना आज भी समझदारी की बात है। वह आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने चरखे के चक्र में काल की गति के साथ तालमेल करने और उससे होड़ लेने की भी अनोखी शक्ति को गहराई से देख लिया था। लेकिन, खादी का जीवन और जीवन में खादी के अस्तित्व का सवाल आज मुंह बाए खड़ा है, भला इससे कौन इनकार कर सकता है ? मुनाफ़े के बाज़ार में खादी के इज़ाफ़े का सपना दम तोड़ रहा है तो कोई आश्चर्य भी बात नहीं। परन्तु, गांधी को ज़िंदा रखने वाली कोशिशें पहले खादी को ही अगर ज़िंदा रखने में कामयाब हो जाएँ तो सचमुच बड़ी बात होगी। लेखक का मानना है कि हम उसी खादी को एक नई पहचान देकर बापू की देशभक्ति से परिपूर्ण मुहिम को उनके जन्म के सार्ध शताब्दी वर्ष के साथ-साथ आने वाले समय में खादी जागरूकता आंदोलन के शताब्दी वर्ष के रूप में नयी पहचान दे सकते हैं। खादी में समायी 'नव जीवन की ज्योति ' को प्रज्ज्वलित रखने की जिम्मेदारी हम सब की है।

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हिंदी विभाग, शासकीय दिग्विजय

स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय,

राजनांदगांव ( छत्तीसगढ़ )

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: 2 अक्तूबर - गांधी जयंती विशेष - चरखे में 'जीवन का संगीत' और खादी में 'जीने की रीत' // डॉ. चन्द्रकुमार जैन
2 अक्तूबर - गांधी जयंती विशेष - चरखे में 'जीवन का संगीत' और खादी में 'जीने की रीत' // डॉ. चन्द्रकुमार जैन
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https://www.rachanakar.org/2018/10/2.html
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