संस्मरण // विष्णु खरे // गोवर्धन यादव

SHARE:

बहुत याद आओगे विष्णु भाई .......... विष्णु खरे ( 09 फ़रवरी 1940 : 19-सितम्बर 2018 ) यह सोचते और कहते हुए अपार पीड़ा होती है तथा लिखते समय हाथ...

बहुत याद आओगे विष्णु भाई..........

clip_image002

विष्णु खरे

( 09 फ़रवरी 1940 : 19-सितम्बर 2018 )

यह सोचते और कहते हुए अपार पीड़ा होती है तथा लिखते समय हाथ कांपते हैं कि एक स्वनामधन्य साहित्यकार, प्राध्यापक, एक निर्भीक पत्रकार, आलोचक, अनुवादक, शुभचिंतक तथा हिन्दी साहित्य अकादमी दिल्ली के उपाध्यक्ष, मित्र विष्णु खरे को हमने हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया है. साहित्याकाश का जगमगता यह नक्षत्र भले ही हमारी आँखों से ओझल हो गया है, लेकिन उसकी उपस्थिति हमेशा दिलों में बसी रहेगी. उनके कहे गए वाक्य कानों में गूंजते रहेंगे और वे अपनी कृतियों के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे.

विष्णु जी से मेरी मुलाकात बहुत पुरानी नहीं है, लेकिन उसे नयी भी नहीं कहा जा सकता. उन्नीसवीं सदी के नौंवे दशक में मेरी उनके पहली मुलाकात छिन्दवाड़ा में ही हुई थी. उस समय वे अपने किसी निजी काम से यहाँ आए हुए थे और एक साहित्यिक संस्था “चक्रव्यूह” जिसका गठन हमारी मित्र-मंडली ने मिलकर किया था, में मुख्य अतिथि के रुप में शिरकत कर रहे थे. कुछ समय पूर्व ही मैं बैतूल प्रधान डाकघर से तबादला लेकर छिन्दवाड़ा आया था. यह वह समय था जब मेरी पत्नी को हृदय-रोग ने घेर लिया था. शायद यह शुरुआत रही होगी, मैंने सुन रखा था कि यहाँ एक से बढ़कर एक कुशल डाक्टर जिला चिकित्सालय में पदस्थ हैं.

सारी जांच के पश्चात पता चला कि उनका एरोटा-व्हाल्व बदली किया जाना है, जिसका इलाज दिल्ली स्थित एम्स में ही संभव है. मुझे एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी, जो दिल्ली का ही रहने वाला हो. हालांकि इससे पूर्व मैं दिल्ली अनेकों बार जा चुका था. मेरी समझ के अनुसार किसी स्थान की सैर करना एक अलग बात है और वहाँ रहते हुए, किसी काम को अंजाम देना दूसरी बात है. मेरा अपना मानना है कि यदि आपका कोई रिश्तेदार अथवा मित्र वहाँ रह रहा हो, तो जरुरत पड़ने में उसकी मदद आसानी से ली जा सकती है.

कार्यक्रम के अंत में वरिष्ठ साहित्यकार (स्व.) श्री संपतराव जी धरणीधर ने यह कहते हुए मेरी मुलाकात खरे जी से करवाई कि इन्हें इलाज के लिए दिल्ली जाना है. आप दिल्ली में हैं और जरुरत पड़ने पर इनकी सहायता अवश्य करेंगे.

कहने को यह मेरी आपसे पहली मुलाकात थी, लेकिन उत्तरोत्तर यह प्रगाढ़ होती चली गई थी. जुलाई 1992 में आपरेशन हुआ. उस समय सेलफ़ोन का जमाना नहीं था. अतः किसी लैंड-लाईन से फ़ोन लगाकर मैं आपको सूचना दिया करता था. जब भी समय मिलता मैं आपसे टाईम्स आफ़ इण्डिया स्थित कार्यालय में जाकर मिल लिया करता था. आप इस समय नवभारत टाईम्स में कार्यकारी संपादक थे. आपरेशन की तिथि से ठीक एक साल बाद से मुझे मेडिकल चेकअप के लिये दिल्ली जाना होता था. चेकअप हो जाने के बाद मैंने आपको फ़ोन लगाकर सूचित किया कि हम अभी दिल्ली में हैं.. इस समय मैं पहाड़गंज की किसी होटेल (अब नाम याद नहीं) में रुका हुआ था. आपने कहा-“ वहीं रुकिए.....मैं आप लोगों को लेने आ रहा हूँ”. वे अपनी फ़ोरव्हील स्वयं ड्राईव करते हुए आए थे और हमें अपने निवास, जो नोइडा मार्ग पर, मयूर विहार फ़ेज 1, नवभारत टाईम्स अपार्टमेंट में है, पर ले गए थे. श्रीमती कुमुद खरेजी ने न सिर्फ़ हमारा आत्मीय स्वागत किया बल्कि बड़ी ही आत्मीयता के साथ हमें भोजन भी कराया था. भोजन कर चुकने और औपचारिक चर्चाओं के बाद उन्होंने हमें उसी होटेल में पहुँचा भी दिया था.

जब भी कभी आपका छिन्दवाड़ा आगमन होता था, वे मुझे फ़ोन से सूचित करते हुए कहते कि सूर्या लाज का वह कमरा बुक करवा लेंगे, जिसका एक दरवाजा सड़क की ओर खुलता है. यहाँ से बालकनी में बैठकर शहर की गतिविधियों को देखा जा सकता है. वे कुछ दिन रुकते और फ़िर वापिस हो लेते थे. साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए जाते समय यदि नागपुर स्टेशन बीच में पड़ता, तो वे समय में से समय चुराकर छिन्दवाड़ा चले आते थे. अपनी जन्मभूमि से उन्हें अगाध प्रेम था और इसी प्रेम में बंधे वे दौड़े चले आते थे. बातों में अक्सर वे इस बात का जिक्र भी किया करते थे कि उनका नरा यहीं गड़ा है. अपनी कई कविताओं में उन्होंने छिन्दवाड़ा को सिद्दत से याद किया है. याद किया है उन गली-मुहल्लों को जहाँ वे खेलते-कूदते-विचरते रहे थे. उनकी कविताओं में वह स्कूल भी होता है, जहाँ उन्होंने अध्ययन किया था. संगी-साथी भी उनकी नजरों से ओझल नहीं रहे. वे बराबर कविता में स्थान पाते रहे हैं.

कभी इलाहाबाद साहित्य का गढ़ माना जाता था. अब दिल्ली ने वह स्थान ले लिया है यहाँ एक से बढ़कर एक आला दर्जे के साहित्यकार निवास करते हैं. काम की अधिकता से या फ़िर साहित्यिक गतिविधियों के चलते वे लिखने के लिए समय नहीं निकाल पाते थे सो उन्होंने छिन्दवाड़ा को उपयुक्त समझा और वे कई महीनों तक बड़बन स्थित श्री दिनकर राव पोफ़ली का मकान किराये पर लेकर रहे. वे अपना गंभीर लेखन यहां लिखते और फ़िर वापिस हो लेते थे. हम मित्रों को उनके आगमन की सूचना तो रहती थी,लेकिन वे यह बतलाना भी नहीं चुकते थे, कि यदि मिलने आने का मन करे, तो पहले सूचित कर दिया करें. हम भी भली-भांति इस बात को जानते थे,कि उन्हें किसी भी हालत में डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए.

आपकी साहित्यिक गतिविधियों के बारे में मुझे काफ़ी कुछ सुनने को मिलता रहा था,लेकिन आपका कोई भी संग्रह मेरे पास उपलब्ध नहीं था और न ही स्थानीय वाचनालय में ही उपलब्ध था. मैंने निवेदन किया कि जब भी कभी आप यहाँ आएं, मेरे लिए किसी संग्रह की प्रति जरुर लेते आएं.

जयश्री प्रकाशन,दिल्ली-32 से सन 1880 में प्रकाशित काव्य संग्रह “खुद अपनी आँख से” जो प्रख्यात साहित्यकार श्री अशोक वाजपेयी, चन्द्रकांत देवताले, रघुवीर सहाय, नामवरसिंह एवं लोठार लुट्जे को समर्पित है 2001 में, नेशनल पब्लिशिंग हाउस 23 दरियागंज नयी दिल्ली- 02 से प्रकाशित हुआ था, 1983 में “आलोचना की पहली किताब” जो बेहतर आलोचक और बेहतर इन्सान श्री मलयज की स्मृति में है, 1994 में राधाकृष्ण प्रकाशन, दरियागंज से प्रकाशित “सब की आवाज के पर्दे में, राजकीय महाविद्यालय रतलाम (म.प्र.) की 1967 की अपनी बी.ए.की छात्रा सुधा शर्मा, जो शादी के बाद कवि-पत्नि श्रीमती कुमुद खरे के नाम से जानी गई प्रकाशित हुआ, 1998 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित काव्यसंग्रह “ पिछला बाकी” वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली से 2002 में प्रकाशित हुआ, काव्य संग्रह “किसी और ठिकाने” (जर्मन के कवियों का हिन्दी-अंग्रेजी में अनुवाद), 2002 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशितअ हुआ. “अगली कहानी” जो डच सैलानी डा.स्त्राबो के सपनों पर आधारित लेखक सेस नूटेबूम द्वारा लिखित कहानियों का हिन्दी अनुवाद है, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली से 2003 में प्रकाशित हुआ. “काल और अवधि के दरमियान” लोटार लुत्से को उनके 75 वें जन्मदिन-पर उनकी कविताओं का हिन्दी अनुवाद.) है प्रकाशित हुआ इसी तरह. 2004 में वाणी प्रकाशन से आप पर केन्द्रीत एक अंक प्रकाशित हुआ जिसे प्रख्यात बाल-साहित्यकार श्री प्रकाश मनु ने श्री खरे जी साक्षात्कार लिया था.- “ एक दुर्जेय मेधा:विष्णु खरे” इस शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, समय-समय पर आपने अपनी छिन्दवाड़ा यात्रा के दौरान मुझे लाकर दी थीं.

clip_image004 clip_image006

उम्र में मुझसे चार साल बड़े श्री खरेजी को मैंने हमेशा से ही अपना बड़ा भाई माना है. यह रिश्ता अपने आप में और भी प्रगाढ़ हुआ, जब आपने मुझे पुस्तक भेंट में देते हुए लिखा था”- छिन्दवाड़ा के कहानीकार भाई गोवर्धन यादव को”. (विष्णु खरे 6 अगस्त 2001).

आपने देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी अपनी साहित्य-साधना की धमक (छाप) छोड़ी है. कई विदेशी आपके मित्र बने और कई लेखकों की रचनाओं का, चाहे वह डच में रही हो या फ़िर जर्मनी भाषा में, आपने उसका अनुवाद किया है और समूची दुनियाँ को उनके काव्य-कौशल से परिचित करवाया.

छिन्दवाड़ा की माटी से यात्रा प्रारंभ करने वाले खरे जी, साहित्याकाश में एक विराट रूप बनाते चलते हैं और उसी विनम्रता के साथ वे अपनी जमीन से भी जुड़े रहते हैं. वे बार-बार अपनी धरती..... अपनी मातृभूमि की ओर लौटते हैं, बार-बार लौटते है और यहाँ आकर वे ऊर्जा ग्रहण करते हैं. इस तरह वे देश की सीमाओं को पार करते हुए विदेशों तक में जा पहुँचते है. छिन्दवाड़ा केवल उनकी स्मृतियों में ही कैद होकर नहीं रह जाता बल्कि कलम की नोंक से स्याही बनकर, कोरे कागजों पर उतरता चला जाता है. उनकी कविताओं में छिन्दवाड़ा होता है, वहाँ की गलियों होती हैं, इतवारी-बुधवारी बाजार होता है, हाईस्कूल का वह प्रांगण होता है, जहाँ कभी बचपन में खेलते-कूदते बड़े हुए थे, साथ में सहपाठी भी होते हैं, तो कभी मोहल्ले में रहने वाला छुट्टू कुम्हार होता है, कभी दम तोड़ती.....दर्द में कराहती माँ होती है, गुमसुम पिता होते हैं, तो कभी बिन-बिहाई बुआओं का दर्द कागज पर तैरते-उतराने लगता है.

विष्णु खरे छिन्दवाड़ा से तीन पीढ़ियों से जुड़े थे. इनके दादा स्व.मुरलीधर खरे जिला न्यायालय में नाजिर थे और पिछली सदी के चौथे दशक में छिन्दवाड़ा के गणमान्य नागरिकों में से एक थे. सांस्कृतिक गतिविधियों में गहरी दिलचस्पी और कई वर्षों तक छॊटी बाजार रामलीला के संचालक थे और इसमे अभिनय भी किया करते थे. विष्णु के पिता स्व.सुंदरलाल जी खरे छिन्दवाड़ा में ही जनमे थे और यहां के मेधावी छात्रों में से थे तथा छिन्दवाड़ा के कुछ समय पहले साईंस ग्रेजुएट में से थे. इन्होंने कई वर्षों तक स्थानीय शासकीय स्कूल में गणित तथा विज्ञान का अध्यापन किया था .

9 फ़रवरी 1940 को विष्णु जी का जन्म हुआ था. क्रिश्चियन कालेज इंदौर से आपने 1963 में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए.किया. दैनिक इंदौर समाचार में उप-संपादक 1962-63 में. मध्यप्रदेश सहित दिल्ली के महाविद्यालयों में अध्यापन 1963-75. केन्द्रीय साहित्य अकादमी के उप-सचिव 1976-84. 1985 में नवभारत टाइम्स में प्रभारी कार्यकारी संपादक. .बीच में इसी अखबार के लखनऊ संस्करण के संपादक रहे तथा प्रस्तावित रविवासरीय “टाइम्स आफ़ इण्डिया”(हिन्दी) के संपादक और अंग्रेजी “टाइम्स आफ़ इण्डिया” में वरिष्ठ सहायक संपादक मनोनीत हुए. 1963 में जयपुर “नवभारत टाइम्स” के संपादक के रुप में आपका तबादला हुआ, जहाँ से प्रबंधक अशोक जैन तथा प्रधान संपादक विद्यानिवास मिश्र की सांप्रदायिक नीतियों के लगातार सक्रीय विरोध के बाद आपने अपने पद से इस्तिफ़ा दे दिया. इसके बाद आप जवाहरलाल नेहरु स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में दो वर्षों तक वरिष्ठ अध्येता रहे. तब से लेकर मृत्यु पर्यंन्त तक वे स्वतंत्र लेखन में सक्रीय रहे थे.

आपकी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत कहानियों से हुई थी. 1956 से. 1960 से सिर्फ़ कविताएं- पहली पुस्तक मरु-प्रदेश और अन्य कविताएं, टी.एस.इलियट का अनुवाद 1960, गैर रुमानी समय में 1969, अशोक वाजपेयी द्वारा प्रवर्तित पहचान सीरीज का प्रारंभ आपकी बीस कविताओं से 1970, काव्य संग्रह “ खुद अपनी आंख से- 1978, महान हंगरी कवि अतिला योजेफ़ की रचनाओं का अनुवाद, यह चाकू समय -1980, हंगरी नाटककार फ़ेरेन्त्स करिन्थी-के नाटक का अनुवाद “पियानो बिकाऊ है”-1982 , मात्र सतरह वर्ष की उम्र में ही आपने टी.एस. एलियट के काव्य संग्रह का अनुवाद किया था. आपने विदेशी कविता से हिंदी तथा हिंदी से अंग्रेजी में सर्वाधिक अनुवाद का कार्य किया है. श्रीकांत वर्मा तथा भारतभूषण अग्रवाल के पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया. समसामयिक हिंदी कविता के अंग्रेजी अनुवाद का संग्रह “दि पीपुल एंड दि सैल्फ़”. लोठार लुत्से के साथ हिन्दी कविता के जर्मन अनुवाद ’डेअर ओक्सेनकरेन” का संपादन किया. “यह चाकू समय (अत्तिला योझेफ़) हम सपने देखते हैं (मिक्लोश राद्नोती), “कालेवाला” (फ़िनी राष्ट्रकाव्य), डच उपन्यास “अगली कहानी”(सेस नोटेबोम), “हमला (हरी मूलिश),, दो नोबेल पुरस्कार विजेता कवि (चेस्वाव मिवोश, विस्वावा शिम्बोसर्का) आदि उल्लेखनीय अनुवादों में आते हैं. गोएटे के “फ़ाउस्ट” का अनुवाद भी आपने ही किया था.

यह हम सबके के लिए गौरव का विषय है कि इंग्लैंड के राष्ट्रीय महाकाव्य “कालेवाला“, जो 24,000 पंक्तियों का है आपने हिन्दी में अनुवाद किया था, जिसके लिए इंग्लैंड के राष्ट्रपति ने “ नाईट आफ़ द व्हाइट रोज” सर्वोच्च सम्मान से आपको सम्मानित किया था.

आपकी अनेकानेक कविताएं कई विदेशी भाषाओं में अनुवादित हुई है. आपने नवभारत टाइम्स” में सैंकड़ों संपादकीय लेख-आलेख तथा फ़िल्मी समीक्षाएं भी लिखीं. अंग्रेजी में “ दि पायनियर”, दि हिन्दुस्तान टाइम्स, फ़्रंट्लाइन आदि में फ़िल्म तथा साहित्य पर लेखन किया है.

1971-73 के दौरान आप प्राहा, तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया में 25 महीने प्रवास पर रहे. उसके बाद भी यूरोप, अमेरिका तथा मध्य-पूर्व देशों की यात्राएं आपने की है. विदेशी धरती पर आपके काव्य-पाठ, भाषण, अध्यापन, रेडियो वार्ता, टी.वी साक्षात्कार हुए तथा लघु फ़िल्मों में भी आपने कार्य किया है. भारत पर केंदित फ़्रांकफ़ुर्ट पुस्तक मेले में भी आपने शिरकत की थी.

आप कालेवाला सोसायटी, फ़िनलैंड, यूनेस्को-हेतु भारतीय सांस्कृतिक उपयोग तथा केंद्रीय साहित्य अकादमी आदि में आपकी स्थायी सदस्यता है. आपको फ़िनलैण्ड का राष्ट्रीय “नाइट आफ़ दि आर्डर आफ़ दि व्हाइट रोज” सम्मान प्राप्त हुआ है. इसके अलावा आपको रघुवीरसहाय सम्मान, शिखर सम्मान, हिंदी अकादमी, दिल्ली का साहित्य सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से सम्मानित किया गया है.

दुर्जेय मेधा के कवि-आलोचक विष्णु खरे के कुछ रोचक बिंदुओं पर चर्चा नही की गई, तो वह उचित नहीं होगा. आलोचना में दखल रखने वाली विष्णु खरे की पहली पुस्तक “आलोचन की पहली पुस्तक” प्रकाशित हुई तो साहित्य जगत में भारी शोरगुल हुआ, बल्कि “आलोचना” के संपादक नामवर सिंह ने उनमें एक बड़े आलोचक की संभावना को देखते हुए, इस किताब पर एक साथ तीन समीक्षाएं लिखीं थी.

विष्णु खरे हमारे समय के एक बहुत बड़े और अच्छे कवि थे. हिन्दी कविता की दुनिया में विष्णु खरे की पहली पहचान बनी अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित “पहचान” सीरीज की पहली पुस्तिका से. “खुद अपनी आँख से” उनका अगला संग्रह जब छपा तो “समीक्षा” में नंदकिशोर नवल ने समीक्षा करते हुए उन्हें कवि के रूप में कोई महत्व नहीं दिया. लेकिन “सबकी आवाज के पर्दे में” (1994) जब छपा तो उन्हें दुनिया का महत्त्वपूर्ण कवि मान लिया गया. इस संग्रह में प्रकाशित कविताओं की विशेषता यह नहीं है कि विष्णु खरे ने गद्य को कविता की ऊँचाई तक पहुँचा दिया है, बल्कि इसकी विलक्षणता यह है कि कविता को मानवीय संवेदनशीलता के एवरेस्ट पर पहुँचा दिया है. महानगर में बने नए घर के कमरों का बंटवारा पहले कवि अपनी स्मृतियों के आधार पर करता है. हर कमरे में कौन रहेगा, कैसे रहेगा, इसका अहसास तो कवि को बाद में होता है. लेकिन संवेदनशीलता की जिस ऊँचाई पर कवि है, उसमें छिन्दवाड़ा का पीछे छूटा वही घर है और महानगर में फ़्लैट बनवाने के बाद उस घर को पूरा-पूरा रख देने की योजना है. घर के कमरे को लेकर भी द्वंद्व है. कहाँ रहेगी अविवाहित बुआ, कहाँ रहेंगे पिता, कहाँ रहेगी मां.? कविता का पूरा स्थापत्य संवेदना के जिस ईंट-गारे से उठाया गया है. यह नया घर बना तो है, लेकिन आवंटित कमरों में रहने के लिए न बुआ है, न पिता है और न ही मां. बस केवल स्मृतियों का चीत्कार और हाहाकार है.

विष्णु खरे ने न केवल विश्व के तमाम महान लेखकों को पढ़ा था, बल्कि टी.एस.इलियट के कविता संग्रह “वेस्ट लैंड” का भी अनुवाद किया और फ़िनी राष्ट्रकाव्य का “कालेवाला” का भी. इस तरह हम कह सकते हैं कि पत्रकार विष्णु खरे में यदि एक तरफ़ विश्व राजनीति की बौद्धिक हलचल थी, तो दूसरी तरफ़ अपने निविड़ एकान्त में बचा, कविता की संवेदनशीलता का एक विलक्षण कोना भी.

विष्णु खरे की कविताओं की अंतर्वस्तु ठोस और मूर्त है. जीवन और समाज के मुठभेड़ से अर्जित की हुई अंतर्वस्तु, जिसे सस्ती भावुकता से बचाने की उनकी पुरजोर कोशिश है. कविता में उनकी पहचान समर्थ गद्य के प्रयोग से है और हम जानते हैं कि अच्छा गद्य विचारहीन लोग नहीं लिख सकते, जब पद्य मे अच्छी कथा, अच्छा नाटक लिखा जा सकता है तो फ़िर गद्य में अच्छी कविता क्यों नहीं?, विष्णु खरे की कविताएं इसकी जीती-जागती मिसाल है.

विष्णु खरे न केवल समकालीन हिन्दी कविता के एक प्रतिष्ठित कवि थे बल्कि वे विश्व के श्रेष्ठ कवियों में गिने जाते हैं. अतः आज की युवा होती पीढ़ी को, खासकर छिन्दवाड़ा की पीढ़ी को, तथा स्थानीय साहित्यकारों को भी इनके बारे में जानना-समझना और पढ़ना चाहिए

कुछ कविताओं की बानगी देखिए.

पिता के बारे में- मैंने जब पहली बार पिता को अपने आप से बातें करते सुना / तो मैं इतना छॊटा था कि मैंने समझा / वे मुझसे कुछ कह रहे हैं / मेरे डरे हुए सवाल का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया / और पाँच मिनट बाद / वे फ़िर खुद से बोलने में मशगूल हो गए.

चौथे भाई के बारे में-(पुस्तक- सबकी आवाज के पर्दे में.) यह शायद 1946 की बात है जब हम तीन भाई / घर में पड़े रामलीला के मुकुट पहनकर खेल रहे थे/ तब अचानक विह्वल होकर हमें बताया गया/ कि मेरे और मुझसे छॊटे के बीच तुम भी थे./और यदि आज तुम होते तो हम चार होते/ राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन की तरह.

1991 के एक दिन- दूसरी तरफ़ से मैं जिससे भी लज्जित हूं / कि सत्ताईसवें बरस में जब मैंने विवाह किया / तो मुझे 1946 में गुजरी अपनी सत्ताईस वर्षीया माँ का स्मरण तो रहा /लेकिन उससे बड़ा होने का एहसास क्यों नहीं हुआ /क्या इसलिए कि मैं उसकी मृत्य पर छह बरस का ही था / माँ की मौत मुझे इतनी दूर क्यों लगती है कि समय से परे हो /पिता की मृत्यु अभी कल हुई घटना की तरह दिखती है.

टेबल-(खुद अपनी आँख से.)- उन्नीस सौ अड़तीस के आसपास/जब चींजे सस्ती थीं और फ़र्नीचर की दो-तीन शैलियां ही प्रचलित थीं/ मुरलीधर नाजिर ने एक फ़ोल्डिंग टेबिल बनवाई/जिसका ऊपरी तख्ता निकल आता था.....एक चिलमिलाती शाम न जाने क्या हुआ कि घर लौट/बिस्तर पर यूं लेटे कि अगली सुबह उन्हें न देख सकी/ और इस तरह अपने एक नौजवान शादीशुदा लड़के/दो जवान अनब्याही लड़कियों और बहू और पोते को/मुहावरे के मुताबिक रोता-बिलखता लेकिन असलियत में मुफ़लिस छोड़ गए.

सबकी आवाज के पर्दे में- लालटेन जलाना- लेकिन लालटेन के हिलने से या हवा के हल्के से झोंके से भी/उसके बुझने का जोखिम है/लिहाजा अच्छे जलाने वाले/ लालटेन को अपनी पहुँच के पास लेकिन वहाँ रखते हैं/जहाँ वह किसी से गिर या बुझ न जाए/और बाती को वहीं तक नीची करते हैं/जब तक उसकी लौ सुबह उगते हुए सूरज की तरह/लाल और सुखद न दिखने लगे.

आपकी कविताऒं से गुजरना मानो एक कालखण्ड से गुजरना होता है. कविताएं घर-परिवार, रिश्ते-नाते, दुनियादारी की जरुरतें, साहस, विकलताएं, हताशाएं, छिपे हुए संकल्प, दैनिक जीवन के दवाबों की प्रत्यक्षता, उसकी छायाएं, गीला और सांवला सुख-दुख, जटिल रूपक आदि खूबसूरती से रचती हैं. कविताएं गद्य और पद्य की सीमाएं तोड़कर, रचनात्मकता यहां बिर्बाध गति से बहती हैं. कविता से विष्णु खरे निबंध का काम लेते हैं. उनके यहां निबंध और पत्रकारिता कविता बन जाते हैं. तथ्यों का भरपूर प्रयोग वे पत्रकारिता की तरह करते हैं. “प्रथक छत्तीसगढ़ राज्य” में तथ्य और सूचना के साथ संवेदना का नया प्रयोग देखने को मिलता है. जर्मनी के एक भारतीय कंप्यूटर विशेष की हत्या पर’ लगता है कि हम कोई संपादकीय पढ़ रहे हैं. खरे जी की कविता अखबार का काम भी करती है. यदि कविता में अखबार निकालें तो उसका आदर्श भी यहां मौजूद है. वे भाषा के मामले में भी कमाल करते हैं. “न हन्यते” में वे पुरानी दिल्ली की बोली का प्रयोग करते हैं. “गुंग महल” में सलीम की उर्दू जुबान का रंग पढ़ते ही बनता है. भाषा विष्णु खरे की बाधा नहीं है. उससे वह मनमाना काम लेते हैं. भाषा का अद्भुत सौंदर्य और रचाव यहां मौजूद है. विशुद्ध राजनैतिक चेतना का यह कवि नये तरह के काव्यशास्त्र, नए मानदंडॊं की जरुरतें उजागर करता है. ब्रेश्ट की तरह विषय और शिल्प दोनों में यह क्रांतिकारी कविता है. ’लायब्रेरी” में हुए परिवर्तनों पर कविता इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ का दस्तावेजीकरण है. विष्णु खरे ने हिजड़ों, चमगादड़ों, फ़ोटोकापी पर कविताएं लिखकर बिल्कुल नये और अछूते विषय भी दिये हैं. मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन और रघुवीर सहाय के बाद यह उतना ही बड़ा नया कविकर्म है.

आलोचना की पहली किताब-

इस किताब में वे लिखते हैं- यदि आज की रचना सहज नहीं है तो उसकी आलोचना भी सहज नहीं हो सकती, क्योंकि उसे समझने के लिए आलोचना को जो समझ हासिल करनी पड़ती है, उतनी दूर तक उसमें जाना पड़ता है. और उससे प्राप्त चीजों को अभिव्यक्त करने के लिए जो शब्द और अवधारणाएं रचनी होती है वे बहुत ही जटिल होती हैं. आगे वे लिखते हैं- भारतीय संस्कृति शायद सबसे पहली संस्कृति है जिसमें विश्व की जटिलता को पूरी तरह पहचाना गया था- बाद में इस जटिलता का सामना कैसे नहीं किया गया, यह एक अलग दुःखद इतिहास है.

इस संग्रह में प्रख्यात साहित्यकार अशोक वाजपेयी, राजीव सक्सेना, मुक्तिबोध, नागार्जुन, भारतभूषण अग्रवाल, गिरीजाकुमार माथुर, शमशेर बहादुर सिंह, रघुवीर सहाय, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कैलाश वाजपेयी, रामदरश मिश्र, प्रयाग शुक्ल, लीलाधर जगूड़ी, विनोद भारद्वाज, अवधेश कुमार, और सीताकांत महापात्र जैसे बड़े और उस समय के चर्चित कवियों की कविताऒं की आपने गहरी पड़ताल की है. कभी असहमत होते हुए खिंचाई भी की और प्रशंसा भी. एक कवि को तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि कविता तुम्हारे बस की नहीं है. कविता लिखते क्यों हो? लिखते समय और बोलते समय वे यह नहीं देखते कि इससे किसी को नाराजजी भी आ सकती है. अपने इस स्वभाव के कारण वे कभी-कभी अपने मित्रों को अमित्र बना बैठते थे. यह उनका अपना स्वभाव था. वे कविता में गलत बयानी के सर्वथा खिलाफ़ थे. ऊपर से एकदम नारीयल की तरह सक्त दिखने वाले विष्णु, उतने ही सहृदय भी थे.

छिन्दवाड़ा के सहित्यिक मित्रों से उनका संवाद हमेशा बना रहता था. उनका अधिकांश लेखन यही रहते हुआ था. लगभग एक वर्ष पूर्व में छिन्दवाड़ा में उसी मकान में रहने आए,जिसमें वे पहले भी रह चुके थे. शायद मुंबई उन्हें उतना सुकून नहीं दे पा रही थी,. चार-पांच महीने बाद अचानक उनकी तबीयत ज्यादा खराब हो गई. आधी रात बीत चुकी थी. वे समझ नहीं पा रहे थे, इतनी रात गए किसे फ़ोन लगाएं. आनन-फ़ानन में उन्होंने श्री लीलाधर मंडलोई जी को दिल्ली फ़ोन लगाया. मंडलोई जी ने कथाकार मनगटे जी को फ़ोन लगाकर तबीयत खराब होने की सूचना दी. चुंकि मनगटे जी का आवास काफ़ी निकट था. उन्होंने आकर देखा और डाक्टर के पास ले गए. जांच में पता चला कि अटैक आया है. तत्काल ही उन्हें युरोकाइनेस इंजेक्शन लेने की सलाह दी गई. इंजेक्शन की कीमत करीब तीस हजार बतलाई गई थी. आपस में परामर्श हुआ और यह तय हुआ कि उन्हें अब मुंबई लौटकर, किसी बड़े अस्पताल में. किसी कुशल डाक्टर को दिखलाना चाहिए.

मुंबई लौटकर उन्होंने डाक्टर को दिखाया. तब तक तो अटैक अपना असर दिखा चुका था. बायां हाथ काम नहीं कर पा रहा था और बायां चेहरा भी थोड़ा चपेट में आ गया था. लंबे उपचार के बाद हाथ काम करने लगा था. यह सुखद था. लेखक के लिए हाथ कितना महत्वपूर्ण होता है, उससे बढ़कर भला और कौन जान सकता है?. अब वे अपने आपको पहले जैसा ही महसूस करने लगे थे. एक दिन अचानक वे किसी मित्र से मिलने के नागपुर आए और दो-तीन दिन साथ रहने के बाद छिन्दवाड़ा आ गए, जिसकी सूचना उन्होंने मुझे 26 जून 2018 को यह कहते हुए दी कि मैं यहां आया हुआ हूं, लेकिन आने की बात किसी अन्य मित्रों पर उजागर नहीं होनी चाहिए.

clip_image008

. (यह अभी हाल का ही चित्र है जिसे मैंने 26 मई 2018 को मोबाईल में कैद किया था ).

खबर पाकर खुशी हुई और मैं उनसे मिलने जा पहुंचा. मेरी नजरें बराबर मुआयना कर रही थीं. पहले से वे काफ़ी दुबले और अशक्त लग रहे थे. चाल भी वैसी नहीं रह गई थी, जिसे हम बरसों से देखते आ रहे थे. चेहरे पर हल्का सा खिंचाव अलग ही दीख रहा था. कुशलक्षेम पूछने के बाद मुझसे रहा नहीं गया. मैंने निःसंकोच पूछ ही लिया कि आप पहले से काफ़ी दुबले और अशक्त दिखाई दे रहे है. ऐसे हालत में आपको नहीं आना चाहिए था. जैसा की उनकी आदत में शुमार है कि कुछ बोलने के पहले, वे अपने को संयत करते हुए, कुछ सोचते हैं फ़िर मुंह खोलते हैं. थोड़ी सी चुप्पी साधने के बाद उन्होंने कहा- गोवर्धन भाई, ये अटैक मेरे लिए एक अल्टिमेटम लेकर आया है “संभल जाओ विष्णु”. “संभल तो गया लेकिन अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है. दिमाग़ में इतना कुछ भरा हुआ कि चार-छः किताबें ही क्या, कई किताबें लगातार लिखी जा सकती हैं. लेकिन ये सब मुंबई में रहकर संभव नहीं लगता. वहाँ इतना शोर मचा रहता है कि लिखने का मूड रफ़ुचक्कर हो जाता है. छिन्दवाड़ा से बेहतर और कोई जगह हो नहीं सकती मेरे लिए. मैं यहाँ रहते हुए ही लिख पाऊंगा. फ़िर मैंने तुमसे कई बार बताया भी है कि छिन्दवाड़ा में मेरा नरा गड़ा है, मुझे यहीं सुकून मिलता है. मन की शांति मिलती है, और कहीं नहीं”.

उनकी बातों को मैं ध्यान से सुनता हूँ. मन ही मन गुनता भी हूँ, लेकिन हिम्मत नहीं जुट पाता कि यह पूछ लूं कि अब आये ही हैं, तो कितने दिन रहोगे? मैं क्या मेरी जगह और कोई भी होता तो इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता. फ़िर भी हिम्मत जुटाकर इतना ही कह पाया था कि आप अपने कमरे को साउण्डप्रुफ़ करवा लें, तो शोर-गुल से बचा जा सकता है. जवाब में वे कहते हैं...सुझाव तो बड़ा अच्छा है...इसे किया जा सकता है. लौटने के बाद ये काम जरुर करवा लूंगा. जाने से पूर्व उन्होंने स्पष्ट नहीं किया कि मुंबई वापिस लौटेंगे या फ़िर दिल्ली.

30 जून को रात नौ-सवा नौ के करीब आपका फ़ोन आया. आपने वही प्रश्न दोहराया, जो सदा से ही बोलते आए थे-“ क्या हो रहा है” मैंने कहा-टीव्ही पर देश-दुनिया की खबरे देख रहा हूँ. “अच्छा....एन.डी.टी.व्ही.लगाकर देखो”. जी अच्छा- मैंने कहा और फ़ोन कट गया.

इसी 30 जून को आपने संभवतः हिन्दी साहित्य अकादमी दिल्ली में उपाध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया था. अब संयोग देखिए कि बिजली अचानक चली जाती है. क्रोध तो बहुत आया था,लेकिन इसका इलाज मेरे पास नहीं था. मनमसोस कर रह जाना पड़ा था. बाद में बिजली आयी भी, तब तक काफ़ी कुछ घट चुका था. जिस खबर को देखने के लिए वे कह रहे थे, उससे वंचित होना पड़ा था.

आपके निधन के तीन-चार दिन पूर्व मुझे कोलकाता से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “लहक” के संपादक श्री निर्भय देवयांश जी का फ़ोन आया और उन्होंने मुझसे पूछा-“ विष्णु खरे के बारे में कुछ पता चला?. आपका पूछना लाजिम था. उन्हें ज्ञात था कि मैं छिन्दवाड़ा से हूँ, अतः इस बारे में जानकारी मेरे पास निश्चित रुप से होनी चाहिए. मैंने अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि या तो वे मुंबई में होंगे अथवा दिल्ली में. आपने बतलाया- “ सुना है उन्हें सीवियर ब्रेन हैमरेज आया है और वे दिल्ली के जी.बी.पंत अस्पताल में भरती है. कोई जानकारी मिले, तो मुझे बतलाइएगा. मैं नहीं जानता कि देवयांश जी को यह खबर किस शुभ-चिंतक मित्र ने दी होगी?. खबर चौंका देने वाली ही नहीं थी, बल्कि डरावनी भी थी. मैं समझ नहीं पा रहा था कि अचानक उन्हें क्या हो गया ? मेरे पास उनका मोबाईल नम्बर था. धड़कते दिल से मैंने फ़ोन मिलाया. फ़ोन की घंटी बजती रही, लेकिन किसी ने नहीं उठाया. मेरा अपना अनुमान था कि इस क्रिटिकल समय में दिल्ली का कोई न कोई साहित्यकार मित्र उनके पास जरुर होगा. कई बार कोशिश करने के बाद भी मुझे सफ़लता नहीं मिल पा रही थी. लगातार फ़ोन लगाने के बाद एक बार सफ़लता जरुर मिली- फ़ोन पर कोई राजेन्द्र जी थे. वे केवल दो शब्द ही बोल पाए थे-“अभी आई.सी.सी.यू. में हैं और फ़ोन कट गया.

निर्भय देवयांश जी के फ़ोन लगातार आते रहे थे. मेरे पास कोई जानकारी नहीं थी. बतलाता भी तो क्या बतलाता?. दिल को आघात पहुंचाने वाली यह खबर केवल दिल्ली और उसके आसपास के इलाके में ही चक्कर लगा रही थी. कुछ लोगों तक यह खबर पहुंची जरुर होगी और वे लगातार इस खबर को अन्य मित्रों तक पहुंचा भी रहे थे. छिन्दवाड़ा तक यह खबर पहुंची ही नहीं थी. तभी देवयांश जी का फ़ोन आया. उन्होंने वाट्साप पर भी लिखा कि श्री हरिनारायण जी जी.पी.पंत पहुंच रहे हैं, शायद कुछ पता चले. यदि आपके पास इनका नम्बर तो जानकारी प्राप्त कीजिए. हरिनारायण जी का नम्बर मेरे पास नहीं था. इस बीच मैंने श्री लीलाधर मण्डलोई जी को फ़ोन लगाया. वे छिन्दवाड़ा से ही हैं. फ़ोन की घटी बजती रही थी लगातार, लेकिन संपर्क नहीं हो पाया. मेरे पास “आधुनिक साहित्य” पत्रिका के संपादक श्री आशीष कंधवे जी का फ़ोन था. फ़ोन लगाया. वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे. मैंने खरे जी के बारे में बतलाते हुए निवेदन किया कि कृपया जी.बी.पंत के ओ.पी.डी को फ़ोन लगाकर पता लगाएं. उन्होंने बतलाया कि यहाँ से पता लगना संभव नहीं लगता. मैं हिन्दी अकादमी के किसी मित्र को फ़ोन लगाकर पता लगाता हूं, फ़िर आपको सूचित करुंगा. फ़िर पलटकर फ़ोन नहीं आया, जिसका की मैं बेसब्री से इंतजार कर रहा था. शायद वे जानकारी नहीं हुटा पाए होंगे.

लगातार कोशिशें करते रहने के बाद मुझे खरे जी की सुपुश्री अनन्या खरे जी का फ़ोन नंबर प्राप्त हुआ. फ़ोन पर आपने बतलाया कि भाई (अप्रतिम) दिल्ली के लिए निकल चुका है. जैसे ही कोई खबर मिलती है, आपको सूचित करुंगी..बाद में यही खबर मिलती रही कि वे अभी भी बेहोशी में ही हैं.

19 सितंबर की शाम. लगभग चार बजा रहा होगा. श्री देव्यांशजी का फ़ोन आया. यह वह समय था जब छिन्दवाड़ा की तहसील जुन्नारदेव के शास.नवीन सूद उत्कृष्ट विद्यालय में, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति जिला इकाई छिन्दवाड़ा( जिसका की मैं संयोजक हूँ,) द्वारा आयोजित प्रतिभा प्रोत्साहन प्रतियोगिताओं के संपन्न हो जाने के पश्चात, प्रतियोगियों को स्मृति-चिन्ह और संस्था का प्रमाण-पत्र वितरित किए जा रहे थे. आपने सूचित किया कि खरे जी नहीं रहे. इस दुखद खबर को पाकर शोक-संतप्त हो जाना स्वाभाविक ही था. कार्यक्रम की समाप्ति के ठीक पश्चात मैंने इस हृदय विदारक समाचार से सभी को अवगत कराया. समिति के सचिव श्री नर्मदा प्रसाद कोरी, शाला के प्राचार्य सहित सभी अध्यापकों ने, श्री खरेजी की स्मृति में दो मिनट का मौन रखते हुए, उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की.

यह भी कैसा विचित्र संयोग बना कि जिस मकान को, किसी विवशता के चलते आपको बेचना पड़ा था, इसी में किराए से रहना पड़ा और यहीं रहते हुए आपको ब्रेन-स्ट्रोक आया,जो प्राणघातक सिद्ध हुआ. जबकि वे हमेशा इस बात को दुहराते नहीं थकते थे कि छिन्दवाड़ा में मेरा नरा गड़ा है और मैं यहीं देह त्यागना चाहता हूँ.

शरीर है और उसे एक न एक दिन नष्ट हो ही जाना है. इस कटु सत्य को हर कोई जानता है. लेकिन एक ऐसे दुर्जेय कवि का चला जाना, जिसने विश्व कविता के कई बड़े कवियों यथा- गोइठे, ग्युन्टर ग्रास, अत्तिला योजेफ़, मिल्कोश राद्नोटी, ब्रेर्टोल्ट ब्रेख्त आदि कवियों और एस्टोनिया और फ़िनलैण्ड के लोक-महाकाव्यों के अनुवाद किया हो, तथा मात्र उन्नीस बरस की उम्र में बी.ए.में पढ़ते हुए ही, अंग्रेजी के कवि टी.एस.एलियट की प्रसिद्ध कविता “बेस्टलैंड” को हिन्दी में “मरु प्रदेश और अन्य कवितायें” नाम से अनूदित किया हो, का इस तरह चला जाना, हम सबके लिए दुर्भाग्यपूर्ण है.

आपने हिन्दी साहित्य में चार बड़े और महत्वपूर्ण कार्य किए थे. एक तो यह कि उन्होंने हिन्दी कविता में एक सर्वथा मौलिक और दूरगामी बदलाव को संभव किया, जिसका व्यापक असर हुआ. और कविता वह नहीं रही जो पहले थी. वह गद्दात्मक निबंध जैसी और अलंकरणं-विहीन हुई. इस अनोखे शिल्प को अन्य कवियों ने भी आजमाया.लेकिन वे उसमें सफ़ल नहीं हो पाए. प्रसिद्ध कवि कुंवर नारायण ने अपने एक लेख में कहा था कि विष्णु खरे की कविता, कविता के तमाम प्रचलित नियमों और शिल्पों को लांघ कर लिखी गई हैं. विश्व कविता के कई बड़े कवियों की रचनाओं के अनुवाद उनका दूसरा बड़ा काम था. तीसरा काम था- गोइठे, ग्युन्टर ग्रास, अत्तिला योजेफ़, मिक्लोश राद्नोती, ब्रेर्टोल्ट ब्रेख्त आदि कवियों और एस्टोनिया और फ़िनलैंड के लोक-महाकाव्यों के अनुवाद उल्लेखनीय है. उन्होंने उन्नीस साल की उम्र में बी.ए.में पढ़ते हुए ही अंग्रेजी कवि टी.एस.एलियट की प्रसिद्ध कविता “बेस्टलैंड” को हिन्दी में मरु प्रदेश और अन्य कविताएं नाम से अनूदित कीं. हिन्दी कविता को अनुवाद के जरिए अंग्रेजी और जर्मन, डच आदि भाषाओं में पहुंचाना उनका तीसरा बड़ा उल्लेखनीय काम था और उन्होंने जर्मन विद्वान प्रो.लोठार लुत्से के साथ हिन्दी कविता के जर्मन अनुवादों का संकल्न भी संपादित किया था. हिन्दी कविता के अंग्रेजी और डच अनुवाद भी उनके प्रयत्नों से ही संभव हुए थे. और चौथा यह कि उन्होंने आलोचक के रूप में कवि चन्द्रकांत देवताले का गहरा विश्लेशन करते हुए, एक प्रमुख कवि के रूप में पहचान की. वे शास्त्रीय और फ़िल्म संगीत और सिनेमा के गहरे जानकार थे. उनकी किताबों को हिन्दी और विश्व सिनेमा की बुनियादी पाठ्य-सामग्री की तरह पढ़ा जा सकता है. आखिरी दिनों में वे गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताओं को अंग्रेजी में अनुवादित कर रहे थे.

एक दुर्जेय मेधा के धनी व्यक्तिव को, हम सबकी ओर से, उनकी दिव्य स्मृतियों को नमन.

.................................................................................................................................................................

103, कावेरी नगर,छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001 गोवर्धन यादव.  goverdhanyadav44@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 2
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: संस्मरण // विष्णु खरे // गोवर्धन यादव
संस्मरण // विष्णु खरे // गोवर्धन यादव
https://lh3.googleusercontent.com/-45F4UkegIDM/W7I-hwIk3zI/AAAAAAABEcE/bCLjOBycoJIxP6zga2U2LgGSiu4hBzKawCHMYCw/clip_image002_thumb?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-45F4UkegIDM/W7I-hwIk3zI/AAAAAAABEcE/bCLjOBycoJIxP6zga2U2LgGSiu4hBzKawCHMYCw/s72-c/clip_image002_thumb?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/10/blog-post_48.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/10/blog-post_48.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content