कहानी - “बिल्ली के गले में घंटी” - राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

SHARE:

کہانی "بللی کے گلے میں گھنٹے" راقم ڈینش چندرا پروہت कहानी “बिल्ली के गले में घंटी” राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित अदालत-ए-जंग में काम...

کہانی "بللی کے گلے میں گھنٹے" راقم ڈینش چندرا پروہت

कहानी “बिल्ली के गले में घंटी” राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

clip_image002

अदालत-ए-जंग में कामयाबी हासिल करने के बाद, साबिर मियां ने इशारे-इशारे में फ़रीक अल्लारखा मियां को जतला दिया कि, “आपकी मेहरबानी से, अदालत-ए-जंग में फ़तेह हासिल कर ली गयी।”

जीत हासिल होने के बाद, मियां अल्लारखा कुछ कहना ही चाहते थे, मगर उनका मुंह खुलने के पहले ही वकील साबिर मियां के मुंह से बरबस ये अल्फ़ाज़ निकल पड़े कि, “अब तक़रीर को मारो गोली, ख़ाली तक़रीरों से पेट भरा नहीं जाता। कुछ नज़र करो, मियां। ताकि, दो मिनट जाकर इन मर्दूद एलकारों को कुछ ले-दे कर निपटकर आ जाऊं। आपसे तो हम, बाद में ही निपट लेंगे।” इतना कहकर साबिर मियां ने, जेब से रुमाल निकालकर अपने ऐनक को साफ़ किया। फिर मियां अल्लारखा को घूरने लगे, और देखने लगे कि “यह अल्लाह का बन्दा अपनी जेब से कुछ रुपये बाहर निकालता है, या नहीं ?” मगर यहाँ तो वकील साहब की बात सुनकर, उसका मुंह उतर चुका था। और, वकील साहब के ये शब्द “आपसे तो हम, बाद में ही निपट लेंगे” उसके दिल में चुभने लगे। आख़िर बेचारा अल्लारखा इन पच्चीस दिनों तक वकील साहब को देता ही आया है, लगभग पच्चास हज़ार रुपये मेहनताने के अलावा वह दे चुका है..अब तो अल्लारखा समझ चुका है ‘पैसा चुस्त, तो वकील चुस्त। फिर क्यों न मिलेगी, फ़तेह..इस अदालत-ए-जंग में ? फिर जहां हो पैसों का बोलबोला, वहां अदालत में इन तक़रीरों का क्या लेना-देना ? बस..एलकारों और इन नामाकूल चपरासियों को खिलाते रहो पैसा, फिर फ़तेह हासिल अरने के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं, तब सौ फ़ीसदी फ़तेह हासिल तो होगी ही।

“क्या सोचने लगे, यार ? ऐसे सोचते ही रहे तो, दिल्ली हाथ में आने वाली नहीं। [गंभीर होकर] अगर आपके पास पैसे न हो तो कोई बात नहीं। अभी हम दे देंगे, बाद में आपसे वसूल भी कर लेंगे। आख़िर, आप तो हमारे वह हो...” आगे न बोलकर, साबिर मियां मुस्कराकर रह गए। वकील साहब के दिल में, एक ही बात थी...’मुव्वकिल आख़िर, जाएगा कहाँ ? कैसे बचेगा, हमारे फ़ौलादी दांव-पेच से ? एक बार हमारे चंगुल में फंस जाए, तो ख़ुद अल्लाह मियां भी उसे बचा नहीं सकता। आख़िर, हमारा मुव्वकिल हमारे लिए है क्या ? वह तो है...सोने के अंडे देने वाली मुर्गी। समझदार आदमी सोने के अंडे देने वाली को हलाल नहीं करता, क्योंकि वह तो है उसका आय का साधन।’

बेचारे अल्लारखा ने मन-मसोसकर, जेब में हाथ डाला। बची-खुची रक़म निकालकर, वकील साहब के हवाला कर दी..! वह गीद रूपी वकील ‘हीं हीं’ करता हुआ हँसता गया, ऐसा लगा मानों कोई घोड़ा हिनहिना रहा हो ?

[post_ads]

आख़िर, वकीलों का क्या जाता है ? बस सुनवाई की तारीख़ें आगे बढ़ाते रहो, हर पेशी पर फ़रीक से पैसे वसूल वसूल करते रहो। ख़ुद खाओ, और दूसरे को खिलाओ। सबका पेट भरते रहो, और क्या ?

लंच का वक़्त हो गया, चपरासियों ने वकीलों और मुव्वकिलों को आवाज़ लगाने का काम बंद किया। अब अल्लारखा साहब को दालान में छोड़कर, साबिर मियां चल दिए एलकारों के कमरों की तरफ़। पेशी पर आये वकीलों और मुव्वकिलों को आवाज़ देने का काम, चपरासी कल्लू रामजी का था। पग़ार के अलावा कल्लू रामजी को ऊपर की भी आमदानी हो जाया करती। इस तरह, वे दो पैसे भी बचा लिया करते। मगर, ख़ुशनसीबी ज़्यादा दिनों तक टिकी नहीं। ख़ुदा की पनाह, न जाने क्यों इस बदक़िस्मती ने आकर कल्लू रामजी को घेरा ? बेचारे कल्लू रामजी की एक छोटी सी ग़लती से, हाकिम साहिबा और रीडर साहब हो गए नाराज़। हुआ यूं, कि उन्होंने हाकिम मेडम को रीडर अकबर साहब की फ़ीकी काफ़ी पिला दी, और मेडम की मीठी काफ़ी रीडर साहब को थमा दी। बेचारे डाइबिटिज़ के मरीज़ रीडर साहब तो इसे किसी तरह बर्दाश्त कर लेते, मगर हाकिम साहिबा ठहरी गर्म मिजाज़ की। वह, कैसे बर्दाश्त करती ? बस, फिर क्या ? मुंह में फीकी काफ़ी जाते ही, हकीम मेडम हो गयी नाराज़। जज़ की कुर्सी पर बैठी यह मोहतरमा, कैसे कल्लू रामजी को मुआफ़ करती ? हाकिम साहिबा का काम ही, जुर्म करने वाले इंसान को सज़ा देना ही है..फिर, मुआफ़ करने का तो सवाल ही नहीं। फिर तो तमतमायी हुई हाकिम साहिबा ने हुक्म दे दिया, रीडर साहब को कि, “कल्लू रामजी के काम को, जल्द बदला जाय। ताकि, उसे सुधरने का एक मौक़ा मिल जाय।” इधर रीडर साहब तो पहले से ही नाराज़ थे, उन्होंने भी यही सोचा कि, “अगर कल्लू रामजी का काम बदला गया तो, उनको अक्ल आ जायेगी। फिर, वे कभी आगे से ग़लती करेंगे नहीं। जब रहेगी इनकी जेबें ठंडी, तब अपने-आप मियां कालू रामजी सुधर जायेंगे।” फिर क्या ? बेचारे कल्लू रामजी का काम, बदल डाला गया। तब से वकीलों और मुव्वकिलों को आवाज़ लगाने का काम, मियां शेरू खां को मिल गया। इस काम के हाथ से जाते ही, कल्लू रामजी हो गए चुस्त..अब वे एलकारों के हर हुक्म को सलीके से अंजाम देने लगे। इनका विचार था, ‘उसके काम से ख़ुश होकर, एलकार लोग उन पर हो जायेंगे मेहरबान। फिर अल्लाह चाहेगा तो..ये एलकार ख़ुश होकर, हाकिम साहिबा के पास शिफ़ायत लगाकर उनको वापस पहले वाला काम दिला देंगे।’ फिर क्या ? जनाब कालू रामजी फुर्तीले दिखने की गर्ज़ से फटा-फट क़दम उठाये, इन एलकारों के लिए चाय-नाश्ता लाने के लिए...मगर जैसे ही उन्होंने क़दम बढाए और तभी उन्हें साबिर मियां के क़दमों की आहट सुनायी दी। आहट सुनकर, उनके पाँव थम गए। इधर ख़्यालों की दुनिया में डूबे नाज़िर तौफ़ीक़ मियां, ख़्यालों की दुनिया छोड़कर आ गए ज़मीन पर। और, साबिर मियां को देखते ही बोल उठे “तशरीफ़ रखिये, वकील साहब।” इतना कहकर, उन्होंने पास रखे स्टूल को उनके आगे खिसका दिया। ख़ुदा की पनाह, बेचारे साबिर मियां उस स्टूल को देख न पाए...बस बेचारे उस स्टूल से टक्कर खाकर, हो गए चारों खाना चित्त। हाय अल्लाह, अदालत-ए-जंग जीतने वाले साबिर मियां कद्दू की तरह ज़मीन पर आ गिरे। क़िस्मत ही ख़राब रही, बेचारे साबिर मियां की। वे धड़ाम से नीचे गिरे तो कोई बात नहीं, मगर उठते वक़्त बेचारे कल्लू रामजी से एक बार और टक्करा गए, जो पास ही खड़े थे। उधर बेचारे कल्लू रामजी में, कहाँ इतनी ताकत..? जो इस टक्कर को, संभाल पाते ? वे भी उनके साथ, धान की बोरी की तरह आ गिरे भौम पर।

[post_ads_2]

यह मंज़र देखकर, चपरासी शेरू खां ख़िलखिकाकर हंस पड़े। हंसते हुए उन्होंने साबिर मियां की खिल्ली उड़ाते हुए एक जुमला बोल डाला “आज़ तो मियां भारी पड़े, क्या कमाल कर दिखाया आपने ? अदालत-ए-जंग तक़रीरों से जीत डाला, और यहाँ चूहों के उस्ताद हमारे कल्लू मियां को किंगकोंग की तरह पटकनी देकर ऐसा पटका..ऐसा पटका, जनाब ने “रुस्तम-ए-हिन्द” का ख़िताब आख़िर हासिल कर ही लिया। ख़ुदा करे, ऐसे मौक़े और भी मिलते रहे जनाब को।”

चुस्त दिखने का दिखावा करते हुए, मियां कल्लू रामजी खड़े हो गए ऐसे..कि, जनाब को कुछ हुआ ही नहीं। अब वे साबिर मियां की ख़ुशामद करने की गर्ज़ से मियां शेरू खां से उलझ पड़े। उलझाते भी क्यों नहीं, आख़िर अभी-अभी मियां शेरू खां ने, उनके मुअज़्ज़म साबिर मियां की खिल्ली उड़ाते हुए कुछ कहा था..? तपाक से उन्होंने मियां शेरू खां को दो नंबर डांट पिलाते हुए उन्होंने कह दिया “बदतमीज़, अपनी जुबान पर लगाम लगाओ मियां। नहीं तो हमारी रेशमी जूतियाँ, आपके सर पर सवार हो जायेगी।” फिर मियां ज़हरीली नज़रों से, शेरू खां को देखने लगे। इस तरह उनके घूरने से, शेरू खां हो गए नाराज़। गुस्से से भरकर, जनाब हाथ नचाते हुए कहने लगे “हुज़ूरे आलिया। आगे कहिये, रुके क्यों ? क्या आपकी जुबान चिपक गयी, तालू से ? अरे मियां अब तो आप किसी का वसूक जीत नहीं सकते, चाहे वह साबिर मियां हो या और कोई। क्योंकि सबको मालुम है, आप हाकिम मेडम की आँख की किरकरी बन गए थे..तभी हुजूरे आलिया ने आपको दूध में पड़ी मक्खी की तरह, बाहर निकाल डाला। अब बड़े आये जनाब, रेशमी जूतियाँ पहनने वाले ? पांवों में फटी जूतियाँ पहनकर, साहबज़ादे दूसरों के फटे में अपने पाँव फंसाकार....” इतना सुनते ही कल्लू मियां तो गुस्से से बेनियाम हो गए, नहले पर दहला मारते हुए कह बैठे “लाहौल-विला-कुव्वत। मियां आप तो वानगी पर उतर आये। अब खोल दूंगा सारी पोल, दिखला दूंगा लम्बी फ़ेहरिस्त..कि, आपने किस तरह हाकिम साहिबा का नाम लेकर किन-किन लोगों से पैसा खाया है ?” बिछी-बिछाई कालीन उधेड़ना, किसे पसंद आयेगा ? शेरू खां के लिए, यह जीने-मरने का सवाल बन गया। फिर क्या ? उन्होंने गुस्से से काफ़ूर होकर, बेचारे सींकिया पहलवान कल्लू रामजी की पीठ पर चार-पांच धोल जमा दिए। फिर तो तमाशा, होना ही था। फिर क्या ? तमाशा देखने को मिल गया, सबको। और तमाशबीन बन गए, वहां बैठे एलकार और वकील। उनका दंगल देख रहे ये वकील और एलकार, इन दोनों जंगजू का जोश बढ़ाते हुए कहते गए “शाबास..शाबास।” मगर यहाँ तो शेरू खां ठहरे, पहलवान सरीखे। उधर, कल्लू रामजी का कमज़ोर बदन उनकी मार बर्दाश्त नहीं कर पाया। वे बचने के लिए ज़ोर-ज़ोर से, चीख़ने लगे “ओ, ख़ुदा के बन्दों। आकर मुझे बचाओ, इस शैतान से।” मगर, यहाँ कौन बैठा है जो कल्लू रामजी पर रहम बरसता हो ? आख़िर, किसी ने उनकी गुहार नहीं सुनी। सभी ने कल्लू रामजी को दोषी मानते हुए, उनकी ग़लती बताते रहे। उनको बुरा-भला कहते हुए, उनके दिल पर मरहम लगाने की जगह नमक छिड़कने का काम करते रहे। जग में रीत है, जिस आदमी से इंसान को फ़ायदा होता हो..उसको सभी ख़ुश रखना चाहते हैं। इस वक़्त शेरू खां, वकीलों और एलकारों के बीच में पुल बनाने का काम किया करते। दूसरे शब्दों में “वकीलों का काम करवाना और एलकारों की जेबें भरते रहना।” जब कल्लू रामजी का काम शेरू खां को दिया गया, तब सभी एलकारों और वकीलों ने उनको बधाई दी। इस तरह जब से इन दोनों चपरासियों का काम बदला गया, तब से इन दोनों चपरासियों के बीच में लड़ाई-झगड़े होते रहे। इस तरह रोज़ का यह लड़ाई-झगड़ा, इन वकीलों और एलकारों के लिए मनोरंजन का साधन बन गया। फिर क्या ? बेचारे कल्लू रामजी मार खाकर, हाकिम साहिबा के चेंबर की तरफ़ रोते हुए चल पड़े।

यह कहानी उस ज़माने की है, जब मुल्क में अंग्रेजों की हकूमत थी। आज़ की तरह, उस वक़्त ‘ई मेल’ वगैरा की डाक भेजने की सुविधाएं न थी। डाक या तो कबूतर ले जाया करते, या फिर सवार। कबूतरों को बक़ायदा, डाक लाने-ले जाने की तालीम दी जाती थी। इस डाक पर ही, सरकारी महकमें टिके थे। इसलिए हाकिम साहिबा ने अपने चेंबर के पीछे ही, कबूतरख़ाना बना रखा था। जिस पर वह कड़ी नज़र रखती थी। कबूतरों की बींट से कई तरह की दवाइयां बना करती, जिसे बेचकर अच्छा-ख़ासा मुनाफ़ा कमाया जा सकता था। इस फ़ायदे को ध्यान में रखकर, कल्लू रामजी ने इस कबूतर ख़ाने की साफ़-सफ़ाई का जुम्मा अपने हाथ में ले रखा था। आज़कल कल्लू रामजी के सितारे गर्दिश थे, बेचारे गर्दिशज़द कल्लू रामजी हकीम साहिबा की आँख की किरकरी बन चुके थे। उनके हर काम में, हाकिम साहिबा को उनकी ग़लती नज़र आती थी। बेचारे कल्लू रामजी की क़िस्मत ही ख़राब थी, वह जब भी इन कबूतरों की गिनने बैठती...तब गिनती में, कबूतर कम पाए जाते। कबूतरों का कम पाया जाना, यानी उनकी ड्यूटी में लापरवाही..इसके अलावा हाकिम साहिब क्या समझती ? हाकिम साहिबा की एक ही बात, उनके दिल में शूल की तरह चुभ गयी कि, ‘इनकी लापरवाही के कारण, रोज़ कोई बिल्ली यहाँ आकर इन कबूतरों का नाश्ता करती है ?’ बस इसी फ़िक्र में डूबी हाकिम साहिबा, अपने चेंबर में एक लाठी रखने लगी। बस उसे ऐसे मौक़े की तलाश थी, ‘कब वह बिल्ली कबूतर ख़ाने की तरफ़ मुंह करे, और झट वह उस पर लाठी का प्रहार करे।’

तभी कबूतरख़ाने की तरफ़ किसी के आने की आहट हाकिम साहिबा को सुनायी दी, और इधर पोथीख़ाने में इन शैतान चूहों ने दौड़ लगा दी। फिर क्या ? रेक में रखी क़ानून की किताबों को, उन्होंने धड़ाम से नीचे गिरा डाला। किताबें गिरते ही, ज़ोर की आवाज़ हुई। तभी उनके चेंबर के दरवाज़े के पास, किसी के आने की आहट सुनायी दी। हाकिम साहिबा चौंक उठी, हाकिम साहिबा ने समझा ‘अब बिल्ली आ गयी है, कबूतरों को नाश्ता करने।’ तपाक से उस आवाज़ की तरफ़, हाकिम साहिबा ने पास पड़ी लाठी तेज़ी से चला दी...जो सीधी जाकर, कल्लू रामजी के सर पर चांदमारी कर बैठी। बस, फिर क्या ? महज़ून कल्लू रामजी के मुंह से, चीख़ निकल उठी। बेचारे कल्लू रामजी शेरू खां की शिकायत करने इधर ही हांकीम साहिबा के क़रीब आ रहे थे, मगर उनकी लाठी की मार खाकर भौंचके हो गए..और, सोचने लगे कि ‘अब वे किसके पास जाकर, फ़रियाद करें ?’ यहाँ तो हाकिम साहिबा ने न अपनी ग़लती मानी, और न उनकी ख़ैरियत पूछी...? मगर, यह बात हाकिम साहिबा के दिमाग़ में आये कैसे ? यहाँ तो पहले से मियां शेरु खां ने हाकिम साहिबा को उनके खिलाफ़ भड़काकर, उनका गुस्सा सातवे आसमान पर ला डाला। हाकिम साहिबा की मस्कागिरी करते हुए, कल्लू रामजी की हर लापरवाही के किये गए काम का ब्यौरा उन्होंने नमक-मिर्च लगाकर उनके सामने पेश कर डाले। और यह भड़काने का काम तो, शेरू खां के लिए बाएं हाथ का काम ठहरा। वह जानते थे, इन दिनों पोथीख़ाने की ओर बिल्ली चक्कर काटकर नहीं जाती..इस कारण, शैतान चूहों की हरक़तें नाक़ाबिले बर्दाश्त हो गयी है। इन चूहों ने, पोथीख़ाने की कई किताबें कुतर डाली..बस, फिर क्या ? झट शेरू खां को, बारूद के ढेर में आतिश लगाने का नायाब मौक़ा मिल गया। वे झट उन कुतरी हुई किताबों को, हाकिम साहिबा को दिखलाकर आ गए। इस तरह कल्लू रामजी के खिलाफ़, उनकी लापरवाही के सबूत हाकिम साहिबा के दिमाग़ में चक्कर काटने लगे।

दफ़्तर के एलकारों में एक ख़ूबी होती है, इन लोगों को पग़ार के अलावा जो कुछ फ़रीकों वकीलों से मिलता है..उसे मिल-बांटकर, खाते हैं। इन लोगों के लिए ख़ास दुश्मन होता है, ईमानदार आदमी। अगर बदक़िस्मत से वह इनके बीच आकर फंस जाय तो, ये उसे छठी का दूध पिलाना कभी न भूलेंगे। इन लोगों की कुचालों का अहसास पाकर वह ईमानदार आदमी, या तो एक किनारे आकर खड़ा हो जाएगा...या इन बेईमान एलकारों से हाथ मिलाकर, उनकी तरह बन जाएगा। अगर ऐसा न हुआ तो, इन एलकारों की बदनाम गैंग उसके खिलाफ़ ऐसा प्लान तैयार करती है...कि, जिसका अंजाम वह ईमानदार आदमी तो क्या ? उसकी सात पुश्तें भी, उस अंजाम को नहीं भूल सकती।

साबिर मियां के जाने के बाद ये एलकार लोग मिटिंग लेने लगे, उनका मुद्दा यह था कि “किसी प्रकार की डाक सम्बंधित काग़ज़ात, इन सवारों के साथ नहीं भेजें जाय। कारण यह था कि, काम चाहे एक दिन का हो...या दो-तीन घंटों का। मगर, ये सवार जिम्मेवारी से उस काम को अंजाम नहीं देते। ऐसे काम सवार हाथ में तो ले लेंगे, मगर ये लोग काम पूरा होते ही अपने घर जाकर बैठ जायेंगे। और दो-चार दिन तक, अपने घर मस्ती छानते रहेंगे। फिर दफ़्तर लौट आयेंगे, और साथ में देरी से आने का अचूक बहाना भी अलग से बना लेंगे। इधर इनके जाने के पीछे दफ़्तर के कई काम अधूरे रह जाय, मगर इनका उनसे कोई तालुक्कात नहीं रहता। और न ये लोग, इन अधूरे काम की फ़िक्र करते है। या तो सौंपा गया काम वक़्त पर, पूरा होता नहीं। और अगर काम पूरा भी हो जाता, तो ये लोग उस काम के पूरा होने की इतला दफ़्तर में दिया नहीं करते और न इसकी फ़िक्र करते। फिर ऐसे मौक़ों पर, काम न होने या काम पूरा होने की इतला न आने पर हाकिम साहिबा की डांट इन एलकारों को सुननी पड़ती है। ग़लती है सवारों की, और सुनना पड़ता है इन एलकारों को ? यह बात इन एलकारों के लिए, नाक़ाबिले बर्दाश्त ठहरी। अब हर्ज़-मुर्ज़ यह है कि, इस बात को हाकिम साहिबा को कौन समझाये और कैसे समझाये कि, इन सवारों को डाक ले जाने के काम पर न भेजकर इन कबूतरों को भेजा जाय ? मगर, हर डाक के लिए कबूतरों को कैसे काम में लेते रहे ? यहाँ तो आये-दिन, कबूतरों की तदाद कम होती जा रही है ? इस वक़्त शेरू खां वहीँ खड़े थे, उनसे बोले बिना रहा नहीं गया। वे झट, अफ़वाह फैलाते हुए बोल पड़े “एक बिल्ली रोज़ कबूतर का नाश्ता करने चुपचाप कबूतरों के दड़बे में घुस जाया करती है, जनाब कल्लू रामजी की लापरवाही के कारण इस बिल्ली को रोज़ खाने के लिए कबूतर मिल जाते हैं। आज़ भी हाकिम साहिबा ने उनको, इस लापरवाही के लिए ज़बरदस्त डांट पिलाई है। यही कारण है, इन दिनों हकीम साहिबा उनसे नाराज़ रहने लगी है। इसलिए मैं कहता हूँ, अभी हाकिम साहिबा से इस मुद्दे पर बात करना ठीक नहीं। आप गए उनके पास, और वह आपके ही गले पड़ेगी और पूछेगी कि, “कहिये मियां, इतने कबूतर कहाँ है, जो डाक भेजी जा सके ? अब तो इस बिल्ली के पकड़े जाने में ही सबकी भलाई है।” अब सवाल यह खड़ा हो गया कि, हाकिम साहिबा के पास जाकर उन्हें कौन समझाएगा कि, इस तरह इस हर्ज़-मुर्ज़ से कैसे निपटा जा सकता है ? यह काम तो अब, बिल्ली के गले में घंटी बांधने के बराबर हो गया। अब सभी एलकार, एक ही बात कहने लगे “हाय अल्लाह। अब बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा ?” तभी जम्हाई लेते हुए, एलकार बंजरंग लाल बोल उठे “क्यों फ़िक्र करते हो, यारों ? इस काम को अंजाम देंगे, मियां तौफ़ीक़। आख़िर, वे ठहरे क़ाबिल नाज़िर। उनका ख़ास काम, डाक भेजना ही है।” इतना कहकर, मूंछों पर ताव देते हुए मियां तौफ़ीक़ को देखने लगे।

मगर इस वक़्त हमारे तौफ़ीक़ मियां खोये हुए थे, ख़्यालों की दुनिया में। इन दिनों बेचारे तौफ़ीक़ मियां गुमसुम ही रहते हैं, अक्सर। बैठे-बैठे न जाने किन ख़्यालों में वे खो जाया करते। इस तरह ख़्यालों में खो जाने का मर्ज़, इनकी बीबी नूरजहाँ की नादानी के कारण उन्हें तौहफ़े में मिला। जब कभी बीबी की नादानी उन्हें याद आती है, तब तौफ़ीक़ मियां के दिल में शोले भड़क जाते हैं। यह सारा गुस्सा, उस ईमानदार की औलाद अकबर मियां पर आया करता। इनके आने के पहले, वे क्या ऐश की ज़िंदगी बिताया करते ? वह भी कोई ज़माना था, जब अदालत के कोने-कोने में बैठे वकील और मुवक्किल उनसे मिलने के लिए बेताब रहते थे। वे जिधर गुज़रते, रास्ते में खड़ा हर शख़्स उन्हें सलाम करता। मगर बदक़िस्मत ठहरी उनकी, अकबर मियां ने इस दफ़्तर में तशरीफ़ रखकर इन्हें इंसाफ़ के तराजू के दीदार करवा डाले। तब से मियां, उनसे ख़ार खाए बैठे थे। अकबर साहब, खुले दिल के इंसान ठहरे। वे उनके मुंह पर ही, कह दिया करते “मियां तौफ़ीक़ तुम जो काम करते हो, हमसे छिपा नहीं है। मगर हम करते हैं, आपकी बीबी और बच्चों का ख़्याल। मगर याद रखना जब भी आप, किसी ग़रीब को सतायेंगे...तब यह ख़ुदा का बन्दा, आपको माफ़ नहीं करेगा।”

बदक़िस्मत से, एक बार तौफ़ीक़ मियां से हो गयी ख़ता। एक ज़रूरी डाक सवार के जरिये, कमिशनर देहली को भेजने का हुक्म मिला। जनाब ने वह डाक, अपने साले ‘सलामत खां’ को पहुंचाने के लिए दे दी। सलामत खां इस दफ़्तर में, सवार के ओहदे पर काम करते थे। जनाब को सवार तो कम कहिये, मगर इनकी शक्ल-सूरत और तौर-तरीक़े देखकर कोई अनजान आदमी इनकी पहचान नशेड़ी के रूप में देगा। यानी वे एक छंटे हुए, नशेड़ी थे। आख़िर, नशेड़ी को क्या चाहिए ? कि, दिन में एक बार नशे का इंतज़ाम कहीं से हो जाय। पक्का नशेड़ी वही होता है, ‘जो येन-केन कर लेता है, नशे का इंतज़ाम।’ अदालते मुलाज़िम-मुद्दई, मुव्वकिल गवाह वगैरा कई लोग बैठे रहते हैं, अदालत के गलियारे में..उनका छोटा-मोटा काम निकालकर, मियां अपने नशे का इन्तिज़ाम कर लिया करते। लोग कहा करते हैं, सारी दुनिया एक तरफ़ और जोरू का भाई एक तरफ़। बस इसी जीजा-साले के रिश्ते ने सलामत खां को ऐसा दिलेर बना डाला, जिसकी लगाम किसी के पास नहीं। सलामत खां जब कभी कोई ग़लती भी करते, तौफ़ीक़ मियां के साथ उनकी रिश्तेदारी का लिहाज़ रखते हुए कोई एलकार इनको कुछ नहीं कहता। इस कारण सलामत खां बेख़ौफ़ रहकर, अपनी मर्ज़ी के मालिक बन गए। इन दिनों जनाब इतने बेउसूल हो गए कि, मर्ज़ी होती तो पहुंचा देते डाक..मर्ज़ी नहीं हुई तो, मयख़ाने जाकर दारु पीने बैठ जाते। वे अपनी आदतों से, बाज़ आये नहीं। और छुट्टी मानाने के चक्कर में, उन्होंने हाथ में ले ली डाक। मगर अब दारु की तलब पूरी न होने से, जनाब के बदन में आयी नहीं ताकत। फिर क्या ? जनाब झट क़दमबोसी कर बैठे मयख़ानें की ओर, और भूल गए कि उनको कहीं जाकर डाक भी पहुंचाने जाना है। बस, फिर क्या ? वक़्त पर डाक न मिलने से, देहली में एक ग़रीब मज़लूम की ज़ायदाद कुर्क हो गयी...! फिर क्या ? बेचारा वह ग़रीब रोता हुआ, रीडर साहब के पास जा पहुंचा। मियां ने सारी दास्तान सुनी, यह वाकया सुनकर उनकी बर्दाश्त करने की सीमा ख़त्म हो गयी। फिर क्या ? उन्होंने जाकर, हाकिम साहिबा के पास उस ग़रीब मज़लूम को हाज़िर कर उसकी फ़रियाद पेश कर दी। अब हाकिम साहिबा ने जांच का फ़रमान ज़ारी कर दिया, तब तो सलामत खां की सरासर ग़लती सामने नज़र आने लगी।

इस वाकये को सुनकर, बेग़म नूरजहाँ का दिल कांप उठा। फिर क्या ? अपने भाई को बचाने के लिए, बेग़म ने अपने शौहर पर दबाव डाला। दबाव..क्या डाला ? उन्होंने तो अपने शौहर को, यहाँ तक कह दिया कि, “मियां देख लेना, यदि मेरे भाई को कुछ हो गया, तो तुम मेरा मरा मुंह देखोगे।” जोरू का यह रूप देखकर, उनकी अक्ल पर ताला जड़ गया। यह कह दीजिये कि, उनकी अक्ल मारी गयी...वे तो बीबी के आगे, पूंछ हिलाते नज़र आये। अब तो जग-ज़ाहिर हो गया कि, “वे घर के बाहर ही शेर की तरह दहाड़ा करते, और घर के अन्दर बीबी के आगे मिमियाते नज़र आते हैं।” बस, फिर क्या ? बीबी के ख़ौफ़ में उन्होंने सलामत खां को दोषी करार करार करने के सारे सबूत, गधे के सींग की तरह गायब कर दिए। मगर अकबर खां ने अपने बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये, उन्होंने ज़िरह करके तौफ़ीक़ मियां से क़बूल करवा डाला कि, सलामत खां के खिलाफ़ जाने वाले सबूतों को उन्होंने ही मिटाए हैं। यह सारा नज़ारा देखकर, हाकिम साहिबा के गुस्से का कोई पार नहीं। फिर क्या ? सज़ा के तौर पर, उन्होंने तौफ़ीक़ मियां से खुफ़िया फाइलों का चार्ज छीनकर अकबर मियां को सुपर्द का दिया। बस उसी दिन से मियां तौफ़ीक़, इस ग़म के साए में रहकर...ख़्यालों की दुनिया में, खोये-खोये रहने लगे। अब उनको समझ में आ गया कि, “घर में आला और साला, दोनों काम के नहीं।”

तभी मेज़ पर फ़ाइल रखकर, शेरू खां ज़ोर से बोल उठे “उठिए साहब, उठिए।” इस गूंज़ती आवाज़ से, मियां तौफ़ीक़ चौंक उठे। जनाब ख़्यालों की दुनिया से निकलकर, ज़ोर से कहने कहने लगे “चिल्लाते क्यों हो, क्या हम बहरे हैं ? सुब सुन लिया, मैंने। बोलो, क्या चाहते हो ?” “जनाब, लंच का वक़्त हो गया है। रीडर साहब की इल्तज़ा है, आप उनके ग़रीबख़ाने पर तशरीफ़ रखकर दस्तरख़्वान की रौनक बढ़ाएं।” शेरू खां ने ज़वाब दिया।

दो माह ही बीते, सलामत खां वाली दास्तान को। क्या, मियां को भूलने की बीमारी है ? या जनाब किसी दरवेश का ख़िताब पाने के लिए, बिगड़े रसूख़ात को नज़रअंदाज़ करते जा रहे हैं ? मियां तौफ़ीक़ समझ नहीं पाए कि, माज़रा क्या है ? अब तो तौफ़ीक़ मियां के दिल में ख़्याल आने लगा, जिसके आगे अक्ल का ताला जड़ गया हो ? वे अल्लाह ताआला से सवाल कर बैठे “या परवरदीगार, यह कैसा मंज़र ? आख़िर अब मैं इनको क्या समझूं, दरवेश या भूल्लकड़ ?” फिर मेज़ पर रखी फ़ाइल उठाकर मियां मुस्कराए, और बोले “ उन्हें कहना, हम ज़रूर आयेंगे। साथ में हम उनसे, अगले मुकदमें के बारे में गुफ़्तगू भी कर लेंगे।” फिर क्या ? ज़वाब सुनकर, शेरू खां चल दिए अकबर मियां को ख़बर देने।

जुम्मे का दिन था, वक़्त हुआ दोपहर के क़रीब डेड बजे का। अब नवाब साहब, अदालत के काम से फारिग़ हो गए। इस वक़्त नवाब वाज़िद अली, सदर बाज़ार वाली मस्जिद में जाकर वक्ती नमाज़ पढ़ना चाहते थे। इसलिए बग्गी पर सवार होकर जैसे ही नवाब साहब ने कोचवान को चलने का हुक्म देना चाहा, तभी उनको अदालत से बाहर आते मियां तौफ़ीक़ दिखाई दिए। उनके हाथ में छाता था, वे इधर ही आ रहे थे। फिर क्या ? उनको पास बुलाकर, नवाब साहब कहने लगे “असलाम वलेकम मियां, इस कड़ी धूप में कहाँ तशरीफ़ रख रहे हैं जनाब ?” उनको देखते ही, तौफ़ीक़ मियां ने झट नीमतस्लीम किया। फिर कहने लगे “वालेकम सलाम हुज़ूर। कुछ ही दूर, अकबर मियां के दौलतख़ाने पर।” फिर छाते को बंद करते हुए, जनाब आगे बोले ”हुज़ूर का हुक्म हो तो, हम रुख़्सत होना चाहेंगे।” “कहाँ जाओगे, इस कड़ी धूप में ? मियां तशरीफ़ रखिये, आ जाइए बग्गी पर। हम भी उसी रास्ते से गुज़र रहे हैं। पहले आपको, आपके मुक़ाम पर छोड़ देंगे।” नवाब साहब ने कहा। बस, क्या ? शुक्रिया अदा कर, तौफ़ीक़ मियां आ जमे बग्गी पर। बग्गी पर सवार होने होने के कारण, वे अकबर मियां से पहले पहुंच गए उनके दौलतख़ाने। वहां दरवाज़े पर, उन्होंने ख़ानसामे को खड़ा पाया। घूटर गूं घूटर गूं कर रहे दो कबूतर उसके दोनों कन्धों पर बैठे थे। तौफ़ीक़ मियां को देखकर, ख़ानसामे ने नीमतस्लीम किया। फिर, कहा “अन्दर तशरीफ़ रखे, हुज़ूर। खाना तैयार है। बस, साहब आ जाए, तो दस्तरख़्वान सज़ा दूं।” मगर इन कबूतरों के दीदार पाकर, मियां तौफ़ीक़ को इन मासूम कबतूरों से दिल बहलाने की इच्छा पैदा हुई। वे कहने लगे “छोड़िये, जनाब। हम यहीं खड़े रहकर, उनका इन्तिज़ार कर लेंगे। तब-तक हम, इन कबूतरों से अपना जी बहला लेते हैं।” इतना कहकर, वे कबूतरों को ध्यान से देखने लगे। इन कबूतरों को देखकर उनको ऐसा लगा कि, इन कबूतरों में से किसी एक कबूतर को वे कहीं देख चुके हैं। तभी उनमें से जो नर कबूतर था, वह उड़ा और उनके कंधे पर आकर बैठ गया। उन्हें बहुत ताज्जुब हुआ। फिर क्या ? उन्होंने झट उस कबूतर को अपने हाथ से उठाकर, उसके बदन को हाथ से सहलाने लगे। अब उन्होंने ध्यान से उसे देखा, तब मालुम हुआ कि ‘वह तो डाक का कबूतर है।’ बरबस, उनके मुंह से निकल पड़ा कि, “हाय अल्लाह। यह, यहाँ कैसे ?” तभी, ख़ानसामा बोल उठा “हुज़ूर हमारे साहब तो केवल मादा कबूतर पालने के शौकिन हैं, अल्लाह जाने ये मादा कबूतर कहाँ से इन नर कबूतरों को उड़ा लाई ? ख़ुदा जाने, अब इन कबूतरों के मालिक इन कबूतरों की राह देख रहे हों ?” यह सुनते ही तौफ़ीक़ मियां झट उठे, और चल दिए कबूतरों के दड़बे में। उन कबूतरों पर नज़र गिरते ही, मियां की बांछे ख़िल गयी। खोये हुए सारे कबूतर, उनको इसी दड़बे मिल गए। अब मियां के दिमाग़ में, साज़िश पैदा होने लगी। होंठों में ही, वे कह उठे “यार तौफ़ीक़। इन कबूतरों ने लौटा दिए, हमारे पुराने दिन। अब तो यार, वापस करेंगे ऐश। अब तो हाकिम साहिबा को, बस इतना ही बताना है, ‘मलिका-ए-आज़म। इस नापाक बिल्ली ने इन कबूतरों का नाश्ता नहीं किया, बल्कि आपके ख़ास दफ़्तरेनिग़ार जनाब अकबर अली साहब ने चुराए हैं। आप चाहें तो, आप उनके घर की तलाशी ले सकते हैं।’ बस दूसरे दिन ही, साज़िश को जन्म दिया गया। फिर क्या ? डाक के गुम हुए सारे कबूतर, अकबर अली साहब के घर पर मिल गए। अब तो हाकिम साहिबा हो गयी, अकबर साहब से नाराज़। अकबर साहब से, खुफ़िया फाइलों का चार्ज वापस ले लिया गया। इस तरह एलकारों की टीम ने, वापस क़िला फ़तेह कर लिया। बेचारे एक ईमानदार आदमी की इज़्ज़त, धूल में मिल गयी। अब, सबके पौ-बारह...! सब ने, एक सुर में कहा “बिल्ली के गले में, घंटी बंध गयी।”

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. पाठकों,
    पढ़ा आपने, किस तरह एक ईमानदार आदमी पर कबूतरों की चोरी का आरोप लगाकर उसे दोषी सिद्ध करके बिल्ली के गले में घंटी बांधी जा सकती है ? अब कहिये, क्या आपको यह कहानी कैसी लगी ? क्या आप अधूरे छोड़े गए, सवाल का जवाब दे सकते हैं ? इस स्थिति में बेईमानों के बिछाए गए जाल से, अकबर मियां बाहर कैसे निकल सकते थे ? और अपने आपको, कैसे दोष मुक्त साबित कर पाते ?
    दिनेश चंद्र पुरोहित dineshchandrapurohit2@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  2. पाठकों,
    कहानी "बिल्ली के गले में घंटी " पढ़ ली होगी ? इसके बाद कहानी "याद तुम्हारी हो" प्रकाशित हो चुकी है , उसे भी आप जल्द पढ़ लीजियेगा । इसके बाद आपके सामने मेरी अगली कहानी "पाप का घड़ा" आने वाली है । अखबारों और टी वी चैनलों से आप बापू आशा राम के जीवन के बारे में जानकारी ले चुके हैं । अब आप इस कहानी "पाप का घड़ा" में सच्चे संत के बारे में पढ़ेंगे । जिसे समाज के स्वार्थी लोगों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए शिकार बनाया । वह संत किस तरह उनके जाल से बेदाग बाहर निकल ? मार्मिक कहानी है, आशा है इसे आप अवश्य पढ़ेंगे ।
    दिनांक 16 अक्टूम्बर 2018
    दिनेश चंद्र पुरोहित

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: कहानी - “बिल्ली के गले में घंटी” - राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
कहानी - “बिल्ली के गले में घंटी” - राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
https://lh3.googleusercontent.com/-5AD7kwkb6D8/W7h7Bvrmt4I/AAAAAAABEh8/KXkZvVKoEGEo-uhOtdx86aUeSVRvZvNfwCHMYCw/clip_image002_thumb?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-5AD7kwkb6D8/W7h7Bvrmt4I/AAAAAAABEh8/KXkZvVKoEGEo-uhOtdx86aUeSVRvZvNfwCHMYCw/s72-c/clip_image002_thumb?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/10/blog-post_71.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/10/blog-post_71.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content