वार्तालाप एवं आत्म-कथ्य // महेन्द्र भटनागर प्र्रगतिवादी-जनवादी कवि महेन्द्रभटनागर ने बताया : डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया 1 : आप अपने बाल्यकाल के...
वार्तालाप एवं आत्म-कथ्य // महेन्द्र भटनागर
प्र्रगतिवादी-जनवादी कवि
महेन्द्रभटनागर ने बताया :
डॉ. भूपेन्द्र हरदेनिया
1 : आप अपने बाल्यकाल के अनुभवों के बारे में, अपने कवि के मन पर पड़े शुरूआती प्रभावों और निर्णायक प्रसंगों के बारे में कुछ बताएँ।
सर्वप्रथम कविता-विधा के प्रति आकर्शण उत्पन्न हुआ। कविता से परिचय सबसे पहले घर में हुआ। बहुत-कुछ घर के सांस्कृतिक वातावरण के फलस्वरूप। माता जी-पिता जी द्वारा ‘रामचरित मानस’ / वैदिक ऋचाओं का गान / पाठ करने, तीज-त्योहारों एवं विशिष्ट अवसरों पर घर-पड़ोस की महिलाओं द्वारा गायन करने, यहाँ-तक कि मुहल्ले में जब-तब किसी फ़कीर / साधु के गाते हुए गुज़रने पर मेरी काव्य / गायन चेतना जाग उठती थी। सब काम छोड़कर मैं संगीत-गान की तरफ़ खिँच जाता था। तदुपरांत पाठशाला / विद्यालय में साहित्य / काव्य के अध्ययन ने मेरे मन में कविता के प्रति रुचि ही उत्पन्न नहीं की, काव्य-संस्कार भी दिये। और जब बष्हत् समाज से जुड़ा तो नगर के साहित्यिक परिवेष ने प्रभावित किया। कवि-सम्मेलनों / मुशायरों को सुनने में ख़ूब आनन्द आता था। आसपास के सामाजिक जीवन और प्राकृतिक दृष्यों ने भी कोई कम प्रभावित-आकर्शित नहीं किया।
2 : आपने कविता लिखना कब से शुरू की? यदि स्मरण हो तो यह भी बताइए कि, पहली कविता का विशय क्या था? साथ ही यह भी बताइए कि आपकी पहली कविता किस पत्रिका में और कब छपी थी?
परिवारिक संस्कारों से प्रभावित होने के फलस्वरूप बचपन से ही कविता पढ़ने-लिखने में रुचि उत्पन्न हो गयी थी। लगभग बारह वर्ष की उम्र से ही कविता ‘करने’ लगा था। बचपन में लिखे बाल-प्रयासों का आज कोई अस्तित्व नहीं। (देखें - आत्म-कथ्य / ‘समग्र’ : खंड -1 / पष्. 309-310) पहली कविता का विषय तो ज्ञात नहीं; प्रारम्भिक कविताओं के विषय अधिकतर प्राकृतिक दष्श्य हुआ करते थे। सन् 1941 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, उच्च-शिक्षा ग्रहण करने हेतु, जुलाई में, ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ में प्रवेश लिया। कॉलेज अध्ययन-काल में लेखन और साहित्यिक गतिविधियों में रुचि बढ़ती गयी। साथी छात्र-साहित्यकारों के बीच पर्याप्त समय व्यतीत होता। इन दिनों ‘अज्ञात’ उपनाम से लिखता था। मेरी पहली कविता ‘सुख-दुख’ विक्टोरिया कॉलेज की वार्षिक पत्रिका ‘विक्टोरिया कॉलेज मैगज़ीन’ के किसी अंक में (सम्भवतः सत्र 1943-1944 के अंक में) प्रकाशित हुयी :
सुख-दुख तो मानव-जीवन में बारी-बारी से आते हैं,
जो कम या कुछ अधिक क्षणों को मानव-मन पर छा जाते हैं!
मानव-जीवन के पथ पर तो संघर्ष निरन्तर होते हैं,
पर, गौरव उनका ही है जो किंचित धैर्य नहीं खोते हैं!
यह ज्ञात सभी को होता है, जीवन में दुख की ज्वाला है,
यह भास सभी को होता है, जीवन मधु-रस का प्याला है!
हैं सुख की उन्मुक्त तरंगें, तो दुख की भी भारी कड़ियाँ,
ऊँचे-ऊँचे महल कहीं तो, हैं पास वहीं ही झोंपड़ियाँ!
कितनी विपदाओं के झोंके आते और चले जाते हैं,
कितने ही सुख के मधु सपने भी तो फिर आते-जाते हैं!
क्या छंदों में बाँध सकोगे जन-जन की मूक व्यथाओं को?
औ‘ सुख-सागर में उद्वेलित प्रतिपल पर नव-नव भावों को?
सन् 1941 में लिखित, यह कविता ‘विहान’ नामक कविता-संग्रह में समाविष्ट है (क्र. 25)।
अचानक, एक दिन विदित हुआ कि यह कविता, ‘संचालनालय पाठ्य-पुस्तक, कर्नाटक सरकार’ द्वारा प्रकाशित, दसवीं कक्षा की पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी भारती’ (हिन्दी मातष्भाषा वाले छात्रों के लिए) में समाविष्ट की गयी है (2004)।
वस्तुतः, किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित मेरी प्रथम कविता ‘हुंकार’ है। सन् 1944 में लिखित ‘हुंकार’ कविता, कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली, अपने समय की सवोत्कृष्ट मासिक पत्रिका ‘विशाल भारत’ के मार्च 1944 के अंक में प्रकाशित हुयी। यह कविता ‘टूटती शृंखलाएँ में संकलित है ( क्र. 27)ः
हुंकार हूँ, हुंकार हूँ!े
मैं क्रांति की हुंकार हूँ!
मैं न्याय की तलवार हूँ!
शक्ति जीवन जागरण का
मैं सबल संसार हूँ!
लेक में नव-द्रोह का
मैं तीव्रगामी ज्वार हूँ!
फिर नये उल्लास का
मैं शान्ति का अवतार हूँ!
हुंकार हूँ, हुंकार हूँ!
मैं क्रांति की हुंकार हूँ!
3 : आप किस कवि से अधिक प्रभावित हैं या रहे हैं? उनकी कुछ उल्लेखनीय रचनाएँं, जिनसे आपके लेखन को गति या दिशा मिली?
मेरी किशोर अवस्था मुरार-ग्वालियर में व्यतीत हुई। यहाँ मैं यशस्वी कवि श्री. जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द और श्री. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ के घनिष्ठ सम्पर्क में आया। इनके एक पारिवारिक सदस्य के रूप में काफ़ी लम्बे समय तक इनके साथ रहा। इनका अपार स्नेह मुझे निरन्तर मिलता रहा। मेरे यह सम्बन्ध दो पीढ़ियों के थे। मेरे पिताश्री ग्वालियर-रियासत के प्रमुख शिक्षा-शात्रियों में से थे। मिलिन्द जी और ‘सुमन’ जी उनके आात्मीय रहे। जाने-अनजाने में, उनके काव्य-संस्कारों से प्रभावित हो जाना मेरे लिए अस्वाभाविक नहीं।
4 : वर्तमान में क्या कविता के द्वारा समाजार्थिक बदलाव सम्भव है?
सक्रिय रूप में, कविता किसी बदलाव में कभी सहायक हो अथवा नहीं; वह बदलाव के लिए अनुकूल भूमि ज़रूर तैयार करती है। जनमत तैयार करना कोई साधारण कार्य नहीं। जनकवि ही समाज में चेतना उत्पन्न कर सकता है। आन्दोलनों के दौरान तो कविता क्रांतिकारियों-परिवर्तनकामियों के कंठ में विद्यमान रहती है।
5 : क्या कवि के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता का होना आप ज़रूरी मानते हैं। यदि हाँ तो क्यों? यदि नहीं तो क्यों?
वैचारिक प्रतिबद्धता बिना कोई कैसे जी सकता है? बुद्धिजीवी अथवा सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करनेवाला रचनाकार वैचारिक प्रतिबद्धता से असम्बद्ध रह ही नहीं सकता। वह कोई बे-पेंदी का लोटा नहीं होता। उसके अपने विचार होते हैं, उसके अपने विश्वास होते हैं। उसकी अपनी आस्थाएँ-धारणाएँ होती हैं। उसका आन्तरिक व्यक्तित्व उसके अनुभव और उसकी दष्ष्टि से आकार ग्रहण करता है। कहना ज़रूरी नहीं, ऐसे पात्रों को अपने मस्तिष्क के द्वार सदैव खुले रखने चाहिए। वह जड़ न हो। युग के अनुरूप उसका चिन्तन हो। ऐसे परिवर्तन को विकास की संज्ञा दी जाती है।
6 : लेखन एक सामाजिक दायित्व है। अतः आप बताइए कि लेखक का क्या कुछ भी निजी नहीं रह पाता?
निःसंदेह, लेखन सामाजिक दायित्व है; लेकिन उसमें व्यक्तिगत जीवन और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति भी सहज होती है। रचनाकार का निजी जीवन जब साहित्य का आकार लेता है तो वह मात्र रचनाकार का निजी जीवन नहीं रहता; वह जन-जन का बन जाता है। वह सामाजिकों के जीवन से भिन्न नहीं होता। उसमें जो.कुछ रहता है; वह यथार्थ होता है। वह व्यक्ति का यथार्थ होता है। ज़ाहिर है, वह मनोविज्ञान के नाम पर अजनबी और कपोल कल्पित नहीं होता। उसमें अनुभव की सचाई और गहराई होती है। मेरी काव्य-सष्ष्टि में ऐसा बहुत है; जो व्यक्तिगत जीवन के अनुभूत क्षणों से सम्बद्ध है। अक़्सर ऐसा साहित्य पुनआर्हूत होता है। माना वह शतप्रतिशत यथावत् नहीं होता; नहीं हो सकता। मेरे काव्य में जो वेदना और दर्द है; वह मेरे निजी जीवन से उद्भूत है। समाज और घर से सताया हुआ इंसान कब-तक नक़ाब ओढ़े रहे! इस संदर्भ में मेरी ‘जीवन-राग’ और ‘अनुभूतियाँ : एक हताश व्यक्ति की’ रचनाएँ द्रष्टव्य हैं। ‘कविश्री : महेन्द्रभटनागर’ (संयोजक - डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ / सम्पादक - डॉ. शम्भूनाथ चतुर्वेदी / प्रकाशक - सेतु प्रकाशन, झाँसी-उ.प्र.) की भूमिका में सम्पादक ने, सम्भवतः मेरी ऐसी रचनाओं को पढ़कर ही, मेरे कवि को ‘ट्रेजेडी ऑफ़ लाइफ़’ का कवि रेखांकित किया है। मेरी काव्य-सष्ष्टि का एक भाग बड़े गहरे नीले तन्तु से आवेष्टित है। इस प्रकार की अभिव्यक्ति में मैंने कभी किसी की परवा नहीं की। दर्द हो या प्रेम। उसे अपनापन दिया। उसे कला से सज्ज और सौन्दर्य से दीप्त किया।
7 : आपके विचार से कला का संबंध कलाकार के जीवन से कितना और किस प्रकार का है ? क्या वही कला महत्ता प्राप्त कर सकती है जिसका सम्बन्ध कलाकार की जीवन-यात्रा से होता है ?
रचना-क्रम में रचनाकार ही प्रमुख होता है। अप्रत्यक्ष रूप से रचनाकार अपनी कृति से अटूट रूप से सम्पृक्त रहता है। उसका व्यक्तित्व उसकी रचना-सष्ष्टि में घुल-मिल जाता है। तभी तो हम कहते हैं - वाल्मीकि के राम / तुलसीदास के राम। जीवन-यात्रा यदि रचनाकार को प्रभावित करती है एवं उसे दिशा देती है तो उसके द्वारा रचित साहित्य प्रथम कोटि का प्रामाणिक साहित्य होगा।
8 : क्या रचनाकार हर समय रचनात्मक रहता है या एक विशेष कलात्मक अनुभव के क्षण के उपरान्त वह सामान्य व्यक्ति जैसा हो जाता है? आपका इस संबंध में क्या अनुभव है?
निःसन्देह, रचनाकार भी सदा सामान्य ही रहता है। साहित्य-रचना के क्षणों में तो विशेष रूप से सामान्य। किसी आध्यात्मिक या रहस्यमय लोक की कल्पना करना हासास्पद है।
9 : आपकी काव्य रचना-प्रक्रिया क्या है ? आप उसे कितने स्तरों में बाँटते हैं?
हमने तथाकथित अपनी रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में कभी सोचा नहीं। काव्य-रचना यांत्रिक कैसे हो सकती है? स्वयं के संस्कारों, स्वभाव, शिक्षा-दीक्षा और अनुभवों से रचना-शिल्पी का संचालित होना स्वाभाविक है।
10 : सृजन के क्षणों में आपके मन की क्या गति होती है? आप कैसी मनःस्थिति में कविता लिखते हैं ?
स्ृजन के क्षण एकाग्रता की अपेक्षा करते हैं। सर्जना के लिए शान्ति और सुविधा ज़रूरी है। रचनाकार को किसी के सहयोग की ज़रूरत नहीं होती। अकेलापन उसके लिए वरदान है। सष्जन के क्षणों में रचनाकार समाधिस्त हो जाता है। जब-तक वह रचना-रत रहता है; बाहर की दुनिया से कटा रहता है।
11 : कविता के सृजन के दौरान आपकी भाष्ेा किस प्रकार के रचनात्मक तनाव से गुज़रती है ?
प्रत्येक कवि का अपना व्यक्तित्व होता है। उसकी अपनी भाषा और भाषा-लय होती है। अक़्सर, शब्द-चयन के संदर्भ में रचनात्मक तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है।
12 : कविता का सौंदर्यशास्त्र से क्या सम्बन्ध होता है या होना चाहिए?
कविता और सौंदर्य-शास्त्र का सम्बन्ध अटूट है। सौन्दर्य के मापदंडों का पालन रचनाकार को करना ही पड़ता है। अन्यथा उसकी काव्य-सृष्टि असंगत हो उठेगी। कविता में, रेखाएँ, रंग, आकार, पृष्ठभूमि, आधार, आदि को युक्तियुक्त बनाने में सौंन्दर्य-शास्त्रीय नियमों और व्यवस्थाओं पर ध्यान देना अनिवार्य है।
13 : कविता के विकास और सार्थक फैलाव में मल्टीमीडिया की भूमिका एवं कविता की वर्तमान स्थिति के बारे में आपके क्या विचार हैं?
निःःसन्देह, मल्टीमीडिया बड़ा सशक्त माध्यम है। कविता के विकास और सार्थक फैलाव में उसकी भूमिका निर्विवाद रूप से अति महत्त्वपूर्ण है। वर्तमान में, हिन्दी में, कविता-रचना कोई कम नहीं हो रही। बौद्धिक दष्ष्टि से समष्द्ध अनेक समर्थ कवि आजकल रचना-रत हैं। हिन्दी में ऐसा माहौल प्रथम बार देखने में आ रहा है।
14 : आज के टेक्नोलाजी के युग में शहरीकरण, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद के नये रूप उभर कर आये हैं और एक सर्वव्यापी मूल्यहीनता ज़्यादा विकराल हुई है-इन दबावों ने आज लिखी जा रही हिंदी कविता को किस रूप में प्रभावित किया है?
मूल्यहीनता है तो मूल्यों के प्रति आस्था भी है। भारतीय कविता का अपना मौलिक स्वरूप अक्षुण्य है; अक्षुण्य रहेगा। समसामयिकता और निरन्तरता के दो तटों के बीच हिन्दी / भारतीय कविता-गंगा सदा प्रवाहित होती रहेगी।
15 : पिछले एक दशक की आपकी मनपसंद पाँच श्रेश्ठ कहानियॉं कौन-सी हैं?े
कहानियों का मैं नियमित व विशिष्ट पाठक या आलोचक नहीं। पत्र-पि़त्रकाओं में प्रकाशित अद्यतन कहानियों को प्रायः पढ़ता हूँ। पत्र-पत्रिकाओं से जब-तब कहानी-संकलन समीक्षार्थ आते रहते हैं। उन पर अपने विचार दर्ज़ करता ही हूँ। द्रष्टव्य, इधर ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित मेरी पुस्तक-समीक्षाएँ। प्रमुख कहानी-लेखकों और उल्लेख्य कहानियों पर मेरे आलेख मेरे आलोचना-समग्र में समाविष्ट हैं। (‘साहित्य : विमर्श और निष्कर्ष’ / खंड - 1 में। प्रेमचंद-विरचित कहानियों पर एक पुस्तक पष्थक से प्रकाशित है।)
16 : आपकी कहानी की रचना-प्रक्रिया क्या है तथा आप उसे कितने स्तरों में बाँंटते हैं?
कहानी मैंने अत्यल्प लिखीं। मेरे संदर्भ में, इस विधा पर चर्चा करने का औचित्य प्रतीत नहीं होता। लिखने को तो कहानियाँ, लघु कथाएँ, रिपोर्ताज़, संवाद / कथोपकथन आदि लिखे। दो कृतियाँ प्रकाशित हुयीं - ‘लड़खड़ाते क़दम’ और ‘विकृतियाँ’। ‘विकृत रेखाएँ : धुँधले चित्र’ नामक संकलन में ये दोनों कृतियाँ समाविष्ट हैं। ये पुस्तकें अब अनुपलब्ध हैं। अद्यतन समग्र संकलन ‘जीवन का सच’ अभिधान से प्रकाशित हुआ है; जिसकी भूमिका लघु-कथा के पुरस्कर्ता डॉ. सतीशराज पुष्करणा जी ने लिखी है। प्रकाशक हैं - अंकित पब्लिशिंग हाउस,, दिल्ली -53. ‘लड़खड़ाते क़दम’ ‘मध्य-भारत कला-परिषद्’ द्वारा पुरस्कृत भी है! लघु-कथाएँ अधिकतर कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘रानी’ में प्रकाशित हुयीं।
17 : क्या कविता लिखते समय आप समाधिस्थ होते हैं या यूँ ही चलते फिरते कविता गढ़ लिया करते हैं?
इस सम्बन्ध में बताया जा चुका है। यों ही चलते-फिरते कविता गढ़ लेने की बात औरों के सन्दर्भ में लागू हो सकती है; जो ‘कविता’ गढ़ लेते है! मैं ऐसा ‘लिख्खाड’़ नहीं। कविता तो रची जाती है; कही जाती है। प्रत्येक सिद्ध कवि का अपना ‘अन्दाज़े बयाँ’ होता है। मैंने कविताएँ अधिक नहीं लिखीं। एक-हज़ार से कम ही होंगी। जीवन-संघर्ष ने इतना अवकाश नहीं दिया। जीवन के कड़वे अनुभवों ने भी बाधा पहुँचायी। मात्र मन करने से इच्छा साकार नहीं हो सकती; सुविधा मिले। परिवेश और अनुकूलता की बात नहीं करता।
18 : आप अपनी कविता को किस श्रेणी में रखते हैं?
किसी कवि की श्रेणी निश्चित करना आधिकारिक, प्रामाणिक और सर्वमान्य आचार्यों द्वारा ही सम्भव है। तात्कालिकता से इसका वास्ता नहीं होना चाहिए। ऐसे मत पर्याप्त काल-विस्तार की अर्थात् र्प्याप्त समय गुज़र जाने की अपेक्षा रखते हैं।
19 : हिन्दी कविता की वर्तमान स्थिति पर आपकी क्या राय है?
इस सम्बन्ध में भी बताया जा चुका है। मैं आशावादी हूँ। वर्तमान हिन्दी कविता-लेखन से संतुष्ट हूँ। सर्वत्र कविता की उपस्थिति हमें आश्वस्त करती है। अधिकांश रचनाकार कवि कहलाना पसन्द करते हैं। काव्य-कृतियाँ ख़ूब छप रही हैं। ख़ूब पढ़ी-सुनी जा रही हैं। कवि-सम्मेलनों में, साहित्यिक गोष्ठियों में, संसद् में, विभिन्न आन्दोलनों में। हर विशिष्ट कवि या कविता-प्रेमी निकल पड़ता है। राष्ट्रपति हो, प्रधानमंत्री हो, वैज्ञानिक हो, इंजीनियर हो, बैंक-कर्मी हो, डॉक्टर हो, प्रोफ़ेसर-अध्यापक हो, अभिनेता-अभिनेत्री हो।
20 : इन दिनों आप क्या लिख-पढ़ रहे हैं?
90 पार कर गया हूँ; अपने को समेट रहा हूँ। माना, लिखना-पढ़ना कम हो गया है; लेकिन अंत समय तक भी बंद नहीं होगा। ‘राम-भजन’ नहीं करना! ‘मष्त्यु-बोध : जीवन-बोध’ की कविताएँ मेरी शव-यात्रा में गूँजें।
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