“आवां’’ समय की महत्वपूर्ण कथा - डॉ. रानू मुखर्जी

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जब विधाता नारी के हाथ में कलम थमा देती है तो चेतावनियां, चुनौतियां और भीतरी – बाहरी चुभने वाली, दर्दीली चुभन भी साथ साथ चल रहा होता है। यूं ...

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जब विधाता नारी के हाथ में कलम थमा देती है तो चेतावनियां, चुनौतियां और भीतरी – बाहरी चुभने वाली, दर्दीली चुभन भी साथ साथ चल रहा होता है। यूं तो हमारा जीवन सुख दुख से भरा होता है। परन्तु लेखन को गम्भीरता से लेने वाले इन भावानाओं से ही उत्कृष्ट रचना करते हैं। एक रचनाकार के लिए तब समाज में व्याप्त आस पास में घटित कटु यथार्थ को पढ़ना… समझना और आत्मविवेचन करना एक स्वभाव बनता चला जाता है।

पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण से प्रभावित हिन्दी की शीर्षस्थ कथाकार और विचारक डॉ. चित्रा मुद्गल की सुदीर्घ रचनायात्रा भारतीय मनीषा की प्रतीक है। उनकी लेखकीय गरिमा उनकी विचारधारा को एक अलग आयाम देती है। उनकी रचनाओं में जीवन के अनमोल सच बिना किसी अलंकरण के देखा और परखा जा सकता है। जीवन के द्वन्द्व और विरुद्धों के विषय में उनकी निर्भय लेखनी सहज ही अपनी और आकर्षित करती है। जीवन के आंतरिक द्वन्द्व को चित्रा जी ने अधिक महत्व दिया है। वैचारिक दृढ़ता और जीवनानुभव की ऐसी अभिव्यक्ति कम ही देखने को मिलती है।

अपनी रचना के बारे में चित्रा जी का कहना है, “सर्जना जब पाठक से, उसकी चेतना से भागीदारी चाहती है और पढ़ते हुए पाठक अपनी चेतना का आलोक निरंतर अन्वेषित, विकसित और विस्तृत करता हुआ कथावस्तु का हिस्सा बन जाता है, तो रचना अपनी सार्थकता खोज लेती है ‘कृति की सबसे बडी निर्मिति उसकी अकूत मानवीय संवेदना का निरंतर खनन है’, यदि ऐसा संभव कर दिखाती है कोई कृति तो वह अपना निमित्त ही नहीं प्राप्त करती है, बल्कि असंख्य पाठकों को आमंत्रित भी करती है’ – स्वयं को पढ़ने के लिए। विषय वस्तु का क्षेत्र भले ही उसके तब तक के जीवन और अनुभव परिधि से बाहर का है।

वरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल अपने पूरे लेखन में अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों से टकराती है। उन प्रश्नों और समस्याओं को एक दिशा देने की कोशिश के साथ अपने लेखन की प्रासंगिकता को स्थापित करने के लिए वे सचेत तो हैं ही सचेष्ट भी रहती है। इस उपन्यास में अपने परस्पर विरोधी दोनों वर्गों को समांतर रखते हुए कथा का ताना-बाना बुना गया है। एक और महानगर मुंबई के भील मजदूरों के बुनियादी और कानूनी अधिकारों की मांग से उत्पन्न टकराहटों का वृतांत है तो साथ ही उन्हीं मजदूरों के निजी जीवन के कोमल और करुण प्रसंगों की अनगिनत कथाएं। मेहनतकश आजादी के संघर्षों को नेतृत्व प्रदान करने वाले मध्यमवर्गीय नेताओं की आपसी प्रतिद्वद्विता उनकी चरित्रगत विकृतियां आदि न जाने कितने घिनौने रुपों का विस्तार से खुला और बेधड़क वर्णन किया गया है।

आजादी के पहले बम्बई और आजादी के बाद कोलकाता, मजदूर आन्दोलन के केन्द्र रहें है। उसी कोलकाता में १९९६ के नाट्यकर्मी उषा गांगुली के घर में ‘उषा’ कंपनी की चिमनियों का निकलता धुंआ देखते हुए ‘आंवा’ के लेखन का शुभारंभ होता है पर तीन साल बाद उसी कोलकाता में जब उपन्यास पूरा होता है तो उषा कम्पनी की चिमनियां बंद हो चुकी थी। उन पर लाल झंडे लहरा रहे थे। ट्रेड यूनियन की वास्तविकता श्रमिकों के मलिन मुख पर हरफ – दर – हरफ अंकित है। (पृ.१०) पर उन में मिल मालिकों की श्रमिक विरोधी नीतियों, लोलुपता और क्रूरता का कोई जिक्र नहीं मिलता है।

दूसरी ओर आम जनता की मेहनत पर पूंजी का खेल खेलने वाले धनाढ्य लोग हैं। पांच सितारा संस्कृति परस्त कुलीनतावादी हैं। फैशन और मुक्तिपरस्त उपभोक्तावादियों के सुनियोजित षड्यंत्र, सौदेबाजी और बेईमानी है। “आंवा” में उनकी इच्छाओं, कुंठाओं और क्रूरताओं का बेहिचक खुलासा है। कला, संस्कृति और उसके निर्यात के योग में जिस्म – फरोशी, शरीर की सौदेबाजी तब खुलती है जब १३ लाख मजदूरों के समर्थ नेता अन्ना साहब की हत्या की खबर से नमिता का मिसकैरिज हो जाता है। फोन पर सहानुभूति या प्रेम की जगह आभूषण निर्यातक संजय कनोई उसे धमकाते हैं। धिक्कारते हैं।

नमिता इस आघात को सहने की शक्ति कहां से लाती है? वह अनब्याही लडकियों की तरह आत्महत्या या नारी निकेतन का रास्ता नहीं चुनती है। उसके पास शक्ति है “श्रमजीवा” “कामगार आघाडी” और महिला मोर्चा जैसी संस्थाओं की।

पिछले अनेक वर्षों के महिला आन्दोलनों से निर्मित स्त्री चेतना और विचार ही इस उपन्यास के सृजन केन्द्र में है। मुम्बई की नजदूर नेता मीरा बाई की बेईज्जती आधार बनती चली गई है। वे स्त्री की क्षमता की रक्षा और अपनी बुद्धि की प्रतिष्ठा उसका अपना दायित्व है। लेखिका के मंतव्य और पाठ तथा रचना से निःसृत मंतव्य और पाठ के बीच सेतु बनते हुए देखा जाए तो उपन्यास में चील कौओं की तरह स्त्री देह को नोच नोचकर खोनेवाले पुरुषवादी विमर्श की बीच स्त्री के स्वत्व धैर्य और संकल्प की कहानी कही गई है।

नमिता के पिता देवी शंकर पांडे “विक्रम ग्लास फेकटरी” में मजदूर थे और अन्ना साहब के दाहिने हाथ । उनकी “कामगर आघाडी” संस्था के सचिव। अन्ना साहब १३ लाख मजदूरों के ‘न भूतो न भविष्यति’ किस्म के “कद्द्वार नेता” मजदूर संघों की आपसी प्रतिद्वद्विता और दुश्मनी का पहला शिकार होते हैं। पर सदैव के लिए उन्हें लकवा मार जाता है। फैक्टरी जिम्मेदारी से हाथ झाड लेती है। पगार बंद हो जाती है। अन्ना साहब और आघाडी उनके इलाज का बन्दोबस्त करते हैं पर खर्चे……….? और यहीं से शुरु होता है नमिता का संघर्ष अपनी अस्मिता का बोध, अपने सम्मान की रक्षा, विचारों की दृढ़ता और अपनी इच्छाओं को जिन्दा रखने के साथ अपनी स्त्री देह को चील कौओं से बचाए रखने की जद्दोजहद।

सुन्दर सौम्य २० वर्षीय नमिता की बी.ए. पढाई छूट जाती है। अब उसे पिता की सेवा सुश्रूषा का काम भी करना पड़ता है। उसकी मां श्रमजीवी संस्था में पापड़ बेलकर अपनी कमाई करती है। नमिता भी घर की आमदनी में योगदान के लिए पापड़ तो बेलती ही है, साडियों में काल टांकती और टयूश्न भी करती है। भाई बहन की देखरेख के साथ घर – गृहस्थी भी चलाती है। ऐसी स्थिति में अन्ना साहब की कृपा से अपने पिता के स्थान पर काम करने के लिए डेढ हजार रुपये पर काम करने के लिए तैयार हो जाती है।

परन्तु अन्ना साहब की अश्लील आचरण के कारण नौकरी का परित्याग कर देती है। चित्रा मुद्गल ने निहायत वस्तुनिष्ठा से, रचनात्मक धरातल पर विभिन्न चरित्रों के क्रिया कलापों को उजागर किया है। प्रायः इसमें क्रिया कलापों से जो सतह पर दिखता है, वह यथार्थ नहीं है, यथार्थ वह है जो सबके समक्ष नहीं आता है। परन्तु जिसे लेखिका ने अनेक माध्यमों से रेखांकित करती है। अन्ना साहब की असलियत अपनी बेटी तुल्य नमिता पांडे के साथ किए गए उनके विकृत मानव के यौन दुराचार से उजागर होती है। पवार दलित होने की कुंठा और अपनी महत्वाकांक्षा से ग्रस्त है। विमला ताई का सच उनके नाटकीय क्रिया कलापों की आड से पवार उजागर करता है और नमिता मजदूर की बेटी होने के बावजूद अपनी निम्न-मध्यमवर्गीय मनोभूमि के साथ सामने आती है।

चित्रा जी ने स्त्री को देह से ऊपर उठकर पहचानने की बात की है और इस उपन्यास में उसे एक संकल्प और प्रतिज्ञा के रुप में पुरुष समाज के सामने रखने का दायित्व ओढा है। आदर्श, मर्यादाएं और मूल्य सबको सहेजे रखकर जीवन की आखिरी सांस तक बिना उफ किए चलते जाना ही उसकी नियति बन गई। जरा सी गलती के लिए कडे से कडा विधान भी सहज उसी के लिए किया गया। चित्रा मुद्गल एक औरत होने के नाते औरत की इस नियति को जानती समझती रही। ‘आंवा’ में उन्होंने इस नाते उसके वजूद से जुडे सवालों को प्राथमिकता दी है। पूरी दायित्व चेतना के साथ, खतरों के पूरे अहसास के साथ उन्होंने औरत के इस नरक को, उधेडा और उजागर किया है। औरत को जिस नरक से मुक्ति की बात, देह से उपर उसे पहचाने जाने का सवाल तेज-तर्रार नारेबाजी करके नहीं, मुक्ति की इस तरह के सारे अवरोधों, परंपरा से चली आ रही संस्कारबद्धता को बेनकाब करने वाली चरित्रों को रचती हैं। चित्रा मुद्गल ने नमिता पांडे को किसी भी रुप में अपना प्रवक्ता नहीं बनाया। जिन नारी चरित्रों को उन्होंने उभारा है उसे यह बताने के लिए उभारा है कि स्त्री मुक्ति का सवाल उसे देह के ऊपर उठकर पहचाने जाने का सवाल है। एक मानुषी के रुप में औरत को स्वीकार करने का सवाल आज भी कितना जटिल है। एक आंवा है जिसमें औरत तप और तप ही रही है। राख बन रही है, और कहीं कुछ आयामों पर किसी नीलम, सुनन्दा और किसी किशोरीबाई की तरह पाक और मजबूत हो रही है।

अंजना वासवानी के यहाँ नौकरी नमिता के लिए एक अलग दुनिया के द्वार खोल देती है। लेकिन उस दुनिया में निरंतर धंसते और फंसते चले जाने के दौरान भी आघाडी और पवार से उसका संपर्क बना रहता है जो पिता के मृत्यु के कठिन समय में और भी गहरा होता है। संगठन के सदस्यों द्वारा अनेक कष्ट उठाकर की गई निःस्वार्थ सहायता उसे संगठन की महत्ता के एक अन्य पक्ष से परिचय कराता है। उधर अपनी नई नौकरी के नए संपर्कों में संजय कनोई उसे आकर्षित करने लगता है और उधर पवार के साथ अपने संभावित रिश्ते में पवार द्वारा बैठाए गए वोटों के गणित को जानकर पवार से छिटक जाती है तथा संजय कनोई से प्रेम करने लगती है।

अंजना वासवानी और उसकी आभूषण कंपनी में नमिता को वह मनुहार और प्यार मिलता है जो उसे पहले कभी नहीं मिला। उसका अपने व्यक्तित्व और योग्यता पर विश्वास होने लगा। पहले अंजना वासवानी के आभूषणों के प्रदर्शन के लिए संजय और निर्मला कनोई के समक्ष मोडेलिंग करके और फिर संजय कनोई की कंपनी के कैटलोग के लिए मॉडल बनकर एक नई दुनिया में पहुंच जाती है जहां वह बहुत प्रशंसा पाती है और भरपूर पारिश्रमिक भी अर्जित करती है।

यह नई दुनिया के सारे ऐशोआराम को मुहैया करने वाली दुनिया है, उपभोक्तावदी सुखभोगवाद, जो वस्तुतः पशुवाद है, उसके तकाजों वाली दुनिया है। मैडम वासवानी से अनायास हुई भेंट नमिता को इस दुनिया में पहुंचा देती है और शुरु होता है औरत के लिए गढे गए नरक का एक और आख्यान। नमिता धरती से उठकर यहां एक कदम आसमान में पहुंचा दी जाती है। अपने इस नरक से अनजानी उसके सम्मोहन में डूबी अपने भाग्य को सराहते हुए। उसका मॉडल बनना, संजय कनोई से भेंट। इस करोड़पति व्यापारी का उस पर फेंका गया सम्मोहन जाल, अपनी कोख में संजय के बीज का अहसास, संजय के सान्निध्य में भावी जीवन की रंगीनियों के सपने, तमाम कुछ घटित होता है, कथा के प्रवाह में नमिता के साथ। परन्तु अनायास हुआ उसका गर्भपात उस नरक की सारी भयावहता को उसके समक्ष खोलकर रख देता है। जिसके सम्मोहन में अब तक वह डूबी हुई थी। संजय का फोन पर उस पर बौखलाना – “जानती हो बाप बनने के लिए मैंने तुम पर कितना खर्च किया है? उस मामूली औरत अंजना वासवानी की क्या हैसियत थी कि तुम्हारे ऊपर पानी की तरह पैसा बहा सके। उसका जिम्मा सिर्फ इतना भर था कि पिता बनने में मेरी मदद करे और सौदे के मुताबिक अपना कमीश्न खाए… मैं रंडियो का बाप बनना नहीं चाहता था, मुझे नहीं गंवारा था ऐसी किराए की कोख। मुझे सिर्फ उस लड़की से औलाद चाहिए थी, जो पेशेवर न हो पवित्र हो, जो मुझसे प्रेम कर सके। सिर्फ मेरे लिए मां बने”। वह नमिता को रखैल का दर्जा देना चाहता है।

नारी-विमर्श “आंवा” का मूल कथ्य का हिस्सा है। नारी पात्रों की भरमार है। और हर पात्र की अपनी-अपनी कहानी है। इसमें घटना विन्यास के लिए चेतना प्रवाह पद्धति का सहारा लिया गया है जो रोचक लगती है और पात्रों के चेतन अवचेतन की गांठें खोलती रहती हैं इसे पढ़ने के लिए अत्यंत एकाग्रता की आवश्यकता है, क्योंकि जरा सा ध्यान छूटने पर ही सिलसिला पकड़ से छूटने लगता है। एक विराट फलक पर रचित इस कृति में पात्रों और उनकी कथाओं अंतर्कथाओं की भरमार है। लेकिन मुंबई की ट्रेड यूनियनों, दबडेनुमा चालों, झोंपड़पट्टी और लोकल ट्रेन का परिवेश के बिना संभव नहीं था। हर पात्र का अपना व्यक्तित्व अपनी भाषा है। पवार की भाषा अक्कड़ और मुंहफट है तो अन्ना सहब की भाषा नपी –तुली। संजय कनोई रोमंस से भीगे संवाद बोलता है तो सिद्धार्थ मेहता दो-टूक सौदेबाजी की भाषा से बात करता है जहां स्त्री पात्र बोलते या सोचते हैं वहां तो घरेलूपन है।

जिस ‘आंवा’ को उपन्यास में लेखिका ने प्रस्तुत किया है वह सदियों से सुलग रहा है और नारी समाज भी उसमें सुलग रहा है। जिसकी आंच आज भी वैसी है जैसे पहले थी। “आंवा” हमारे समय की महत्वपूर्ण कथा उपलब्धि है जो कि नई सदी की नारी विमर्श को अनुभव कराता रहेगा।

विद्वानों के अनुसार ‘आंवा’ तीन प्रकार की सृष्टियों क उपन्यास है। एक है “कामगार आघाडी” जो एक ट्रेड यूनियन है और पूरी रचना में हर अध्याय में यह कामगार आघाडी इस प्रकार हस्तक्षेप करता है। जैसे वह पूरे उपन्यास की चेतना हो। दूसरा स्त्री संगठन है ‘श्रमजीवी’ । पापड़ बेलने वाली या घरेलू उद्योगों को संचालित करता यह संगठन दूसरा हस्तक्षेप है। यदि एक का वर्चस्व केन्द्र पुरुष है, तो दूसरे का वर्चस्व केन्द्र स्त्री है। तीसरा संगठन “जागौरी” जो वेश्या, जिन्हें अधिक सभ्य भाषा में सेक्स वर्करों का संगठन है। यहां आकर चित्रा जी ने सर्जनात्मक विचलन किया है। यहां न पुरुष वर्चस्व है, न स्त्री वर्चस्व है। यहां वर्चस्व है एक भाव-संवेग का और यहां की केन्द्रीय वस्तु है व्यथा। जो किसी जघन्य मजबूरी से शुरु होती है और किसी अगम्य अपराध की आग में झुलसकर करुण अंत में समाप्त होती है। दो जगह मनुष्य पात्र हैं, जो अपनी अपनी स्पेस और स्थिति में संचालित होते हैं। तीसरी जगह मनुष्य पहचान विलुप्त है, बल्कि उसकी जगह देह के आवेग और आवेश कम करते हैं। यदि रवीन्द्रनाथ की भाषा में कहें तो दो जगह ‘महाशय’ है तो तीसरी जगह सिर्फ ‘आशय’ और “आंवां” की सर्जनात्म कुशलता का यह श्रेष्ठतम आयाम है।

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परिचय

नाम - डॉ. रानू मुखर्जी

जन्म - कलकता

मातृभाषा - बंगला

शिक्षा - एम.ए. (हिंदी), पी.एच.डी.(महाराजा सयाजी राव युनिवर्सिटी,वडोदरा), बी.एड. (भारतीय

शिक्षा परिषद, यु.पी.)

लेखन - हिंदी, बंगला, गुजराती, ओडीया, अँग्रेजी भाषाओं के ज्ञान के कारण आनुवाद कार्य में

संलग्न। स्वरचित कहानी, आलोचना, कविता, लेख आदि हंस (दिल्ली), वागर्थ (कलकता), समकालीन भारतीय साहित्य (दिल्ली), कथाक्रम (दिल्ली), नव भारत (भोपाल), शैली (बिहार), संदर्भ माजरा (जयपुर), शिवानंद वाणी (बनारस), दैनिक जागरण (कानपुर), दक्षिण समाचार (हैदराबाद), नारी अस्मिता (बडौदा), पहचान (दिल्ली), भाषासेतु (अहमदाबाद) आदि प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकशित। “गुजरात में हिन्दी साहित्य का इतिहास” के लेखन में सहायक।

प्रकाशन - “मध्यकालीन हिंदी गुजराती साखी साहित्य” (शोध ग्रंथ-1998), “किसे पुकारुँ?”(कहानी

संग्रह – 2000), “मोड पर” (कहानी संग्रह – 2001), “नारी चेतना” (आलोचना – 2001), “अबके बिछ्डे ना मिलै” (कहानी संग्रह – 2004), “किसे पुकारुँ?” (गुजराती भाषा में आनुवाद -2008), “बाहर वाला चेहरा” (कहानी संग्रह-2013), “सुरभी” बांग्ला कहानियों का हिन्दी अनुवाद – प्रकाशित, “स्वप्न दुःस्वप्न” तथा “मेमरी लेन” (चिनु मोदी के गुजराती नाटकों का अनुवाद 2017), “गुजराती लेखिकाओं नी प्रतिनिधि वार्ताओं” का हिन्दी में अनुवाद (शीघ्र प्रकाश्य), “बांग्ला नाटय साहित्य तथा रंगमंच का संक्षिप्त इति.” (शिघ्र प्रकाश्य)।

उपलब्धियाँ - हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2000 में शोध ग्रंथ “साखी साहित्य” प्रथम

पुरस्कृत, गुजरात साहित्य परिषद द्वारा 2000 में स्वरचित कहानी “मुखौटा” द्वितीय पुरस्कृत, हिंदी साहित्य अकादमी गुजरात द्वारा वर्ष 2002 में स्वरचित कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को कहानी विधा के अंतर्गत प्रथम पुरस्कृत, केन्द्रिय हिंदी निदेशालय द्वारा कहानी संग्रह “किसे पुकारुँ?” को अहिंदी भाषी लेखकों को पुरस्कृत करने की योजना के अंतर्गत माननीय प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयीजी के हाथों प्रधान मंत्री निवास में प्र्शस्ति पत्र, शाल, मोमेंटो तथा पचास हजार रु. प्रदान कर 30-04-2003 को सम्मानित किया। वर्ष 2003 में साहित्य अकादमि गुजरात द्वारा पुस्तक “मोड पर” को कहानी विधा के अंतर्गत द्वितीय पुरस्कृत।

अन्य उपलब्धियाँ - आकशवाणी (अहमदाबाद-वडोदरा) को वार्ताकार। टी.वी. पर साहित्यिक पुस्तकों का परिचय कराना।

संपर्क - डॉ. रानू मुखर्जी

17, जे.एम.के. अपार्ट्मेन्ट,

एच. टी. रोड, सुभानपुरा, वडोदरा – 390023.

Email – ranumukharji@yahoo.co.in.

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: “आवां’’ समय की महत्वपूर्ण कथा - डॉ. रानू मुखर्जी
“आवां’’ समय की महत्वपूर्ण कथा - डॉ. रानू मुखर्जी
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