कहानी // तेरे नाम // डॉ. वीरेंद्र कुमार भारद्वाज

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‘ओफ्फ ! प्यास के मारे आज प्राण ही निकल जाएँगे क्या ? बड़ी भूल कि जो पिछले गाँव में पानी नहीं तलाशा। साला आज आदमी काम-धंधे के फेरे में मरकर र...

डॉ. वीरेंद्र कुमार भारद्वाज

‘ओफ्फ ! प्यास के मारे आज प्राण ही निकल जाएँगे क्या ? बड़ी भूल कि जो पिछले गाँव में पानी नहीं तलाशा। साला आज आदमी काम-धंधे के फेरे में मरकर रह जा रहा है। इतना न लंद-फंद- देवानंद आदमी का काम रह गया है कि झूठ-मूठ की भी उसकी परेशानी बढ़ गई है। हर काम मशीन से करो, फिर भी समय नहीं। बस, सब स्वार्थवश ! कोई दस साल पहले आया था- साइकिल से। पता चला - अब सभी रास्ते चकाचक हो गए हैं। आज मोटरसाइकिल है, तो टिकान दूर पर। एक आदमी भी मिला, वह भी अनजान। कौन इस चिलचिलाती दोपहरी में निकले। पर निकल ही रहा है। अरे...! इस तरफ (दक्षिण-पश्चिम) संभवत: कोई गाँव ही है।’

और उसने गाड़ी में ब्रेक लगा दिया। ‘रास्ते से तो हटकर गाँव है। पर पहले मरने से तो बच रे उल्लू।’ और उसने इधर-उधर वह गाँव जाने के लिए नजर दौड़ाई –‘ हाँ भाई , एक तो पैदल चला नहीं जाता , दूसरा कोई पौने किलोमीटर से कम न होगा वह गाँव। अरे, यह रास्ता कच्चा ही है, , पर बढ़िया से बाइक चली जाएगी।

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और उसने मोटरसाइकिल उसी रास्ते उतार ली। पर कुछ ही दूर के बाद रास्ता पगडंडी मिला। थोड़ी दूर के बाद और ऊबड़- खाबड़। अब आगे रास्ता कुछ पता नहीं चलता था। ट्रैक्टर वगैरह जाने के लिए लीक बनी हुई थी, पर बड़ी-बड़ी दरारें और उठा -पटक रास्तों के आगे उसने वहीं मोटरसाइकिल रोक दी। और एक बार ऊफ ! के रूप में जोर का एक्सलेटर दबाया , साथ ही दो-तीन बार हार्न भी बजाई।

‘साला तू मरेगा।’ पर एकाएक एक उठती हुई आकृति को देखकर वह खिलकर रह गया। वहीं पर दूसरे क्षण वह उसी तरह काँप भी गया।‘ बाप रे ! कहीं वह भी होता है क्या ? नहीं तो इस समय इस जगह पर कोई मर्द या जानवर तो दिख नहीं रहा , यह कहाँ से आ गई।’ पर उसने गौर से आँखें चीर कर देखा - हो जो भी, पर है तो यह लड़की ही।

“काहाँ जाइएगा , इहे गऊँआ में ....?” सहसा एक लड़की का स्वर उभरा।

“हाँ- हाँ.., पर आप कौन हैं ?” किसी तरह गिटपिटाकर उसने उत्तर दिया, फिर प्रश्न किया।

“अरे , आप देख नहीं रहे हैं , हमरे हाथ में खुरपी है , हम घास गढ़ रहे हैं। केकरा इहाँ जाइएगा आप ?”

युवक उससे मन-ही- मन खेलने लगा - भरी दोपहरी ! सुनसान जगह ! जवान लड़की ! अकेले यहाँ कोई नहीं तो यह लड़की....!

“आप नहीं बताए.., केकरा ही जाइएगा ?”

“ हाँ-हाँ.., वही तो मैं सोच रहा हूँ कि क्या बताऊँ ?” युवक ने झट से अपनी विचारतंद्रा तोड़ी और यों जवाब दिया।

“ ह.. ह.. ह.. ह.. ह..। अरे बड़े गजीब हैं। कुछ न बताइएगा तो का जेकरा ही मन ओकरा ही ढ़ूँक जाइएगा ?” लड़की की खुली हँसी और गँवईपन ने युवक के दिल-दिमाग पर गुदगुदी और प्रसन्नता की घोर बारिश कर दी। वह मस्त हो गया और उधर प्यास जैसे और हो गई छू-मंतर।

“आप हँस क्यों रही हैं ?” युवक ने यों ही पूछा।

“ अरे आप इहाँ आके बउध (बुद्धू) बने हुए हैं तो आउ हम का कहें ?” युवक को ‘बउध’ का संबोधन काफी सुखद लगा। वह बोला, “ मुझे किसी के पास जाना नहीं है। मुझे जोरों की प्यास लगी है। सोचा- गाँव है , पानी मिल जाएगा। पर आगे तो बाइक का कोई रास्ता ही नजर नहीं आ रहा।” लड़की ने बाइक का अर्थ नहीं समझा , पर इतना अंदाज लगाया कि यह जो मोटरसाइकिल है, यह आदमी शायद इसी के बारे में कह रहा है।

“हमरे पास पानी है , पर ठंढ़ा नहीं रहा होगा।” कहते उसने घास के नीचे छिपी वह बोतल उठा ली। “हँ , पर उतना भी गरमो न हुआ है। पीज्जेगा....?”

“अरे भाई , जल्दी से दीजिए। यहाँ तो मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। गर्म या ठंडा देखना है। मैं ही आता हूँ , आप क्यों कष्ट करेंगी।”

“नहीं-नहीं , आप उहें रहिए , हम खुद्दे आ जाते हैं।” लड़की हड़बड़ाकर तुरंत ऊपर आ जाती है। युवक हल्का लजा जाता है –‘ साला, मैं भी जो हूँ न।’ तत्क्षण युवक अपने आप को गलिया जाता है।

कोई आठ-दस कदम की दूरी रही होगी। चोर नजर ही सही, पर युवक उस आती हुई लड़की के पूरे बदन का मुआयना कर रहा था - लंबी ! पतली ! छरहरी ! साँवली ! भरी छाती ! लरजते होंठ ! पतला कटिप्रदेश ! लंबी और पतली टाँगें !

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“ लीज्जै पानी , अगर आउ चाहिए तो एगो बोतल आउ है।”

“दो-दो बोतलें लाती हैं। बड़ी प्यास लगती होगी ?”

“अरे नहीं , उ हमरे साथ एगो आउ लइकी आई थी – चतपतवा। पेट में दरद उठा तो तुरते चल गई। ई ओकरे बोतल है।”

युवक की अब बुरी नजर उसकी दोनों टाँगों पर थी। घिस चुके सूतों से झीनझीने सलवार के मध्य उसकी दोनों टाँगें लगभग पूरी तरह नंगी दिख रही थीं। बोतल बढ़ाते हाथ को लगा कि युवक उसे खींच ले और...। पर उसका माथा चकराया और तुरंत बेहोश हो गया।

“हाय दइया , ई तो गिर पड़ा। का हुआ इसे ? अरे कोई है ?” लगभग लड़की ने एक ऊँची आवाज लगाई और बोतल से पानी निकाल युवक के मुँह पर छींटा मारा। पर लाख कोशिश के बावजूद युवक ने आँखें नहीं खोलीं। अब लड़की और घबरा गई –“ हाय दइया, इसको कुछ हो गया तो हमको लोग न जाने का-का कहेंगे। हे भगवान रच्छा करो। अजी खोलिए जी , आँख खोलिए। (कुछ देर बाद) तोरा इहें आके मरना था। पिआसे मर जाएगा तो एक्कर पाप के भागी हम ही न होंगे।” और लड़की ने पुनः कई बार पानी के छींटे मारे। फिर पेट उघाड़कर देखा। चलती साँसों ने उसे बहुत राहत पहुँचाई। एक बार लड़की ने उछल-उछलकर आवाज़ लगाई , “बापू ...,रग्घू चा..., जगेश्वर..., फुलमतिया....! अरे दौड़ो , एक आदमी बेहोश हो हो गया है।” पर उसकी कोई आवाज़ किसी ने नहीं सुनी। लड़की को अब एक ही राह सूझ रही थी कि वह दौड़कर गाँव जाए और लोगों को बटोर लाए। पर तीखी धूप में उसे अकेला छोड़ना पार न लगा। उसे लगा - जो भी जान होगी, इसमें निकल जाएगी। और तब उसने फट से एक उपाय सोचा - बगल में रह रहे दो छोटे-छोटे पौधों के मध्य किसी तरह घास बाँधने वाली अपनी चादर बाँधी। और नीचे अपने द्वारा गढ़ी गई घास उठाकर बिछा दी। फिर दौड़ी युवक के पास। किसी तरह उसे अपनी पीठ पर लादकर ऊपर बँधी हुई चादर और नीचे घास के बिछौने पर लिटा दिया। फिर बोतल से पानी निकाल अपना दुपट्टा भिंगोया और युवक के सिर और गले पर लपेट दिया। फिर थोड़ी घास लेकर चादर के ऊपर डाल दी , ताकि सूर्य की प्रचंड किरणों से राहत मिले। फिर आवाज लगाती दौड़ी गाँव के पास।

उस लड़की की भागती आवाज धीरे-धीरे युवक कुछ होश आती स्थिति में सुनने लगा। वह धीरे-धीरे उठ बैठा और अचानक अपनी जान दे एक जोर की आवाज लगाई, “ रधिया.....!” ‘रधिया’ पर अचानक युवक अपनी आवाज के बदले सोचने लगा - यह मैंने उसे क्या नाम ले पुकारा ! ‘रधिया’ मायने राधा। हाँ-हाँ ,उसका राधा के बदले रधिया नाम होना चाहिए। जैसे वह चतपत्ता को चतपतवा , खुद को खुद्दे कहती है। पर...,शायद मैं बेहोश हो गया था। वह ओछा इरादा तो याद है , उसके बाद....। नहीं-नहीं फिर मैंने कुछ नहीं किया है। और यहीं शायद मैं बेहोश हो गया था। हाँ-हाँ , सिर में चक्कर आ गया था , फिर कुछ याद नहीं। अरे पर मैं.. किस जगह पर हूँ ? यह नीचे घास का बिछौना ! ऊपर तनी यह फटी-पुरानी चादर ! और उसपर कुछ रखा भी है। युवक बड़े कष्ट से देख पाता है- ओह ! बड़ी पीड़ा हो रही है। ऊपर घास बिछाई है। जो भी होगी, बड़ी प्यारी और मेहनती होगी यह लड़की। एक अनजाने के लिए तो इतना किया। यह मरुस्थल में कैसे अपने छोटे साधनों से बाहर ला दी है। और इतना दिमाग से कहाँ से आया। संभवतः राम ने सीता जी के लिए पर्णकुटी बना दी थी , उसी तरह इसने मेरे लिए....। पर वह तो जंगल था , यह तो उजाड़-सा है। कहाँ इधर-उधर कोई पेड़-पाड़ भी है। जिसकी भी पत्नी बनेगी , ताड़ देगी। बड़ी दुखिया भी बुझाती है। नहीं तो इसमें तो कोई मर्द बाहर नजर नहीं आ रहा, इस बेचारी लड़की को इस आग उगलते मौसम में ....। एकदम लाचारी होगी। और कमाल और मेहनत देखो कि कैसे इन स्थानों से घास निकाल ले रही है। जैसे लकड़ी पेरकर तेल निकाला जाता हो। अरे , वहाँ से यहाँ वह अकेली मुझे किस तरह लाई होगी ? बाप रे ! ताकतवर भी है।

अब युवक का किसी तरह हाथ सिर पर बँधे दुपट्टे पर जाता है। फिर गले तक हाथ आ जाता है। वह लपेटा कपड़ा निकाल लेता है। दुपट्टे के रूप में उसे देख एकदम रोमांचित और मस्त हो जाता है और दो बार उसे चूम लेता है – अहा रधिया , तूने इतना तक किया। तू बड़ी पवित्र है। बड़ी निर्मल है। बड़ी दयालु और समझदार है तू। लोक-लाज, धर्म सब कुछ है तेरे पास। तेरी बड़ाई में मुझ-जैसे गंदे आदमी के पास शब्द नहीं। तूने जो कुछ मेरे लिए किया- अनमोल है। और तू शायद मेरी इस तरह की तत्काल जान बचा लोगों को इकट्ठा करने गई है। आह ! र..र..रधि..या..!’ और युवक फिर बेहोश हो गया। उसकी बेहोशी के दो कारण नजर आए – एक तो भाव की तंद्रा समाप्त होना , दूसरा पानी से तर दुपट्टे का उसके सिर और गले से अलग होना , जो उसके लिए तत्काल एक बड़ी जान था।

रास्ते में कुछ लोग दौड़ते हुए इधर ही नजर आए। दो के माथे पर खटिया , दो- तीन छाते , दो-तीन पानी से भरी बोतलें। एक भरी बाल्टी लिए भी। और रही युवक की वह रधिया अपने माथे पर एक बिछावन और तकिया लिए हुए। सबसे ज्यादा पसीने से तर।

‘रधि..या..., रधि...या...। युवक को तेज बुखार हो आया था। उसे खूब लू लग गई थी। वह बुखार में ही बड़बड़ा रहा था। तब तक लोग वहाँ पहुँच चुके थे। खाट रखा जाती है। सबको पीछे करती रधिया खाट बिछाकर उसपर बिछावन और तकिया कर देती है।

“अरे , एकरा होश आ रहा है , देखो, कुछ- कुछ बड़बड़ा रहा है।” उसी जमात का एक बोला।

“हँ-हँ , कुछ-कुछ बक रहा है जमुना चा।”

“अरे एकरा लुक (लू) लग गया है। इहे दशा एक्कर है।” एक बोला।

“ बतियाते ही रहिएगा कि ले भी चलिएगा ? जे भी हुआ है, घरे पर न देखा जाएगा।” रधिया ने उन लोगों की बात रोककर युवक को अविलंब घर ले चलने की सलाह दी।

हँ-हँ , ठीके कह रही है सुगिया। नहीं तो अइसे तो ई इहें मर के रह जाएगा।”

“अइसा भाखा (भाषा) काहे निकालते हैं टँगरू भैया। बढ़िया बात आपके मुँह में नहीं आता है।” रधिया ने युवक के लिए ऐसे अपशकुन शब्द पर घोर आपत्ति जताई।

“ हाँ. हँ.. चलो , चलो। जल्दी से एकरा खटिया पर लादो।” कुछ लोग बोले और लोगों ने मिलकर उस युवक को खाट खटिया पर लादा और चार मिलकर ले चले। छाते वाले आदमियों ने युवक के ऊपर छातों से छाँह की हुई थी। तेजीपूर्वक भागे सभी और पहुँच गया अर्द्धबेहोश और तेज बुखार में बड़बड़ाता युवक अपनी स्वनाम रधिया का घर।

“ पहिले एकरा लिलार ( ललाट ) पर बकरी के दूध का पट्टी बाँधो। लुक में बड़ा काम आता है।” खटिया रखाते ही उस बस्ती के एक बुजुर्ग व्यक्ति सिराज ने अविलंब सलाह दी।

“ हम तुरते अप्पन बकरी दूध देते हैं। तब तक आप सब ठंढ़ा पानी से एक्कर पूरा देह-हाथ पोंछ दीज्जै।” रधिया इतना बोल भागी एक गिलास ले अपनी बकरी दुहने। तब तक लोग युवक के पैर-हाथ-पीठ सहित पूरी देह ताजे पानी से पोंछने लगे।

रेंड़ी (अरंडी) के तेल ली आओ, आ तरउआ (तलवा) आ तरहत्थी में खूब रगड़ो। सब लहर निकल जाएगा।” ऐसी सलाह बस्ती की ही सुखली चाची ने दी।

हाँ-हाँ , खूब्बे काम करता है लुक मारने में रेंड़ी का तेल।” जगेसर ने समर्थन किया।

“और कच्चा आम पकाकर लगाना भूल गए सभी। थोड़ा-बहुत काम करता है यह लू लगने में। और साथ ही इसका शरबत पी जाओ। अमीर-गरीब सबका अचूक और सस्ता इलाज है।” विकास ने भी लगे हाथ याद आए और आजमाए इस एक घरेलू नुस्खे को लोगों के सामने रखा।

“हाँ , आम तो इसका एक नंबर का इलाज है। पूरी देह में पकाकर लगा दो और मथकर गाढ़ा शरबत पिओ।” विकास के इस नुस्खे का अखिलेश समर्थक निकला।

“ ई का हम्मर जेभी (जेब) में तीन गो कच्चा आम है। लीज्जै, इसको पकाके एकरा लगा दीज्जै।” एक किशोर ने अपनी जेब में रखे तीनों आम निकालकर लोगों के आगे लेने के लिए पसार दिए।

“केकरो देते काहे हो, जाके अप्पन मैया के दी आओ। उ सब कर देगी।” जग्गू बोले और भागा वह लड़का अपने घर की तरफ।

“ लीज्जै, हम अप्पन भौजी से गजपुरना पिसवा के ली आए हैं। एक्कर ढोंरी (नाभी) में थाप दीज्जै।” गँधिया एक कटोरी में वह औषधि लिए प्रस्तुत था।

“देखो , काम की बात इतने की। सिर्फ बोलने से होगा कि जल्द-जल्द करने से होगा।” धीरेंद्र बोला। और लोग जल्द-जल्द लग गए उस युवक को अपने घरेलू इलाज से इलाज करने। पर सबसे पहले उसे उसकी रधिया का इलाज ही नसीब हुआ। दूध की पट्टी देकर अरंडी के तेल से युवक की तलहत्थी और सुपली में मालिश करने लगी।

“ रधि...या..., रधिया....।” करीब दस मिनट बाद ही युवक फिर बड़बड़ाने लगा।

“ हाँ-हाँ किसुन , बोलो , किसे खोज रहे हो ?” रधिया ने उसे हिम्मत दी , पर दूसरे ही पल उसे खुद से झटका लगा –‘ अरे ई किसुन नाम हम बोले , अभी तक तो एक्कर नाम हम नहीं जानते हैं। अच्छा चलो, कुछ-न-कुछ तो नाम लेने था।’

“ रधिया...।” अब युवक ने यह नाम लगभग स्पष्ट कहा और तुरंत ही अपनी आँखें खोल दीं।

“ हाँ बोलो किसुन , तुम ठीक तो हो , का दिक्कत है तोरा ?” रधिया युवक को उस स्थिति में देखकर पूरी तरह से खिल उठी थी। इधर धीरे-धीरे वहाँ इकट्ठे लोग खिसकने भी लगे थे।

“ ये लोग कौन थे रधिया ? और मैं...। ” युवक अपने आपका मुआइना करने लगा और बैठने लगा।

“ अरे-अरे , अभी आपको अराम के जरूरत है। आपको लुक लग गया है।” सुपली मालिश करती रधिया ने जल्द से उठकर युवक को उसकी जगह पर ही लिटा दिया। आगे बोली , ई लोग मिलके आपको बाध (खेत-मैदान) से ली आए थे इहे खटिया पर टाँग के। पर अभी आपको एकदम अराम के जरूरत है। पानी दें ?”

“ हाँ पानी दो।” युवक ने हाँ कहा। और रधिया अंदर से एक लोटा पानी ले आई। युवक ने परम संतोष का अनुभव किया।

“ कुछ खाइएगा , कोची लाएँ ?”

“ अभी नहीं, बाद में जो खिलाओगी , खा लूँगा। पर तुम तलवे क्यों रगड़ रही हो ? छोड़ो।”

“ अरे , अइसे काहे छोड़ दें। मालिश करने से लुक निकलता है। आप सुतल रहिए।” “ नहीं , मैं तुमसे अपने तलवे नहीं रगड़वा सकता।”

“ अरे , हम तो इलाइज कर रहे हैं।”

“ कुछ नहीं , मैं ठीक हो गया। आओ ऊपर बैठो।”

एक झोंक में रधिया को लगा साथ जा बैठे पर दूसरे ही क्षण झटका-सा लगा , “ नहीं , हम ऊपर नहीं बैठ सकते।” कहकर सिर नीचे गिरा लिया।

“ अच्छा तो नीचे ही बैठो , पर पैर के पास नहीं।”

“ का होगा , आप तो हमरे मेहमान हैं।” सिर नीचे ही था।

“मेहमान..., अरे तुम सब मेरे लिए भगवान हो। जो कुछ याद आ रहा है तो यह सब भगवान ही खड़े होकर करते हैं। और जो न देखा , वह तो न जाने कैसा होगा।”

“ हम ई सब थोड़े जानते हैं। हम सब तो इहे जानते हैं कि बुरा बखत में साथ देना आदमी का धरम होता है। बाकी का करें , गरीब हैं , ई बजह से आपको डॉगडर के पास न ले जा सके। आउ अप्पन झोंपड़ी में ई टूटल-फूटल खटिया पर सुधार हुए हैं।”

“ तनिक ऊपर से न बोल रहा रधिया। पर तुम्हारी यह टूटी खाट मुझे किसी डनलप से बढ़कर लगती है और याद आते ही रोमांच में गोंता जाता हूँ। वह घास का मुलायम बिछौना ! वह कपड़े की चाँदनी ! उस पर चीनी हुई घास का छप्पर ! वह दुपट्टे की पट्टी के रूप में बाँधी गई पगड़ी ! सब कुछ दूसरी दुनिया-सा लगता है। और इस झोंपड़ी में न जाने कौन - सा अलौकिक सुख पा रहा हूँ। जैसे कोई कहानी कोई सच रूप में खड़ी है।” रधिया इन बातों पर खुलकर हँस देती है। और हँसती जाती है। और युवक उस हँसी में खोया जाता है – आह ! हँस रधिया , खूब हँस। सारा गम इस हँसी में खो जाएगा। मस्त होकर हँस..। मुझे अबोध बना। पंछियों की तरह बाँहें फैलाकर हँस...। बादलों की तरह उमड़-घुमड़ कर हँस। आसमान से मुँह मिलाकर हँस। बुरा नहीं , खूब अच्छा लग रहा है।’ पर बोल पड़ा, “ अरी ! पर तुम हँसने क्यों लगी ?”

“ काहे नहीं , ई घास , ई खटिया , ई झोंपड़ी जेकरा लेके हम सब गरीब झखते रहते हैं, ओकरा आप अइसा कहते हैं, तो हँसी न तो आउ का आएगा ?” रधिया हँसी रोककर बोली।

“ सुगिया , अब लइका के कइसा है बेटी ?” पीछे से एक वृद्ध की काँपती आवाज आई। दोनों उस आवाज से एकाएक चुप हो गए। रधिया जहाँ उठकर जाने को उद्धत हुई , वहीं युवक उस आवाज को लेकर घोर आश्चर्य में डूब गया।

“ पहले से बहुत ठीक हैं बापू। आते हैं। पानी-ऊनी चाहिए का ?” और रधिया अंदर चली गई। युवक कुछ कुछ सोचने लगा। कुछ देर बाद रधिया वापस आई। साथ में एक गिलास मट्ठा लिए।

“ लीज्जै भैंस का मट्ठा है , पी लीज्जै। लुक- दुपहरिया में बड़ा काम आता है।” युवक रधिया को देख उसके हाथ से मट्ठा ले पी जाता है।

“ फिर हँस लो , पर ऐसा मट्ठा एक तो मिलता नहीं , दूसरा याद नहीं, कब पिया है। (पूछते हुए) वे कौन थे ?”

“ बापू हैं, असल में उनको आपे का चिंता हो रहा था। लकवा मारे हुए हैं, अपने से चल नहीं सकते।”

“ओफ्फ ! और माँ...?” युवक ने अफसोस जताया और पूछा। रधिया निराश हो गई थी। टप टप आँसू भी निकल आए। आँखें पोंछती बोली, “ मैया बहुत पहले छोड़ चली।”

“ चूँ-चूँ , माफ करना रधिया , मैं कुछ नहीं जानता था। पर तेरा नाम तो सुगिया है न ?”

“ कइसे ?” रधिया तड़ से बोली।

“ पिताजी ने तुम्हें यही नाम ले पुकारा था।”

“तो का हुआ , का हम आपके नाम से नहीं बोलते हैं ?” कहकर रधिया ने सिर नीचे कर लिया। फिर उसी मुद्रा में बोली , “ मुझे आपका नाम बहुत अच्छा लगता है। आउ आपका नाम का है ?”

“ तुमने एक बार कुछ कहा था, जिससे मैं पूरी तरह होश में आ गया था।” याद करते हुए युवक बोला।

“ उ तो हम अइसे ही किसुन कह दिए थे। अचानक से आपके लिए इहे नाम निकल आया था।”

“आह...! बहुत सुंदर ! बहुत प्यारा ! तेरा नाम ही मेरा नाम है, जैसे मेरा नाम तेरा नाम है।”

“ जी..., जी ..।”

“ शाम होने वाली है, अब तो मुझे जाना चाहिए।”

रधिया कुछ सोचकर, “ जी...!”

“ पर मैंने तेरे इस जवाब के लिए नहीं कहा था। सच कहा जाए तो मेरे पास कहीं जाने की न तो हिम्मत है , न ही ताकत।”

“ तो इसके लिए बापू से पूछना होगा।”

“जरुर पूछ लो।” रधिया का अंदर जाना, फिर तुरंत आना।

“पर आपको घर के बाहर मैदान में सुतना होगा। आपका खटिया उहें लगा देंगे।”

“कोई बात नहीं, गर्मी में खुली जगह में सोने में बहुत आनंद आता है। उसमें भी यह गाँव है।” होती सुबह युवक का जमीर आगे ठहरने की इजाजत नहीं दे रहा था। और उसके अनुसार रधिया उसके पास एक बोतल पानी और चार ठेकुए (एक पकवान) लिए उसे विदाई दे रही थी। आगे किसुन और रधिया में से किसी ने न धन्यवाद के शब्द कहे, नहीं कुछ और। पर मुँह फेरते-फेरते जहाँ किसुन की आँखें डबडबा आईं, वहीं रधिया जाने के बाद खब कपसने लगी। सुबह-दोपहर दोनों समय का खाना बनाकर अपने बापू को खिलाया , पर पानी के अलावा उसने कुछ न लिया। आज चतपतवा के साथ घास लाने भी न गई।

शाम हो चली थी। वह अपनी उद्विग्नता से काफी परेशान थी। इससे उसमें घोर भय समा गया था। उसे लगता था - खुलकर रोए, जोर-जोर से रोए। तभी बाहर मोटरसाइकिल की आवाज आती है। वह दौड़कर निकलती है। किसुन को पुनः देख उसका चेहरा खिल जाता है। उससे दौड़कर लिपट जाने का मन करता है। पर अचानक ठिठक जाती है। कुछ पूछना चाहती है , पर शब्द नहीं , किसुन से भी अभी कुछ न बोला पाता है।

“गलत मत समझो, पर तुम्हारी प्यार भरी सेवा से मेरा दिल तुम्हें कुछ न देने की इजाजत देता है। कोई धन- संपत्ति , रुपया-पैसा कुछ नहीं। बहुत समझाया , पर मैं जी नहीं सकता।”

“आप का कहना चाहते हैं ?”

“ यह मेरे हाथ की पीसी हुई मेहंदी है। रास्ते में एक पौधे से तोड़कर किसी तरह इसे दो पत्थरों के सहारे पीस पाया हूँ। यह मेरे दिल की इजाजत है।” रधिया को लगा - तुरंत हाथ बढ़ाकर ले ले , पर फिर लगाम , “हम इसे अइसे नहीं ले सकते।” बोलती-बोलती गिटपिटा जाती है और गला रुँध जाता है।

“ मत लो , मैं रख देता हूँ, इसे फेंक देना। मेरी हैसियत क्या है - शहर का आवारा कुत्ता ! तुम सब महान हो। तमाम अच्छाइयाँ हैं तुममें। तुम सब किसी की जान बचा सकती हो, सब कुछ उसके लिए कर सकती हो, पर...। क्यों बचाई मेरी जान ? मर जाने देती। मैं जा रहा हूँ , पर इतनी प्रार्थना जरूर है कि इसे अपने हाथों से कहीं फेंक देना।” युवक काफी ताव और अपमान में आ गया था। और वह रोते-रोते मोटरसाइकिल के पास आया , उस पर यह घूँसा मारा और स्टार्ट करने से पहले नीचे बैठकर रोने लगा।

“लो लगा दो किसुन। मेहंदी लगाया जाता है ,दिया नहीं जाता। बापू ने मुझपर बहुत भरोसा जताया है।” रधिया किसुन की लाई मेंहदी उसके पास बढ़ाती अपने दोनों हाथ उसके सामने पसार देती है।

“रधिया , तुमने मुझे मरने से बचाया। इंसान भी बनाया। सच कहता हूँ , मैं आज आत्महत्या कर लेता।” भरे कंठ से बोलते और रोते किसुन ने उसे अपनी बाँहों में भर लिया।

“नहीं मेरे किसुन। रधिया तुझे मरने न देगी। तू मेरा नाम है।” रधिया ने भी खूब उसे अपनी बाँहों में भर लिया था।

“हाँ मेरे मेरे नाम रधिया।” बहुत देर तक दोनों रोते रहे , प्यार का इजहार करते रहे।

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वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज

शेखपुरा ,खजूरी ,नौबतपुर ,पटना-801109

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: कहानी // तेरे नाम // डॉ. वीरेंद्र कुमार भारद्वाज
कहानी // तेरे नाम // डॉ. वीरेंद्र कुमार भारद्वाज
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