व्यंग्य // धरम का धंधा // वीरेन्द्र ‘सरल‘

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पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था को धता बताते हुए मंत्री जी के बंगले पर एक चमचा घुस आया था पर मंत्री जी नाराज नहीं हुए बल्कि चमचे को चाहत भरी नजरों स...

वीरेन्द्र सरल

पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था को धता बताते हुए मंत्री जी के बंगले पर एक चमचा घुस आया था पर मंत्री जी नाराज नहीं हुए बल्कि चमचे को चाहत भरी नजरों से देखने लगे। मंत्री जी को पता था कि चमचे जब भी आते हैं चासनी लेकर या उसकी खबर लेकर आते हैं। चमचों की चमक से ही चुनाव जीता जाता है। अगर चमचा न हो तो हमारा यह चमकदार चेहरा कब का धूल-धूसरित हो गया होता। इसीलिए मंत्री जी ने सुरक्षा कर्मियों को स्पष्ट निर्देश दे रखा था कि किसी भी चमचे को बंगले में आने से न रोका जाय। बल्कि जो चमचा न आना चाहें उसे भी जबरदस्ती पकड़कर बंगले में लाया जाय। किसी भी चमचे के लिए न कोई गेटपास की आवश्यकता है, न आईडेन्टिटी कार्ड की। उनका चेहरा ही सब कुछ है। सुरक्षा कर्मियों को भी बात समझ में आ गई थी कि चमचों को रोकना मतलब बर्र के छत्ते पर हाथ डालना है। तब से वे किसी भी चमचे को देखकर अपनी आंख बंद कर लेते थे ताकि चमचे बे-रोक टोक जब जी चाहे बंगले के अंदर आ-जा सके।

बहुत देर तक मंत्री जी चमचे को अपलक निहारते रहे है पर इस बार उसके चेहरे से चासनी की चमक तो दूर उसकी सुगंध तक नहीं आ रही थी। मंत्री जी मन ही मन भन्ना रहे थे। अन्ततः उन्हें कहना ही पड़ गया। भाई क्या अपने देवता के दरबार में यूं खाली हाथ आना अच्छी बात है? मेरा चढ़ावा कहाँ है? कहीं भूल से किसी दूसरे देवता के दरबार में तो नहीं चढ़ा आये?

चमचे ने नजरें नीची करते हुए कहा-‘‘क्या बतायें भैया जी। इस बार तो हम आपके दरबार में अपना दुखड़ा लेकर आये हैं। मेरा लड़का नालायक निकला। पढ़ाई-लिखाई में इतनी होशियारी दिखाई कि मेरा भी बाप निकला। मैं तो अपने जमाने में ले-देकर मिडिल पास कर गया था पर ह तो बचपन से जवानी तक केवल प्राथमिक को ही प्राथमिकता देता रहा। लेकिन जब प्राथमिक तक ने उसे प्राथमिकता नहीं दी तो वह स्कूल को जैराम जी की कहकर बाहर निकल आया। ऊपर से उसके दिमाग पर समझदारी का ऐसा नशा छाया है कि चमचागिरी के पुश्तैनी धंधे में आना नहीं चाहता। हमने उसे कई बार समझाया कि बेटा देखो, हम केवल मिडिल तक शिक्षित होने के बाद भी अपने पुश्तैनी धंधे के बदौलत आज यहां पर हैं। तुम अनपढ़ होकर भी ऐसी नासमझी की बातें न करो, चुपचाप धंधे पर लग जाओ पर वह नालायक मानता ही नहीं। अब आप ही बताइये हम क्या करें। अब तो बस आपका ही सहारा रह गया है भैया जी। उसके लिए कहीं छोटी-मोटी सरकारी नौकरी की व्यवस्था कर देते तो हमारा भी उद्धार हो जाता और वह नालायक भी तर जाता।

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मंत्री जी की आँखें सिकुड़ गई। वे कुछ देर सोचने के बाद बोले-‘‘अरे क्या रखा है नौकरी में। जिन्दगी भर ईमानदारी की नौकरी करने के बाद भी चार पैसे हाथ में बचते नहीं और यहां केवल पांच साल में अरबों का वारा न्यारा हो जाता है। जिन्दगी भर सारी सुख सुविधाएं मुफ्त में मिलती है। उनको समझाओ, उनसे कहो कि हमारा झंडा हाथों में थामकर हमारे लिए जिंदाबाद के नारे लगाते फिरे। धंधा जरा जम जाये और हम उसके काबिलियत से वाकिफ हो जायें तो अगले चुनाव में उसको कहीं न कही फिट कर ही देंगे।

चमचे ने कहा-‘‘हम तो समझाकर थक चुके हैं भैया जी। लाख समझाने पर भी यही कहता है कि मुझे आपके नक्शे कदम पर नहीं चलना है, कुछ अलग करके दिखाना है। परसों उसे बेरोजगारी का खौफ दिखाया तो कल पता नहीं कहां से किराये पर एक हाथ ठेला ले आया और नींबू-मिर्ची बेचने के लिए निकल पड़ा। मेरी तो नाक कट गई। आखिर मैं भी एक इज्जतदार चमचा हूँ। लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? यही न कि एक प्रसिद्ध चमचे के बेटे की करतूत तो देखो, नींबू मिर्ची बेच रहा है।

नींबू-मिर्ची का नाम सुनकर मंत्री जी खुशी से उछल पड़े। बोले-‘‘अरे! वाह। तब तो तुमको चिन्तित होने की कतई आवश्यकता नहीं है। वह सही लाइन पकड़ रहा है, बस थोड़ा ट्रिक बदलने भर की देर है। अभी तो तुम घर जाओ और अपने लाड़ले से मेरी बात कराना। में उसे समझाऊँगा कि नींबू मिर्ची का धंधा कैसे किया जाता है। फिर मंत्री जी अपने अतीत में खो गये और चमचा मंत्री जी के बंगले से निराश लौट गया।

कुछ दिनों के बाद चमचे ने उचित समय देखकर अपने बेटे से मंत्री जी की बात करा दी। पता नहीं मंत्री जी ने ऐसा क्या गुरूमंत्र दे रहे थे कि चमचापुत्र की आंखें चमकने लगी थी और आंखों में आत्मविश्वास का तेज चमकने लगा था। वह बहुत खुश नजर आ रहा था। चमचे को यह रहस्य समझ में नहीं आया और उसने इस बारे में मंत्री जी से कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं की।

मंत्री जी से बात होने के बाद चमचापुत्र का व्यवहार बदलने लगा था। उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी और गेरूआ वस्त्र धारण कर लिया था। माथे पर लंबा तिलक लगाने लगा था। गले में गंडे ताबीज बाँधने लगा था। वह किराये का हाथ ठेला जिससे लिया था उसे वापस कर चुका था। पता नहीं दिनभर कहाँ भटकता था देर रात घर आता। आते ही कुछ नींबू और कुछ मिर्ची को धागे में पिरो-पिरोकर सैकड़ों गुच्छे बनाता और सुबह-सुबह फिर घर से निकल जाता।

चमचे को बात कुछ समझ में ही नहीं आ रही थी। वह अपने लाड़ले के हाव भाव देखकर डर रहा था, ये बेवकूफ कहीं सन्यासी न बन जाय। एक दिन मौका देखकर उन्होंने लड़के से पूछा तो लड़के ने कहा-‘‘ धंधा ही तो कर रहा हूँ पापा जी। जीरो निवेश व्यवसाय। सौ रूपये का नींबू और मिर्ची खरीदता हूँ, उसे धागे में पिराकर सैकड़ों गुच्छे बनाता हूँ। सुबह-सुबह घर से निकलकर आसपास के अलग-अलग शहरों में जाता हूँ और बड़े दुकानों तथा घरों के मुख्यद्वार पर उन गुच्छों में से एक गुच्छा बाँधता हूँ और कुछ बुदबुदाता हूँ। लोग मुझे पहुँचे हुए बाबा जी समझते है और मेरा बुदबुदाना उनको मंत्र लगता है। फिर क्या वे मेरी जमकर सेवा-सत्कार करते हैं और जी भरकर दान-दक्षिणा देते है। सौ रूपया निवेश कर दिनभर में दस-बीस हजार कमा लेता हूँ। आज मेरे हजारों चमचे मतलब भक्त हैं, इसे करोड़ों में पहुँचाने का मेरा लक्ष्य है। अभी तो केवल धंधे की नींव डाली है जब धंधे का भव्य भवन बनकर तैयार होगा तब आपको पता चलेगा कि आप के कितने जन्मों के पुण्योदय के फलस्वरूप मैं आपके घर में पैदा हुआ हूँ। इसे कहते हैं अकल की कमाई मतलब धरम का धंधा। जब तक दुनिया में अंधविश्वासी लोगों को जमवाड़ा है। मूढ़-मान्यताओ को पालने-पोसने वाले बुद्धिजीवी है और अफवाहों को हवा देकर अपना उल्लू सिद्ध करने वाले राजनेता है तब तक धरम के धंधे में चाँदी ही चाँदी है, समझे पापा जी? मैं आपके घरेलू बाबा से अब व्ही आइ पी बाबा बन गया हूँ। आपका यह पुत्र संसार में स्वामी संकटानंद के नाम से प्रसिद्ध हो रहा है। फिर वह जोरदार ठहाका लगाया।

लाड़ले की बात सुनकर चमचे को अपने आप पर शर्म आने लगी वह सोचने लगा काश यह धांसू आइडिया मेरे दिमाग में युवा अवस्था में आया होता तो मैं भी कब का मालामाल हो गया होता। आज जिस भैया जी के चरणों में मैं लोटता हूँ, वह चुनाव जीतने के लिए मेरे कदमों पर नाक रगड़ते। वह अपने लाड़ले को प्रशंसा भरी नजरों से देखने लगा और मन-ही-मन बुदबुदाया इसे कहते हैं होनहार बिरवान के होत चिकने पात।

पापा जी को बुदबुदाते देख लाड़ले ने कहा-‘‘अब आप ये कौन सा मंत्र पढ़ रहे हैं पापा जी? कहीं मेरे धंधे में सेंधमारी का इरादा तो नहीं है? अब ठहाका लगाने की बारी चमचे की थी।

चमचे ने मुस्कुराते हुए पूछा-बेटा! पर इस धंधे में इतनी जल्दी तरक्की का क्या रहस्य है। तुम तो अभी-अभी इस धंधे में उतरे हो। क्या इस धंधे में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है?

सब संकटलोचन महराज की कृपा है पापा जी?

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चमचे ने चौंकते हुए कहा-‘‘संकटमोचन तो बजरंगबली जी को कहा जाता है बेटा पर संकटलोचन कौन है?‘‘

‘‘संकटलोचन बली नहीं बल्कि बला है पापा जी। जिस पर अपनी वक्रदृष्टि डालता है, शनि की कोपदृष्टि से भी ज्यादा उसका अहित कर देता है और जिस पर अपनी कृपादृष्टि डाल देता है तो उल्लू को भी बुद्धिमान और गधे को पहलवान की पदवी दिलाकर पुरस्कृत करवा देता है और उनकी दिव्यदृष्टि तो ऐसी है कि जिसे देखकर गिद्ध की दृष्टि भी शर्म से चुल्लू भर पानी में डूब मरे। ऐसे हैं हमारे संकटलोचन जी। जिसकी कृपा से ही मेरी कीर्ति पताका बाबा संकटानंद के नाम से चहुँ दिशा में फहरा रही है य फहराई जा रही है। आज तक मैंने गणित का एक छोटा-सा समीकरण हल नहीं कर सका पर दूसरों को वशीकरण का मंत्र बतलाता हूँ। अपनी ही समस्याओं को सुलझा नहीं पाया पर भक्तों के जीवन की समस्याओं का हल बताता हूँ। स्वयं कई बार मरते-मरते बचा हूँ पर दूसरों को मंत्रशक्ति की महिमा बतलाता हूँ। ये सब उसी संकटलोचन महराज की कृपा है पापा जी वरना जेल की चारदीवारियां तो कब से मेरा स्वागत करने का इंतजार कर रही है।‘‘

चमचे ने कहा-‘‘बेटा! अब पहेलियाँ मत बुझाओ बल्कि साफ-साफ बताओ, आखिर ये संकटलोचन किस बला का नाम है।‘‘

चमचासुत ने कहा-‘‘ अरे पापा जी! संकटलोचन जी और हमारा तो चोली दामन का साथ है। पहले आप मेरी बात तो सुनिए। एक दिन यूँ हुआ था कि में एक भव्य मंच पर विराजमान होकर अपने भक्तों के बीच प्रवचन झाड़ रहा था। उसी समय संकटलोचन जी उस क्षेत्र के दौरे पर आये थे। भीड़ का आकर्षण उन्हें मेरे पंडाल तक खींच लाया था। वे मंच पर चढ़कर मेरे निकट आये और मुझे अच्छी तरह पहचान गये। फिर मुझे तिरछी नजर से देखते हुए मेरे कदमों पर झुके और फुसफसाये-‘‘ देख बे गुरूघंटाल। मैं तेरे कदमों में झुक नहीं रहा हूँ बल्कि लोगों को झुकते हुए भर दिख रहा हूँ। राजनीति और धर्म के ठगबंधन में ही हम दोनों के भलाई है, धंधे में चांदी है और दोनों के मुँह में मलाई है। राजनीति के सुरक्षा कवच के भीतर ही धर्म का धंधा फल-फूल सकता है। राजनीति अपना कवच हटा ले तो तुझ जैसा बाबा पैदा होना भी भूल सकता है। इसलिए तुम मुझे जिताने का वचन दो ओर मैं तुम्हें बचाने का संकल्प लेता हूँ। संकटलोचन जी की आँखों को देखकर मैं अच्छी तरह समझ गया था कि यदि मैंने इनकी बातें नहीं मानी तो मैं तो केवल नाम का संकटानंद रह जाऊँगा और ये महाशय काम का संकटानंद बनकर मेरा काम-तमाम कर देंगे। मैंने सहमति में सिर हिलाया।

स्ंकअलोचन जी माइक पर आकर जोर-जोर से मेरी जयकारा लगाने लगे। बाबा संकटानंद की जय। बाबा संकटानंद की जय। फिर क्या था देखते ही देखते मैं बाबागिरी के धंधे का सरताज हो गया। अब मैं स्टार बाबा बन चुका था। मेरे धंधे की बहुत अच्छी शुरूआत हो चुकी है पापा जी। सब संकटलोचन महराज की कृपा है।

अब चमचे का धैर्य चुक गया था। वह गुस्से से भरकर बोला-‘‘ अबे कब तक ये संकटलोचन का प्रशस्तिगान करता रहेगा। सीधे-सीधे बताता क्यों नहीं ये किस बला का नाम है।

बाबा संकटानंद ने कहा -‘‘पापा जी! आपको आम खाने से मतलब है कि पेड़ गिनने से? बेटा धरम के धंधे से चांदी काटने लगा, मौज करो। बाकी लफड़े में पड़ने का क्या मतलब। वैसे समझदार के लिए इशारा काफी होता है पापा जी।

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वीरेन्द्र‘सरल‘

बोड़रा (मगरलोड़)

जिला-धमतरी ( छत्तीसगढ़)

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रचनाकार: व्यंग्य // धरम का धंधा // वीरेन्द्र ‘सरल‘
व्यंग्य // धरम का धंधा // वीरेन्द्र ‘सरल‘
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