सिंध की कहानी // दुनिया एक स्टेज है // लेखिका:नूर अलहदा शाह // अनुवाद: देवी नागरानी

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सिंध की कहानी दुनिया एक स्टेज है लेखिका:नूर अलहदा शाह अनुवाद: देवी नागरानी उस महफ़िल में सिर्फ़ मुझे ही नाचने के लिये बुलाया गया था। रात के पह...

सिंध की कहानी

दुनिया एक स्टेज है

लेखिका:नूर अलहदा शाह

देवी नागरानी

अनुवाद: देवी नागरानी

उस महफ़िल में सिर्फ़ मुझे ही नाचने के लिये बुलाया गया था। रात के पहले पहर में जब भीड़ इकट्ठा हुई थी और सभी मदिरा पीकर बेसुध हो चुके थे, तब मैंने पायल की छम-छम से धीरे-धीरे पाँव उठाने शुरू किये। स्वर्गीय कजल बाई को जन्नत नसीब हो, हमेशा कहती थी कि पहले तमाशाइयों को प्याले भर भर के पिलाओ, जब नशे में चूर हो जाएँ, बाद में नाचो- सिर्फ़ नोट ही नहीं, पर ख़ुद को भी तुम पर कुर्बान कर देंगे। पायल की छम-छम के साथ साजिन्दों ने भी साज़ छेड़ने शुरू किये और ज़मीन मेरे पैरों के तले ज़ोर-ज़ोर से घूमने लगी। उसी फिरते मंजर में ही जैसे बिजली की तरह मेरी आँखों के सामने से वह गुज़रकर गुम हो गया। परदे में मुँह डालकर बैठा, उसका सारा शरीर पटसन में लिपटा हुआ। मुझे लगा वह बेसुध तो है पर उसने मदिरा नहीं पी है। एक वही है जो जाग रहा है, बाक़ी सब खुली हुई लाल आँखों के भीतर मरे पड़े हैं और उन के खुले हुए मुँह में फ़क़त कौवे काँ काँ कर रहे हैं। कि नाच नर्तकी! नाच-नाच-नाच नर्तकी! नाच- नाच!!! नोट, शिकार हुए परिंदों की तरह हवा में एक चक्कर लगाकर वापस आकर ज़मीन पर गिरते और ज़मीन और भी तेज़ी से मेरे पैरों तले घूमती थी। ज़मीन के उस तेज़ गोलाकार चक्कर में ही फ़क़त एक बार उसने धीरे-धीरे परदे में से मुँह निकालते हुए देखा और बस एक ही नज़र मुझपर यूँ डाली जैसे मैं कोई अयोग्य चीज़ हूँ!! और एक फूँक मारकर जैसे कीड़े को हवा में उड़ा दिया जाय, वैसी मुस्कराहट के साथ वापस परदे में मुँह डाल दिया। स्वर्गवासी कजल बाई कहती थी कि अगर ऐसा कोई तमाशाई, जिसकी नज़र में तेरी कोई हैसियत न हो, उसे फंसाकर छटपटाने पर मजबूर करके अधमरा करके फेंक दो। जैसे जैसे तड़पेगा और चिल्लाएगा, ज़माना उसका तमाशा देखकर पतंगों की तरह तुझपर मरेगा। उसका परदे में वापस मुँह डालने पर मैंने पायल का सुर और भी तीव्र किया और नाचते-नाचते ज़मीन के घेराव को और भी उसके क़रीब ले आई। उसके आगे गोलाकार में घूमती रही, पर न वह हैरान हुआ न चौंका न परदे में से मुँह को निकाला, न हिला, न डुला। बस रात शम्अ की तरह पिघलती रही और तमाशाई पतंगों की तरह ख़ाक़ होते रहे।

फ़जर की अज़ान के कुछ पहले महफ़िल बर्बाद शहर के मंजर में बदल गई, जिसे दुश्मन का लश्कर घोड़ों की एड़ियों तले कुचल गया हो और यहाँ वहाँ लाशों के ढेर दिखाई दे रहे हों। खाने के लिये सजाए पकवान वहीं बिखर गए, बिस्तर रजाइयाँ सोए हुए जिस्मों के नीचे से खिसक गईं। शहर उजड़ा। वादक माल बटोरकर चलते बने, बस मैं थी और वह था। बीच कमरे में लाल ईरानी ग़लीचे पर बैठ कर मैंने पायल खोली। बस मुझसे दो क़दम दूर वह परदे में मुँह डाले बैठा था। मेरे हाथ पायल पर और आँखें उसपर गढ़ी थीं। बाहर मस्ज़िद में फ़जर की अज़ान शुरू थी और पूरी रात में उसने दूसरी बार परदे में से मुँह निकाला। उसने उठना चाहा तो मैंने बिजली की रफ़्तार से उठकर उसे बाँहों से जा पकड़ा।

"ठहरो!" मैंने कहा।

वह जैसे न चाहते हुए भी बैठ गया और चुपचाप मेरी ओर देखता रहा।

"मेरा नाच तुम्हें नहीं भाया?"

वह सिर्फ़ मुस्कराया।

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"किस बात का ग़ुरूर है? मर्दानगी पर?" मैंने एक ठहाका लगाया और वह एक सलीकेदार मुस्कराहट होठों के बीच दबाए बैठा रहा।

"वह मर्द ही कैसा, जिस की आँख औरत को देखकर बेक़ाबू न हो?" मैंने कहा- "पर अभागे, शर्मसार है तेरी मर्दानगी।" मैंने अपनी आँखों में धिक्कार घोलकर उसकी ओर निहारा पर उसने न मौन तोड़ा, न मुस्कान।

"तन्हाई में मेरा नाच देखोगे?" मैंने पूछा- "भीड़ से तेरी शर्मसार मर्दानगी घबराती है शायद। चलो भीड़ से दूर किसी तन्हा कोने में चलकर मेरी जवानी का जलवा देखो। तुम्हारी शर्मसार मर्दानगी मेरी जवानी का ताब झेल न पाएगी। मजनू की तरह कपड़े फाड़कर, चिल्लाते हुए सुनसान वीराने बसाओगे। है कुछ दम? यहाँ कई आए और उनका वध हुआ। आओ, आज तुम ख़ुद को आज़माओ, मैं ख़ुद को आज़माती हूँ। वह नर्तकी कैसी जो दिलेरों को न लुभाए। स्वर्गीय कजल बाई जैसी तेज़ नज़र रखने वाली पारखी औरत भी कहा करती थी कि अपनी सत्तर वर्ष की उम्र में उसने मुझ जैसी नर्तकी नहीं देखी जिसकी नज़र का मारा न मर पाया, न जी पाया, बस तड़पता रहा और एक घूँट के लिये तरसता रहा। कहा करती थी कि वह घूँट कभी मत पिलाना जिसे पीने से मरे हुए में जान जान पड़ जाय। चलो, चलकर देखो तो सही मेरा नाच, जिसे देखने के लिये बादशाह भी फ़क़ीर बन गए। नोटों के थाल भरकर लाने वाले लौटते वक़्त दया का कटोरा हाथ में लेकर मुझसे ही भीख माँगते रहे। पर मैं बादशाह को भीख देती हूँ, फ़क़ीर को नहीं। पर तुम पर निवाज़िश करने के लिये तैयार हूँ। आओ, आओ, तुम अपना इम्तिहान लो, मैं अपना इम्तिहान लूँ।"

उसके पटसन का सिरा झटके से अपनी ओर खींचा। उसने वह सिरा अपनी ओर खींच लिया। उसकी आवाज़ में इतना सुकून था जैसे दरिया की छाती पर नाद की प्रतिध्वनि गूँजती हो, दूर तक, सरल, विनीत व अकेली।

"सब बेकार है नर्तकी।" उसने आख़िर मौन तोड़ा- "बेकार, निरर्थक! यह सारा गुमान है- यह यौवन, यह नृत्य, कुछ भी तुम्हारा नहीं है। जिसे तुम नृत्य कहती हो वह किसी बारीक सुई के सुराख से गुज़रते धागे का सृजन है, जिसका दूसरा सिरा किसी दूसरे के हाथ में है और तुम फ़क़त नचाई जा रही हो। उसके लिये न तो तुम्हारे नाच पर कोई मर मिटा है, बल्कि इसलिये कि ज़माने को गर्दिश में रखना है। शाह को फ़क़ीर बनाना है और फ़क़ीर को तख़्तनशीं करना है जिस की उंगलियों पर सबके धागे लिपटे हुए हैं, उसकी बेफ़िक़्री तो देखो... सिर्फ़ अपनी उँगलियों की जुंबिश को देखता है, नीचे पुतलियों का नाच नहीं। ये तुम्हारे चक्कर लगाते पैरों के नीचे विनाशी फाँसी के घाट का तख़्ता बिछा हुआ है, फिर यह नाच भी कैसा नाच है नर्तकी? जहाँ जहाँ पैर धरा, वहाँ वहाँ से ज़मीन खिसकती जाये। यह जिसे तुम यौवन कहती हो, पता भी है उसकी हक़ीक़त क्या है? कुछ भी नहीं! सिर्फ़ हड्डियों पर मुट्ठी भर माँस। जब तक गिद्ध, चीलों का निवाला बनने के क़ाबिल है, आदमी को अपने होने का गुमान है। जैसे जैसे आदमी के माँस पर चीलें जमा होती हैं, वैसे वैसे आदमी अपनी ही सुगंध का, मतवालेपन का आनन्द लेता है। माँस सड़ जायेगा, ये सागर जैसे लोचन, ये गुलाब जैसे होंठ, ये छोलियों की तरह लहराती बाँहें, ये भंवर की तरह घूमते पाँव और ये ख़ुशबू देने वाला तन, कुछ भी नहीं है नर्तकी, फ़क़त माँस है, सिवा इसके आदमी हड्डियों की एक मुट्ठी भर है, जिस पर उसके घायल मन का निशान भी नहीं मिलता। ये आँसू, मुस्कुराहट, पीड़ाएँ, नाज़ो-अदाएँ सब हवा की एक फूँक हैं। सदियों-दर-सदियों आदमी की गुमनाम हड्डियाँ खाक बनती रही हैं। कौन सी हड्डियाँ शाह की, कौन सी ख़ाक फ़क़ीर की, यह गुत्थी कोई भी सुलझा नहीं पाया। सिवाय उसके जिसकी उदारता तो देखो! ख़ाक से आदमी बनाकर ख़ाक में मिला देता है। तुम तो नर्तकी हो, अपने नाश्वंत यौवन पर मुस्कुराती हो, पर पीछे मुड़कर तो देखो- बल्ले, बल्ले.... दुनिया के घोड़ों के खुर के तले कुचले गए लश्कर, ख़ुदाई के दावेदार राजमहल, क़िले सब धराशायी हो गए। दुनिया ने थूक दिया या कितनों ने धन-सम्पत्ति की तरह हाथों में लेकर एक ही फूँक से उड़ा दी और नर्तकी कुछ के लिये तो यह ज़िंदगी फ़क़त एक बारीक पारदर्शी पर्दा- आशिक और माशूक के बीच में है। आशिकों ने तो एक ही झटके में दुनिया को रेशा रेशा कर दिया। तुम बताओ नर्तकी, जब तुम चक्कर लगाती हो, तब तुम्हें यह दुनिया क्या लगती है? मदिरा का प्याला? कभी सोचा है, जब नशा उतरेगा तो क्या होगा? मदिरा पीने के लिये नहीं होती नर्तकी! मदिरा गिरा देने के लिये होती है और फिर चखकर देखो, मदिरा को होठों तक लाकर गिरा देने का नशा बस इतना नशा चख लेना चाहिये, नहीं तो बाक़ी सब बेकार है, निष्फल है, ख़ाक है, फ़ना है।"

जितनी देर वह बात करता रहा, मुझे साँस लेना ही याद न रहा। मुझे लगा माँस मेरी हड्डियों से धीरे-धीरे सड़ गल रहा है और एक अजीब सी गंदी बू मेरे चारों तरफ़ फैल रही हो। ज़मीन मेरे पैरों तले खिसक रही है और हमारे सिवा कोई तीसरा है जो उसके और मेरे बीच में मुस्कुरा रहा है, उसके हाल पर भी और मेरे हाल पर भी। मेरा गला ख़ुश्क होने लगा और आँखों में उसके सिवाय सभी मंजर धुंधला से गए। जाने क्या हुआ और क्यों हुआ, मैंने जैसे अपना समस्त वजूद इकट्ठा करके अपने दोनों हाथों में समेट लिया, और उसके हाथ पकड़कर, उन पर अपने होंठ रख दिये थे। उसी क्षण मुझे लगा कि मेरे पैरों के नीचे से सारी ज़मीन खिसक चुकी है, और मैं फ़ना के समदंर में नीचे, और नीचे डूबती जा रही हूँ। घुमावदार तरीक़े से चक्कर काट रही थी उसके हाथ का सहारा भी उस समंदर में एक तिनके की तरह था, वह भी छूटता गया। मेरी हालत उस शराबी जैसी थी जिसे अपना नाम भी और घर का रास्ता भी याद न रहा हो। कैसे लड़खड़ाते घर पहुँचने की बजाय स्वर्गीय कजल बाई की क़ब्र पर पहुँची, याद नहीं? याद है तो सिर्फ़ यह कि सूर्य ढलकर साँझ बन चुका है। नीचे हर दिशा में जहाँ तक नज़र जाती है क़ब्रिस्तान का फैलाव था और ऊपर- बहुत ऊपर गिद्ध और चीलें चक्कर काट रही थीं। मेरा सर कजल बाई के सीने पर था और मैं निरंतर रो रही थी।

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नर्तकी चुप हुई तो मैंने रो दिया, कहा- "काले पटसन में परदे में मुँह ढाँप कर बैठा वह शख्स मैं ही हूँ। अब सालों से पायल बाँधकर गली गली में नाचता हूँ और तुम्हें ढूँढता हूँ ज्ञान का पिटारा हाथ में लिये, दर-दर पर आवाज़ें देता हूँ कि कहीं कोई हाथ आ जाए जो तुम्हारे हाथ जैसा हो। जिस पल तुमने मेरे हाथों पर से होंठ उठा लिये, उसी पल से मैं दर-बदर हूँ। तुमसे पहले मैंने ज़िन्दगी के कई साल मुर्शिद के क़दमों में बैठ कर गुज़ार दिये वहीं पर दुनिया को तर्क करना और साँसों की विद्रोही घोड़ी को बारीक धागों से बाँधकर काबू करना- पर नहीं, नहीं आदमी की साँसें सुख चैन के लिये नहीं, आदमी के लिये पागल हैं। नर्तकी दुनिया त्याग भी दी जाय, पर आदमी आदमी को कैसे त्यागे! यह इंसान, जो फ़क़त हड्डी भर मुट्ठी पर चढ़ा हुआ माँस है, उसके छुहाव की जादूगरी तो देखो! ख़ाक आग का शोला बन जाय और आग के शोले से समंदर। आग का भी वह शोला, जो समंदर में भी न ठंडा हो सके न मन्द हो सके, और उसे तो देखो नर्तकी, आदमी के वजूद के धागे तो अपनी उँगलियों से बाँध लिये हैं, पर उसका मन बेलगाम छोड़ दिया है। बाख़ुदा, जब वजूद उसकी मर्ज़ी से घूमता है, और मन अपनी मनमानी करता है, उस पल आदमी जैसे अधमरा पंछी होता है। हाय हाय..... कैसे फड़फड़ाता है, कैसे तड़पता है, पर सब बेकार। उस दिन जब तुम मेरे हाथों पर से अपने होंठ उठाकर तेज़ हवा की तरह यहाँ से निकल गई थी, उस दिन जहाँ तक मुझे याद आता है, पहली बार फ़जर की नमाज़ मेरा दुर्भाग्य बन गई और मैं वहाँ से अधमरे पंछी की तरह सीधे आकर अपने मुर्शिद के चरणों में गिरा था।

"मुझे आज़ाद करो, मुझे आज़ादी चाहिये।" मैंने कहा।

मुर्शिद मुस्कराया जैसे किसी बालक की नामुमकिन ख़्वाहिश पर मुस्कराया हो।

कहा- "आज़ादी है कहाँ? यह सब जो तुम देख रहे हों, इन्सान की क़ैद में अलग-अलग दर्जे हैं। बस, क़ैदखाने की कोठी बदल जाती है, क़ैदी का तरीक़ा बदल जाता है पर आज़ादी तो कहीं भी नहीं है। पहले जहाँ क़ैद थे, वहाँ तुम्हारे साथ दूसरे कई क़ैदी थे इसलिये तुम ख़ामोश सब्र और सुकून से बैठे रहे, पर इश्क! इश्क तो अपने आप में क़ैद-तन्हाई है। बस ख़ुदा माफ़ करे, क़ैद-तन्हाई समझते हो? आदमी ख़ुद ही तमाशा भी है और अपनी हालत का तमाशाई भी। मंद धार वाले चाकू से ख़ुद का संहार करता है, फाँक-फाँक करता है, तड़पता है, फिर ख़ुद को समेटकर फिर संहार करता है तड़पने के लिये, फाँक फाँक होने के लिये, बुलाता है, आवाज़ देता है, चीख़ता है, पर क़ैद-तन्हाई जो है, इसलिये कोई उसकी आवाज़ और आह नहीं सुन सकता, सिवाय उसके जिसने उसके लिये क़ैद मुक़र्रर की है।

फिर मुर्शिद ने अपने पाँवों को सम्पीड़ित करते हुए कहा- "जाओ, तुम्हारा क़ैदखाना बदल गया है, जाओ।"

वह दिन और यह दिन मैं मुर्शिद के पूर्वानुमान के अनुकूल क़ैद-तन्हाई में हूँ। आदमी को पकड़ पकड़ कर अपने घाव दिखाता हूँ। अपनी फाँकें पायल की तरह पैरों में बाँधकर खूब नाचता हूँ। तुम्हारा नाम पुकार पुकारकर बहुत शोर करता हूँ। पर सब निरर्थक! आदमी मेरे बाजू से यूँ गुज़र कर जाते हैं जैसे कि मुझे न देख सकते हैं न सुन सकते हैं। पर तुम मुझ पर दया करो नर्तकी, बस एक बार मेरे हाथों पर अपने होंठ रख दो। सिर्फ़ एक बार नर्तकी। बस एक बार।

नर्तकी चुप! काले पटसन में लिपटा परदे में मुँह लगाए बैठा रहा। फ़जर की अज़ान से बस कुछ पल पहले आहिस्ते, आहिस्ते परदे में से मुँह निकाला, उसके होठों पर सालों की तिश्नगी के निशान ठहर गए थे जैसे उसने मदिरा पीते पीते उंडेल दी हो।

आख़िर कहा- "यह भी बेकार है, यह भी विनाशी है, यह भी ख़ाक है। बस एक बात समझ में नहीं आती कि जब हर किसी का रुख़ वह अपनी ओर मोड़ना चाहता है तो फिर वह इतनी कोशिशें, बहाने, उलझन भरे घुमाव क्यों करता है? ख़ाक ही तो है, बस उस पर अपने पाँव धर दे पर पता ही नहीं पड़ता कि उसे ख़ुद के साथ आदमी का इश्क चाहिये या आप ख़ुद आदमी के इश्क में जकड़ा हुआ है!"

बाहर फ़जर की अजान सुनाई पड़ रही है। नर्तकी ने साँस ली और किसी हारे हुए सिपाही की तरह उठते हुए कहा- "जैसे उसकी मर्ज़ी! फ़जर नमाज़ कज़ा (दुर्भाग्य) न बन जाए, मिलन की घड़ी बस घड़ी भर के लिये आती है, कहीं चूक न जाए। विछोह न आदमी से सहा जाता है न उससे।"

नर्तकी ने पाँव उठाए और स्टेज से उतर गई। उस शख़्स का किरदार भी पूरा होने को आया और वह स्टेज से उतर आया।

और पर्दा गिर गया।

नया मंज़र शुरू होने तक।

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परिचय

लेखक

Noor Ulhuda Shah(Duniya ek Stage)

नूर अलहदा शाह

जन्म: 24 जुलाई 1957 में हैदराबाद में, आगाजी तालीम इंटर्मीडियट तक लाहौर में और फिर हैदराबाद से बी. ए की डिग्री हासिल की। उनके प्रकाशित संग्रह है-‘जलावतन, करबला, और रण में रंज जो इतिहास’ उनकी शायरी का संग्रह-‘कैदयाणी की आँखें और चाँद’ नाम से प्रकाशित हुआ।

1982 से टी. वी. के लिए नाटक लिखे। इनका पहला ड्रामा सिन्धी में ‘खिलौना’ के नाम से बेहद मशहूर हुआ। कहानी और ड्रमानिगारी के लिए अनगिनत अवार्ड मिल चुके हैं। वे कराची सिंध की रहवासी हैं।

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अनुवादक

देवी नागरानी जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, (एक अंग्रेज़ी) 2 भजन-संग्रह, 8 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, महाराष्ट्र अकादमी, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। साहित्य अकादमी / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत।

संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ dnangrani@gmail.com

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: सिंध की कहानी // दुनिया एक स्टेज है // लेखिका:नूर अलहदा शाह // अनुवाद: देवी नागरानी
सिंध की कहानी // दुनिया एक स्टेज है // लेखिका:नूर अलहदा शाह // अनुवाद: देवी नागरानी
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