प्राची - जनवरी 2019 : साहित्य पद्मावत : लोकचेतना में लिपटा दिव्य सौंदर्य - डॉ. राज भारद्वाज

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साहित्य पद्मावत : लोकचेतना में लिपटा दिव्य सौंदर्य डॉ. राज भारद्वाज भारतीय संस्कृति की सौंदर्य चेतना के निर्माण में सूफी साहित्य का विशिष्ट ...

साहित्य

पद्मावत : लोकचेतना में लिपटा दिव्य सौंदर्य

डॉ. राज भारद्वाज

भारतीय संस्कृति की सौंदर्य चेतना के निर्माण में सूफी साहित्य का विशिष्ट योगदान रहा है। मलिक मोहम्मद जायसी भक्ति काव्य की सूफी प्रेमाख्यानक कविता के प्रतिनिधि कवि हैं। जायसी कृत ‘पद्मावत’ सूफी साहित्य की कालजयी रचना है। पद्मावत ही लोक चेतना में पद्मावत, पद्मावती अथवा पद्मनि के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। ‘मलिक’ शब्द जायसी के पूर्वजों की याद दिलाता है जो सम्भवतः अरब से आए हुए माने जाते हैं। उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में ‘जायस’ नाम का एक छोटा सा कस्बा है, जहाँ इनके निवास करने के कारण वो जायसी कहलाया। ‘पद्मावत’ में जायसी ने लिखा भी है- ‘जायस नगर धरम अस्थानू। तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू।’

‘आखिरी कलाम’ में भी जायसी एक स्थान पर कहते हैं-

‘जायस नगर मोर अस्थानू।

नगर क नाँव आदि उदयानू।

तहाँ दिवस दस पहुने आएउँ।

भा बैराग बहुत सुख पाएउँ।।’

पद्मावत की रचना हिजरी संवत् 927 यानि (सन् 1540) में बतायी जाती है। ‘सन नौ सै सत्ताईस अहा। कथा अरंभ बैन कवि कहा।’ इन प्रमाणों के आधार पर यह पता चलता है कि जायस को ही जायसी का स्थायी निवास या निर्माण काल माना जा सकता है. उस समय के लोग ‘उदयानू’ को ‘जायस’ का पुराना नाम बताते हैं और कहते हैं कि जायस का यही पुराना नाम उदयानू था।

यह प्रसिद्ध है कि जायसी बचपन में ही अपने माता-पिता को खो चुके थे और मानिकपुर अपने नाना के घर रहते थे। इनके जन्मकाल को लेकर कोई निश्चित नहीं है अलग-अलग विद्वानों के अनुसार अलग-अलग जन्म स्थान बताया जाता रहा है ये हमेशा साधू फकीरों के वेश में रहा करते थे। कुछ लोग इसे मलिक शेख ममरेज़ और मानिकपुर के शेख अलहदाद की पुत्री की संतान बताते हैं लेकिन इससे प्रामाणिक तथ्य की पुष्टि नहीं होती है। जायसी कुरूप थे और उन्होंने स्वयं को एक आँख का काना कहा है, उनके एक कान से सुनाई भी नहीं पड़ता था। जायसी ने अपने कुरूपता का उल्लेख अपनी रचना पद्मावत में स्वयं ने किया है-

मुहम्मद वाई दिसि तजा, एक स्रवन, एक आँखि।’

जायसी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी कुरूपता की क्षतिपूर्ति अपने प्रभावशाली लेखन रूपी काव्य से पूरी की। यह जायस में भी प्रसिद्ध है कि वे एक बार शेरशाह के दरबार में गए तो शेरशाह उनके चेहरे की कुरूपता को देख कर हंस पड़ा तो जायसी ने बड़े ही शान्त भाव और सहजता से शेरशाह से पूछा ‘मोहिंका हँसेसि, कि कोहरहि’ अर्थात् तू मुझ पर हँसा या उस कुम्हार (ईश्वर) पर जिसने यह कुरूपता गढ़ी। इस बात को सुनकर शेरशाह सबके सामने लज्जित हुआ और उनसे माफी मांगी। कुछ किवदंतियां है कि जायसी शेरशाह के दरबार में नहीं गये बल्कि शेरशाह ही जायसी से मिलने स्वयं उनके पास आए थे। इसी से कवि जायसी के प्रभावशाली व्यक्तित्व का अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह इतना प्रतिभाशाली, विनम्र और वाक्य चातुर्य से परिपूर्ण था।

जायसी का जन्म आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काजी नसरूद्दीन हुसैन जायसी जिन्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी उनके अनुसार 870 हिजरी यानी 1464 ई. और उनकी मृत्यु 4 रषब 949 हिजरी यानि (1542 ई.) स्वीकार किया है। कहा जाता है, कि जीवन के अंतिम दिनों में अमेठी से दो किलोमीटर दूर एक जंगल में रहते थे और अमेठी राजघराने में इनका बहुत मान था, इसलिए इनकी मृत्यु स्थान अमेठी को ही माना जाता है।

जायसी की सूफी संत परम्परा को लेकर अलग-अलग संकेत देखने को मिलता है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी को सूफी फकीर शेख मोहिदी (मुहीउदीन) के शिष्य बताते हैं जबकि कुछ लोग सैयद अशरफ़ जहाँगीर को जायसी का गुरू मानते हैं। ‘चित्ररेखा’ पुस्तक की पंक्तियों में कालपी वाले मुहीउद्दीन महँदी को जायसी का गुरु कहा गया है-

‘महँदी गुरू सेख बुरहानू। कालपि नगर तेहिंक अस्थानू।

सो मोरा गुरू तिन्ह हौ चेला। धोबा पाप-पानि सिर मेला।।’

जायसी एक ऐसे सच्चे सूफी साधक थे जिन्होंने प्रेम का ही नहीं बल्कि वर्ग, वर्ण, नस्ल, धर्म, सम्प्रदायगत भेदों से ऊपर मनुष्यता और साधारण जन का पैरोकार इन्सान माना जाता है। जिस तरह से तुलसी को लोकनायक कवि कहा जाता है उसी तरह जायसी भी अपनी जमीन, अपनी मिट्टी, अपने अंचल के मन के सहज पारखी कवि थे. साधारण जनमानस की सोच ही उनकी सोच थी या सोच का प्रतिबिम्ब था। जायसी ने ‘पद्मावत’ नामक प्रबन्ध-काव्य की रचना मसनवी शैली में की जो उस समय की सबसे महत्त्वपूर्ण रचनाओं में से एक मानी गयी। उस समय के भारतीय जनमानस के जोड़ का काव्य दूर-दूर तक देखने को नहीं था, तुलसी के रामचरित मानस के अलावा। यह महाकाव्य हिन्दूओं और मुसलमानों दोनों के बीच ‘साधुता’ का परिचय देने वाला आदर्श काव्य माना गया था। जायसी की सूफी काव्य परम्परा पारसी सूफी मसनवियों से प्रभावित होकर भी पूरी तरह से भारतीय थी। ईश्वर वंदना, शाहेवक्त की प्रशंसा, गुरू-वन्दना, आत्म परिचय फिर अपना परिचय यह मसनवियों की विशेषता मानी जाती थी। सूफियों ने तसव्वुफ की उदयभूमि में भी मुल्लावाद के विरोध में साधारण जीवन और निश्छल पे्रम पर ही जोर दिया जिसे जायसी कृत पद्मावत में भी स्पष्ट देखा जा सकता है।

जायसी निजामुद्दीन औलिया की शिष्य परम्परा के कवि है। वह जनमानस के हृदय कवि थे जिन्होंने मुसलमान होकर भी हिन्दू-मुस्लिम समाज और संस्कृतियों का उल्लेख बखूबी से किया। विजयदेवनारायण साही ने अपनी ‘जायसी’ नामक रचना में जायसी को हिन्दी के पहले ‘विधिवत वरिष्ठ कवि’ माना। वे कवि नहीं हैं, बल्कि आत्मसजग कवि हैं। इसी प्रसंग में कबीर और जायसी की तुलनात्मक रूप से तारीफ़ करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जायसी को कबीर से भी बड़ा बता देते हैं जिसका उल्लेख यहाँ इस उद्धरण में समझा जा सकता है-

‘कबीर ने अपनी झाड़ फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का जो प्रयास किया वह अधिकतर चिढ़ानेवाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। ....जायसी ने मुसलमान होकर भी हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।’

जायसी एक खास विचारधारा या परिपाटी के कवि नहीं थे। सूफी काव्य धारा या विश्वास ही उनके काव्यसृजन की प्रतिभा का निर्धारण करते हुए दिखायी देते हैं। प्रबंध-रचना में लिखी गयी उनकी शैली मसनवी-शैली है। एक भारतीय कवि के स्वभाव का समावेशी दृष्टिकोण, उदारता, त्याग एवं उदात्तता का रचनात्मक विवेक जायसी के पद्मावत में देखने को मिलता है। सूफी कवि नैतिक जीवन को ही भक्ति के लिए पर्याप्त समझते और मानते थे। भक्ति के नाम पर कोई आडम्बर जायसी के बीच में कभी बाधक नहीं बना। जायसी की गुरू-परम्परा पर उल्लेख करते हुए वासुदेवशरण अग्रवाल कहते है- ‘जायसी के मन में जो निर्मल भाव थे, वे अकस्मात् किसी एक व्यक्ति के हृदय में उत्पन्न हो गए हों, ऐसी बात नहीं है। वस्तुतः इस प्रकार के मनोभावों की देश में एक पृष्ठभूमि थी, जो उनकी गुरू-परम्परा पर ध्यान देने से समझी जा सकती है. मुसलमानी शासकों ने देश के अनेक भू-भागों पर अधिकार जमाकर राज्य-शक्ति को अपने हाथ में कर लिया था, जिन्होंने जनता के भीतर प्रविष्ट होकर जनता की भाषा में उसी के स्तर पर धर्म का प्रचार किया।’

जायसी लोक जीवन एवं लोकमानस के कवि हैं। उनके प्रबंध-काव्य में लोक जीवन के विविध रंग रूप देखने को मिलते हैं जो पूर्ण रूप से भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में खरे उतरते हैं। उनके काव्य में लोक में प्रचलित तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, विवाह, संस्कार, पर्व, लोक-गीत, लोकगान, लोक-कथाएँ, जन्म-मरण, प्रेम, विवाह, राग-विराग, आभूषण, हाट-बाजार का सौंदर्य, श्रृंगार, सजावट, वेश्याओं का सौंदर्य, शतरंज, चौगान, पनिहारियों का सौंदर्य, भौंरे के रंग, मेंहदी के रंग, होली, दीवाली, बसंत-पंचमी, भूत-प्रेत, अंधविश्वास, अंध-आस्थाएं, जादू-टोना, शकुन-अपशकुन, मुहूर्त-विचार, लग्न-टीका, तीर्थांटन, पेड़-पौधे, नदी-नाले, पशु-पक्षी, जंगल-पठार, युद्ध, स्थापत्य, मैत्री, ईर्ष्या, आदि लोकमन में गहनता से विद्यमान है। एक जगह पद्मावत के मानसरोदक खण्ड के माध्यम से लोकसंस्कार किस तरह चिंता का कारण बनते हैं, इन पंक्तियों के माध्यम से समझा जा सकता है-

‘ए रानी! मन देखु बिचारी। एहि नैहर रहना दिन चारी।

जौ लागे अहै पिता कर राजू। खेलखेलहु जो खेलहु आजू।।

पुनि सासुर हम गवनब काली। कित हम कित यह सरवर पाली।

कित आवा पुनि अपने हाथा। कित मिलि कै खेलव एक साथा।।

सासुननद बोलिन्ह जिउ लेंही। दारून ससुर न निसरै देहीं।।’

जायसी किस तरह लोकव्यवहार और लोकजीवन में रचे बसे थे उन्होंने पद्मावत में जो लोक जीवन का यथार्थ वर्णन किया उसी सन्दर्भ में शिवकुमार मिश्र ‘भक्ति आंदोलन और भक्तिकाव्य’ नामक पुस्तक में लिखते हैं कि ‘लोक जीवन का एक विशिष्ट पहलू लोक की अपनी संस्कृति होती है जिसमें लोक का व्यवहार, उसके आचार मूर्त होते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार और उनसे जुड़ा लोक मन का हर्ष उल्लास और दुख दाह, उसका अंग है। अपने इस प्रबंध-काव्य में जायसी ने इन्हें विशद रूप में आँका और हमारे अपने अनुभव का विषय बनाया है। जन्म, नामकरण, लग्न, विवाह, सुहागरात, भोजन, जेवनार आदि आदि तथा मृत्यु तक के सारे विधान पद्मावत में हैं, अपने पूरे ब्योरों के साथ।’ आगे इसी लोक जीवन से जुड़े प्रसंगों के संदर्भों में वागर्थ में प्रकाशित विजयबहादुर सिंह का लेख ‘जायसी का सौंदर्यबोध’ उल्लेखनीय है कि ‘जायसी के ‘पद्मावत’ में जो बात मुझे खींचती है, वह है उनके जैसा लोकजीवन का चित्रण तुलसी में भी नहीं है। उसमें भी अवध का जीवंत किसानी जीवन। तुलसी ने यह सब जरूरत भर किया है। पर जायसी उसे एक प्रधान जीवनानुभूति के रूप में व्यक्त करते हैं। इसलिए वे षड्ऋतु वर्णन के साथ-साथ लोक की ‘बारहमासा’ वाली परम्परा को भी स्थान देते हैं।’

‘पद्मावत’ एक प्रेम काव्य है। सूफी कवि प्रेम को ही ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे। सूफी साधक विरह को ही पे्रम की कसौटी मानते आये हैं। जिस तरह जायसी ने ‘पद्मावत’ में पद्मावती रूपी ईश्वर के पे्रम में रत्नसेन रूपी साधक या भक्त को पे्रम में मतवाला दिखाया गया है यहां परमात्मा रूपी ईश्वर के रूप में पद्मावती या स्त्री तथा दूसरी तरफ आत्मा रूपी रत्नसेन पुरूष को एक दूसरे को एक दूसरे के साथ किस तरह जायसी अपने काव्य में उल्लेख करते हैं जो किसी से छिपता नहीं है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जायसी ग्रंथावली में चार प्रकार के पे्रम की चर्चा करते हैं, पहला पे्रम वह होता है जो विवाहोपरान्त उत्पन्न होता है, जैसे राम और सीता का। दूसरा प्रेम वह होता है, जिसमें प्रेमी-पे्रमिका किसी उपवन या सुरम्य जगह पर मिलते है और पे्रम हो जाता है, जैसे दुष्यन्त और शकुन्तला का। तीसरा पे्रम वह होता है, जिसकी शुरुआत राजाओं के अंतःपुर में होती है और चौथा पे्रम वह होता है जिसको स्वप्न-दर्शन, चित्र-दर्शन, गुण-श्रवण के बाद मन में उदय होता है। और जायसी का पे्रम भी चौथे प्रकार के प्रेम के रूप में इस प्रबंध काव्य में देखने को मिलता है।

जायसी इस मसनवी शैली के प्रेमाख्यानक काव्य को लौकिक प्रेम को अलौकिक बनाया है। इस प्रेम में पे्रमी को परमात्मा के रूप में देखता है, उसे पाने के लिए चाहे लाख कष्ट ही क्यों न सहना पड़े वह उसे सहने के लिए तैयार रहता है। जायसी का प्रेम भक्ति का नहीं, पूरी मनुष्य जाति का है। जायसी सम्पूर्ण समाज में प्रेम की आग जगाना चाहते थे वह भी धर्म धरातल पर नहीं मनुष्यता के धरातल पर। उस समय की मांग ही हिन्दू-मुस्लिमों के बीच पे्रम की स्थापना करना। वह कहते हैं-

‘मानुष प्रेम भयहु बैकुंठी, नाहित कार छार भई मूँठी।-

अर्थात् मनुष्य का प्रेम ही स्वर्गीय तत्त्व है. इससे बढ़कर दुनिया में कुछ नहीं है वह ईश्वर के प्रति प्रेम पर जोर नहीं देता और न ही उसे ‘बैकुंठी’ कहता है। जायसी पे्रम को सम्पूर्ण मानवीय धरातल पर देखते हैं उसे सम्पूर्ण समाज का हिस्सा बनाते हैं। जायसी के मर्मज्ञ अनुवादक-व्याख्याता शिरेफ़ ने जायसी के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा है- ‘जायसी सबसे पहले कवि हैं और पे्रम की कहानी ही उनका प्रमुख वक्तव्य है।’ आगे जायसी पद्मावत में पे्रम की महत्ता की घोषणा बार-बार करते हुए देखे जा सकते हैं. प्रेम के इस महत्त्व-स्मरण से जायसी अपने लक्ष्य को पहचानते हुए कहते हैं-

‘तीन लोक चौदह खण्ड सबै परै मोहिं सूझि।

पे्रम छाँड़ि नहिं लोन किछु जो देखा मन बूझि।।’

‘पद्मावत’ एक सूफी कवि द्वारा लिखा गया प्रेमाख्यानक महाकाव्य है जिसमें इश्क-मजाजी में इश्क-हकीकी अर्थात् लौकिक से अलौकिक प्रेम की व्यंजना की गयी है। जायसी का प्रेम आध्यात्मिक प्रेम के निकट ठहरता हुआ दिखायी देता है। जिस तरह से जायसी ने अपने पे्रम चित्रण में भारतीय और फ़ारसी प्रभाव दोनों का अच्छा मिश्रण इस महाकाव्य में दिखाया है। जायसी अपने ‘पे्रम की पीर’ को मानवीय तथा लौकिक भूमि पर बड़ी सहृदयता और भावुकता के साथ व्यंजित करते हैं। इनका पे्रमदर्शन एक मौलिक उपलब्धि है। आचार्य शुक्ल पे्रम की महत्ता के सन्दर्भ में ‘त्रिवेणी’ में कहते हैं ‘जायसी ऐकान्तिक प्रेम की गूढ़ता और गम्भीरता के बीच-बीच में जीवन के और अंगों के साथ भी उस पे्रम के सम्पर्क का स्वरूप कुछ दिखाते गये हैं, इससे उनकी प्रेमगाथा पारिवारिक और सामाजिक जीवन से विच्छन होने से बच गयी है। उसमें भावात्मक और व्यवहारात्मक दोनों शैलियों का मेल है। पर है वह प्रेमगाथा ही, पूर्ण जीवनगाथा नहीं। ग्रंथ का पूर्वार्द्व-आधे से अधिक भाग तो पे्रममार्ग के विवरण से ही भरा है...

जायसी के ‘पद्मावत’ में पद्मावती का सौंदर्य औदात्य आभा के साथ देखने को मिलता है और पद्मावती के सौंदर्य को एक अलौकिक और अद्वितीयता के साथ जायसी प्रस्तुत करते हैं। पद्मावती का सौंदर्य ऐन्द्रिय संवेदनात्मक अनुभवों से गुजरता हुआ रूपों, बिम्बों, रूप, रस, गंध, स्पर्श को छूता हुआ लोक से लोकोत्तर की ओर जाता है। पद्मावती के प्रेम सौंदर्य को अलग-अलग लोगों द्वारा अलग रूपों में व्यंजित किया जाता है जैसे हीरामन तोता, पप्रमनि के सौंदर्य का बखान जिस रूप में करता है उस रूप में राघव चितौड़ पहुँचकर अलाउद्दीन के समक्ष पप्रनि के सौंदर्य का बखान नहीं करता। राघव चेतन सौंदर्य वर्णन करते समय कहता है, कि पद्मावती की देह सोने जैसी है, हँसने पर उसके दाँतों से फुलझरी छूटती है। वह आगे कहता है, उसकी नजरें इतनी कामुक हैं कि पुरुष को नागिन की तरह डंस लें और पूरे शरीर में जहर फैला के बैचेनी पैदा कर दें। ‘राजा-सुआ संवाद-खण्ड’ में तोते के द्वारा कही गयी उक्तियाँ -

"उन्नत सूर जस देखिए, चाँद छपै तेहि धूप।

ऐसे सबैं जाहिं छपि पप्रावति के रूप।।"

जायसी के ‘पद्मावत’ में सौंदर्य चित्रण दो स्थलों पर देखने को मिलता है एक ‘नखशिख-खण्ड में’ और दूसरा ‘पद्मावती रूप चर्चा खण्ड’ में। जिसमें एक खण्ड में हीरामन तोता वर्णन करता है तो दूसरे खण्ड में राघव चेतन प्रतिशोध लेने के छल से अलाउद्दीन के समक्ष रूप सौंदर्य को प्रकट करता है।

जायसी के पद्मावती के सौंदर्य में चमक का बार-बार प्रयोग देखने को मिलता है जैसे झलकना, कौंधना, चमकना जैसी प्रतिकात्मक क्रियाएँ बार-बार दिखायी देती है। जायसी पद्मावती के नेत्रों की पुत्तलियों को ‘कालभँवर’ कहते हुए नेत्रों की उपमा ‘सुभर-सरोवर’ से कर देते हैं। पद्मावती को यहाँ मालती कहा जाता है, इसके कैश भौंरे जैसे हैं जब उन कैशों को खोलती है तो पृथ्वी घनी अंधकारमयी हो जाती है। उसकी बोली कोयल जैसी है, उसके वक्ष नारंगी जैसे हैं, और ऐसा लगता है उस पर बैठा भौंरा मानों रसपान कर रहा हो। वह बोलती है तो फूल झड़ते हैं, हंसती हैं तो संसार में उजाला हो जाता है। उसकी गर्दन मोरनी जैसी है और जब पान खाती है तो उसके नाल से पान की लाल लकीर दिखती है। ऐसा सौंदर्य पद्मावती का जायसी के काव्य में देखने को मिलता है।

सूफी कवि प्रेम के मार्ग को ही महत्त्वपूर्ण बताकर जीवन दर्शन के लिए सर्वोच्च मानते हैं। जायसी ‘मसलानामा’ कृति में भी प्रेम के महत्त्व को भी रेखांकित करते हैं। साथ ही अहंकार का नाश सिर्फ प्रेम के माध्यम से ही किया जा सकता है। ‘चित्ररेखा’ रचना जायसी की वृद्धावस्था की रचना है, जिसमें प्रेमकाव्य में समासोक्ति जैसी गंध देखने को मिलती है। ‘अखरावट’ ककहरा शैली पर लिखी गई रचना है। ‘कहरनामा’ में मध्यकालीन संतों की बहुत सी कहानी कही गई है। ‘अखरावट’ में देवनागरी वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर सैद्धांतिक बातों की चर्चा की गई है। जबकि ‘आखिरी कलाम’ में कयामत का वर्णन है। अन्त में पद्मावती में प्रेम का वर्णन किया है जो अपने आप में अद्भूत है।

पिछले दिनों पद्मावती एक बार फिर से भारतीय लोकमानस में चर्चा के केन्द्र में उभरकर सामने आयी। इसका प्रमुख कारण पद्मावती पर आधारित एक फिल्म का निर्माण और उससे जुड़ी राजपूत समाज की तीखी प्रतिक्रिया थी। सवाल उठता है कि पद्मावती इतिहास है या लोकचेतना में लिपटा कोई नैसर्गिक दिव्य सौंदर्य। पद्मावती को लेकर पहला सवाल मेरे जेहन में उसके ऐतिहासिक संदर्भों से टकराता है। फिल्म ‘पद्मावती’ को कुछ समीक्षक सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी की रचना ‘पद्मावत’ पर आधारित मानते हैं। जायसी, जो कि सूफी कवि थे, उत्तर प्रदेश के अमेठी के आसपास रहते थे। अवधी भाषा में लिखते थे। मूलतः सूफी मत के साधक थे और सूफी साधना के माध्यम से इस्लाम को भारतीय जनमानस से जोड़ना चाहते थे। इसी दौर में तलवार के दम पर इस्लाम के फैलाने की बजाय रोमांटिक सूक्ष्म प्रेम साधना के जरिए इस्लाम की पैठ बनाने के ख्वाहिश मंद थे। इसके लिए हिन्दू लोक-जीवन में मौजूद कथाओं में सूफी रंगत के सहारे अपने अपने उद्देश्य को साधते थे। ‘पद्मावत’ ग्रथ की नायिका खुदा की प्रतीक है। जिसे पाने के लिए साधक को इश्क-मिजाजी से इश्क-हकीकी जैसी अवस्थाओं के रहस्यवाद से गुजरना पड़ता है। हिंदी के विद्वान आलोचक इसे अन्योक्ति काव्य के रूप में व्याख्यायित करते हैं। पद्मावत, राजा रत्नसेन की पूर्व पत्नी नागमती, राघव-चेतन, गोरा-बादल, अलाऊद्दीन खिलजी आदि पात्र इस ग्रंथ की कथा-योजना में शामिल हैं। ग्रंथ की कथावस्तु लोक-जीवन में उपलब्ध चित्तौड़ की महारानी पद्मावती के इर्द-गिर्द घूमती है। लोगों का मत है कि पद्मावत या रानी पप्रिनी की कहानी दरअसल जायसी के पद्मावत से निकलकर लोकगाथाओं से होते हुए किले, मोहल्लों में रच-बस गयी। जबकि सूफी परम्परा के अध्येता मानते हैं कि जायसी ने लोक-परम्परा में मौजूद रानी पप्रिनी की शौर्य-गाथा को अपने ग्रंथ का आधार बनाया। जायसी अवधी के कवि थे. अवधी भाषा में लिखी गई ‘पद्मावत’ से चित्तौड़ के लोक जीवन में रानी पप्रिनी के रचने-बसने की कल्पना, तर्क से परे है क्योंकि भाव-भाषा के स्तर पर चित्तौड़ राजपूतानी शान का ऐतिहासिक केन्द्र रहा है और राजस्थानी भाषा बोलने वाले लोगों पर अवधी की किसी रचना का इतना अधिक प्रभाव अखरता है। स्पष्ट होता है कि रानी पप्रिनी की जौहर-गाथा लोक-जीवन में पहले से मौजूद थी जिसे सूफी कवि जायसी ने इस्लाम के भीतर मौजूद ‘सूफी मत’ को फैलाने में इस्तेमाल किया है।

पद्मावत को लेकर कुछ इतिहासकारों की शोध-दृष्टि बेहद अंधकारमय और उलझी हुई है। 1540 के आसपास लिखी गई पद्मावत से लगभग 200 साल पहले 1303 के आसपास दिल्ली के सुल्तान अलाऊद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला किया। भयंकर युद्ध में चित्तौड़ की हार हुईं। हारने वाला चित्तौड़ का राजा कौन था? इतिहासकार - चुप...! क्यों? क्योंकि जियाऊद्दीन बर्नी ने उसका नाम नहीं बताया। अगर बर्नी ने नहीं बताया तो भी चित्तौड़ में हारने वाला कोई राजा तो जरूर था। यह उतना ही सच है जितना आप अपने दादाजी के दादाजी के दादाजी का नाम बेशक न जानते हों लेकिन वे थे जरूर। यह जानना भी रोचक है कि ऐतिहासिक सत्य की मर्मानुभूति इतिहास लिखने और लिखवाने वाले की दृष्टि में बसती है। हारने वालों को इतिहासकारों ने कोई तवज्जो नहीं दी है। लेकिन अपने वतन की रक्षा के लिए प्राणों को न्यौछावर करने वाले वीर योद्धाओं का इतिहास तत्कालीन समाज से गुजरता हुआ लोकगाथाओं, किंवदंतियों, लोकगीतों, कहावतों में जिंदा रहता है। यह किसी इतिहासकार द्वारा लिखित पुर्जे से अधिक शक्तिशाली और महत्त्वपूर्ण होता हैं यद्यपि इसमें अतिरंजना का पुट इसको अधिक रोचक और जीवंत बनाता है, तो भी यह देश-काल की सीमाओं से परे चला जाता है। व्यापक अर्थों में ऐसे मिथकों का निर्माण करता है जो युगों-युगों तक मानव-चेतना को नयी ऊर्जा देता है। इस अर्थ में मिथक अतिरंजित और किसी हद तक काल्पनिक होकर भी इतिहास से अधिक व्यापक और ताकतवर हो उठता है। देशकाल की सीमाएँ पीछे छूट जाती हैं। पद्मावती या पप्रिनी रानी एक ऐसा ही ऐतिहासिक चरित्र है जिसने देशकाल की सीमाएँ लाँघकर आस्था और सत्ता आप्लावित मिथक का रूप ले लिया है। यद्यपि यह तय है कि सारा मिथक साहित्य इतिहास नहीं हो सकता तब भी मिथकों में, साहित्य में, लोक-चेतना में इतिहास के तत्त्व बिखरे पड़े हैं, इसमें संदेह नहीं होना चाहिए। कहा भी गया है कि इतिहास में डे, डेट, घटना के अलावा कुछ भी सत्य नहीं होता जबकि साहित्य में डे, डेट, घटना से अलग सभी कुछ सत्य होता है। वह अपने समय का दस्तावेज होता है। जिसमें मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ समाहित होती है। युगीन-मूल्य मौजूद रहते हैं। इतिहास अपने मूल चरित्र में तथ्यों के अन्वेषण पर बल देता है, जबकि लोकजीवन में रचा-बसा साहित्य और मिथक व्यापक अर्थों में मानव मन के भीतर घटित सत्य के अधिक निकट होता है। इस रूप में इतिहास-राजाओं के युद्धों का, हारजीत का सिलसिलेवार वर्णन करता है और लोक-गाथाएँ तथा श्रेष्ठ साहित्य-अपने समय के समाज के क्रिया-व्यापार का, रीति-रिवाज का मान्यताओं और जीवन-मूल्यों का सजीव चित्रण होता है। इसलिए लोक-परम्परा से अपनी फिल्मों का कथानक चुनकर उससे व्यवसाय करने वाले कलाकारों को अधिक सजग होकर चलने की अपेक्षा है। आप अपनी फिल्मों में इतिहास की नयी कलात्मक व्याख्याएँ करके लोकमानस को आस्था के स्तर पर विचलित करने का कार्य नहीं कर सकते। नयी पीढ़ी को मल्टी मीडिया के माध्यम से इतिहास और लोक-जीवन का घालमेल कर अपना ‘क्रिएटिड छप्र इतिहास’ नहीं परोस सकते।’

कथित इतिहासकारों की दृष्टि का उलझाव एवं भटकाव इतना विकट है कि उन्होंने स्वयं तो इस संदर्भ में अपेक्षित रिसर्च की ही नहीं, जो उपलब्ध तथ्य, साक्ष्य, सूत्र-किलों, मंदिरों, साहित्य या लोक-गाथाओं में बिखरे पड़े थे उन्हें भी सिरे से नकार दिया। यहाँ तक कि पद्मावती और उनसे जुड़े घटनाक्रम को कोरी कल्पना की बकवास घोषित कर दिया। हैरानी होती है कि एक ओर तो इतिहासकार प्राचीन भारत के संदर्भ में अपनी रिसर्च को दमदार और फलदायी बताते हुए उपलब्ध साहित्य के सूत्रों का उपयोग कर कथित रूप से प्राचीन भारत के जीवन-चिंतन को, हिंसा प्रेरित प्रमाणित करने के लिए आतुर हैं। भारतीय चिंतन के चरम-मूल्य ‘अहिंसा’ को गाँधी का ‘क्रिएटिव मिथक’ घोषित करते हैं और दूसरी ओर चित्तौड़गढ़ के किले, साहित्य, लोक-परम्परा इत्यादि में कोई ऐतिहासिक सूत्र नहीं खोज पाते। यहाँ उल्लेखनीय है कि साहित्य, स्थापत्य, पुरातत्व इत्यादि इतिहास सम्बन्धी शोध के प्रमुख सूत्र माने जाते हैं। यदि टीपू सुल्तान के पास राकेट जैसे हथियार थे जो कि उनसे सम्बन्धित चित्रों से ज्ञात होता है, तो महारानी पप्रिनी के महल, आज भी उपलब्ध जौहर-स्थल, लोक-साहित्य को चित्तौड़ के इतिहास का अंग मानने में भला एतजराज क्यों है? पप्रिनी के सौंदर्य की चर्चा प्रायः भारत भर के हर घर तक चली आयी है। नयी नवेली सुन्दर दुल्हन के ससुराल में आने पर आज भी गाँव-देहात की औरतें उसे पप्रिनी रानी जैसी सुन्दर बताती हैं। दरअसल बात यह है कि विदेशी पैमानों और औजारों से इतिहास की मरम्मत करने वाले विचारकों का मूल मंतव्य भारतीय मन से जुड़ता ही नहीं है। सोलह हजार वीरांगनाओं के साथ इतिहास का सबसे बड़ा जौहर करने वाली पद्मावती को आत्मदाह या पति वियोग में विलाप करके दम तोड़ती औरत के रूप में व्याख्यायित करते हैं। स्त्री-स्वाभिमान, नारी के सतीत्व का सम्मान, प्राण देकर भी पति के प्रति एकनिष्ठता का प्रण निभाना, राष्ट्र के ऊपर पहले अपने वीर योद्धा पति की कुर्बानी, फिर गोरा-बादल जैसे वीर सैनिकों का युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त करना और नारी अस्मिता की रक्षा के लिए स्वयं भी जिंदा अग्नि-स्नान कर लेना पश्चिमी दृष्टि-धारक इतिहासकारों की समझ से परे की बात है। यह स्पष्ट रूप से कथित बुद्धिजीवियों के आम जनमानस के निकट हुए होने की घटना है या जनता द्वारा विदेशी मानसिकता से लिखे गए अपने पुरखों की परम्पराओं, इतिहास और दास्तानों को नकार देने की बात है।

कहते हैं कि ‘मदर इंडिया’ फिल्म को ‘आस्कर’ नहीं मिलने का एक कारण यह था कि ज्यूरी के एक सदस्य को यह समझ नहीं आया कि क्यों नायक के घर वापिस न आने की स्थिति में नायिका (राधा) ने विलेन के शादी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। जबकि विलेन उसके दो बेटों की जिम्मेदारी उठाने को तैयार था। जरा सोचिए अगर नायिका ने विलेन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता तो वह भारतीय माँ अर्थात् ‘मदर इंडिया’ के त्याग-तपस्या-बलिदान वाले चरित्र से कितनी दूर निकल गयी होती।

दरअसल ‘पद्मावती’ फिल्म के इस विवाद के बहाने से इतिहास और परम्पराओं की उचित व्याख्या तथा उन पर भारतीय दृष्टि से अनुसंधान करने की आवश्यकता स्पष्ट हुई है। संजय लीला भंसाली जैसे फिल्मों से जुड़े कलाकारों, व्यावसायियों को कलात्मक पुनर्सृजन का अधिकार तो है। लेकिन उन्हें समझना होगा कि यह प्रेम-सौंदर्य से भरी-स्त्री-पुरुष संबंधों की एक और कलात्मक प्रस्तुति या रोमांटिक फेंटेसी नहीं है, बल्कि इतिहास से आगे चलकर जन-मन में रच-बस गए आस्था, विश्वास, श्रद्धा, वीरता और उत्सर्ग जैसे मूल्यों की ड्डोत-वाहिनी, चित्तौड़ की पूज्य महारानी पप्रिनी की जौहर-गाथा है जिसे न तो 500 करोड़ या 1000 करोड़ के नफे-नुकसान के व्यवसाय से ही समझा जा सकता है और न ही ‘जिसे पसंद नहीं हो, वह न देखे’ जैसे बचकानी तर्कबाजी से। जिस तरह से ‘पद्मावत’ फिल्म और उसके निर्देशन पर स्त्री के वस्तुकरण और बाजारीकरण के साथ-साथ जौहर और सामंती-मूल्यों के गुणगान का मंडन के आरोपों का स्वर तीखा और आक्रोशपूर्ण था। इन आरोपों में जो उस समय में देखने को मिला वह एक ओर तो भारतीय राजनीति में जातियों को लेकर छिड़े संघर्ष और फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर का निर्देशन को लिखे गए पत्र। जिसमें स्त्री के वस्तुकरण के आरोप लगाये गये तथा यह भी कहा गया कि जिंदगी यौनिक पवित्रता या अपवित्रता से बढ़कर होती है अब चाहे वो बलात् यौनिकता का ही प्रश्न क्यों न हो? जिंदगी पति की मृत्यु और बलात् यौनिकता के बाद भी चलती ही रहती है चाहे वो धीमी या कष्टों के साथ ही क्यों नहीं, बल्कि चलती रहती है? वह समाप्त नहीं होती। यौन संबंधों में पुरुष के लिए जितना देह सुख आत्महित की संतुष्टि का विषय होता है, उतना ही स्त्री के लिए भी होता है। भले ही उसकी आत्म-संतुष्टि वह व्यक्त कर नहीं पाये क्योंकि हमेशा से पुरुष की काम-इच्छाओं को चुनने का अधिकार स्वयं पुरुष का ही रहा है। इसी दृष्टिकोण से देखे तो ‘षड्ऋतु वर्णन खंड’ और ‘पद्मावती रत्नसेन भेंट’ में यौन क्षेत्र में पुरुष सत्ता के वर्चस्व की परम्परा में एक हस्तक्षेप है। जिसका उल्लेख इतिहास मनुष्य की नैतिकता और सामाजिक दृष्टिकोण के जरिये वैचारिक परिप्रेक्ष्य में यह सभी तथ्यों को ‘पद्मावत’ महाकाव्य में पहले से भी देखा जा सकता है।

भारतीय चिंतन और मेधा तो आस्था, विश्वास, अध्यात्म की यात्रा है। जब तक कथित इतिहासकारों और प्रोगे्रसिव कलाकारों को खिलजी ने किस राजा को हराकर चित्तौड़ जीता? जैसे प्राथमिक-बुनियादी सवालों के जवाब नहीं मिलते तब तक तो पप्रिनी की जौहर-गाथा से संबंधित अहिंसक जन मानस की आस्था और विश्वास से हिंसक छेड़खानी नहीं करनी चाहिए।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मलिक मोहम्मद जायसी कृत ‘पद्मावत’ प्रबंध महाकाव्य एक प्रतीकात्मक कालजयी रचना है जो मध्यकाल का एक श्रेष्ठ सृजन है। यह शुद्ध अवधी भाषा में रचित है. जायसी के पहले के कवियों ने पांच-पांच चौपाइयों (अर्द्धालियों) के पीछे एक दोहे का क्रम रखा है पर जायसी ने अपनी रचना में सात-चौपाइयों के पीछे एक दोहे का क्रम रखा. यही क्रम का अनुकरण उसमान ने भी अपनी ‘चित्रावली’ जैसी रचनाओं में रखा है। पद्मावत में नगर वर्णन, प्रकृति वर्णन, हठयोग, कुंडलिनी योग, रसायन साधना, षड्ट्टतु वर्णन, बारहमासा वर्णन का भरपूर प्रयोग देखने को मिलता है। पद्मावती में प्रेम के लौकिक स्वरूप को अलौकिक रूप में (इश्क मजाजी से इश्क हकीकी) जिस तरह से दिखाया गया वह उस रचना की सृजनात्मकता का जीवंत रूप है। नागमति के विरह-वर्णन का प्रसंग भी मार्मिक रूप में देखने को मिलता है। ‘मानसरोदक खण्ड’ का वर्णन भी बड़े रोचकता के साथ प्रकट किया है. जिस तरह से प्रेम को ‘मानुष प्रेम भयो बैकुंठी’ के रूप में दिखाकर उन्होंने एक बेजोड़ उदाहरण के रूप में अपने आप को प्रस्तुत किया है। जायसी ने पद्मावत में लोक के हवाले का जिस रूप में भारतीय मुसलमान और हिन्दुओं की संस्कृतियों का रूप प्रस्तुत किया वह अपने आप में अद्भुत है। जायसी प्रेम को ईश्वर प्राप्ति का जिस तरह एकमात्र साधन मानते थे उस तरह का रूप सूफी काव्य ही नहीं बल्कि मध्यकाल के किसी भी कवि की काव्य रचना में देखने को नहीं मिलता है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी को ‘सम्पूर्ण भारतवर्ष का कवि’ कहा था इस रूप में पद्मावत एक अखिल भारतीय कवि की ऐसी महाकाव्यमूलक रचना है जिसके विराट्-व्यापक-वैभवशाली सौंदर्य के चित्र लोकचेतना में रचे बसे हुए हैं। पद्मावत काव्य का यही विशिष्ट रूप उसे हिंदी की महानतम रचना सिद्ध करता है। जिसके कलेवर में मौजूद कालजयी तत्त्व इससे सदैव प्रासंगिक बनाये रखेंगे।


सम्पर्क :एसोसिएट प्रोफेसर
(हिन्दी विभाग)
भगिनी निवेदिता कॉलेज,
दिल्ली विश्वविद्यालय

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रचनाकार: प्राची - जनवरी 2019 : साहित्य पद्मावत : लोकचेतना में लिपटा दिव्य सौंदर्य - डॉ. राज भारद्वाज
प्राची - जनवरी 2019 : साहित्य पद्मावत : लोकचेतना में लिपटा दिव्य सौंदर्य - डॉ. राज भारद्वाज
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