इंदर भोले नाथ की कहानी व लघुकथाएँ

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" हरिया"-एक सच्चाई एक बूढ़ी दादी दरवाजे से बाहर आई, और रोते हुए मंगरू से बोली, बेटा तुम्हें लड़का हुआ है। पर बेटा तोहार मेहरारू ब...

"हरिया"-एक सच्चाई

एक बूढ़ी दादी दरवाजे से बाहर आई, और रोते हुए मंगरू से बोली, बेटा तुम्हें लड़का हुआ है। पर बेटा तोहार मेहरारू बसमतिया इस दुनिया से चल बसी, अब इस अभागे का जो है सो तुम्हीं हो। बेचारी इतने सालों से एक औलाद के लिए तरसती रही, इतने सालों बाद भगवान ने उसकी इच्छा पूरी की, तो बेचारी उसकी सकल देखे बिना ही इस दुनिया से चल बसी। बेचारी बड़ी अभागन थी ये कहकर बूढ़ी दादी रोने लगी। ये सब सुनके मंगरू को तो जैसे साँप सूंघ गया, बेचारा पागलों की तरह दहाड़े मार के रोने लगा। और चिल्ला चिल्ला कर ये कह रहा था, हे भगवान तूने ये क्या किया एक दुआ के बदले तूने मेरी पूरी दुनिया छिन्न ली। अगर मुझे पता होता के तूँ मेरी एक दुआ के बदले,मेरी पूरी दुनिया मुझसे छिन्न लेगा तो मैं कभी भी तुझसे औलाद न माँगता। इतने सालों से जिस औलाद के लिए मैं तरस रहा, तूने इतने सालों बाद उसे दिया भी तो उसके बदले मुझसे मेरी पूरी दुनिया छिन्न ली। अब तूँ ही बता मैं क्या करूँ ? मेरी बसमतिया मुझे छोड़कर चली गई ये कह कर चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा।

बीना दूसरी शादी किए ही मंगरू बच्चे को पालने लगा, दिन बीतते गये, मंगरू ने बड़ी मेहनत की उस साल खेतों में अच्छे- ख़ासे फसल हुए, कुछ अनाज अपने लिए रख कर उसने सारे अनाज बेच दिए, उस पैसे से उसने दो जोड़ी बैल खरीद लिए, अपने खेत की बुआई-जुताई करने बाद, दूसरों के खेत भी जोते और बोये, मिले पैसों में से आधा तो वो बैलों पे खर्च कर देता,  ताकि उनकी सेहत बनी रहे, तभी तो वो ज़्यादा से ज़्यादा खेत जुटाई कर पाएँगे, और आधा पैसा बचा के रखता,खाने की कमी तो थी नहीं, घर में अनाज भरा पड़ा था, 

दिन बीतते गये दूसरे साल भी अच्छी फसल हुई, अपने लिए कुछ अनाज रख कर उसने सारे अनाज बेंच दिए, मन्गरु बड़ा खुश था, काफ़ी पैसे उसने जमा कर लिए थे। सोचता काश ये अच्छे दिन देखने के लिए मेरी बासमतिया जिंदा होती, फिर मन ही मन कहता चलो जो हुआ सो हुआ,जो नहीं है उसके याद में रोने से क्या फ़ायदा, 

मंगरू के दिल में अपने बेटे "हरिया" के लिए काफ़ी अरमान थे, गांव वालों से कहता मैं तो अनपढ़-गंवार रह गया, लेकिन अपने बेटे "हरिया" को मैं एक काबिल इंसान बनाउँगा पढ़ा लिखा कर। खूब पढ़ाउँगा मैं उसे, जो ग़रीबी के दिन मैंने देखे हैं वो नहीं देखेगा,

लेकिन मंगरू के अरमान तब टूट गये जब "हरिया" 6 साल का हुआ, क्योंकि वो और बच्चों की तरह नहीं था, वो न ही किसी बच्चे के साथ खेलता, ना किसी से बात करता, बस चुपचाप गुमसुम सा रहता, ना खुद ख़ाता ना नहाता सारा कुछ मंगरू को ही करना पड़ता, बस यही दुख मंगरू को खाए जा रही था।  के मेरे बाद इसका क्या होगा, मैं कब तक जिंदा रहूँगा और इसकी देख भाल करता रहूँगा। कितने अरमान सजाए थे, मैंने इसके लिए। कभी खुद को कोसता तो कभी भगवान को बुरा भला कहता,

हे भगवान ये तूने क्या किया, इतने सालों बाद तूने एक औलाद दी, उसके बदले मेरी पत्नी मुझसे छीन ली, इसके बाद भी मैंने दिल पे पत्थर रख लिया, ये सोचकर के तूने औलाद तो दी, लेकिन किस काम की ऐसी औलाद, इससे अच्छा था के तू मुझे निर्वंश ही रखता, अरे मैं कब तक जीता रहूँगा इसकी देख भाल के लिए, मेरे मरने के बाद क्या होगा इसका कौन इसकी देख भाल करेगा, बस यही चिंता मंगरू को खाए जा रही थी, न ही खेती में उसका मन लगता, ना किसी काम में!

दिन बीतते गये, मंगरू जब उन्हीं बच्चों को देखता जो हरिया से उम्र में छोटे थे, और विद्यालय में पढ़ने जाया करते थे। ये देख हरिया और टूट जाता और मन ही मन कहता काश मेरा हरिया भी इनकी तरह होता, तो कितना अच्छा होता, हे भगवान तूने मेरे ही साथ ऐसा क्यों किया। और फिर खुद को कोसता और भगवान को बुरा भला कहता।

हरिया अब 14 साल का हो गया था। लेकिन सिर्फ़ उम्र से, बाकी दिमाग़ से वो ५-६ साल का बच्चा ही था, एक दिन अचानक मंगरू की तबीयत खराब हुई, और वो भी हरिया को इस दुनिया में अकेला छोड़ चल बसा,

हरिया को इतनी समझ तो थी नहीं वो क्या करता, पड़ोसियों ने जैसे-तैसे इंतेजाम कर लाश को श्मशान ले जाकर जलाया। मरने के बाद जो विधि होती है वो चलता रहा, ९वें दिन एक पड़ोसी हरिया को लेकर पंडित जी के पास गया, और बोला पंडित जी कल दसवाँ है (जिस दिन पिंड दान होता है) उ दान का समान लिख देते का-का दान होता है।

फिर क्या था, पंडित जी ने लंबा से सामग्रियों का चिट्ठा पकड़ा दिया उन्हें। और कहा के ईमा जवन-जवन लिखा है उ सब लाना तभी मन्गरुवा के आत्मा को शांति मिलेगा नहीं तो उसकी आत्मा भटकती रहेगी।

पैसे तो थे नहीं अब इसलिए पड़ोसी हरिया को लेकर लाला के पास गया, और जो थोड़ा बहुत खेत था लाला के पास गिरवी रख के पैसे लाया। दान का सारा समान खरीद लाए जो भी अक्कड़म-बक्कड़म पंडित जी ने लिखा था।

पंडित जी ने आते ही पूछा, हाँ भाई सारा समान लाए हो न दान वाला जवन-जवन मैंने लिखा था। हाँ पंडित जी हम उ सब समान लाया हूँ, जवन-जवन आप लिखे रहें, पड़ोसी ने कहा। पंडित जी बैठ गये पूजा पर, बैठते ही अरे उ दूब (एक प्रकार की घास,जिसे कुश भी कहते हैं पिंड दान के लिए अति-उत्तम आवश्यकता होती है उसकी) नहीं लाए क्या। तभी पड़ोसी ने हरिया से कहा के, जा खेत से दूब लेके आ। और हाँ देखना साफ-सुथरा हो गंदा-वन्दा न हो.....

हरिया चला गया खेत में दूब लाने, उसने एक गठर डूब काट लिए, खेत से दूब लेकर आ रहा था। तभी उसे रास्ते में एक गढ़े में मरी हुई गाय दिखी जो किसी ने फेंक रखी थी, अब हरिया ठहरा मन्द-बुद्धी, सोचा गाय बड़ी कमजोर हो गई है, शायद इसने कुछ खाया नहीं होगा। घास का गठर उसके सामने रख वहीं बैठ गया।

उधर पंडित जी गुस्से से आग बबूला हो रहे थे, गालियाँ दिए जा रहे थे। न जाने कहाँ जाके मर गया ससुरा, अबे तू क्या खड़ा-खड़ा मेरा मुँह देख रहा है, जाके देख कहाँ मर गया वो। गरजते हुए पंडित जी ने पड़ोसी को बोला.......

पड़ोसी भागता हुआ खेतों की तरफ निकल पड़ा, देखा के हरिया एक गढ़े में मरी हुई गाय के पास, घास का गठर रख के बैठा हुआ है।

तूँ यहाँ क्या कर रहा है रे हरिया बैठ के, उधर पंडित जी कब से बैठे हैं, चल जल्दी दूब लेके। दूब और हरिया को लेकर पड़ोसी पंडित जी के पास आया, पंडित जी हरिया को देखते ही, इतना देर से का कर रहा था रे हरामखोर कहाँ मर रहा था अब तक। उ पंडित जी गैया को घास खिला रहा था, हरिया ने कहा। क्या..... हम इहा पूजा पे बैठा तुम्हरा इंतजार कर रहा हूँ और तुम उँहा गाय को घास खिला रहे हो...... तभी पड़ोसी ने कहा" उ भी मरी हुई गाय को पंडित जी.....अब तो पंडित जी का पारा और गरम हो गया। क्या........... अरे हरामखोर मरी हुई गाय कभी घास खाती है रे.......जो तूँ उका खिला रहा था।

पंडित जी के मुँह से निकला ये शब्द न जाने कैसे हरिया के दिमाग़ की बत्ती जला दी........

तभी हरिया ने चिल्ला कर के पंडित जी से कहा, जब मरल (मरी हुई) गैया घास नाही खाए सकत, फिर हमर मरल बाबू ई सब दान का समान कईसे ले जायेगा।

जैसे ही पंडित जी ने हरिया के मुँह से ये शब्द सुना, उनके पैरों तले ज़मीन खिसकने लगी। फिर क्या था, पंडित जी ने गाव वालों से कहा अरे ई मूर्ख का बकवास किए जा रहा है, और तुम लोग खड़े-खड़े सुन रहे हो। अरे ई पागल को मार के भागाओ इसे यहाँ से वरना अनर्थ हो जाएगा.....अरे ई तो पागल है तुम लोग तो सही हो मार के भगाओ इसे गाँव से।

फिर क्या था गाँव वालों ने पंडित जी की बात सुनी नहीं के हरिया को गाँव से मार-मार के बाहर निकल दिया। ये कह के, तू पागल हो गया है......अगर तू गाँव में रहा तो गाँव का सत्यानाश हो जाएगा.....................!!

आज भी न जाने कितने हरिया गाँव से निकाल दिए जाते हैं, या फिर उनकी आवाज़ दफ़न कर दी जाती है।  जब भी खोखले रिवाज़ों के प्रति आवाज़ उठाते हैं...........................

मरे हुए की आत्म्शान्ति के लिए सर्वोत्तम दान बस पिंड दान ही है...........

और बाकी के दान तो अपनी इच्छानुसार है.......!!

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"वो रिक्शा वाला"

"साहेब मुझे छोड़ दो साहेब"
"साहेब मुझे छोड़ दो साहेब" बार-बार यही फरियाद करता रहा, वो रिक्शा वाला थानेदार "साहेब" से...........
"साहेब मुझे छोड़ दो साहेब" मैं बहुत ही ग़रीब आदमी हूँ "साहेब" माँ-बाप ने जैसे-तैसे क़र्ज़ लेकर मुझे पढ़ाया। ताकि मुझे कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाए, और मैं घर की ज़िम्मेदारी संभाल सकूँ। पढ़ाई पूरी कर के बहुत से ऑफिस की खाक छानी साहेब पर हर जगह से मुझे निकल दिया गया। ये कह कर के "हमें अनुभवी लोगों की ज़रूरत है" फ्रेशर की नहीं...... बड़ी मेहनत करके साहब मैंने इंटर की परीक्षा फ़र्स्ट डिवीजन से पास किया था........आगे भी पढ़ना चाहता था, पर क्या करें साहेब क़र्ज़ का बोझ ज़्यादा हो गया था। इसलिए पढ़ाई छोड़ नौकरी की तलाश में लग गया।
बहुत कोशिश की साहेब पर मुझे कहीं नौकरी नहीं मिली, हर ऑफिस हर जगह से मायूसी मिली। पिताजी की तबीयत भी ठीक नहीं रहती आज-कल, इसलिए नौकरी तलाशनी छोड़, आज ही किसी से किराए पर रिक्शा लेकर चला रहा था साहेब। मैं तो अपनी साइड था "साहेब" कार वाले "बाबूजी" ही ग़लत साइड से कार लेकर आ रहे थें।
अभी उसने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी की..........."थानेदार साहेब" ने फिर दो थप्पड़ उसके गाल पे जड़ दिया। साले बोलता है उसकी ग़लती थी, पता है तुझे १९ लाख की गाड़ी थी सिंह साहब की,अभी लिए हुए महीना भी नहीं हुआ, और तूने स्क्रोच कर दिया। लाखों का खर्चा आएगा, कौन भरेगा तेरा बाप.........
पर साहब मेरी गलती थोड़ी न थी ममम मैं तो..........! चुप साले वरना अभी अंदर डाल दूँगा......पड़ा रहेगा २-४ दिनों तक
चल ५०० रुपया निकाल छोड़ दूँगा तुझे, वरना केस बना के अंदर डाल दूँगा..........
साहेब मैं ५०० रुपया कहाँ से दूँगा "साहेब", सुबह से बस ये २० रुपये ही तो कमाए थे अब तक। वो भी जिनका रिक्शा है उनको पूरे दिन का किराया २० रुपया देना पड़ेगा। ऊपर से कार वाले बाबूजी ने धक्का मार दिया....उससे रिक्शे के आगे वाले पहिए का रिंग टूट गया है साहेब। हैंडल भी टूट गया है, रिक्शे का परदा भी फट गया है....... "साहेब" १००० रुपया तो उसी में खर्च हो जाएगा, "साहेब"........मैं ५०० रुपया कहाँ से दूँगा "साहेब"..... "साहेब मुझे छोड़ दो साहेब".......
साले तू ऐसे नहीं मानेगा..... पांडे......जी साहेब......बंद कर दे साले को अंदर जब तक पैसे ना दे छोड़ना नहीं...............
और "थानेदार साहेब" बड़े गर्व से अपना कैप पहन के बाहर चले गये..............!!

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वो बूढ़ी औरत…..

रोज सुबह ड्यूटी पे जाना रोज शाम लौट के रूम पे आना,ये रूटीन सा बन गया था, मोहन के लिये। हालाँकि रूम से फैक्ट्री ज़्यादा दूर नहीं था, तकरीबन१०-१५ मिनट का रास्ता है। मोहन उत्तर प्रदेश का रहने वाला है,करीब २ सालों से यहाँ (नोएडा) में एक प्राइवेट फैक्ट्री में काम कर रहा है। रोज सुबह ड्यूटी पे जाना,शाम को लौट के कमरे पे आना ऐसे ही चल रहा था।

एक शाम जब मोहन ड्यूटी से ऑफ हो के जैसे ही फैक्ट्री से निकला कमरे पे जाने को,देखा बाहर तो जोरों की बारिश लगी हुई है। १०-१५ मिनट इंतेजार करने के बावजूद भी जब बारिश न रुकी,तो मोहन दौड़ता हुआ कमरे पे जाने लगा। तभी उसकी नज़र सड़क के किनारे एक छोटी सी पान की दुकान पे पड़ी,दुकान बंद हो चुकी थी। और उसी दुकान से चिपक के एक बूढ़ी औरत बारिश से बचने के लिये खड़ी थी। फिर भी वो भीग रही थी, और ठंड से कांप रही थी,क्योंकि बारिश के साथ-साथ ठंडी हवा भी चल रही थी। न जाने मोहन के दिमाग़ में क्या ख्याल आया,वो रुका और उस दुकान की तरफ बढ़ने लगा। मोहन ने उस औरत से पूछा….माँ जी कौन हो आप..? और इतनी बारिश में यहाँ क्या कर रही हो ..?
उस बूढ़ी औरत ने कहा…..बेटा,मेरा बेटा और मेरी बहू यहीं रहते हैं,इसी शहर में, शादी के बाद जब से बहू को लेके यहाँ आया तब से न ही गाँव में हम से मिलने आया न ही कोई खबर दी। एकलौता बेटा है मेरा वो, दिल कर रहा था उसे देखने को इसलिए मैं खुद को रोक नहीं पाई और उससे मिलने चली आई। जब उसकी शादी नहीं हुई थी, तब मैं अपने बेटे के साथ एक बार पहले भी आई थी यहाँ। वही लेकर आया था मुझे, कहता था माँ खाना बनाने में दिक्कत होती है,चल तू मेरे साथ ही रहना।
फ़ोन भी किया था मैंने उसको, कि बेटा मैं आ रही हूँ वहाँ तुम्हारे पास। जब मैं वहाँ पहुँची जहाँ वो रहता है, तो देखा कमरे में ताला लगा हुआ है। लोगों से पूछने पर पता चला कि वो बहू को लेकर उसके मायके गया है, बहू की माँ की तबीयत खराब है उसे ही देखने गया है। और बेटा…. जब अपना बेटा ही अपने कमरे में ताला लगा गया है,तो फिर ये अंजान लोग क्या पनाह देंगे मुझे…..!

इतना सुनते ही मोहन के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा…..कैसा बेटा है अपनी माँ को इस हालत में छोड़ सास को देखने गया है। फिर मोहन उस बूढ़ी औरत से बोला…माँजी पास में ही मेरा कमरा है, चलो आप वहीं रह लेना जब तक आप के बेटे और बहू नहीं आ जाते।

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भूख की आग

बहुत पहले की बात है किसी राज्य में एक राजा रहता था। राजा बहुत ही बहादुर, पराक्रमी होने के साथ-साथ घमंडी और दुष्ट प्रवृति का भी था। उसने बहुत से राजाओं को हराकर उनके राज्य पर कब्जा कर लिया। उसके बहादुरी और दुष्टता के किस्से दूर-दूर तक फैला हुआ था। वो किसी भी साधु-महात्मा का कभी सत्कार नहीं करता था,बल्कि उनसे ईर्ष्या करता था।

एक बार उसने किसी राज्य पर आक्रमण किया वहाँ के राजा को बंदी बनाकर उसके राज्य पर कब्जा कर लिया। जीत की खुशी में उसने एक बहुत बड़ा जश्न का आयोजन किया, जिसमें उसने अन्य राज्य के राजाओं,राजकुमारों और बड़े-बड़े उद्योगपति और
व्यापारियों को आमंत्रित किया। उसने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि जश्न में सिर्फ़ उन्हें ही आने दिया जाए जो किसी राज्य के राजा,राजकुमार,उद्योगपति या व्यापारी हो, अन्यथा और किसी को न आने दिया जाए। वरना उसके साथ-साथ कर्मचारियों को भी सज़ा दी जाएगी।

उसी दिन एक महात्मा जो किसी दूर राज्य से चलकर उस राज्य में प्रवेश किए थे। २-३ दिनों से कुछ खाया नहीं था,भूख और प्यास से उनका बुरा हाल था। तभी दूर वो जश्न नज़र आया उन्हें,लंबे-लंबे कदम भरते हुए वो भी उसमें शामिल होने पहुँचे। मगर राजा के कर्मचारियों ने उन्हें,अंदर जाने से मना कर दिया बोले हमारे राजा का हुक्म है कि सिर्फ़ राजा, राजकुमार, उद्योगपतियों और व्यापारियों को ही अंदर जाने दिया जाए। अन्यथा वो उसके साथ-साथ हमें भी सज़ा देंगे। महात्मा ने बड़े अनुनय-विनय किए कर्मचारियों से,मगर वो भी क्या करें उन्हें भी तो हिदायत दी गई थी। महात्मा वापस लौट आएँ, मगर पेट की आग उन्हें मजबूर कर रही थी, भूख की आग अब सहा नहीं जा रहा था। और दूर से पकवान की खुश्बू उन्हें और मजबूर कर रही थी, वहाँ जाने को। दूसरे रास्ते से कर्मचारियों से छुपते-छुपाते वो किसी तरह वहाँ पहुँच गये जहाँ पकवान खिलाया जा रहा था। तभी किसी कर्मचारी ने उन्हें देख लिया और पकड़ के राजा के पास ले गया।

राजा ने उस महात्मा को बड़े ही घृणा भरे दृष्टि से देखते हुए, कहा तुम कैसे महात्मा हो जो थोड़ी सी भूख बर्दाश्त नहीं कर पाए और चोरी से हमारे जश्न में शामिल हो गये। तुम महात्मा नहीं चोर हो, और भी खरी खोटी सुनाते हुए राजा ने महात्मा को बिना खाना खिलाए ही अपने सैनिकों को आदेश दिया कि महात्मा को १०० कोडे लगाकर राज्य से बाहर कर दिया जाए।

बहुत दिनों बाद एक दिन राजा अपने सैनिकों के साथ जंगल में शिकार खेलने गया। घना जंगल दूर-दूर तक फैला हुआ था।
शिकार की तलाश में राजा काफ़ी दूर निकल आया। सैनिक भी कहीं पीछे छूट गये थे, घना जंगल था राजा रास्ता भूल गया और जंगल में भटक गया। काफ़ी कोशिश की राजा ने रास्ता ढूँढने की और अपने सैनिकों से मिलने की मगर नाकामयाब रहा!
जंगल में इधर-उधर भटकते हुए राजा काफ़ी थक गया, भूख और प्यास भी लग गई थी। राजा खाना और पानी की तलाश में भटकता रहा, मगर न ही उसे खाने के लिए फल मिले और न ही जंगल में कोई झरना दिख रहा था जिससे वो अपनी प्यास बुझा सके। बुरा हाल था राजा का एक तो सफर करते-करते थक गया था, ऊपर से भूख और प्यास ने राजा को व्याकुल कर दिया। जंगल में भटकते-भटकते रात होने लगी, तभी कहीं दूर राजा को हल्की सी रोशनी दिखाई दी। लंबे-लंबे कदम भरते हुए राजा रोशनी के पास पहुँचा, एक छोटी सी झोंपड़ी के अंदर दीपक जल रहा था। राजा झोंपड़ी के पास जा के देखा, एक महात्मा जो ध्यान मग्न थें। राजा झोंपड़ी के समीप ही मुँह के बल जमीन पे गिर गया,एक तो थका ऊपर से भूख और प्यास ने राजा को निर्बल बना दिया था। राजा के गिरने की आहट सुन के महात्मा का ध्यान टूटा, बाहर आकर देखा झोंपड़ी के समीप कोई इंसान अधमरा सा मुँह के बल जमीन पर गिरा पड़ा है। महात्मा अंदर से जल लेकर आए और राजा के मुँह पे छींटे मारा, राजा होश में आया और उनके हाथ से जल का पात्र छीन सारा जल एक ही घूँट में पी गया।
महात्मा ने उससे पूछा…. कौन हो आप और इतनी रात गये इस जंगल में क्या कर रहे हो। राजा महात्मा के चरणों में गिरते हुए बोला हे महात्मा पहले आप मुझे कुछ खाना खिलाए मैं भूख से मरा जा रहा हूँ। उसके बाद मैं आपको सारा वृत्तांत बताउँगा। महात्मा ने कहा….पहनावा और कमर की तलवार बता रही है कि आप कहीं के राजा हो, अभी मेरे पास कुछ विशिष्ट तो नहीं है आपको खिलाने के लिए। हाँ ये (एक पात्र जिसमें कुछ फल रखे हुए थे,उसकी तरफ इशारा करते हुए बोले) कुछ फल पड़े हुए हैं जिसे बंदरों ने जूठा कर दिया है, अगर आप चाहे तो…..अभी महात्मा ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी, राजा उठा और फल का पात्र उठा के सारा फल खा गया,पानी पी के वहीं जमीन पर लेट गया। महात्मा ने कहा हे राजन अगर आप चाहो तो झोंपड़ी में विश्राम कर सकते हो। राजा ने का नहीं महात्मा आज मुझे सच्ची भूख उन फलों में और गहरी नींद का एहसास इस जमीन पे हो रहा है। और राजा वहीं जमीन पर सो गया।

सुबह महात्मा ने राजा को उठाते हुए कहा..हे राजन उठो सुबह हो गया, चलो झरने के शीतल जल में स्नान कर के कुछ ताजे फल ख़ा लो। राजा ने जैसे ही आँखें खोली सामने महात्मा का चेहरा देख के हताश सा हो गया और उनके चरण पकड़ के क्षमा माँगने लगा। हे महात्मा क्षमा कर दीजिए हमें, हमने आपके साथ बड़ा ही दुष्ट व्यवहार किया था, हमसे बहुत बड़ा पाप हो था उस दिन हमें क्षमा करें, हे महात्मा। हमने आपको बीना भोजन कराए, और १०० कोडे की सजा देकर अपने राज्य से निकाला था, मैं बहुत बड़ा पापी हूँ, हे महात्मा मुझे क्षमा करें। भूख और प्यास की आग क्या होती है, ये मुझे कल पता चला, मुझे क्षमा करें हे महात्मा, राजा घंटों तक महात्मा के चरणों से लिपटा क्षमा माँगता रहा।
महात्मा ने कहा हे राजन मेरे मन में तुम्हारे लिए कोई द्वेष या क्रोध नहीं है। मैंने तो तुम्हें उसी दिन क्षमा कर दिया था।

महात्मा ने राजा को झरने के शीतल जल में स्नान करा कर कुछ ताजे फल दिए खाने को, राजा फल खा रहा था , तब तक राजा के सैनिक भी राजा को ढूंढते हुए वहाँ पहुँच चुके। राजा ने सैकड़ों बार महात्मा को अपने राज्य चलने को कहा, पर महात्मा ने मना करते हुए कहा… हे राजन आज तो नहीं मगर फिर कभी ज़रूर आऊँगा आपका आतिथ्य स्वीकार करने।
राजा ने महात्मा से विदा लेते हुए अपने किए हुए दुष्ट व्यवहार का फिर से क्षमा माँगा और अपने सैनिकों के साथ अपने राज्य वापस लौट आया।
फिर उसके राज्य के लोगों ने जिस राजा को देखा ये राजा वो राजा नहीं था, जिसमें घमंड और दुष्टता भरा हुआ था। जो साधु-महात्मा का सत्कार नहीं करता और उनसे ईर्ष्या करता था। बल्कि उस राजा को देखा जो नम्रता और अपने प्रजा के साथ अच्छा व्यवहार करता और साधु-महात्माओं का सत्कार और उनकी इज़्ज़त करता।

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: इंदर भोले नाथ की कहानी व लघुकथाएँ
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