अब और नहीं - माह की कविताएँ

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ममता छिब्बर अब और नहीं खत्म होती है दुनिया तो हो जाने दो...... जहां कदर नहीं है लड़की की , ऐसे समाज में उसे मत आने दो .... वो नाइंसाफी जो तब...

ममता छिब्बर

अब और नहीं

खत्म होती है दुनिया तो हो जाने दो......

जहां कदर नहीं है लड़की की ,

ऐसे समाज में उसे मत आने दो ....

वो नाइंसाफी जो तब उसके साथ होगी,

वह अजन्मी कहां समझ पाएगी.....

पर जब कदम कदम पर मिलेगी समाज से ठोकरें,

कब तक बर्दाश्त कर पाएगी ??

बार-बार एक लड़की होने का एहसास उसे कराया जाएगा,

क्योंकि वह एक लड़की है..

बस इसीलिए उसे सताया जाएगा...

सहम जाओ , डर जाओ ....

कोई कुछ भी कहे तुम चुप कर जाओ, बचपन से पाठ उसे पढ़ाया जाएगा..

लड़की हो , लड़की हो , कह कहकर..

हर कदम पर उसे डराया जाएगा ...

जब खुद की ही जिंदगी से परेशान वो हो जाएगी ,

क्या ऐसे हालातों में भी जीना चाहेगी ??

कोसेगी उस दिन को ,

जब इस दुनिया में आई होगी ....

दोषी समझेगीं खुद को ,

उन तमाम ठोकरों के लिए...

जो लड़की होने के नाते उसने इस समाज में खाई होंगी ....

अंदर ही अंदर ,

कहीं ना कहीं ,

वह टूट रही होगी...

हंसने की ,  जीने की,

हर उम्मीद उसकी ,

टूट रही होगी ..............

हार के इस दुनिया से,

एक दिन रुखसत वह हो जाना चाहेगी ....

ऐसे समाज में कौन सी मां अपनी ही कहानी दोहराना चाहेगीं???

---.

नारी

जैसे तैसे जी रही है, अपमान के घूंट पी रही है..

दुनिया को बसाने वाली, दुनिया से दूर हो रही है...

क्यों ऐसा हो रहा है, अपनी ही रचनाकार को खो रहा है..

क्या जीता जागता इंसान सो रहा है?

पुरुष प्रधान समाज की कैसी ये परेशानी है,

जिसे सुलझाने के चलते नारी ही मौत को गले लगा रही है....

कभी सोचा है ऐसा क्या दिया है समाज ने उसको,

जिस कारण वह अपना हर फर्ज निभा रही है..

लड़ें भी तो किसके खिलाफ समझ नहीं पा रही है,

गैरों की भीड़ में खड़े हर जन को अपना पा रही है..

क्या नारी का अबला कहलाना या कदम कदम पर

उसका शोषण ही इस समाज की बलवानता दर्शाता है..

नहीं बढ़ पाएगा आगे बिन नारी के,

जानता है फिर भी ना समझी कर जाता है....

नारी को तो मिटा देगा समाज,

पर क्या खुद बस पाएगा?

ऐसा भी क्या सपना है जो बिन नारी ही साकार हो पाएगा???

द्वारा- ममता छिब्बर "Bakshi M"

देहरादून उत्तराखड़

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बलबीर राणा 'अडिग'

मटई चमोली उत्तराखंड

सम्प्रति भारतीय थल सेना

१.

तन के पहरेदारों की जय

जय बोलो जय हिन्द की वो सबके साझेदार हैं

जय बोलो उन वीरों की जो वतन के पहरेदार हैं

चैन की नींद वतन सोता है जिन वीरों के पहरे में

हर घड़ी के जागरण से भी शिकन नहीं चेहरों में

अमन गीत वो गाते फिरते काष्ठ के उस जीवन में

माँ माटी का तिलक लगाया खाते पीते यौवन में

मोह मात्र, उस क्षितिज की जिसके वे ठेकेदार हैं

जय बोलो उन वीरों की जो वतन के पहरेदार हैं।

देश खुशियों के खातिर जो खून की होली खेलते हैं

सरहद की अग्नि लपटों को सहज सीने पर झेलते हैं

युद्ध समर महायज्ञ में मृत्यु मंत्रों का जाप वो करते

बारूद समिधा की लो में होम अरि मुंडों का धरते

समग्र आहुति देते वे योद्धा तेज जिनकी धार हैं

जय बोलो उन वीरों की जो वतन के पहरेदार हैं।

शीत लहरों की ठिठुरन हो या तपता रेगिस्तान हो

मेघों की बौछारें हो या चीरता बर्फीला तूफान हो

कदम नहीं लखड़ाते जिनके धूल भरी आंधियों मैं

शेर ए हिन्द मस्त मोले रहते हिमखंडी वादियों में

दुर्गम उतुंग हिमालय चौकियों के वे चौकीदार हैं

जय बोलो उन वीरों की जो वतन के पहरेदार हैं।

पुकार त्राहिमाम पर संकट मोचन बन उढ़ आते हैं

अमोघ शास्त्र हैं आफत के झट प्रत्यंचा चढ़ जाते है

निज जीवन अभिलाषा उनकी टंगी रह जाती है

नहीं पता कब देह इनकी तिरंगे पर लिपट जाती है

माँ भारती के इन तपस्वियों को नमन हजार बार है

जय बोलो उन वीरों की जो वतन के पहरेदार हैं।

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2. आशाओं की उमंग

कब उजलेगी दिशाएं कब छंटेगा कुहासा

कुचली हुई शिखाओं की कब जगेगी आशा

कोई जरा बता दे ये कैसे हो रहा

धुंधली तिमिर का तम क्यों बढ़ रहा

अपसय की झालर गहरी हो रही

आकंठ झोपडियों टिमटिमाती लो बुझ रही

कौन दाता इस संदीप्ति को सुला रहा

उगते हुए की जड़ जहर सींच रहा।

इस वतन के हित का अंगार मांगता हूँ

सो रही जवानियों में एक ज्वार मांगता हूँ।

बेचैन हैं हवाएं, चहुँ और हुदंगड़ है

शालीन किश्ती को बवंडर का डर है

मँझदार में है केवट ओझल है किनारा

उछलती लहरों के कुहासे में डूबा एक सितारा

नभ अनल ताप भी रह गया अब बेचारा

किस सुत ज्योति पुंज से दूर होगा अँधेरा।

इस दुर्भिक्षण के लिए एक संग्राम मांगता हूँ

धारा पर भारत की फिर वही पहचान चाहता हूँ।

कुचक्र के पहाड़ से अवरुद्ध है गंग धारा

शिथिल है बलपुंज केसरी का वेग सारा

अग्निस्फुलिंग रज ढेर होने के कगार है

स्वर्ण धरा का यौवन अँधेरे में भटक रहा है

निर्वाक है हिमालय यमुना सहमी हुई है

निस्तब्धता थी निशा, दुपहरी डरी है।

फिर एक विकराल भीमसेन का माँगता हूँ

भ्रष्टाचारियों के जिगर भूचाल माँगता हूँ।

मन की बंधी उमंगें कब पुलकित होगी

अरमान आरजू की बरात कब सजित होगी

दुखिया रातें आशा की किरण खोज रही

विक्रमादित्य की वसुन्धरा कराहने लगी

क्या ब्राह्मण क्या ठाकुर क्या कहार कुर्मी

लक्ष्मी कीचड़ में लिपटी बिलख रही।

गर्त में पड़ी मानवता का उत्थान माँगता हूँ

शासक अभिमन्यु, शिव जैसा तूफान माँगता हूँ।

भर गया है भयंकर भ्रष्ट टॉक्सिन हर रग में

बेचैन है जिन्दगी घर घर में

ठहरी हुई साँस को कौन राह दिखायेगा

गरीब घर का दीप कैसे टिमटिमायेगा

लेकिन राजनीति के इन शकुनी पांसों से

निजात मिलना आसान नहीं लगता

असंख्य दुर्योधनों के संग कुरुक्षेत्र में

कटने का संशय कम नहीं लगता।

जन्म वसुधा हित तुझसे वरदान माँगता हूँ

वासुदेव कृष्ण का फिर अंशदान माँगता हूँ।

३. बॉर्डर के इस पार उस पार

तीक्ष्ण बाज निगाहें गड़ी हैं सीमा के इस पार उस पार

खूनी पंजो के नीचे तड़फ रहा, समदृष्ट जीवन संसार

एक इन्सान ट्रिगर थामे बैठा सीमा रेखा के इस पार

ठीक वैसा इन्सान वहाँ भी बैठा, बॉर्डर के उस पार

प्रकृति रचना पर किसका हक किसका है व्यापार

किसने खींची बर्बर खूनी रेखा, कौन है वो ठेकेदार।

किसान हल चला रहा, बैल जुते हैं इधर भी उधर भी

चहकते चुल-बुल स्कूल दौड़ रहे, इधर भी उधर भी

श्रम में मग्न मजदूर, जीवन दौड़ इधर भी उधर भी

बिलग नहीं हसरतें जीवंतता की इधर भी उधर भी

कोई बताये कौन सी बात, जिससे है यह प्रतिकार

फिर क्यों हर पल मौत का खौफ, बॉर्डर के आर-पार।

कर्म साधना में लीन जिजीविषा दोनों और मस्त मौन है

अचानक गोलों के सोले से, घर उजाड़ने वाला वो कौन है

नित बुझ रहा चिराग किसी घर का, चमन सूना हो रहा

एक तरफ के जनाजे पर, ईद दीवाली का जश्न मन रहा

केवट वो पार लगाने वाला, किसी घर का होगा खेवनहार

क्यों खामोश कबीर जायसी के छंद, बॉर्डर के आर-पार

चली आ रही कल्पों से, इंसानी फनों की वीभत्स फुंफकार

अपने अहम के लिए लील गयी, मनुज को मनुज की हुंकार

एक विधि से सजायी विधाता ने, गढ़ा धरती का सौम्य सोपान

बस एक कृत्रिम रेखा से टूटते रहे, ईशु पीर प्रभु के अरमान

तस्वीर सजाएं जग माता की, पुष्पहार चढ़ा के देखें एक बार

फिर न उठेंगी गिद्ध निगाहें "अडिग", बॉर्डर के इस पार उस पार।

रचना: बलबीर राणा "अडिग"

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सुशील शर्मा

नववर्ष

आगत का स्वागत करें ,गत को विदा सहर्ष।

जीवनक्रम में आ बसा ,सन उन्नीस सुवर्ष।

नए वर्ष की भोर है,सपने नवल किशोर।

धूप की चादर ओढ़ कर,ठण्ड मचाये शोर।

ऊर्जित मन आशा भरे,देखें आगत ओर।

बीते ने जो भी दिया,बांध लिया मन छोर।

अभिनन्दन आह्लाद से ,भौरें गाते गीत।

शुभागमन नव वर्ष का ,आवाहित मन मीत ।

अगहन ,कातिक मास के,चढ़ कर सीने ठण्ड।

सूरज को ठुठरा रही ,सर्दी बड़ी प्रचंड।

ज्योति सुमङ्गल पावनी,नए नवल निष्कर्ष।

खुशियों से पूरित रहे,कल्पवृक्ष ये वर्ष।

सुबह सबेरे की किरण,विभा भोर की ओस।

तन मन पुलकित पुष्प सा, छूटे सब अफसोस।

राधा मन में बस गई, साथ मिले घनश्याम।

नए वर्ष में अब चलो,विचरेंगे ब्रजधाम।

विदा अठारह आज तुम,चले छोड़ मन चित्र।

बहुत दिया तुमने हमें,याद रहोगे मित्र।

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पर्वत करें पुकार

निरभ्र चट्टानों पर अंकित

बिकते हुए हस्ताक्षर

हर संकट के श्वेत पत्र पर

अटका पहाड़ का अस्तित्व

पहाड़ की निर्जन चोटियों पर

ठहरा वक्त रिस रहा है।

पर्वत को खरीद चुके हैं लोग

डायनामाइट से चीथड़े उड़ाते

डम्फरों से पर्वत की लाशें

सड़कों पर बिछाते लोग।

पर्वत की नदियों को

नोचते विकास पथ पर अग्रसर

पुरस्कारों के तमगे पहने मुखौटे।

चुप खड़ा रहता है पहाड़

किसी बूढ़े की तरह

अपनी ही संतानों से लुटता

कलेजे में छुपे मूक दुःखी उदास, अकेला !

उत्तरों से परे हैं पर्वत के सवाल

सियासती मुनाफाखोरी के लिए

नीलामी हो रहें हैं गुलामों से।

बिक रहा है पर्वत एक एक इंच

मर रहीं हैं पहाड़ी सभ्यताएं।

संकट में सदी है

संकट में नदी है

संकट में प्रकृति के अनुभाव हैं।

संकटों के सुरंगों में

टूटा ,बहता रोता पहाड़

बैठा है चिंतातुर।

कविताओं की पगडंडियों पर

सत्ता के यातना शिविर में

कई दर्द भरी आवाजें

जंगलों की ,नदियों की ,पर्वतों की

कोई सुनेगा पुकार।

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सौरभ मिश्रा

कितने आंसू कितने गम कितनी दर्द रवानी लिख दी

हाथों की चंद लकीरों में कितनी और कहानी लिख दी

जिसने देखा हाथ वो बोला जग में सब तेरे अपने हैं

आज नहीं तो कल पूरे होंगे जितने तेरे सपने हैं

स्वयं उजाला चल आएगा अंधियारे पर्दे हटने हैं

जितने थे अब तक थे कांटे अब पगपग पर पुष्प खिलने हैं

तब सोचा उस ईश्वर ने हाथों में बात रूहानी लिख दी

हाथों की चंद लकीरों में कितनी और कहानी लिख दी

अपनों सा कोई गैर हुआ और गैर से कोई खास हुआ

सपने सपने होते हैं यह अब जाकर विश्वास हुआ

स्वयं अंधेरा घेर रहा ऐसा मुझको आभास हुआ

जितनी सुंदर पुष्प हुए सबका शूलों

में वास हुआ

यह सोचा तो लगा कि ईश्वर ने तो खींचातानी लिख दी

हाथों की चंद लकीरों में कितनी और कहानी लिख दी

जो हो जाए होने दो हम तो पग-पग पर गीत बनेंगे

जो हारा हारा कहते थे वह भी हमको स्वयं सुनेंगे

जिनके दिल हम जैसे होंगे वो तो अपने मीत बनेंगे

और सिकंदर जैसे हम बंधन में बोलो कहां रहेंगे

शायद इस कारण ईश्वर ने इक आजाद जवानी लिख दी

हाथों की चंद लकीरों में कितनी और कहानी लिख दी

कितने आंसू कितने गम कितनी दर्द रवानी लिख दी

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लक्ष्मीनारायण गुप्त

जा के पैर फटी बेंवाई

दर्द दिल को संकीर्ण बना देता है

स्वकेन्द्रित कर देता है

बस अपना दुख दिखाई देता है

दूसरे की कराह

सुनाई नहीं देती है

जैसा भूखा आदमी

बेरहम हो जाता है

वैसे ही जिसे महान व्यथा हो

वह दूसरे की व्यथा को समझने

में समर्थ नहीं होता

लेकिन जब दर्द

काबू पर आ जाता है

और हालत में कुछ

स्थिरता आ जाती है

तब वह दूसरे के दर्द को

औरों के मुकाबले में

ज्यादा अच्छी तरह

समझ पाता है

क्योंकि वह भुक्तभोगी है

वह झेल चुका है वही कष्ट जो

अब सामने वाला झेल रहा है

वह उसकी सहायता कर

सकता है, बता सकता है

कुछ उपयुक्त उपाय

दर्द को कम करने के

इसी लिए कहावत है

“जा के पैर न फटी बेंवाई

वे क्या जानैं पीर पराई”

अनुभव से पता चलता है

कि इन लोकोक्तियों में

कितना गहरा सत्य छिपा है

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मदहोश

प्यार में मदहोश हों वे दिन चले गए

जाम पे जाम पीने के दिन चले गए

बेफिक्री और नादानी के दिन चले गए

इश्क में मिट जाने के दिन चले गए

बाकी है लेकिन कुछ अभी आँखों में ख़ुमारी

इन्तजार है अभी बन जाय ये क़िस्मत हमारी

दिल में अभी भी चाह मिटी है न तुम्हारी

आजाओ हम अभी भी हैं तेरे ही पुजारी

ज़माना बीत गया जब तुमसे आँख लड़ाई थी

तुमने भी हमें तिरछी नज़र दिखाई थी

क्यों नहीं करते हम कभी प्यार की बातें

क्यों नहीं बिताते मनुहार में रातें

थोड़ा सा दम अभी भी बाकी है

थोड़ी सी ज़िन्दगी अभी बाकी है

क्यों न हम इसका लाभ उठायें

ज़िन्दगी में फिरसे प्यार की ख़ुशबू लायें

—-लक्ष्मीनारायण गुप्त

—-३१ दिसम्बर, २०१८

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अजय कुमार पीयूष

नई सुबह

"बीता समय गुजरा ,

लेकर नई सुबह ,

हर रात गुजरती अंधकार में,

लेकर नई सुबह ,

बीतते-बीतते समय लेकर,आई एक नई ,

आशा की एक नई सुबह,

जो उस अंधकार में न हो सका,

उसे लेकर आई एक नई सुबह,

रोज दीदार करता,

उस नई सुबह का,

की लाये उजाला और मिटाए अंधकार,

लेकर एक नई सुबह,

मैं काटूँ कई रातें,

तेरे इंतजार में,

लेकर नई सुबह,

कभी तो जागो और दीदार करो,

उस नई सुबह का, देखते वर्षों,गुजर गए,

लेकर नई सुबह।

" अजय कुमार पीयूष (यांत्रिक अभियंत्रण )

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मुकेश बोहरा अमन

नवगीत

मिट्टी के गीत

तुम्हें मुबारक,

चांद-सितारे,

मैं मिट्टी के गीत लिखूंगा ।

जिस गोदी में,

हम सब खेलें ,

उस गोदी की प्रीत लिखूंगा ।।

चलता हूं कहीं गिरता हूं मैं ,

फिर उठता, फिर चलता हूं मैं ।

ये कैसे फिर हो जाता है ,

मिट्टी से मिल जाता हूं मैं ।।

इस मिट्टी से ,

गहरा रिश्ता ,

अपनेपन की रीत लिखूंगा ।

इस जीवन का सारा सबकुछ ,

इस मिट्टी से ही पाया है ।

नाम, शौहरत, ये इतराना ,

इस मिट्टी से ही आया है ।।

अब आया है ,

मौका अच्छा ,

इस मिट्टी की जीत लिखूंगा ।

मुकेश बोहरा अमन

नवगीतकार

बाड़मेर राजस्थान

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कवि : लखनलाल माहेश्वरी * प्रस्तुति : हर्षद दवे

भगवान को अपना फर्ज निभाना होगा...

कवि : लखनलाल माहेश्वरी * प्रस्तुति : हर्षद दवे

भगवान को अपना फर्ज तो निभाना होगा

भारत देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करवाना होगा.

भ्रष्टाचार दूर करने का बिदा हर देशवासी को उठाना होगा

देश को आगे बढाने का विचार पैदा करना होगा

भगवान को...

हम तो ईमानदार बनना चाहते हैं पर नेता नहीं बनने देते हैं

हर काम करवाने की कीमत माँगते रहते हैं.

कीमत यदि चुका नहीं पाते तो पिछे धकेल देते हैं

यही कारण की हमें भी इनकी तरह बना देते हैं.

भगवान को...

जो कोई भ्रष्टाचार को मिटने का दावा करते हैं

उनके लिए तरह तरह की जांच बैठा दिया करते हैं

उनके काम को रोकते हैं और जेलों में ठूस दिया करते हैं

हम सब इमानदार हैं लेकिन उन्हें चोर बता दिया करते हैं

भगवान को...

जांच में जब कुछ नहीं मिल पाता हैं

दुसरे तरीके तंग करने के निकालते हैं

इन सब पर भी वश नहीं चलता है

तो सी.बी.आई. की जांच बैठा दिया करते हैं.

भगवान को...

खुद तो चोर है, भ्रष्ट है पर ईमानदर बन जाते है

नेतागिरी के चक्कर में काला धन पनपाते हैं

देश का धन देश के बाहर भजते रहते हैं

मौक़ा पाकर उसे एक नंबर का धन बना लेते हैं.

भगवान को...

काम कुछ करते नहीं नेतागिरी करते फिरते हैं

छोटे नेता बड़े नेतओंकी चमचागिरी करते रहते हैं

मौक़ा आने पर इधर उधर हाथ मारते रहते हैं.

भगवान को...

देश को जगाने के लिए बाबा राम्देवने हकार लगाई

रातों रात डंडे के बल पर पुलिस मार लगवाई

वे भ्रष्ट नहीं थे इसीलिए भगवान ने साथ निभाई

उनको जीवित निकाल कर अपनी इज्जत बचाई.

भगवान को...

भगवान तो अपना फर्ज निभाते हैं

इन भ्रष्टाचारियों को दंड दिलवाते हैं.

आज नहीं तो कल इन्हें किये का फल पाना होगा

कह लखन देशको भ्रष्टाचार से मुक्त करवाना होगा.

भगवान को अपना फर्ज तो निभाना होगा

भारत देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करवाना होगा.

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मंजुल भटनागर

रचना एक

उत्सव सा है  चारों ओर किस बात का

घट भरा है या उम्र का घट

बूँद बूँद कर रिस गया

बस एक़ साल गुजर गया

घात लगा कर बैठा था

सवेरा मुंह जगे

शरद के कोहरे में लिपट गया

बस एक और साल गुजर गया

मुनिया कुछ बड़ी लगने लगी है

मामू की ख़ुशी फ़िक्र में ढलने लगी है

मुनिया के सपनों में

कोई स्वप्न बन जिल गया

बस एक और साल गुजर गया

शाख पर लगे बोग़नविला

रिझाने में लगे हैं

हाथो से चल कर गुलदानों में सजने चले हैं

शराब शबाब एक नई फिज़ा में घुल रहा

बस एक और साल गुजर रहा

अम्मा का चश्मा

फिर से धूमिल होने लगा है

किसनू भरमाने सा लगा है

अम्मा का हर पल हमेशा की तरह में

मज़बूरी में ढल गया

बस एक और साल गुजर गया

वीराने जंगल में

पहाड़ों पर

ठंड में तम्बू की रात में

आँखों में दूरबीन लगाये

देश की हिफाजत में

जागते रहें हैं जो

उनकी आँखों में जश्न कब खिल गया

आज तक

न किसी मुद्दे का हल मिला

ना हम दर्दी

बस वादे करते मुकरते

एक और साल गुजर गया.

उम्र का घट भरा या रिस गया

बस इक साल और गुज़र गया.

मंजुल भटनागर


रचना दो

अजीब है ना पिछले साल का

इस नए साल से रिश्ता

जैसे हो झोली भर यादों से

नई फिज़ाओं का अनदेखा हिस्सा

पिछला साल भूलता नहीं

और नया द्वार पर खड़ा इठला रहा है

दोनों ही मिल कर गड़ लेते हैं

नया दिन का खुब सूरत सा नया किस्सा.

दोनों साल बिल्कुल जुड़वा से हैं

पर दोनों के अलग से हैं रंग

वो ही तारीख हैं वो ही हैं सावन भादो के महीने

एक के दामन में अनगिणित सी मीठी खट्टी बातें

और दूसरे में ख्वाहिशों के झिलमिल बसंत

पहचानने के लिए इन सालों के

चेहरे तो एक हैं

पर अंदाज़ हैं अलग

पिछले साल ठंड बहुत थी पड़ी

इस साल है कुछ कम.

पिछले साल एक तजुर्बा था

किसने साथ निभाया कुछ ज्यादा कुछ कम.

एक शुरूवात है इक का है अंत

दोनों बिखरने समेटने में

बारह महीनों का वक्त है

जिंदगी के अनसुलझे सवाल ज्यों का त्यों हैं

दिन छू मंत्र से हो जाते हैं

ओर जोड़ जाते है जीवन में कुछ दिन

कुछ और साल जिनसे प्यार कर

रिश्ता निभा येंगे हम.

मंजुल भटनागर

रचना तीन

नये साल में

अपनी नयी उपलब्धियों को बांचे

पर जो कुछ छूट रहा हमसे

मिल जुल कर

iआओ थोडा थोड़ा फिर से समझे ,बांटें

नई डगर है , नई दोस्ती

नया कुछ करने की होड़ में

जो कुछ इस भाग दौड़ में छूट रहें हैं

उन अहसासों में झांके

आओ चल कर अम्मा से मिल

कुछ थोड़ा सा उसका भी दुख सुख बांटे

गाँव डगर सब छूट रहे

खाऊ गली के चौबारे पर

बतियाते आंगल भाषा में

मेक्डोनाल्ड और बर्गर ,हमें लूट रहे

अरे चलो ,अपनी घर चौपालें फिर से झांके

और चल कर अम्मा से मिल

कुछ थोड़ा सा उसका भी दुख सुख बांटे।

मिल जुल कर थोडा थोड़ा

हाय बाय को ढांके

नमस्कार को जीवित रखें

नमन की शक्ति को आंके

हरित पगडण्डी में चल कर

देश विकास की बातें नापे

आओ चल कर अम्मा से मिल

कुछ थोड़ा सा उसका भी दुख सुख बांटे।

मंजुल भटनागर

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प्रियंका त्रिपाठी

बेटियां दरकार है

माँ बाबा का प्यार है ।

आँखों में जब आँसू आते तो,

खुशियो की बौछार है।

अन्याय देखकर आँख उठती,

नहीं तो लज्जा का अवतार है।

कितने कष्ट भी उसने झेले,

पर सहनशीलता भरमार है।

टूटने लगता जो कभी हौसला,

तो बनती सच्ची धार है।

छेड़े कभी जो राक्षस बनकर,

तो दुर्गा सी अंगार है।

आँखों में कभी प्यार बसाकर,

करती माँ सा दुलार है।

युग-युग बदला, बदला जमाना,

पर अब भी बेटियाँ लाचार है।

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कवि आनंद जलालपुरी ।।

व्याख्या।।

ये आंसू हैं कितने रंग के

कुछ खुशियों से कुछ गम के ..ये आंसू है कितने रंग के..।।

1 ताज बंधे तो आंसू ताज लुटे तो आंसू।

आग लगे तो आंसू दाग लगे तो आंसू।।

ये होतें है भीतर मन के....ये आंसू हैं कितने रंग के।।

2 हो मरनी तो आंसू हो ज़ख़्मी तो आंसू।

हो करनी तो आंसू हो सहमी तो आंसू।।

ये मोती है दो नयन के...ये आंसू हैं कितने रंग के।।

3 हो विदाई तो आंसू हो जुदाई तो आंसू।

हो हंसाई तो आंसू हो बधाई तो आंसू।।

हर पहलू में जीवन के...ये आंसू है कितने रंग के।।

4 अर्थी उठे तो आंसू मर्जी होये तो आंसू।

अर्जी सुने तो आंसू फर्जी हुवे तो आंसू।।

फूल हैं आनंद ये चमन के...ये आंसू है कितने रंग के...

कुछ खुशियों के कुछ गम के..ये आंसू हैं कितने रंग के ..

ये आंसू है कितने रंग के।।।

कवि आनंद जलालपुरी।

ग्राम पोस्ट जलालपुर जमानिया चंदौली उत्तर प्रदेश

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नाथ गोरखपुरी

01:-

     "कहमुकरिया"

मैं उस से अब हो गई त्रस्त

जीवन म्हारो हो रह्यो नष्ट

वाको मोसो नाथ ना प्यार

ये सखि साजन!ना सरकार

बातमबात   बढ़ायो   दूना

सगरो रंग  करो  है   सूना

झुठे   नाथ    करे   परचार

ये सखि साजन! ना सरकार

सगरो देश लगो  है  घूमन

मन्दिर नाथ लगो है चूमन

कबो कहे  करजा है हजार

ये सखि साजन! ना सरकार

कुछहू करे ना,उ बतिआवे

दुसरा क उ कमी बतावे

"नाथ" सहो कइसे इ मार

ये सखि साजन ना सरकार

             02:-

माँ भारती के सूत हो

शक्ति में अकूत हो

रण आह्वान तो करते नहीं

शान्ति के तुम अग्रदुत हो

पर चाहिये ना अब हमे ,शान्ति तमगा

अरिदल का कारवां अब यहीं थमेगा

करबध्द विनय अब तो करना नहीं है

मौत का ताण्डव तो अब करना सही है

माँ के सूत होने का अब तू मोल दो

दुश्मनों के बीच जय शिव बोल दो

दृष्टि जो उठती है माँ भारती पर

सकल जग को रक्त से अब तोल दो

श्वान के गर्दन को अब तो काटना है

श्यारअरिदल के धड़ो को बांटना है

रिपुदल मस्तक अब बढ़ने ना देना

पांव जो उठता उसे अब काटना है

दुश्मनों के हौंसलो को तोड़ दो

मौत से प्रचंड नाता जोड़ दो

घुस के उनके गेह में तुम अकेले

उनकी चिता को ,जला के छोड़ दो

मौत बन तुम खड़ जाओ अकेले

श्वानझुण्डों से लड़ जाओ अकेले

कौन है जो सामने गर्दन उठाये

शम्शीर सा सीने में गड़ जाओ अकेले

सामने से अब तो दोदो हाथ कर दो

काट दो रक्तिम उनके माथ कर दो

मुठ्ठी भर औकात लेके जो उछलता

देख लो औकात सीमा पार कर दो

तुम घुसोगे याद आयेगी कहानी

देश खातिर है हमारी ये जवानी

                   03

-"मन्दिर और चुनाव"

हृदयस्थली रामप्रभु की कुटिया अब तक खाली है

तो तुम्हीं बताओ प्रियतम मेरे कैसे कहुँ दीवाली है

सूनी सूनी सहमी कुटिया, सारी रात सिसकती है

आयेगा उद्धार करेगा, उम्मीद में राहें तकती है

वादा किया बनाने को ,कब बनवाने आओगे

या फिर उस कुटिया को, तारीखों में उलझाओगे

सच बतलाना हकलाना ना ,क्या कुटिया वोट की थाली है

तो तुम्हीं बताओ प्रियतम मेरे, कैसे कहुँ दीवाली है

नाम पे मेरे जनमन को, कब तक बोलो छलना है

जनता को भरमाकर सत्ता कितने दिनों तक चलना है

झुठी चमक तो इक ना इक दिन, फिकी ही हो जायेगी

तेरे वादे सुन सुनकर जन श्र्वन भी, तिखी ही हो जायेगी

"नाथ" ना मानें वादे अब तो ,बोलो कितनी खायी दलाली है

तुम्हीं बताओ प्रियतम मेरे कैसे कहुँ दीवाली है

नाथ गोरखपुरी

एम.एड.-1

दीद उ गो वि वि गोरखपुर

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श्रीमती नीलम कुमार

नारी की व्यथा

क्या आज भी नारी का वही स्थान है

जो बरसों पहले हुआ करता था,

परिभाषा शायद बदल चुकी है ।

प्राचीन व आधुनिकता के बीच,

सिमटकर रह गई है नारी ।

अधिक परिश्रमी,

अधिक थकी,

दोहरे बंधन में बंधी–बंधी ,

कभी सकुचाती, कभी दबंग ,

दोनों ही रूपों में सामंजस्य बनाए,

इस समाज के साथ

कदम दर कदम मिलाए।

परंतु क्या सभी का हाल एक है ?

नहीं,

आज भी इस समाज में मुस्कान का लबादा ओढे़

प्रताड़ित हो रही है नारी ।

कभी बेटी , कभी माँ

तो कभी वधू के रूप में ,

सम्मानित है स्थान पाने को ।

आज आवश्यकता है उस समाज की

जो उसे तनाव रहित आनंद्मयी , ममतामयी,

छाया की ओर उड़ाकर ले चले ,

और बैठा दे ऐसे सिंहासन पर,

जहां चरितार्थ हो

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता: ।

- श्रीमती नीलम कुमार

पी. आर. टी

केंद्रीय विद्यालय सिख लाइन्स , मेरठ कैंट

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अशोक बाबू माहौर

गाँव से जाती थी सड़क

गाँव से जाती थी

काली सड़क

इठलाती,बलखाती

शहरों तक

शहरों से

अनंत शहरों तक

देशों तक

भू पर

समेटे साथ अपने

भीड़ तमाम

पेड़ पौधे

घने वन

ऊँचे टीले

रेतों के ढेर

धूल के कण I

आसपास किनारों पर

सूखी घास

हरी घास

मौन व्रत धारण किए

झाँकती इधर उधर

झपकाती पलक

जैसे ऊँघती अनमनी I

सड़क पर बैठे

पंछी गाते गीत

पंख फरफराते

करते स्वर साधना

होते मगन I

परिचय

अशोक बाबू माहौर

साहित्य लेखन :हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में संलग्न।

प्रकाशित साहित्य :हिंदी साहित्य की विभिन्न पत्र पत्रिकाएं जैसे स्वर्गविभा, अनहदक्रति, साहित्यकुंज, हिंदीकुुुंज, साहित्यशिल्पी, पुरवाई, रचनाकार, पूर्वाभास, वेबदुनिया, अद्भुत इंडिया, वर्तमान अंकुर, जखीरा, काव्य रंगोली, साहित्य सुधा, करंट क्राइम, साहित्य धर्म आदि में रचनाऐं प्रकाशित।

सम्मान :

इ- पत्रिका अनहदक्रति की ओर से विशेष मान्यता सम्मान 2014-15

नवांकुर वार्षिकोत्सव साहित्य सम्मान

नवांकुर साहित्य सम्मान

काव्य रंगोली साहित्य भूषण सम्मान

मातृत्व ममता सम्मान आदि

प्रकाशित पुस्तक :साझा पुस्तक

(1)नये पल्लव 3

(2)काव्यांकुर 6

(3)अनकहे एहसास

अभिरुचि :साहित्य लेखन।

संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह, जिला मुरैना (मप्र) 476111

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अनिल कुमार

'बचपन'

कितना अच्छा कितना सच्चा

परियों के सपनों में खोता

दादी-नानी की गोदी में सोता

दिनभर गुड्डे-गुड्डों में होता

नभचर-सा नभ में खाये गोता

बचपन बस बचपन-सा होता

बिन चिन्ता बिन सोच के

बचपन का सब काम है होता

मिट्टी से ऊठता, मिट्टी में गिरता

मिट्टी के रंग में रंगता

भोजन भी मिट्टी के संग है करता

सब के मन को खुशियों से भरता

खेल-खेल में सब को तंग करता

बचपन बचपन के संग है चलता

बेमतलब की दौड़ है बचपन

लालच से कोसों दूर है बचपन

स्नेह-प्रेम का आगार है

देखो बचपन को

बचपन से कितना प्यार है

वैर-द्वेष का हाथ छूड़ा के

नादानी की बाँहे थाँमे

मस्ती में चलते ये दीवाने

पत्थर मन को भी पिगलाते

दुनियावालो को हँसना सिखलाते

हर पल माँ के आँचल को थाँमे

बस बच्चा ही बचपन का सुख जाने।

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सचिन राणा हीरो

पथिक

जीवन पथ की कठिन डगर पर,,

पथिक भटक सा जाता है ,,,

वह सही कहां चल पाता है,,,

अपनो की खातिर लड़ते-लड़ते,,,

अपनों से ही लड़ जाता है ,,

पथिक सही कहां चल पाता है,,,

हो अहंकार के मद में चूर,,,

हो अपनों के मन से ही दूर ,,,

पथिक बड़ा इतराता है,,,

पथिक सही कहां चल पाता है,,,

जो सपनों के जनक बने थे ,,,

अब ताने बंदूक खड़े हैं ,,

प्रतिस्पर्धा के इस दौर में ,,

अपनों से ही जी घबराता है ,,

पथिक सही कहां चल पाता है,,,

जिनसे आशा थी बड़ी भारी ,,

उनसे ही है अब खिंचातानी,,,

जिनके गर्व से अभिमानी थे ,,,

उनको ही है अब परेशानी,,,

" राणा " शूरवीर , बलशाली लेकिन,,

अक्सर चक्रव्यूह में घिर जाता है,,,

जीवन पथ की कठिन डगर पर,,,

पथिक सही कहां चल पाता है,,,

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  " उधारी फरवरी "

इश्क, बेबसी, इज़हार ,बेरुखी,फिर सब की तैयारी है ,,,,

एक फरवरी मेरी भी ,किसी के पास उधारी है ,,,

कुछ बीते पल ,कुछ अफ़साने, कुछ खत ,चिट्ठियां बरसो पुराने,

आज के प्यार पर भारी हैं

एक फरवरी मेरी भी ,किसी के पास उधारी है,,,

वो दौर आशिकी का हमने ,जो जिया कभी था जी भर के,

उनको खुशियां दे डाली,उल्फत के आंसू पीकर के,,

उन्हीं चांदनी की रातों की,कसक आज भी जारी है ,

एक फरवरी मेरी भी ,किसी के पास उधारी है,

उनसे चोरी-चोरी मिलना ,वो मुलाकाते निराली थी,

उनके हुस्न पे पहरा था,तो अपनी जिद्द भी दीवानी थी ,

चूम के योवन की अदाकारी,फिर अक्षरों में उतारी है ,

एक फरवरी मेरी भी, किसी के पास उधारी है

मिलन ,जुदाई ,अश्क़, रुसवाई,ये सब हिस्से प्रेम कहानी के,

उम्र ढले तब कहे राणा ,ये सब किस्से प्रेम कहानी के,

उन्हीं लम्हों की तान पुरानी,मेरी ग़ज़लों ने पुकारी है ,

एक फरवरी मेरी भी,किसी के पास उधारी है।

सचिन राणा हीरो

हरियाणवी युवा कवि रत्न

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महेन्द्र देवांगन माटी

पेड़ लगाओ  (चौपाई)

मिल जुलकर सब पेड़ लगाओ । ताजा ताजा फल को खाओ ।।

देती है यह सबको छाया । अदभुत इसकी है सब माया ।।

फूल पान औ फल को देती । बदले हमसे कुछ ना लेती ।

पत्ती जड़ से औषधि बनती । बीमारी को झट से हरती ।।

मिलकर पौधे रोज लगाओ । शुद्ध हवा तुम निशदिन पाओ ।।

सुबह शाम सब पानी डालो । बैठ छाँव में अब सुस्ता लो ।।

बैठे डाली पंछी गाये । मीठे मीठे फल को खाये ।

थककर राही नीचे आते । बैठ छाँव में अति सुख पाते ।।

जंगल झाड़ी कभी न काटो । भाई भाई इसे न बाटो ।।

मिलकर सारे पेड़ लगाओ । धरती को तुम स्वर्ग बनाओ ।।

महेन्द्र देवांगन माटी

पंडरिया (कबीरधाम)

छत्तीसगढ़

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शेख आलम

  "ख़्वाब के परदे"

शर्म धीरे-धीरे नायाब  हो जाएगी ,

ये अदा धीरे धीरे बेताब हो जाएगी !

चांदनी चटकेगी,  रात महकेगी .

ये वस्ले की महेक सवाब हो जाएगी!

शर्म धीरे-धीरे नायाब हो जाएगी....

जेवर उतरेंगे.. फुल  मसलेंगे ,

हया के बांध उठेंगे ..

ख्वाब  के परदे आड़े जाएंगे,

वफा इञ ,सवाब हो  जाएगी !

शर्म धीरे धीरे नायाब हो जाएगी....,

रूहानी नया रश्क  सिकेगी,

नजर पुरानी शराब हो जाएगी!

शर्म धीरे-धीरे नायाब हो जाएगी....,

हम भी दरूद पड़ेंगे ,

दुआओं में तुम आओगे ,

याद नसरी ईद पाएगी,

चुगली शबाब हो जाएगी !

शर्म धीरे-धीरे नायाब हो जाएगी...,

फिर रात का सूरज निकलेगा ,

जिगर थोड़ा काला हो जाएगा ,

पाकीजगी प्यार बांटेगी,

हथेलियां महताब सजाएगी!

शर्म धीरे धीरे नायाब हो जाएगी...,

ये अदा धीरे धीरे बेताब  हो जाएगी!

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कवि आलोक पाण्डेय

वह '

_______

 

वह

हर दिन आता

सोचता

बडबडाता,घबडाता

कभी मस्त होकर

प्रफुल्लता, कोमलता से

सुमधुर गाता…

न भूख से ही आकुल

न ही दुःख से व्याकुल

महान वैचारक

धैर्य का परिचायक

विकट संवेदनाएँ

गंभीर विडंबनाएँ

कुछ सूझते ध्यान में पद,

संभलता, बढाता पग !

होकर एक दिन विस्मित्

किछ दया दूँ अकिंचित्

इससे पहले ही सोचकर…

कहा, जाने क्या संभलकर

लुटती, टुटती ह्रदय दीनों की

नष्ट होती स्वत्व संपदा सारी

मुझे क्या कुछ देगी

ये व्यस्त, अभ्यस्त दुनिया  भिखारी !

लुट चुके अन्यान्य साधन

टुट चुके सभ्य संसाधन

आज जल भी ‘जल’ रहा है-

ये प्राणवायु भी क्या रहा है ?

आपदा की भेंट से संकुचित

विपदा की ओट से कुंठित

वायु – जल ही एक बची है-

उस पर भी टूट मची है |

ह्रदय की वेदनाएँ

चिंतित चेतनाएँ

बाध्य करती ‘गरल’ पीने को

हो मस्त ‘सरल’ जीने को

करता हुँ सत्कार,

हर महानता है स्वीकार;

पर, दुःखित है विचार

न चाहिए किसी से उपकार|

दया-धर्म की बात है,

किस कर्म की यह घात है

‘उर’ विच्छेद कर विभूति लाते;

‘जन’ क्यों ऐसी सहानुभूति दिखाते ?

हर गये जीवन के हर विकल्प,

रह गये अंतिम सत्य-संकल्प !

लेता प्रकृति के वायु-जल

नहीं विशुद्ध न ही निश्छल

न हार की ही चाहत

न जीत की है आहट

विचारों में खोता

घंटों ना सोता

अचानक-

तनिक सी चिल्लाहट

अधरों की मुस्कुराहट

न सुख की है आशा

न दुःख की निराशा

समय-समय की कहानी

नहीं कहता निज वाणी,

अब हो चुके दुःखित बहु प्राणी;

होती पल-पल की हानी |

न जाने कब की मिट चुकी आकांक्षाएँ,

साथ ही संपदाएँ और विपदाएँ|

दुनिया ने हटा दी-

अस्तित्व ही मिटा दी

सोचा ! कुछ करूँ

जिऊँ या मरूँ ?

कुछ सोच कर संभला था,

लेकिन बहुत कष्ट मिला था…

कारूणिक दृश्य देखकर

ह्रदय से विचार कर

कहा – “भाग्य-विधाता”

निर्धन को दाता

मुझे ना कुछ चाहिए

पर

व्रती , धन्य

अनाथों को क्यों सताता ?

यह सुनकर मैं बोला –

स्तब्धित मुख को खोला

ये अब दुनिया की रीत है

स्वार्थ भर की प्रीत है

समझते ‘जन’ जिसे अभिन्न

वही करते ह्रदय विछिन्न !

नहीं जग महात्माओं को पुजता

वीरों को भला अब कौन पुछता

पीडितों के प्राण हित-

मैं भी प्रतिपल जिया करता हूँ

‘उर’ में ‘गरल’ पीया करता

हूँ !

अंतर्द्वन्द से क्षणिक देख

पहचान ! जान सुरत निरेख !

अखंड भारत अमर रहे !

_________

******

 

“ रक्तिम्-भँवर ”

__________

 

भर – भर आँसू से आँखें , क्या सोच रहे मधुप ह्रदय स्पर्श ,

क्या सोच रहे काँटों का काठिन्य , या किसी स्फूट कलियों का हर्ष ?

मन्द हसित , स्वर्ण पराग सी , विरह में प्रिय का प्रिय आह्वान ,

या सोच रहे किस- क्रुर प्रहार से छुटा स्नेह जननि का भान !

विरहणी चकवी का क्रन्दन ,भरी आँखों का नीर धार

कुसुम – कलेवर , विलुलित आँचल , उर निकुंज , सान्ध्य-रश्मियों का विहार ,

या सोच रहे , हो – आत्म-विस्मृत , प्रलय- हिलोर कराल झंझावातों को ,

आत्मीय जनों की सुध-सार या मादक-हसित , सुवासित रातों को !

विभिन्न व्यथा- स्त्रोत स्मृतियों को छोड़, तोड़ो कृत्रिम फूलों का श्रृंगार,

भूलो स्नेह स्वर, भूलो सरलता, नहीं भूलना कभी दासता की हार – अंगार ;

शंखनाद गुंजे रणभेरी की, रण में गुंजे वीरोचित ललकार,

उठे मृदंग, उठे तलवारें, खड्ग से सर्वत्र सकरूण हाहाकार !

धन्य भाग ! मधुर उल्लासों को छोड़, तज यौवन देने जीवन आधार ;

दु:खद् रजनी – दु:खद् प्रभात, दबा सूने में होता चित्कार, भय का संचार;

कंपकंपी व्योमगंगा , सर्वत्र करूण पुकार, नहीं अब नुपूर की झंकार ,

धरणी-सीमाओं पर, तांडव करती, कैसी मानव की पशुता साकार!

समरभूमि में तने खड़े हो, हर आकांक्षा -अरमान बिखर जाने दो ,

रोली, घुंघरू, कुंकुम, बिन्दी, प्रणय के आस, सब कुछ डूब भँवर जाने दो ;

निर्मम निरव क्षण की नीरव आशा की हर विलक्षण स्मृतियाँ , खूब बिखर जाने दो ;

शत्रु के उत्पात के, प्रतिपल संघात के , रक्तिम – भँवर में डूबो-डूबो सिहर जाने दो !

आँखों की करूणा-भीख , रिक्त हाथों में , नहीं कोई दे सकता दान !

छोड़ ठिठोली जीवन के , तज सूने अनुभूति सुस्वप्नों का निर्माण ,

ना कभी हताश – निराश हो , तज जीवन के आस , छेड़ विकल विप्लव तान ;

शत्रु को शोणित-सिक्त धाराशायी कर , वीर ! समरभूमि में देना प्राण !

अखंड भारत अमर रहे !

वन्दे मातरम्

जय हिन्द !

*************

  

" भारत भूमण्डल के मंगलस्वरूप ! "

________

संसार की सार आधार ,

स्थूल, सूक्ष्म पावन विचार ,

दिव्य शांति सौम्य विविध प्रकार ,

जिनसे सर्वत्र क्लांत , क्रंदन की प्रतिकार !

करूणावरूणालया कल्याणकारिणी,

मनःशोक निवारिणी लीलाविहारिणी,

तत्वस्वरूपिणी दुःख भयहारिणी

व्याधिनाशिनी हे मनोहारिणी !

मंगलमय चिह्नों से युक्त वीस्तीर्ण नयन

वैभववेदान्तवेद्य ऐश्वर्य विद्या, धन

महारौद्ररूपिणी ! कोटि नमन

अनंत अनंत प्रणमन वंदन !

विश्व की उत्पत्ति, स्थिति प्रलय की प्रेरित

सूर्य- चन्द्र , वरूण , पवन से सेवित

अति शांत दिव्य पूर्णचन्द्र मनोहर

जय दुराध्या, कल्प – कल्प की धरोहर |

उज्जवल देदीप्यमान , त्वरित संकट हर

हूँ शरण्य, शरणागत की रक्षा में तत्पर !

सदा समर्पित तव चरणों में ,

नयन नीर भरी समुद्रकूप

प्रणमन् ! अति मंगलमयी प्रकृति !हे विश्वरूप !

सुख -सौहार्द- समृद्धि का पूर्ण प्रारूप …..

भारत , भूमण्डल के मंगलस्वरूप !!!

——————

" शक्ति - पुँज "

______________

धन -धान्य संपदा यौवन

जिनके भूतल में समाये

जन्मभूमि के रक्षक जिनने

अनेकों प्राण गवाये।

जिनके आत्म- शक्ति धैर्य से

अगणित अरि का दमन हुआ

देखा जग अकूत शौर्य

तप, त्याग, तेज का नमन हुआ।

जिनके भीषण संघर्ष विशाल में

असंख्य अनेक लुप्त विलीन

लाखों गौरव को खोकर भी

रह न सके हा! हम स्वाधीन।

जन्मदात्री धायी के प्रहरी;

साहस, राष्ट्रगौरव की बात

विद्रोही, विप्लवकारी बना

हम किये कितना दुःखद व्याघात।

किसको इच्छा होती बन

बाधित, बेबस, विकल लवलीन

अनन्य प्रेम की आकांक्षा सबको

मधुर प्यार युक्त तल्लीन।

उठो राष्ट्र के शक्ति-पुंज

लौटा अपना गौरव सम्मान

दूर करो अविवेकी जन की

कायरता, मिथ्या अभिमान।

जय हिन्द!

✍️  कवि आलोक पाण्डेय

       

कवि, लेखक,साहित्यकार

वाराणसी,भारतभूमि

पिन - २२१००५

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डां नन्द लाल भारती

विचार बनाए जिन्दगी

मानता हूँ, खैर मानने में क्या हर्ज है

ऐसी मान्यताओं को मानने मे

जीवन को जो खाद पानी दे

रोशनी दे,कुसुमित करे

संवारे बाबू............

सब कुछ करो, खुद के सपनों का त्याग

तन के वस्त्र और निवाले का दान

उम्मीद मत रखना बाबू

बहुत दुःख होता है, जब कोई अपना दर्द देता है

संवारने में अपनों का भविष्य

खुशी होती है

खुद बर्बाद ना होना आंख से ठेहुना से

बचा कर रखना खुद के लिए कुछ बाबू

उम्मीद की टकटकी में जीवन मत लुटा देना

कई बार अपना खून भी मौत के कुयें मे

ढकेल देता है निज स्वार्थ के लिए बाबू।

आज का दौर देख रहे हो ना बाबू

दगाबाजो की भीड़ है

कौन रूप बदल कर कब ठग ले

अपना पराया कोई भी

अरमानों का खजाना बुढापे की लाठी

स्वार्थ की चकाचौंध में बहकने लगी है

जन्मदाता को बोझ समझने लगी है बाबू।

मानता हूँ बाबू तुमने लूटा दिए तन मन धन

उम्मीद की फसल तैयार करने मे

फसल तैयार क्या हुई नजर लग गई

सपने लूट गए अपने रूठ गए

जीवन के संघर्ष पर बाढ का पानी

फीर गया बाबू।

विचार बदलो,अब तो खुद के लिये

जी लो बाबू

तुमने खुद को लूटा कर अपनो को

ऊंचाई दी है

आंसू ना बहाओ,आंख ठेहुना को सम्भालो

अच्छे विचारों की आक्सीजन पीओ

स्वमान पर जीओ बाबू

तुम समर्थ हो, कहते हो ना

विचार बनाए जिन्दगी, कोई साथी नहीं है

सपने बोओ,सपने सीचो,

ढलती उम्र में खुद को खुद का सहारा बनाओ

सहारा बनो,सहारे की आस ना करो बाबू

जीने की नई दास्तान गढते जाओ बाबू।

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संस्कार जैन

इंसान।

उड़ते हुए धूल के कण के समान,

अंतरिक्ष में अपना अस्तित्व लिए इंसान,

खुद को ईश्वर की रचना कहता है..

खुद साँस विन्यास पर आश्रित होकर भी,

दुनियां को अपने आश्रित करना चाहता है..

एक निरर्थक जीवन के संघर्ष में फंसा इंसान,

ईश्वर की रचना तो नहीं हो सकता..

इंसान तो रचना है,

लालच, द्वेष और वासना की..

Sanskar jain

M.Pharm

Department of Pharmaceutical Sciences,

Dr. Harisingh Gour University, Sagar (MP)

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कंचन धर द्विवेदी

गीत नया है दर्द पुराना

न कोई समझा न कोई जाना।

गाते गाते गला भर गया

कीमत आंसू ने पहचाना।

यादों की उम्मीद बड़ी थी

आंखो ने अम्बर तक छाना।

रजनी तम से सीख रही थी

किरणों की छाया बन जाना।

मधुमय जीवन सकल सिद्ध

खुशहाली देती संपति नाना।

उम्मीदों का अटल भाव था

अरमानों संग संग था जाना।

अरुणोदय की रश्मि लालिमा

नवजीवन सम भाल हो रहा।

जाते जाते तमसा जीवन

नवजीवन खुशहाल हो रहा।

कंचन

कंचन धर द्विवेदी

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लोकनाथ साहू ललकार

तिरंगे की पुकार

तिरंगा पुकार रहा, हिंद ज़ार - ज़ार है

हिमालय कराह रहा, दर्द धार - धार है

माटी ! तुझे कोटि नमन्, गर्वित इतिहास दिया

वीरों ने क्रांति को दुल्हन अहसास दिया

टीपू, शिवा, राणा, रानी, भगत, सुभाष दिया

लाल - बाल - पाल ने गर्म परिभाष दिया

वतन को चमन बनाया, वो लौह सरदार है

पर माली मक्कार हुए नागफनी गुलज़ार हैं

वतनपरस्ती की भावना हर दिल में थी

वंदेमातरम् की लहर हर महफिल में थी

अब वंदेमातरम् जो गाते, उन्मादी कहलाते हैं

सत्य - याचकों पर लाठी - गोली बरसाते हैं

गुनाह के देवताओं से, चल रही संसद-सरकार है

माताएॅ ! जीजाबाई बनो शिवा की दरकार है

जनतंत्री छाया में, कैसा ये राज आया !

बिल्ली ने व्यूह रचा, छछूंदर ताज पाया

भेड़िया बनाया गजब गठबंधन लाचारी

चील, गिद्ध, बाज, सियार बन बैठे दरबारी

गधा - गीदड़ फरमानी, शेर पेशकार है

जिसकी लाठी, उसकी भैंस, जंगलराज है, धिक्कार है !!

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लोकनाथ साहू ललकार

बालकोनगर, कोरबा (छ.ग.)

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इंदर भोले नाथ

है महका हुआ गुलाब

खिला हुआ कंवल है,

हर दिल में है उमंगे

हर लब पे ग़ज़ल है,

ठंडी-शीतल बहे ब्यार

मौसम गया बदल है,

हर डाल ओढ़ा नई चादर

हर कली गई मचल है,

प्रकृति भी हर्षित हुआ जो

हुआ बसंत का आगमन है,

चूजों ने भरी उड़ान जो

गये पर नये निकल है,

है हर गाँव में कौतूहल

हर दिल गया मचल है,

चखेंगे स्वाद नये अनाज का

पक गये जो फसल है,

त्यौहारों का है मौसम

शादियों का अब लगन है,

लिए पिया मिलन की आस

सज रही दुल्हनहै,

है महका हुआ गुलाब

खिला हुआ कंवल है…!!

…….इंदर भोले नाथ…….

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शिवांकित तिवारी "शिवा"

याद है क्या अभी भी तुमको, वो पहली मुलाकात,

जब टकराये थे हम दोनों इत्तेफाक से उस रात,

याद है क्या अभी भी तुमको,पहली दफा जब भीगें थे साथ-साथ,

वह बिजली की चमक,तेज गड़गड़ाहट और मद्धम सी बरसात,

याद है क्या अभी भी तुमको,जब पहली बार थामा था मेरा हाथ,

किए थे अनगिनत वादे,मरते दम तक नहीं छोडूंगी तुम्हारा साथ,

याद है क्या सच में अभी भी तुमको,

जब पहली बार कहा था मुझे तुमसे प्यार हो गया,

मेरी सांसें सिर्फ तुम्हारें नाम से चलती हैं,

मुझे बस तुम्हारा ही अब नशा-ए-खुमार हो गया,

याद है क्या अभी भी तुमको,

जब मुझे देख नजरें झुकाकर निहारा करती थी,

रोज मेरी गलियों में आकर,

छुपकर मेरा नाम पुकारा करती थी,

अच्छा सच में अभी भी तुमको,

याद तो होगी उस अन्तिम दिन की अन्तिम बात,

जब आकर अन्तिम बार कहा कीचड़ हो तुम

अब मुझे नहीं रहना तुम्हारें साथ,

सच में मुझे आज भी नहीं पता ऐसी क्या हो गयी थी बात,

क्यों तुमने सारे रिश्ते तोड़ के मुझसे छोड़ दिया मेरा हाथ,

खैर,आज सच में मैं तुम्हारा दिल से बेहद शुक्रगुजार हूँ,

उस कीचड़ से निकल कड़े सफर के बाद आज कमल में सवार हूँ,

तुमने ही प्यार में औकात बताई मेरी,

अब नहीं पड़ा दोबारा किसी के प्यार में हूँ मैं,

तुम तो आखिर वहीं रह गयी,

लेकिन आज शहर के हर अखबार में हूँ मैं,

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नींद ही नहीं आती अब मुझे, चैन भी नहीं आता अब,

तेरे खयालों में बेतहाशा खोया रहता हूँ मैं अब,

सोया नहीं मैं हप्ते भर से,

नींद ही नहीं आती देखा है तुझे जब से,

सच कहूँ अब कितना बदल सा गया हूँ मैं,

बेहद सख्त था पहले अब पिघल सा गया हूँ मैं,

खुश,बेपरवाह,चेहरे पे मुस्कुराहट सदा बरकरार,

नफरत कभी किसी से नहीं न किसी से कोई तकरार,

फिर भी मैं हमेशा खुद पे ही रहता था सवार,

पर उसे पहली बार देखते ही हो गया है प्यार,

कुछ जो बात है उसमें जो मैं भी अपना दिल गया हार,

बाकमाल जादू किया उसने मुझ पर अब उसका ही है नशा-ए-खुमार,

अब क्या बताऊं यार, सच में अब मुझे भी हो गया है प्यार,

अब नींद से अचानक जाग जाता हूँ, रहता हूँ अब मैं उसके लिये बेकरार,

सच में अब मैं भी नहीं रहा बेरोजगार,

काम मिल गया मुझे भी जिसे कहते है लोग प्यार,

चलों अब मैं जीता हूँ इस खूबसूरत एहसास में,

एकतरफ़ा भले है लेकिन बड़ी ताकत है इस आस में,

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बड़ी ही खूबसूरत नजर आती हो तुम,

सच में जब नजरें झुका कर शर्माती हो तुम,

लगता है जैसे एक पल के लिये ये जहाँ भी रुक जाता हैं,

जब जुल्फें बिखेर के चेहरे पे मुस्कुराती हो तुम,

चाँद और सूरज भी तम्हें देखने के लिये बेताब रहते हैं,

मोहतरमा जब छत पे अकेली नजर आती हो तुम,

अब क्या बताऊँ असर किस तरह है तुम्हारा मुझ पर,

रात भर मेरे ख्वाबों में आकर मुझको जगाती हो तुम,

दिन-रात अब मुझे तुम्हारा ही नशा रहता है,

क्यूँ मुझको इतना बेचैन कर जाती हो तुम,

आशिक बना दिया है अब सच में तुमने मुझे,

लिखता हूँ बस तम्हें ही क्योंकि बहुत याद आती हो तुम,

-शिवांकित तिवारी "शिवा"

युवा कवि एवं लेखक

सतना (म.प्र.)

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ऋषभ शुक्ल

1)अब आंखों से रुठ चुके हैं मेरे आंसू तेरे आंसू।

मजे विरह के लूट चुके है मेरे आंसू तेरे आंसू।

कतरा कतरा नयन समेटे दर्द भरे जज्बातों को,

बिखर बिखर कर टूट चुके है मेरे आंसू तेरे आंसू।

2)ये छलकता दर्द है दिल का नयन का नीर न समझो।

स्वजन के अश्रु है "राही" परायी पीर न समझो।

विकल स्तब्ध मूरत सी लगे है आज वो सूरत ,

सजग प्रतिमान है प्यारी इसे तस्वीर न समझो।

3)मोहब्बत हो निगाहों में तो आंसू रह नहीं सकते

सुदामा के बिना कान्हा के आंसू बह नहीं सकते

कभी तुमपर जो बीतेगी तो दिल का दर्द जानोगी

विरह की वेदना के स्वर ये आँसू कह नहीं सकते।

4)लिखे खत में सवालों के, मेरे जवाब लौटा दो

मेरा वो चैन लौटा दो,मेरा वो ख्वाब लौटा दो

कभी जो बन्द पन्नों में रखे थे फूल उल्फत के

मेरा वो गुलाब लौटा दो,मेरी वो किताब लौटा दो।

5)उर व्यथित, शब्द निरंकुश वाद से प्रतिवाद कर

धैर्य की गर्जन स्वर रख मृत्यु से संवाद कर,

लेखनी में तप्त ज्वाल अंगार का अवसाद कर

कुछ समर्पित धड़कनों का शब्द में अनुवाद कर।

6)किंचित पवन,क्षिति,नीर से देह का प्रतिमान गढ़

गगन की अनंत पथ से ,देश का स्वाभिमान गढ़,

अग्नि की अवरक्त बल से शौर्यता की शान गढ़

हृदय के पावन नमन से नेह का सम्मान गढ़।

7)मोहब्बत जवाबों से कम सवालों से चलती है

छुप छुप के मुझसे वो कई सालों से मिलती है

रौनक हुस्न की बयां करने की जरुरत क्या

ख़ुशी कैद है, उनके लाल गालों में मिलती है

इश्क़ की राह,लंबा सफर, तेज़ धूप हर जगह

छाँव तो मुझे, उनके रेशमी बालों में मिलती है

बेखबर हूं खुद से मगर खबर रखता हूं तुम्हारी

दिल को सुकूँ तुम्हारे हाल चालों से मिलती है

दीदार बंद आँखों से ही होता है यार क्योंकि

हकीकत से ज्यादा, ख्वाबों खयालों में मिलती है

संभल कर चलना इश्क़ की राह पर "राही"

मोहब्बत भी आज कल दलालों से मिलती है।

8)भ्रमर गुंजित मोहब्बत का ,नया पैगाम अंकित है

नवल यौवन के अधरों पर ,मधुर मुस्कान अंकित है

विस्मरित हो गयी सदियों से संजोयी सुखद यादें

मगर अब भी तरुण दिल पर ,तुम्हारा नाम अंकित है।

9)गगन की यश ललाटों पर ,उदित दिनमान अंकित है

राष्ट्र की अस्मिता पर एक यशस्वी गान अंकित है

सदा अंकित है शंकर के कंठों में गरल ज्वाला

विकल राधा के हृदयों में मनोहर श्याम अंकित है।

10)अम्बर में चाँद तुम हो तो बादल है लाडले,

आँखों की पलक तुम हो तो काजल हैं लाडले

तुम गर हो हीर लैला मस्तानी सी दीवानी,

तो राँझा मजनू राव से पागल है लाडले।

11)सागर की लहर तुम हो तो साहिल है लाडले

सावन का गीत तुम हो तो महफ़िल है लाडले

तुम गर हो मेरा दिल ख्वाब सांस धड़कने

धड़कन है सांस ख्वाब तेरा दिल है लाडले।

12)की आँखे बंद हो फिर भी,तेरा दीदार हो जाये,

होंठ पर हो लगे ताले, मगर इजहार हो जाये,

समंदर पार हो पगली मगर चाहो मुझे इतना ,कि

बिना नाविक बिना कश्ती ,ये दरिया पार हो जाये।

13)मुझे सावन के झोंकों की , महज बौछार दे देना,

हवाएं सर्द शबनम हो तो, अनल श्रृंगार दे देना,

नफरत तो खैरातों सी बंटी है इस ज़माने में

मैं हूँ प्रेम का प्यासा , मुझे बस प्यार दे देना।

14)न गिला न शिकवा न तिज़ारत आपके शहर से

हमें तो बस जरा सी मोहब्बत आपके शहर से।

छोड़कर हीरा रख दिया ,सारे नगीने खिदमत में

हमें चाहिए हमारी ही अमानत आपके शहर से।

आगे पर्दा,कांच का टुकड़ा,तेज़ धूप, निशाना मैं

हाय अल्लाह ये कैसी शरारत आपके शहर से।

दीदार-ए-इश्क़ की गुस्ताखी ,हम हिरासत में है

क्या कोई लेगा हमारी जमानत आपके शहर से।

इल्जाम-ए-इश्क़, सजा-ए-मौत, मगर जिन्दा हूं

मोहब्बत भी कर रही इबादत आपके शहर से।

हाथ दे दो उसका इक करार पर ,खुदा कसम

हम मिला देंगे अपनी रियासत आपके शहर से।

प्यार की बात है अभी प्यार से समझ लो, वरना

बड़ी खुद्दार है हमारी सियासत आपके शहर से।

इश्क़-ए-दास्ताँ सुनाई है रात भर रो- रो कर मैंने

आखिर मिल ही गयी इज़ाज़त आपके शहर से।

बेशक ले जा रहा हूं अपनी मोहब्बत यहाँ से

"राही" को अब नहीं शिकायत आपके शहर से।

15)वार सीने पर खा लूंगा, पीठ मैं कर नहीं सकता ,

गीदडो की जमातों से ,सिंह ये डर नहीं सकता,

काट दो ये बदन मेरा , खींच लेना लहू सारा

मैं भारत माँ का बेटा हू ,झुका ये सर नहीं सकता।

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जयंती डे

शायरी

आज घर में किलकारी गूंजी और पापा जैसे निराश हो गए,

दादा दादी को लगा जैसे कि शायद कुछ अधूरे आस रह गए,

मां को भी न जाने यह कैसी व्यथा हुई

आज फिर शायद एक बेटी पैदा हुई.

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संजय कर्णवाल

सब्र                       ,,

सब्र से काम लो तुम जिंदगी में

रब का भी नाम लो तुम जिंदगी में

रात दिन हम याद करे प्रभु को

उसका ही गुणगान करे बन्दगी में

सबको अपना समझते हुए मांगते हैं दुआ

अपनी खुशी ही सबकी ख़ुशी मे

बीत जाय सारी उम्र यूँही हँसते हँसते

कट जाय सारा सफ़र ऐसे ही सादगी में

                     2,,   भलाई

ऐसे है लोग यहाँ जाने न पीड़ पराई

न ही प्यार का नाता ,न मन में भलाई

जो कहते थे, सुख दुःख में साथ रहेंगे

छोड़के साथ कभी का वो निकले सौदाई

वो रहते थे बनके अपने हमराही

भूल गए अपनी ही कसमे कस्माई

नहीं कोई गम तडपता है इतना

जितना अपनों की रुस्वाई रे भाई

                             3,,,   इरादे

जो भी कर सके वो कर जाये

ये जीवन अपना सवंर जाये

हम इरादे करे, सच्चे वादे करे

ऐसे ही इरादों से कुछ कर जाये

रब की सारी खुदाई में हम रहते हैं

उसकी इबादत में अपनी सारी उम्र जाये

सबका भला हो अपने साथ में

इसी चाह में जीवन तर जाये

                                 4,,,,             बातें हैं

जो बातें मन की उन बातों को कैसे समझाय

जीवन की बाते उलझी पड़ी कैसे सुलझाये

हम इतना ही जाने दुनिया की बातें

है इतनी तमन्ना हम कुछ अच्छा सीख जाये

जीवन की डगर पर हम चलते रहे

चलते हुए सारी बाधाओं को पार हम कर पाए

आशा का दामन न छोड़े हम बढ़ते जाये

मन का धीर बढाके , आशाओं को और जगाये

           5,..जंजाल

आज क्यों दुनिया का ये हाल है

जीना इसमें सबका क्यों मुहाल है

रोते रहते दुनिया में सब रात दिन

हमारे सामने जिंदगी का कैसा सवाल है

कैसे खुदको सम्भाले बात ऐसी हो गई

राह तक खो गई, हो गया कैसा कमाल है

आज क्यों कर्मो का अपने ये अंजाम है

हमको ही फंसाता है,कैसा ये जंजाल है

                    6,,    अच्छाइयां

संसार की सारी बातें हमको उलझाये जाती है

उलझाकर मन को और ज्यादा तड़पाय जाती है

है कौन जहाँ में जो हमको अपना समझे

ये बात नहीं क्यों मन को समझाये जाती है

जब मान सके कोई इस जग को भला

ऐसी टीस तो दिल को हरदम धडक़ाय जाती है

जिंदगी का सफर यूँही बढ़ता जाये आगे आगे

जिंदगी की सारी अच्छाइयां, जिंदगी को महाकाय जाती हैं

                                                            7,, मंजिल

परेशानियो से हार गए तो पार कैसे जाओगे

जिंदगी के सफर में मंजिल कैसे पाओगे

ऐसे ही भटक रहे हो तुम कबसे यहाँ

और कब तक खुदको यूँही तड़पाओगे

नेक राह पर चल न सको तो जीवन का क्या मोल है

आए हो जिस काम से,फ़र्ज़ वो कैसे चुकाओगे

हर इंसान देख रहा है, ऐसा क्यों सोच रहा है

दूसरों को तो समझा दोगे, खुद को कैसे समझाओगे

      8,,  उम्मीदें

चल रहे हैं डगर पर लेकर हम उम्मीदें

मन में रहे सदा ही अपने हरदम उम्मीदें

अब न कोई गम हो अपने मनो मे

बढ़ते जाये आगे ही ना हो कम उम्मीदें

जो भी मुश्किलें आए डगर पर अपनी

दूर करके दिखा दे सबको दमखम उम्मीदें

सारे जहाँ के आगे ऐसे ही डटे रहे

ऐसे ही सदा बढ़ाते रहेंगे अपनी हम उम्मीदें

              9,, परछाईयां

हम समझ गये है जीवन की दुश्वारियां

छोड़ देती है साथ कभी अपनी ही परछाईयां

सोच समझकर कदम उठाए अपने

कर देती है बेकार जीवन को रुस्वाइयां

करना चाहते हो काम कोई अच्छा अगर

झेल जाओ तुम दुनिया की तन्हाइयां

अपने ख्याल ही सदा मन को तडपाते

अपने आप ही जाने सब अपनी मजबूरियां

               10,,        सपने

जिंदगी की चाह में, जिंदगी की राह में चलने वालों

न रुकना कभी भी किसी मोड़ पर आगे बढ़ने वालों

जो सपने दिल में सजाये है तुमने,हा तुमने

उनको साकार करो, दिलो दिमाग के साथ जगने वालों

न कुछ भी मुश्किलें भारी अ दोस्तों,हां दोस्तों

अगर तुम चलो साथ मिलकर आगे निकलने वालो

जो मन में ठाना है तुमने,मन से चाहा है तुमने

कर दिखाओ तुम ओ सोचने वालों, हां सोचने वालों

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बिलगेसाहब

जिंदगी को मिलने कोई मेहमान आ रहा है।

'बिलगेसाहब' नया साल आ रहा है।

ए फूलों की तरह खिलाएगा, मोमबत्ती की तरह रुलाएगा।

ए मर्ज़ बनकर सताएगा, तो दवाई के कुँवे से मिलाएगा भी।

ए राह-ए-मंजिल दिखाएगा

तो राहों में काँटे बिछाएगा भी।

तज़ुर्बे नए लेकर नया रहनुमा आ रहा है।

'बिलगेसाहब' नया साल आ रहा है।

ए साल है जैसे घना जंगल।

अंदर जिसके जिंदगी छुपी है।

कहीं पे ख़ुशियों के झरने।

तो कहीं अश्कों की झीलें हैं।

कहीं पे शहद के फल।

तो कहीं ज़हरीले फूल खिले है।

नया साल नए अवसरों की माला है।

ख़ुशियों ग़मों का मेला है।

अँधेरों को मिलने कोई चिराग आ रहा है।

'बिलगेसाहब'  नया साल आ रहा है।

नया साल नए रिश्तों की बारात है।

नए दोस्त और दुश्मनों की सौगात है।

ए मेरी राहों का चिराग,

यादों की बाग है।

मेरी उम्र का रथ,

सफर का मुसाफ़िर है।

जिंदगी पे खिची हुई इम्तिहानों की लकीर है।

मिलने साहिल को समंदर आ रहा है।

'बिलगेसाहब' नया साल आ रहा है।

ए कैसा दौर है ए कैसा मोड़ है।

एक साल मिल रहा,एक बिछड़ रहा है।

एक आँख में जानेवाले का गम।

दूजी आनेवाले के खुशी में नम है।

एक जिंदगी से रुख़सत हो रहा है।

तो दूजा तशरीफ़ ला रहा है।

जिंदगी को मिलने नया अफ़साना आ रहा है।

'बिलगेसाहब' नया साल आ रहा है।

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चलो ले चले हम क़िस्म-ए-इंसान को चैत्यभूमि दिखाने।

बाम-ए-फ़लक से ख़ुदा भी आएगा सर झुकाने।

वो जो नावाक़िफ़ पूछते है कि है ख़ुदा चीज़ क्या।

ख़ुदा ख़ुद आयेगा नाम, जनाब-ए-बाबासाहब बताने।

दरिया-ए-तौहीन को आतिश-ए-संबिधान से मिटाया।

दस्तूर की आँधिया थी आई चिराग-ए-बाबासाहब बुझाने।

गुमराह हुजूम जो खो गए थे क़िस्म-ओ-जाती के मेलों में।

रहनुमा बनके आये थे उन्हें राह-ए-इंसानियत दिखाने।

बंजर थी कल तक पिछड़ों की जमीं-ए-जिंदगी।

बीज-ए-इशरत के सूरत में आये थे वो गुलशन बनाने।

भीमराव के जन्म से हो गए सब काँटे गुल में तबदील।

बतौर दवा बनकर आये थे मर्ज़-ए-कुल-ओ-नस्ल मिटाने।

इज्ज़त की जगह क़ाफ़िरों ने लिखी हयात में ज़िल्लत।

बेहया मनुस्मृति को सिख-ए-आदमियत आये थे सिखाने।

जिंदगी-ए-दर्द-ओ-बेबसी को ऐश-ओ-इशरत से भर दिया।

रब की भी औक़ात नहीं है इनायत-ए-बाबा चुकाने।

क़रीब-ए-सूरज जाकर वापिस लौट सका है कौन।

ख़ाक हो गए काफ़िले जो आये थे हस्ती-ए-बाबा मिटाने।

तनहाई महसूस होती है अंबेडकर बगैर इंसानियत को।

'बिलगे' चल जानिब-ए-चैत्यभूमि सर अपना झुकाने।

Written by-बिलगेसाहब.(MADHUKAR BILGE)

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आर के भारती

शिकारी को दुबारा आता देख,        

परिंदे शाखाओं पर पत्तों की ओट,       

दुबक गए।

शिकारी .... पहले जाल बिछाया

दाना बिखराया,                           

आकर्षक,                                 

आशा,

परिन्दे दाना चुगने आएंगे।

इन्तजार ! इन्तजार!! इन्तजार!!!

फिर और दाना,                         

आशा में।।

परिन्दे... परिन्दे.... परिन्दे........।

परिन्दे शिकारी को जान गए थे।

पहचान गए, समझ गए थे,           

जाल भी जाना पहचाना था

बस दाने नये थे।

चमकदार, आकर्षक, लुभावने।

परिन्दे असमंजस में

डालियों पर मन झूल रहे थे

क्या करें, क्या...............।

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सागर यादव जख्मी

भले ही पाँव को जलते हुए अंगार पर रक्खा

मगर सच्चाई को मैंने सदा मेयार पर रक्खा

उसे मंजिल सफलता की यकीनन मिलती है यारों

नजर जिस शख्स ने भी वक्त की रफ्तार पर रक्खा

किसी दिन मिट्टी में मिल जाएगी मालूम था फिर भी

भरोसा हर किसी ने मिट्टी की दीवार पर रक्खा

किसी से इश्क फरमाना नहीं है खेल बच्चों का

जमाना हर घड़ी पहरे पे पहरा प्यार पर रक्खा

मुझे रब से शिकायत है तो बस इतनी शिकायत है

नहीं उसने कभी करुणा मेरे परिवार पर रक्खा

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दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए

वक्त किसके पास है नेकी कमाने के लिए

बच्चे माँ से डरते थे जब, वो जमाना और था

माँ विवश है बच्चों की अब डाँट खाने के लिए

तू हमारे दिल में है औ हम तुम्हारे दिल में हैं

बस यही काफी है दुनिया को जलाने के लिए

मुफलिसों को बेटियाँ भगवान मत देना कभी

बाप वरना सोचेगा फाँसी लगाने के लिए

आज के इस दौर में उसको हमेशा गम मिला

बाँटता है जो खुशी सारे जमाने के लिए

दुश्मनों ने जुल्म ढाने में कसर छोड़ी नहीं

दोस्त भी आते हैं मेरा दिल दुखाने के लिए

जिन्दगी इक खूबसूरत ख्वाब जैसी है हँसी

ख्वाब तो होते हैं 'सागर' टूट जाने के लिए

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वक्त की आँखों से तुम काजल चुराना सीख लो

अपने सोए भाग्य को खुद ही जगाना सीख लो

जिस तरह गम आया है उस तरह ही जाएगा

मुश्किलों के दौर में भी मुस्कुराना सीख लो

दूसरों के टुकड़ों पर पलना नहीं अच्छा मियाँ

मेहनत-मजदूरी से पैसे कमाना सीख लो

चंद सिक्कों के लिए जो बेच दे ईमान को

ऐसे बेईमान को जिंदा जलाना सीख लो

लहरों से यदि डर गए तो पार जा सकते नहीं

दोस्तों ,तूफान में कश्ती चलाना सीख लो

अपने हो या गैर हो सबसे मुहब्बत कीजिए

दुश्मनों के दिल में अपना घर बनाना सीख लो

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दीये को बुझने से बचाता हूँ

हाँथ यूँ ही नहीं जलाता हूँ

आपकी आँखों के समन्दर में

जब उतरता हूँ डूब जाता हूँ

अपने माँ-बाप की तरह मै भी

चोट खाकर भी मुस्कुराता हूँ

सारा मयखाना झूम उठता है

हाँथ में जाम जब उठाता हूँ

लोग आँसू बहाने लगते हैं

मै अगर शायरी सुनाता हूँ

जिंदगी एक दिन दगा देगी

सोचता हूँ तो सूख जाता हूँ

लड़कियाँ बेवफा नहीं होती

अपना अनुभव तुम्हें बताता हूँ

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झुका हो देश का परचम मुझे अच्छा नहीं लगता

उदासी का कोई मौसम मुझे अच्छा नहीं लगता

फरिश्ते रूठ जाएँ तो उन्हें मै फिर मना लूँगा

मगर हो माँ की आँखें नम मुझे अच्छा नहीं लगता

हमेशा दीन दुखियों को मधुर मुस्कान है बाँटी

किसी के चेहरे पर गम मुझे अच्छा नहीं लगता

मै अपने दिल के जख्मों को हमेशा ताजा रखता हूँ

कोई इन पर रखे मरहम मुझे अच्छा नहीं लगता

मेरे ही घर में हो या फिर मेरे दुश्मन के घर में हो

किसी के घर भी हो मातम मुझे अच्छा नहीं लगता

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भुखमरी की आग में जलकर जो बच्चे मर रहे हैं

पढ़ने-लिखने की उमर में बूट पालिश कर रहे हैं

क्या पता कुछ लोग हँसकर झूठ कैसे बोलते हैं

एक हम हैं जो सही कहते हुए भी डर रहे हैं

हिन्दू-मुस्लिम भाईयों को एक दूजे से लड़ाकर

ये सियासी लोग अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं

हम बहुत ही श्रम किए तब जाके ये फसलें उगी हैं

कुछ समय तक तो हमारे खेत भी बंजर रहे हैं

इश्क करने वालों का अंजाम होता है भयानक

खून से लथपथ सदा ही आशिकों के सर रहे हैं

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मेरे टूटे दिल की सदा कह रही है

तुम्हें भूल जाऊँ ये मुमकिन नहीं है

कभी हँसते हैं तो कभी रोते हैं वो

गरीबों की हालत हँसी फूल सी है

मिले बेटियों को भी बेटों का दर्जा

सभी दोस्तों से गुजारिश यही है

नहीं ठीक आँसू बहाना हमेशा

जो गुजरे खुशी में वही जिंदगी है

खुदा आपको भी खुशी देगा यारों

किसी को अगर आपने दी खुशी है

सागर यादव 'जख्मी'

नरायनपुर,बदलापुर,जौनपुर,उत्तर प्रदेश-222125

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देवेन्द्र कश्यप 'निडर'

४- "अपना पराया"

अब तक हमने है धैर्य धरा।

अब नहीं सहा कुछ जाता है।।

पीड़ा जो मन में बहुत बढ़ी।

पर कहा नहीं कुछ जाता है।।

फिर भी कुछ ऐसे बिम्ब खीचता हूँ।

जो बैर भाव दिखलाते हैं।

पराया बन रहे जब अपने।

ऐसे भावों से खूब खीझता हूँ।।

आते है तत्समय कैसे खयाल।

ऐसे विचार बतलाता हूँ।।

जब धोखा अपनों से मिलता।

तो दुख दूना हो जाता है।।

तब किस तरह बयान करूँ उसका।

जो हृदय चीर वेदना दे जाता है।।

फिर भी न मिटती मन की जिज्ञासा।

और कष्ट समुद्र सम हो जाता है।।

फिर भी गर हक कोई।

'निडर' उनका खाता।

तो अन्तर्मन विचलित होकर।

रक्षार्थ हाथ है उठ जाता।।

५ - "आशीर्वाद गीत"

खुशियॉ मिले तुम्हें इस जीवन में यह आशीर्वाद हमारा है।

मिलजुल कर तुम सबसे रहना यह सुझाव सदा हमारा है।।

पति की माता को माता कहना यह नित नव सन्देश हमारा है।

कभी पलट कर जवाब तुम मत देना ऐसा अनुरोध हमारा है।।

ननद को सदा मानकर बहिनी ब्यवहार बहन सदृश तुम्हारा हो।

पति के भाई को सम्मान प्यार देना ऐसा दिब्य विचार तुम्हारा हो।।

गर कोई समस्या आये कभी मिल बैठ समाधान निकालना तुम।

न लड़ना कभी तुम आपस में ठण्डे मन से निदान तलाशना तुम।।

जैसा वातावरण हो उस घर का उसमें हे ! बेटी ढ़ल जाना तुम।

पगड़ी वाले भईया अनुरोध है तुमसे बहिनी का साथ निभाना तुम।

जीवन में बड़े झंझावत हैं पर इनसे कभी नहीं घबड़ाना तुम।

मिलकर मुकाबला करते रहना तूफानों से कभी न डरजाना तुम।।

मान बढ़ाते रहना कुल का ऐसे कर्तव्य मार्ग पर चलते रहना।

मिले गर राह में कोई विपदा बड़े चतुराई से हल करते रहना।।

पति-पत्नी के बीच सदा प्रेम भरोसे की अविरल रसधार बहे।

इतना घुले मिले यह आपस में नित नव जीवन का आधार रहे।।

शुभ दृष्टि लेकर प्रगति करे मंगल सोपानों पर चढ़ते जावे।

कभी नहीं निराश हो जीवन में ऐसे आशीर्वाद सबसे लेते जावे।।

बाबुल का प्यार मिला अब तक अब प्यार सजन का पाओ तुम।

माता ने जो दिया स्नेह उससे संबल किसी का बन जाओ तुम।।

जीवन धन्य बने इस नव दम्पति का ऐसा शुभाशीष हमारा है।

सदा हँसे हँसाये ये जीवन भर ऐसा मंगलाशीष हमारा है।।

कदम कदम पर फूल खिले ऐसे पग मग में तुम रखना।

जिस परिवार की डोर बंधी तुममें उसकी रखवाली खुद करना।।

घर की बगिया में लगाना ऐसे पौधे जिनसे सब सुगन्धित हो जावे।

ध्यान मान रखना सबका यह सोच तुम्हारी हो जावे।।

वक़्त का खयाल सदा रखकर कुल को 'निडर' बलवान बनाना तुम।

सदाचारी बनाकर अपने को परिवार की पाठशाला बन जाना तुम।।

६ - "वही देश भारत"

क्या ये वही देश भारत है ?

जो सोने की चिड़िया था।

जहां संस्कृतियों का संगम बढ़िया था।।

जहां मानव मानव में भाई चारा था।

सबकी उन्नति सबके विकास का नारा था।।

जहां प्रेम दया जन जन में खूब समाया था।

जहां सदाचारियों के आचरणों ने।

भारत का मान बढ़ाया था।

मिलन भाव के सन्देशों ने।

देश को सुखद एहसास कराया था।।

जहां वीरों ने भारत भाल उच्च करने ख़ातिर।

बेझिझक अपना शीश चढ़ाया था।।

मुझे यकीं नहीं हो रहा।

क्या ये वही................

जहां अब स्वर्ण चिरैय्या में ढ़ोलम पोल है।

तहज़ीब तमद्दुम में न कोई मेलमजोल है।।

जहॉ अब लोभियों ने पैर पसारा है।

जिनको दिखता लूट खसोट महज़ सहारा है।।

जहां मानव- मानव में घृणा फैली है।

प्रवाहित विचारधाएं भी मैली मैली है।।

कटुता कपटता लोगों में खूब समाया है।

ब्यभिचारी ब्यवहारी बन लोगों ने खूब छकाया है।।

पाक़ रिश्ते भी स्वारथ को चढ़ रहे भेंट।

और देश का मान गिराया है।।

इसलिए मुझे अब यकीं नहीं हो रहा।

क्या ये वही...............

आस्तीन में पल रहे सर्पिल फनों को कुचलना होगा।

भारत के निवासियों भारत का भाग्य बदलना होगा।।

फिर भारत सोने की चिड़िया बन इतरायेगा।

हर इंसा विज्ञान विशारद बन जायेगा।

तब भारत फिर से विश्व गुरु बन जायेगा।।

और सबको यकीं हो जायेगा।

हां ये वही देश भारत है।

७ - "जिन्दगी"

जिन्दगी के चौराहे पर ,

हर कोई हैरान है।

सोचता है किस तरफ जाऊं ,

क्या जिन्दगी भी ;

जी का जंजाल है।।

समस्याओं के समुन्दर में ,

जिन्दगी कश्ती सी है बनी।

गर कुशल है नहीं मांझी ,

तो कश्ती भी डांवाडोल हो जाएगी ,

जो बड़ी तरतीबी से है बनी ठनी।।

जिन्दगी जीने के फन को ,

हर कोई जानता नहीं।

जो जानता है जिन्दगी का मुअम्मा ,

वह किसी से कभी उलझता नहीं।।

जिन्दगी की मंशा के मुताबिक ,

जो चल रहा राह में।

वह ही खुशहाल है ,

बंधकर जिन्दगी की जाल में।।

'निडर' भी सोचता है हरदम ,

वाह जिन्दगी भी क्या कमाल है।

निपट चले ढ़ंग से ,

तो करती दुनिया सलाम है।

वरना यही जिन्दगी ,

कण्टकों का ताज है।

जिसे पहन कर चलना ,

महज़ जिन्दगी का राज है।।

८ - "रहिए होशियार"

रहिए होशियार ऐसों से....जो बिक जाते हो पैसों से।

जो आंखें निकालकर चश्मा दान देते हो।।

दिखाते हो जो सामने हमदर्दी ,

और पीठ पीछे छूरा भोंक देते हो।।

रहिए होशियार ऐसों से,

जो ढ़ोंग पाखण्ड फैलाते हैं।

देते जो कर्मकाण्ड का भाषण ,

समझो तुम्हें बेवकूफ बनाते हैं।।

रहिए होशियार ऐसों से ,

जो मंच पर समता की बात करते हैं।

पर इसके नीचे उतरते ही ,

खुद ऊंच-नीच का दम भरते हैं।।

रहिए होशियार ऐसों से ,

जो कदम-कदम पर मानभंग देते हो।

ऐसे विष घोलते हो हरदम ,

जिससे भाई-भाई में जंग होते हो।।

रहिए होशियार ऐसों से ,

जो दिमाग़ का ब्रेनवाश कराते है।

समर्थक अपना बनाकर   ,

अपना ही सारा काम बनाते हैं।।

रहे होशियार ऐसों से ,

जो आस्था के नाम पर डर फैलाते हैं।

'निडर' बनने से रोकते सबको ,

ऐसे लोग आस्था के नाम पर शोषण कराते हैं।।

रहिए होशियार ऐसों से......रहिए होशियार ऐसों से।।

९ - "बचपन"

आज जगा जब सबसे पहले।

बचपन आकर बगल में बोला।।

कहां फंस गई कटी पतंगे।

कहां लुट गई मधुर उमंगे।।

कहां गई कथाएं बाबा की।

कहां गई लोरियां दादी की।।

कहां गई पापा की डांटें।

कहां छुप गई मॉ की थपकी।

चुपके चुपके अहले-अहले।।

आज जगा जब...........

पैंजनी पहनकर छम-छम वाले दिन।

गौशाला में गाय बांधने वाले दिन।।

चन्नी में चारा डालने वाले दिन।

संगति में टैर चलाने वाले दिन।।

चौपालों में बतकही वाले दिन।

ठुमुक ठुमुक कर चलने वाले दिन।।

कहां गये ड्योढ़ी के नहले दहले।।

आज जगा जब.........

घर की देहरी पर जमुहाई वाले दिन।

गल्ली-घाटों के सैर सपाटों वाले दिन।।

ताल-तलइया में मस्ती वाले दिन।

खेत-खलिहान में मेहनत करने वाले दिन।।

भूल गये वह अपनी अठखेलियां।

जो करते रहते थे टहले-टहले।।

आज जगा जब.......

बोल 'बहना कितने' वाले खेल।

कलम दवात पाटी वाले मेल।।

कूद-कुदक्का वाले खेल।

कबड्डी खो खो वाले खेल।।

कहां गये बचपन के रेलमपेल।

खो गया फिर यादों में संभले -सभले।।

आज जगा जब......

अब लगता है बाल मन जग गया है।

दिल का गुबार बाहर आ गया है।।

जो करता था बचपन में।

सब के सब हूबहू याद आ गया है।।

१० - "अपनी अभिलाषा"

धरा देश की अनुपम हो ,

सौन्दर्य देश का मोहक हो।

लगे पौधे-पेड़ हर दर पर हो।

यह मेरी मधुर-मधुर अभिलाषा है।।

भाग्य उदित भारत का हो ,

हर वासी मुदित भारत का हो।

हर बाशिन्दा इल्मवान भारत का हो।

यह मेरी नित नयी-नयी प्रत्याशा है।।

विश्व फलक पर डटे देश ,

पाखण्डी कर्मों से हटे देश।

विधि विज्ञान से अपना सटे देश।

न किसी को अब तनिक निराशा हो।।

कर्मशील सब इन्सान बने ,

नहीं कोई जन बेईमान बने।

न कर्मों से कोई जन शैतान बने।

ऐसी अन्तर्मन में सबके दिलाशा हो।।

          ----रचनाकार देवेन्द्र कश्यप 'निडर'

000000000000

प्रिया देवांगन "प्रियू"

मौसम

******

कैसा दिन है आया,

बिन मौसम बरसात है लाया।

ठंडी ठंडी हवा के साथ ,

पानी की बौछारें लाया।

स्वेटर साल ओढ के सब ,

घर में बैठे हैं दुबके ।

गरम गरम चाट पकौड़े

खा रहे चुपके चुपके ।

गरमा गरम चाय ,

सबके मन को भाया ।

स्वेटर पहने या रैनकोट

अभी तक समझ न आया।

मिट्टी की सौंधी खुशबू

मन में है खुशियाँ लाया ।

ठंडी के इस मौसम में

कैसा दिन है आया ।

सूरज

*********

देखो देखो आसमान पर ,

सूरज निकल आया है।

सूरज की किरणों को देखो ,

सब जगहों पर छाया है।

पंछी अपने आवाजो से

सारे जग को जगाया है।

फूलों की बगिया को देखो

मन में खुशियाँ लाया है।

चींव चींव करते पंछी सारे

आसमान पर आया है।

------.

योग करो

************

योग करो सब योग करो।

सुबह शाम योग करो।।

योग करो सेहत बनाओ ।

ताजा ताजा फल को खाओ।।

योग करो सब योग करो।

सुबह उठ कर दौड़ लगाओ।।

शुद्ध ताजा हवा को पाओ।।

जूस पीओ और फल फूल खाओ।

शरीर को सब स्वस्थ बनाओ।।

योग करो सब योग करो।

सुबह शाम सब योग करो।।

-------.

मदारी

बंदर आया बंदर आया।

एक मदारी उसको लाया।।

बंदर को वह बहुत नचाया।

बच्चों ने ताली बजाया।।

नया नया है खेल दिखाया।

बच्चों को वह खूब हँसाया।।

रस्सी पर चलकर दिखाया।

अपने संग बंदरिया लाया।।

नया नया करतब सिखाया।

बच्चों को है खूब भाया।।

प्रिया देवांगन "प्रियू"

पंडरिया

जिला - कबीरधाम  (छत्तीसगढ़)

Priyadewangan1997@gmail.com

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रचनाकार: अब और नहीं - माह की कविताएँ
अब और नहीं - माह की कविताएँ
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