समीक्षा - “दिवास्वप्न” – ( गिजुभाई बधेका )

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“दिवास्वप्न” – ( गिजुभाई बधेका ) भूमिका - गिजुभाई ने बच्चों के विचारों व उनके मानसिक स्थितियों का बारीक व सूक्ष्म अवलोकन किया | उन्होने  जब ...

“दिवास्वप्न” – ( गिजुभाई बधेका )

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भूमिका -

गिजुभाई ने बच्चों के विचारों व उनके मानसिक स्थितियों का बारीक व सूक्ष्म अवलोकन किया | उन्होने  जब अपने शैक्षिक अनुभवों को पुस्तक रूप में मूर्तता प्रदान किया तो उन्हे भी एक बार ऐसा लगा कि क्या पता लोग सोचेंगे कि मैं ये क्या लिख रहा हूँ ? लोग मुझे पागल ही समझेंगे | किन्तु देखा जाये तो हमें यही ज्ञात होता है कि वह अपने जमाने से बहुत आगे बढ़कर सोच रहे थे | दिवास्वप्न को पढ़करके हर उस पाठक और शिक्षक को एक प्रकाशित मार्ग का बना बनाया नक्शा प्राप्त होता है जिसपे चलकर हर शिक्षक को एक आलोकित व उज्ज्वल भविष्य ( बच्चे ) रूपी मंजिल की प्राप्ति होती है | जो उसके वर्ष भर के अथक प्रयासों व प्रयोगो का ही परिणाम होता है | गिजूभाई ने सबसे पहले मौजूदा शैक्षणिक व्यवस्थाओं का काफी गहनता से अवलोकन व अध्ययन किया, उसके बाद उसमे व्याप्त कमियों को पहचाना तथा उसे सुधारने का यथासंभव प्रयास भी किया | गिजूभाई ने देखा कि वर्त्तमान शिक्षा-व्यवस्था अनेक झंझावतों से जूझ रहा है | इन कमियों को मध्येनजर रखते हुए गिजूभाई ने अनेक सुझाव हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है |

पुस्तक – समीक्षा –

“दिवास्वप्न” जैसा कि पुस्तक के नाम से ही पता चल रहा है कि दिन में देखा हुआ स्वप्न | जो कोई सुगम कार्य नही है अर्थात इस पुस्तक में लेखक ने अपने स्वयं के अनुभवों व प्रयोगों को बताया है जो पूरी तरह वास्तविक व जीवंत अनुभव हैं | लेखक ने स्वयं एक विद्यालय में शिक्षण कार्य करने का निर्णय लेते हुये जैसे ही प्रथम बार कक्षा के भीतर प्रवेश किया तो उसे एक अलग प्रकार के अनुभव से अवगत होना पड़ा | जिसमें सभी बच्चों ने भिन्न – भिन्न प्रकार के हाव – भाव से अध्यापक( लक्ष्मीशंकर ) का स्वागत किया और कुछ इसी तरह का मिलता – जुलता अनुभव हर उस शिक्षक के साथ होता है जो प्रथम बार किसी प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश करता है | और कुछ इसी तरह की अनुभूति मुझे भी हुयी थी जब मैं पहली बार प्राथमिक विद्यालय में गया था | इन सभी अनुभवों को जब मैं पुस्तक के साथ जोड़कर देख पाया , तब जाके मुझे पता चला की नही | इस तरह की समस्याएँ जो कक्षा प्रबंधन से जुड़ी है वह केवल मेरे साथ नही बल्कि हर उस नये व्यक्ति के साथ होती है जो पहली बार प्राथमिक विद्यालयों से जुड़ता है | और यही कारण है कि लेखक द्वारा इस पुस्तक में वर्णित तमाम यथार्थ अनुभव ही इस पुस्तक में जान फूँक देते है |

गिजूभाई शिक्षक व्यवसाय को सबसे पवित्र व्यवसाय मानते हैं,क्योंकि अन्य व्यवसाय की तुलना में इस व्यवसाय मे सामाजिक  उतरदायित्व अधिक होता है | उनका मानना है कि बच्चों के भावी भविष्य का निर्माण अधिकांशतः शालाओं तथा उनसे जुड़े छात्रावासों में होता है और शालाओं की जिम्मेदारी हमारे शिक्षक भाइयों पर है | इस हेतु शिक्षक और उनकी पध्दति कैसी हो इस पर गिजूभाई ने आगे विस्तार से चर्चा की है | उनका मानना है कि आज दुनिया पैसे के पीछे पागल है तो इसके पीछे भी कही न कही हमारी शिक्षण पद्धति ही जिम्मेदार है | अतः हमें एक ऐसी शिक्षा पद्धति बनानी पड़ेगी जिससे हमारे स्कूलों के बच्चों के चेहरों पर हर्ष व उल्लास की रेखाएँ खिची हुयी दिखाई पड़े | गिजुभाई ने मुख्यतः अपने व्यावहारिक यथार्थ अनुभवों व ज्ञान को वास्तविक दुनियाँ के साथ जोड़कर देखा , तब उन्हे बहुत से अबूझ और उलझे हुये सवालो के जवाब ढूँढने में काफी मदद मिली | जैसे – क्या कारण है कि प्राथमिक स्कूलों के बच्चों का मन पढ़ाई से ज्यादा खेलने – कूदने में अधिक लगता है इसके पीछे कई कारण हो सकते है | ये हो सकता है कि बच्चों को इस तरह के आदतों के अनुभव नही है , या फिर ये भी हो सकता है कि बच्चे का घरेलू माहौल ऐसा न हो जिसमें उन्हे पढ़ने – लिखने के अधिक से अधिक अवसर मुहैया हो | ये सोचने की बात है कि जब बच्चे पढ़ाई के अलावा अन्य गतिविधियों में मन लगाकर रुचि पूर्वक करते है तो पढ़ाई भी उसी रुचि के साथ क्यो नही कर पाते ? इन तमाम सवालों के जवाब हम केवल किताबें पढ़कर या मेज पर बैठकर नही ढूँढ सकते , इसके लिए तो हमें सीधे कक्षाकक्ष में बच्चों के साथ प्रत्यक्ष रूप से जुड़ना होगा | और प्राथमिक कक्षा के बच्चों के साथ काम करना अपने आप में लोहे के चने चबाने के बराबर है |

अक्सर हमें ऐसे उदाहरण देखने को मिलते है कि हम एक लंबा – चौड़ा खाका बनाकर कक्षा में बच्चों के बीच जाते है और फिर परिस्थिति कुछ ऐसी बनती है कि बच्चा आपकी बातों में तनिक भी रुचि नहीं लेता है | ऐसा इसलिए भी होता है कि हम बच्चों के परिवेश को समझे बिना ही ज्ञान देना शुरू कर देते है | अतः हमें सबसे पहले तो बच्चे से मेलजोल बढ़ाना चाहिए फिर जाके हम बच्चों के साथ किसी भी प्रक्रिया में पूरी तरह से सहजता के साथ जुड़ पाएंगे | बच्चों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का सबसे मजबूत टूल कविता और कहानियाँ है जिसका मुख्य उद्देश्य यही है कि बच्चे कक्षा के भीतर पूरी एकाग्रता के साथ हर बात को सुने व समझे | और कुछ इसी तरह के उदाहरण हमें लेखक के पुस्तक को पढ़कर भी मिला | जो मेरे स्वयं के कक्षागत अनुभवों के साथ जुड़ भी पा रहे थे कुछ इसी तरह की परिस्थितियों का सामना मुझे कक्षा के भीतर देखने व अनुभव करने को मिला | पुस्तक में एक और मुख्य बात है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है लेखक ने स्वयं भी इस बात को गंभीरता के साथ लिया है और अपनी ओर से हर संभव प्रयास किया और उसमें सफलता भी प्राप्त किया | स्कूल के हेडमास्टर की मान्यता थी कि टोपी या कपड़े की सफाई का ध्यान रखना बच्चों के घर वालो का काम है पर इन तमाम विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुये भी लेखक तनिक भी विचलित नहीं होता, और निरंतर अपने मार्ग में उत्साह के साथ आगे की ओर बढ़ता रहता है | और वर्ष के अंत तक जाते – जाते उन्होने अपने प्रयोग को सभी के बीच एक प्रदर्शन रुप में लाकर खड़ा कर दिया | जिसको सभी ने उदाहरण रूप में स्वीकारते हुये काफी सराहना भी की | यह उनके अथक परिश्रम व त्याग का ही परिणाम था कि उन्होने शिक्षा के मूल उद्देश्यों को सभी के बीच प्रस्तुत किया , क्योकि उस शिक्षा से गुजरे हुये विद्यार्थी अलग तरह के होंगे , उनकी सोच अलग तरह की होगी , उनका विकास भी अलग तरह का होगा |

लेखक ने अपनी इस पुस्तक में रूढ़ परंपरागत तरीकों पर बहुत ही कम दृष्टि दौड़ाते हुये उन परंपरागत तरीकों का नवीनता के साथ एक सामंजस्य स्थापित किया है | अतः हम यह नही कह सकते है कि गिजुभाई ने पारंपरिक शैलियों को खारिज किया है |  कक्षाकक्ष में पाठ्यपुस्तक आधारित अध्ययन को किनारे करते हुये उन्होने बच्चों के निजी संदर्भों के ज्ञात अनुभवों को विशेष तरजीह दिया है ताकि बच्चे किसी भी प्रक्रिया को करके सीखे व समझे | कुल मिलाकर यदि कहा जाय तो वह यही है कि गिजुभाई किसी परिचय के मोहताज नही है शिक्षा जगत में उनके योगदान को आज भी याद किया जाता है और आगे भी याद किया जाता रहेगा | बाल - मनोविज्ञान और बाल – दर्शन के बारे में उनकी गहरी पैठ थी वह अपनी अधिकांशतः कृतियों में इस बात पर ज़ोर देते है कि “जब तक बच्चे घरों और स्कूलों के भीतर मार व गालियाँ खाते रहते है तब तक मुझे चैन नही पड़ता है” | अतः इस तरह की सूक्ष्म काव्यात्मक पंक्तियों के द्वारा लेखक ने गूढ़ संवेदनात्मक अर्थ को सभी के समक्ष रखा है ताकि हर उस पाठक व अध्यापक का ध्यान इन समस्याओं की ओर जाये , और फिर वह इन तमाम समस्याओं के निदान हेतु हर तरह के भरसक प्रयास के बारे में अवश्य सोंचे |

                                                                                                  धन्यवाद !

परिचय- चंद्रभान सिंह मौर्य का साहित्यिक उपनाम "भानु" है| 18 सितंबर 1994 को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में जन्मे है| वर्तमान में छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के कुरुद ब्लाक में रहते है | जबकि स्थाई पता - दीनदयालपुर जिला वाराणसी है | आपको हिन्दी, भोजपुरी, संस्कृत, अँग्रेजी, छत्तीसगढ़ी, सहित अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, भाषा का ज्ञान है| उत्तर प्रदेश से नाता रखने वाले चंद्रभान की पूर्व शिक्षा- बी. ए.( हिन्दी प्रतिष्ठा ) और एम. ए. ( हिन्दी ) है| वर्तमान में अजीम प्रेमजी फाउंडेशन (छत्तीसगढ़) में एसोसिएट के पद पर कार्यरत है| सामाजिक गतिविधि में शिक्षा में नवाचार, बाल साहित्य और छत्तीसगढ़ी स्थानीय शब्दकोश को लेकर क्रियाशील है| लेखन विधा में कविता, कहानी, नाटक, शिक्षा और सामाजिक सरोकार से जुड़े लेख और पुस्तक समीक्षा तथा स्वतंत्र समीक्षा करते है| आपकी विशेष उपलब्धि शिक्षक प्रशिक्षक और समाज सेवक के रूप में है| आपकी लेखनी का उद्देश्य साहित्य के विकास को आगे बढ़ाने के साथ - साथ शिक्षा के क्षेत्र में किए जा रहे नवाचार व प्रयोग तथा सामाजिक समस्याओं से सभी को रूबरू कराना है| आपके पसंदीदा हिन्दी लेखक- नागार्जुन, निराला, प्रेमचंद, दुष्यंत कुमार और रामधारी सिंह दिनकर है| आपके लिए प्रेरणा पुंज- नागार्जुन है| अपने राष्ट्र और हिन्दी भाषा के प्रति मेरे विचार- "हिन्दी नही है केवल एक भाषा, यह तो है बड़े सपने की भाषा, हिन्दी ही वह द्वार है जो अभिव्यक्ति के खतरो को उठाने से पीछे नही हटती||

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रचनाकार: समीक्षा - “दिवास्वप्न” – ( गिजुभाई बधेका )
समीक्षा - “दिवास्वप्न” – ( गिजुभाई बधेका )
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