व्यंग्य - उफ़्फ़, ये मौसम की ख़ुराफ़ात -- डॉ. मनोज मोक्षेंद्र

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इंसानी फ़ितरत भी बेहद अज़ूबी चीज़ है। यों तो आस्था और अनास्था, आस्तिकता और नास्तिकता के बीच दोलन करते हुए वह कभी ईश्वर को कोसता है और उसके अस्त...

इंसानी फ़ितरत भी बेहद अज़ूबी चीज़ है। यों तो आस्था और अनास्था, आस्तिकता और नास्तिकता के बीच दोलन करते हुए वह कभी ईश्वर को कोसता है और उसके अस्तित्व पर संदेह करता है तो कभी उसका ही मान-मनौव्वल करने लगता है। फिर भी वह यह नहीं तय कर पाता कि आख़िर वह चाहता क्या है? अब देखिए, जब सूरज ग्रीष्मकाल में इस बिचारी धरती के सीने पर जलते शोलों का पटाखा फोड़ता है तो इंसान कोहराम मचाते हुए सूरज के गरम मिज़ाज़ को नरम मिज़ाज़ में बदलने के लिए उससे करबद्ध मिन्नतें करने लगता है। इतने पर भी जब सूरज नरमी नहीं बरतता तो हम किस-किस को, कहाँ-कहाँ नहीं मनाने लगते हैं? कैसे-कैसे हथकंडे नहीं अपनाते हैं? ‘किस-किस’ से मेरा आशय भगवान और ख़ुदा के साथ-साथ संतों और फकीरों से भी है जबकि ‘हथकंडों’ से मेरा अभिप्राय कर्मकांडों से है तथा ‘कहाँ-कहाँ’ का मतलब इबादतखाने और उपासना-स्थल है। अर्थात यह निरीह इंसान सूरज के घातक कहर से तत्काल उबरने के लिए मंदिरों-मस्ज़िदों में जाकर ऊपरवाले से सूरज के गरमागरम गुस्से को ठंडा करने के लिए अलग-अलग सुर-ताल में प्रार्थनाएं करने लगता है। कभी शंख और घंटा-घड़ियाल बजाकर तो कभी लाउडस्पीकर से ऊपरवाले को मुर्गे वाली सूफ़ियाई बांग देकर।

जब मौसम का मिजाज़ बिगड़ता है तो संतों और फ़कीरों की डिमांड भी बेहद बढ़ जाती है। उनकी ओर से यह दावा किया जाने लगता है कि इस झुलसाती गर्मी से दीन-दुनिया को उबारने का नायाब नुस्खा तो सिर्फ़ उनके ही पास है जिसका इस्तेमाल करके ऊपरवाले को बारिश करने के लिए मज़बूर किया जा सकता है। तब मौसम के घातक प्रहार से आहत जनता उनके आगे नाक रगड़ने लगती है। सूरज को पानी की बर्फ़ीली बौछारों से शांत करने के लिए इधर मंदिरों में यज्ञ-अनुष्ठानों का दौर शुरू होता है तो उधर मस्ज़िदों के मौलवी भी ख़ुदा के नापाक बंदों को दोषी ठहराने लगते हैं कि तुमलोगों ने ही अपने इबादत में कोई भारी भूल की होगी जिससे ख़ुदा नाराज़ होकर लपलपाती गर्मी का कहर हमसब पर बरपा रहा है। ठीक उसी समय, इन कर्मकांडों को फ़िज़ूल ऐलॉन करते हुए मौसमविज्ञानी और आला दर्ज़े के वैज्ञानिक, मौसम की सनक का सुराग लेने वाले अपने इम्पोर्टिड यंत्रों के ज़रिए मंदिर-मस्ज़िद की दुकान चलाने वालों के मन्सूबों पर पानी फ़ेर देते हैं। वे यह ताना देने लगते हैं कि जब फ़िज़ूल विकास की वेदी पर जंगलों की बेतहाशा बलि तुमलोगों ने दी है और हरियालियों के हत्यारे भी तुम्हीं लोग हो तो उसका ख़ामियाज़ा भी तो तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा।

लिहाज़ा, अगर हमारे कर्मकांडों, मान-मनौव्वलों तथा मिन्नतों के दौरान ही काले मेघ सूरज को कैदखाने में डालकर मूसलधार बारिश कर देते हैं तो अलग-अलग पंथों के ठेकेदार इसका श्रेय अपने ऊपर लेने लग जाते हैं। ऐलॉनिया लहज़े में बताने लगते हैं कि अगर हमने समय रहते यह अचूक उपाय नहीं किया होता और मेघ देवता को आमूलचूल नहीं रिझाया होता तो इस साल ग़ज़ब हो गया होता। इस बार सूरज की प्रचंड आग में सारी दुनिया ही झुलसकर तबाह हो गई होती। पर, मजे की बात यह है कि कभी-कभार मेघों के रीझने का सबब भी अज़ब होता है। प्रलयंकारी बारिश--बस्तियों, खड़ी फसलों, खेत-खलिहानों, हाट-बाजारों, गाँवों और शहरों को लीलने लग जाती हैं। मानव और मवेशी सभी अतिवृष्टि वाले दानव का ग्रास बन जाते हैं। चारो ओर विलाप-रुदन कान बहराने लगते हैं और त्राहि-त्राहि मच जाती है। ज़्यादातर मंदिर-मस्ज़िद-शिवाले भी जलमग्न हो जाते हैं और बारिश के ख़िलाफ़ कर्मकांड करने वाले संत और फकीर भी ज़मीदोज़ हो जाते हैं क्योंकि उनके पास ऐसे प्रलय से संसार को उबारने का कोई नुस्खा ही नहीं होता है। दूसरे, उन्हें यह भी भय खाए जाता है कि अभी-अभी तो उन्होंने बारिश करवाई है और इसके विध्वंसक होने के लिए भी वे ही ज़िम्मेदार हैं जिसके लिए उन्हें जनता-जनार्दन के कोप का भाजन बनना पड़ सकता है।

ऐसे प्रलयंकारी समय में भी मौसमविज्ञानी आम लोगों पर तंज़ कसने से बाज़ नहीं आते हैं। वे फिर वैसा ही सबक देने लगते हैं कि अगर इतनी बड़ी तादात में जंगल नहीं उजाड़ी गई होती तो इतनी विध्वंसक बाढ़ नही आई होती और इतना ज़्यादा जान-माल का नुकसान भी नहीं हुआ होता। चुनांचे, इस बारिश और बाढ़ से सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ज़दा तो कॉलोनियों के डेवेलपर और अपार्टमेंटों के बिल्डर होते हैं। जब उनके बनाए अपार्टमेंट बारिश की मार नहीं झेल पाते हैं तो उनके वादों की कलई खुलने लग जाती है और खरीदारों को उनके द्वारा दिखाए गए सब्ज़ बाग़ पर पतझड़ के फ़फ़ूंद उग आते हैं। उनकी बनाई बहुमंजिली इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढहने लग जाती हैं और कॉलोनियाँ पाताल लोक में समाने लगती हैं। नगर निगमों और विकास प्राधिकरणों की उनके साथ मिलीभगत का भी भांडाफोड़ होने लगता है। सरकारी तबकों में भी अफ़सरों के हाथ-पाँव फूलने लग जाते हैं कि जो बेग़ुनाह लोग अपार्टमेंटों के गिरने से मौत का ग्रास बने हैं, उनका ज़वाब वे मीडिया और वज़ीरे-आज़म को कैसे देंगे।

बहरहाल, जनता के धन का दुरुपयोग करने वाले सरकारी ठेकेदारों ने भी राह चलते लोगों पर कम ज़ुल्म नहीं ढाए हैं। इन्हीं तबाहकुन बरसातों में उनके बनाए पुलों के ढह जाने के कारण जो लोग राह चलते उनकी चपेट में आ गए और अपनी इहलीला समाप्त कर बैठे, उनकी ‘हाय’ उन्हें क्यों नहीं लगती? सरकारी अफ़सरों की मौन सहमतियों के तहत नदी-घाटियों में बनाई गई कॉलोनियों को बारिश ने इस बुरी तरह से अपना ख़ुराक बनाया कि उससे कई तरह के नुकसान हुए। एक ओर तो ग़रीबजनों के जानमाल का नुकसान हुआ ही, दूसरी तरफ़ भ्रष्टाचारियों के कुकर्मों का भी पर्दाफ़ाश हुआ जिन्होंने सारे नियम-कानूनों का ख़ूब मख़ौल उड़ाया और लोगों की मेहनत से कमाए गए धन पर अपने ठाठ-बाट का महल खड़ा किया। अज़ी, इस देश में अपनी चाँदी करने वालों की ख़बर कब ली जाएगी? दरअसल, हमें कुदरत की अलपटप कवायद को इतने हल्के में नहीं लेना चाहिए। वह तो बार-बार कुकर्मियों के पापों का खुलासा करने के लिए हमारा ध्यान आकर्षित करती है। लेकिन, हमारी यह हालत है कि अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे रहते हैं। बिचारा आम आदमी खब्बू व्यवस्था-तंत्रों का निवाला बनता जा रहा है। सरकारी धौंस के बल पर विभिन्न वर्गों के ठेकेदारों के साए में सारा हिंदुस्तान येन-केन-प्रकारेण अपनी ज़िंदग़ी गुज़र-बसर कर रहा है।

बरसात तो सबसे बड़ा सफ़ाई अभियान चलाती है पर चूँकि हमारे लोगों को गंगा-सफाई अभियान के तहत करोड़ों रुपए गड़प करने होते हैं इसलिए वे इसके नाम पर इस योजना-अभियान को फ़ाइलों में ज़िंदा रखने का मुनाफ़ेदार धंधा चलाते रहेंगे। बहरहाल, मौसम रह-रहकर जो झटके देता रहता है, उससे भी हम जागरुक नहीं होने वाले हैं। हम जंगल की हरी-भरी हरियाली को उजाड़कर पथरीले शहर बनाते रहेंगे, मरियल अपार्टमेंटों के पहाड़ खड़े करते रहेंगे और ज़हर उगलने वाले कल-कारखानों से सारी दुनिया की आबोहवा को दमघोटूं बनाते रहेंगे। फिर भी यह भी रोते रहेंगे कि अज़ी, अब इस धरती के जहरीले वातावरण से निकलकर कहीं और चलें। पर, न तो चंद्रमा पर जीवनयापन संभव हो पाएगा, न ही मंगल पर। लेकिन, आकाश-गंगाओं में जीवन तलाशते रहेंगे और अगर कहीं किसी तारामंडल के ग्रह पर जीवन मिल भी गया तो वहाँ कई लाख प्रकाश-वर्षों की यात्रा करके पहुंचने का दमखम हममें कहाँ रहेगा। हमें वहाँ तक पहुंचने के लिए अपने इकलौते अंतरिक्ष-यान में ही लाखों जन्म लेने होंगे। मुश्किल से सौ साल भी न जी सकने वाले हम इंसानों के लिए क्या ऐसा संभव है?

(समाप्त)

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जीवन-चरित

लेखकीय नाम: डॉ. मनोज मोक्षेंद्र {वर्ष 2014 (अक्तूबर) से इस नाम से लिख रहा हूँ। इसके पूर्व 'डॉ. मनोज श्रीवास्तव' के नाम से लेखन}

वास्तविक नाम (जो अभिलेखों में है) : डॉ. मनोज श्रीवास्तव

पिता: (स्वर्गीय) श्री एल.पी. श्रीवास्तव,

माता: (स्वर्गीया) श्रीमती विद्या श्रीवास्तव

जन्म-स्थान: वाराणसी, (उ.प्र.)

शिक्षा: जौनपुर, बलिया और वाराणसी से (कतिपय अपरिहार्य कारणों से प्रारम्भिक शिक्षा से वंचित रहे) १) मिडिल हाई स्कूल--जौनपुर से २) हाई स्कूल, इंटर मीडिएट और स्नातक बलिया से ३) स्नातकोत्तर और पीएच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य में) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से; अनुवाद में डिप्लोमा केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो से

पीएच.डी. का विषय: यूजीन ओ' नील्स प्लेज़: अ स्टडी इन दि ओरिएंटल स्ट्रेन

लिखी गईं पुस्तकें: 1-पगडंडियां (काव्य संग्रह), वर्ष 2000, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 2-अक़्ल का फलसफा (व्यंग्य संग्रह), वर्ष 2004, साहित्य प्रकाशन, दिल्ली; 3-अपूर्णा, श्री सुरेंद्र अरोड़ा के संपादन में कहानी का संकलन, 2005; 4- युगकथा, श्री कालीचरण प्रेमी द्वारा संपादित संग्रह में कहानी का संकलन, 2006; चाहता हूँ पागल भीड़ (काव्य संग्रह), विद्याश्री पब्लिकेशंस, वाराणसी, वर्ष 2010, न.दि., (हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा चुनी गई श्रेष्ठ पाण्डुलिपि); 4-धर्मचक्र राजचक्र, (कहानी संग्रह), वर्ष 2008, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 5-पगली का इंक़लाब (कहानी संग्रह), वर्ष 2009, पाण्डुलिपि प्रकाशन, न.दि.; 6.एकांत में भीड़ से मुठभेड़ (काव्य संग्रह--प्रतिलिपि कॉम), 2014; 7-प्रेमदंश, (कहानी संग्रह), वर्ष 2016, नमन प्रकाशन, न.दि. ; 8. अदमहा (नाटकों का संग्रह) ऑनलाइन गाथा, 2014; 9--मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में राजभाषा (राजभाषा हिंदी पर केंद्रित), शीघ्र प्रकाश्य; 10.-दूसरे अंग्रेज़ (उपन्यास); 11. संतगिरी (कहानी संग्रह), अनीता प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, 2017; चार पीढ़ियों की यात्रा-उस दौर से इस दौर तक (उपन्यास) पूनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018; 12. महापुरुषों का बचपन (बाल नाटिकाओं का संग्रह) पूनम प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, 2018; चलो, रेत निचोड़ी जाए, नमन प्रकाशन, 2018 (साझा काव्य संग्रह) आदि

संपादन: महेंद्रभटनागर की कविता: अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति”

संपादन: “चलो, रेत निचोड़ी जाए” (साझा काव्य संग्रह)

--अंग्रेज़ी नाटक The Ripples of Ganga, ऑनलाइन गाथा, लखनऊ द्वारा प्रकाशित

--Poetry Along the Footpath अंग्रेज़ी कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य

--इन्टरनेट पर 'कविता कोश' में कविताओं और 'गद्य कोश' में कहानियों का प्रकाशन

--वेब पत्रिकाओं में प्रचुरता से प्रकाशित

--महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्याल, वर्धा, गुजरात की वेबसाइट 'हिंदी समय' में रचनाओं का संकलन

--सम्मान--'भगवतप्रसाद कथा सम्मान--2002' (प्रथम स्थान); 'रंग-अभियान रजत जयंती सम्मान--2012'; ब्लिज़ द्वारा कई बार 'बेस्ट पोएट आफ़ दि वीक' घोषित; 'गगन स्वर' संस्था द्वारा 'ऋतुराज सम्मान-2014' राजभाषा संस्थान सम्मान; कर्नाटक हिंदी संस्था, बेलगाम-कर्णाटक द्वारा 'साहित्य-भूषण सम्मान'; भारतीय वांग्मय पीठ, कोलकाता द्वारा ‘साहित्यशिरोमणि सारस्वत सम्मान’ (मानद उपाधि); प्रतिलिपि कथा सम्मान-2017 (समीक्षकों की पसंद); प्रेरणा दर्पण संस्था द्वारा ‘साहित्य-रत्न सम्मान’ आदि

"नूतन प्रतिबिंब", राज्य सभा (भारतीय संसद) की पत्रिका के पूर्व संपादक

"वी विटनेस" (वाराणसी) के विशेष परामर्शक, समूह संपादक और दिग्दर्शक

'मृगमरीचिका' नामक लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका के सहायक संपादक

हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, कथाक्रम, समकालीन भारतीय साहित्य, भाषा, व्यंग्य यात्रा, उत्तर प्रदेश, आजकल, साहित्य अमृत, हिमप्रस्थ, लमही, विपाशा, गगनांचल, शोध दिशा, दि इंडियन लिटरेचर, अभिव्यंजना, मुहिम, कथा संसार, कुरुक्षेत्र, नंदन, बाल हंस, समाज कल्याण, दि इंडियन होराइजन्स, साप्ताहिक पॉयनियर, साहित्य समीक्षा, सरिता, मुक्ता, रचना संवाद, डेमोक्रेटिक वर्ल्ड, वी-विटनेस, जाह्नवी, जागृति, रंग अभियान, सहकार संचय, मृग मरीचिका, प्राइमरी शिक्षक, साहित्य जनमंच, अनुभूति-अभिव्यक्ति, अपनी माटी, सृजनगाथा, शब्द व्यंजना, साहित्य कुंज, मातृभाषा डॉट कॉम वैचारिक महाकुम्भ, अम्स्टेल-गंगा, इ-कल्पना, अनहदकृति, ब्लिज़, राष्ट्रीय सहारा, आज, जनसत्ता, अमर उजाला, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक भास्कर, कुबेर टाइम्स आदि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं, वेब-पत्रिकाओं आदि में प्रचुरता से प्रकाशित

आवासीय पता:--सी-66, विद्या विहार, नई पंचवटी, जी.टी. रोड, (पवन सिनेमा के सामने), जिला: गाज़ियाबाद, उ०प्र०, भारत. सम्प्रति: भारतीय संसद में संयुक्त निदेशक के पद पर कार्यरत

ई-मेल पता: drmanojs5@gmail.com

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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व्यंग्य - उफ़्फ़, ये मौसम की ख़ुराफ़ात -- डॉ. मनोज मोक्षेंद्र
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