हास्य-व्यंग्य - बच्चे - मूल उर्दू - पतरस बुख़ारी - अनुवाद - डॉ. आफ़ताब अहमद

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अनुवादक : डॉ. आफ़ताब अहमद व्याख्याता, हिंदी-उर्दू, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क बच्चे पतरस बुख़ारी यह तो आप जानते हैं कि बच्चों के कई प्र...

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अनुवादक : डॉ. आफ़ताब अहमद

व्याख्याता, हिंदी-उर्दू, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क

बच्चे

पतरस बुख़ारी

यह तो आप जानते हैं कि बच्चों के कई प्रकार हैं। मसलन बिल्ली के बच्चे, फ़ाख़्ता के बच्चे वग़ैरह। मगर मेरा तात्पर्य सिर्फ़ इन्सान के बच्चों से है, जिनके प्रकट रूप से तो कई प्रकार हैं। कोई प्यारा बच्चा है और कोई नन्हा सा बच्चा है। कोई फूल-सा बच्चा है और कोई चाँद-सा बच्चा है। लेकिन ये सब उस समय तक की बातें हैं जब तक सुपुत्र पालने में सोया पड़ा है। जहाँ जागने पर बच्चे की पाँचों इन्द्रियाँ काम करने लगीं, बच्चे ने इन सब उपाधियों से अनासक्त होकर एक अलार्म क्लॉक का रूप धारण कर लिया।

यह जो मैंने ऊपर लिखा है कि जागने पर बच्चे की पाँचों इन्द्रियाँ काम करने लगती हैं, यह मैंने अन्य विद्वानों के अनुभवों के आधार पर लिखा है, वरना मैं इस बात का हरगिज़ क़ायल नहीं।

कहते हैं बच्चा सुनता भी है और देखता भी है, लेकिन मुझे आज तक सिवाय उसकी चीत्कार-शक्ति के और किसी शक्ति का सबूत नहीं मिला। कई दफ़ा ऐसा इत्तिफ़ाक़ हुआ है कि रोता हुआ बच्चा मेरे हवाले कर दिया गया है कि ज़रा इसे चुप कराना। मैंने जनाब, इस बच्चे के सामने गाने गाए हैं, शेर पढ़े हैं, नाच नाचे हैं, तालियाँ बजाई हैं, घुटनों के बल चलकर घोड़े की नक़लें उतारी हैं, भेड़-बकरी की सी आवाज़ें निकाली हैं, सिर के बल खड़े होकर हवा में बाईसिकल चलाने के नमूने पेश किए हैं, लेकिन क्या मजाल जो उस बच्चे की एकाग्रचित्तता में तनिक भी अंतर आया हो या जिस सुर पर उसने शुरू किया था उससे ज़रा भी नीचे उतरा हो और ख़ुदा जाने ऐसा बच्चा देखता है और सुनता है तो किस समय?

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बच्चे के जीवन का शायद ही कोई क्षण ऐसा बीतता हो जब उसके लिए किसी न किसी प्रकार का शोर आवश्यक न हो। अक्सर समय तो वे स्वयं ही अपनी मधुर तान से कानों में रस घोलते रहते हैं वरना यह दायित्व उनके प्रियजनों को निभाना पड़ता है। उनको सुलाना हो तो लोरी दीजिए, हँसाना हो तो अनर्गल से वाक्य, व्यर्थ-से-व्यर्थ मुँह बनाकर बुलंद-से-बुलंद आवाज़ में उनके सामने दुहराइए और कुछ न हो तो बेकारी में व्यस्त रहने के लिए उनके हाथ में एक झुनझुना दे दीजिए। यह झुनझुना भी कमबख़्त किसी निकम्मे की ऐसी ईजाद है कि क्या अर्ज़ करूँ! यानी ज़रा सा आप हिला दीजिए लुढ़का चला जाता है और जब तक दम-में-दम है उसमें से एक ऐसी बेसुरी, कान-छीलू आवाज़ अनवरत निकलती रहती है कि दुनिया में शायद उसकी मिसाल मुश्किल है और जो आपने “मामता या बापता” के जोश में आकर सुपुत्र को एक अदद वह रबड़ की गुड़िया मंगवा दी जिसमें एक बहुत ही तेज़ आवाज़ की सीटी लगी होती है तो बस फिर ख़ुदा-हाफ़िज़। इससे बढ़कर मेरी सेहत के लिए हानिकारक चीज़ दुनिया में और कोई नहीं। सिवाए शायद उस रबड़ के थैले के जिसके मुँह पर एक सीटीदार नाली लगी होती है और जिसमें मुँह से हवा भरी जाती है। ख़ुशक़िस्मत हैं वे लोग जो माता-पिता कहलाते हैं। बदक़िस्मत हैं तो वे बेचारे जो नियति द्वारा इस ड्यूटी पर नियुक्त हुए हैं कि जब किसी प्रिय रिश्तेदार या दोस्त के बच्चे को देखें तो ऐसे मौक़े पर, उनकी निजी भावनाएँ कुछ ही क्यों न हों, वे यह ज़रूर कहें कि क्या प्यारा बच्चा है।

मेरे साथ के घर एक मिर्ज़ा साहब रहते हैं। ख़ुदा की मेहरबानी से छह बच्चों के बाप हैं। बड़े बच्चे की उम्र नौ साल है। बहुत सज्जन आदमी हैं। उनके बच्चे भी बेचारे बहुत ही बेज़बान हैं। जब उनमें से एक रोता है तो बाक़ी के सब चुपके बैठे सुनते रहते हैं। जब वह रोते-रोते थक जाता है तो उनका दूसरा सुपुत्र शुरू हो जाता है। वह हार जाता है तो तीसरे की बारी आती है। रात की ड्यूटी वाले बच्चे अलग हैं। उनका सुर ज़रा बारीक है। आप उंगलियाँ चटख़वाकर, सिर की खाल में तेल तिसवाकर, कानों में रुई देकर, लिहाफ़ में सिर लपेटकर सोइए, एक पल के अंदर आपको जगाके उठाके बिठा न दें तो मेरा ज़िम्मा।

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इन ही मिर्ज़ा साहब के घर पे जब मैं जाता हूँ तो एक-एक बच्चे को बुलाकर प्यार करता हूँ। अब आप ही बताइए मैं क्या करूँ। कई दफ़ा दिल में आया मिर्ज़ा साहिब से कहूँ हज़रत आपके इन राग-सुरों ने मेरी ज़िंदगी हराम कर दी है। न दिन को काम कर सकता हूँ न रात को सो सकता हूँ। लेकिन यह मैं कहने ही को होता हूँ कि उनका एक बच्चा कमरे में आ जाता है और मिर्ज़ा साहब एक वात्सल्यपूर्ण मुस्कान से कहते हैं, “अख़्तर बेटा! इनको सलाम करो, सलाम करो बेटा। इसका नाम अख़्तर है। साहब बड़ा अच्छा बेटा है। कभी ज़िद नहीं करता, कभी नहीं रोता, कभी माँ को तंग नहीं करता”। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि यह वही नालायक़ है जो रात को दो बजे गला फाड़-फाड़ के रोता है। माननीय मिर्ज़ा साहब तो शायद अपने ख़र्राटों के ज़ोर-शोर में कुछ नहीं सुनते। दुर्गति हमारी होती है, लेकिन कहता यही हूँ कि “यहाँ आओ बेटा,” घुटने पर बिठाकर उसका मुँह भी चूमता हूँ।

ख़ुदा जाने आजकल के बच्चे किस क़िस्म के बच्चे हैं। हमें अच्छी तरह याद है कि हम बक़राईद को थोड़ा सा रो लिया करते थे और कभी-कभार कोई मेहमान आ निकला तो नमूने के तौर पर थोड़ी सी ज़िद करली, क्योंकि ऐसे मौक़े पर ज़िद उपयोगी हुआ करती थी। लेकिन यह कि चौबीस घंटे लगातार रोते रहें, ऐसा अभ्यास हमने कभी नहीं किया था।

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अहमद शाह पतरस बुख़ारी

(1 अक्टूबर 1898- 5 दिसंबर 1958)

असली नाम सैयद अहमद शाह बुख़ारी था। पतरस बुख़ारी के नाम से प्रशिद्ध हैं। जन्म पेशावर में हुआ। उर्दू अंग्रेज़ी, फ़ारसी और पंजाबी भाषाओं के माहिर थे। प्रारम्भिक शिक्षा से इंटरमीडिएट तक की शिक्षा पेशावर में हासिल की। लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज से बी.ए. (1917) और अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. (1919) किया। इसी दौरान गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर की पत्रिका “रावी” के सम्पादक रहे।

1925-1926 में इंगलिस्तान में इमानुएल कॉलेज कैम्ब्रिज से अंग्रेज़ी साहित्य में Tripos की सनद प्राप्त की। वापस आकर पहले सेंट्रल ट्रेनिंग कॉलेज और फिर गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में प्रोफ़ेसर रहे। 1940 में गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर के प्रिंसिपल हुए। 1940 ही में ऑल इंडिया रेडियो में कंट्रोलर जनरल हुए। 1952 में संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान के स्थाई प्रतिनिधि हुए। 1954 में संयुक्त राष्ट्र संघ में सूचना विभाग के डिप्टी सेक्रेटरी जनरल चुने गए। दिल का दौरा पड़ने से 1958 में न्यू यार्क में देहांत हुआ।

पतरस ने बहुत कम लिखा। “पतरस के मज़ामीन” के नाम से उनके हास्य निबंधों का संग्रह 1934 में प्रकाशित हुआ जो 11 निबंधों और एक प्रस्तावना पर आधारित है। इस छोटे से संग्रह ने उर्दू पाठकों में हलचल मचा दी और उर्दू हास्य-साहित्य के इतिहास में पतरस का नाम अमर कर दिया। उर्दू के व्यंग्यकार प्रोफ़ेसर रशीद अहमद सिद्दिक़ी लिखते हैं “रावी” में पतरस का निबंध “कुत्ते” पढ़ा तो ऐसा महसूस हुआ जैसे लिखने वाले ने इस निबंध से जो प्रतिष्ठा प्राप्त करली है वह बहुतों को तमाम उम्र नसीब न होगी।....... हंस-हंस के मार डालने का गुर बुख़ारी को ख़ूब आता है। हास्य और हास्य लेखन की यह पराकाष्ठा है....... पतरस मज़े की बातें मज़े से कहते हैं और जल्द कह देते हैं। इंतज़ार करने और सोच में पड़ने की ज़हमत में किसी को नहीं डालते। यही वजह है कि वे पढ़ने वाले का विश्वास बहुत जल्द हासिल कर लेते हैं।” पतरस की विशेषता यह है कि वे चुटकले नहीं सुनाते, हास्यजनक घटनाओं का निर्माण करते और मामूली से मामूली बात में हास्य के पहलू देख लेते हैं। इस छोटे से संग्रह द्वारा उन्होंने भविष्य के हास्य व व्यंग्य लेखकों के लिए नई राहें खोल दी हैं । उर्दू के महानतम हास्य लेखक मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी एक साक्षात्कार में कहते हैं “….पतरस आज भी ऐसा है कि कभी गाड़ी अटक जाती है तो उसका एक पन्ना खोलते हैं तो ज़ेहन की बहुत सी गाँठें खुल जाती हैं और क़लम रवाँ हो जाती है।”

पतरस के हास्य निबंध इतने प्रसिद्द हुए कि बहुत कम लोग जानते हैं कि वे एक महान अनुवादक (अंग्रेज़ी से उर्दू), आलोचक, वक्ता और राजनयिक थे। गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में नियुक्ति के दौरान उन्होंने अपने गिर्द शिक्षित, ज़हीन और होनहार नौजवान छात्रों का एक झुरमुट इकठ्ठा कर लिया। उनके शिष्यों में उर्दू के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शामिल थे।

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डॉ. आफ़ताब अहमद

व्याख्याता, हिंदी-उर्दू, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क

जन्म- स्थान: ग्राम: ज़ैनुद्दीन पुर, ज़िला: अम्बेडकर नगर, उत्तर प्रदेश, भारत

शिक्षा: जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी, दिल्ली से उर्दू साहित्य में एम. ए. एम.फ़िल और पी.एच.डी. की उपाधि। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ से आधुनिक इतिहास में स्नातक ।

कार्यक्षेत्र: पिछले आठ वर्षों से कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क में हिंदी-उर्दू भाषा और साहित्य का प्राध्यापन। सन 2006 से 2010 तक यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, बर्कली में उर्दू भाषा और साहित्य के व्याख्याता । 2001 से 2006 के बीच अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इन्डियन स्टडीज़, लखनऊ के उर्दू कार्यक्रम के निर्देशक ।

विशेष रूचि: हास्य व व्यंग्य साहित्य और अनुवाद ।

प्रकाशन: सआदत हसन मंटो की चौदह कहानियों का “बॉम्बे स्टोरीज़” के शीर्षक से अंग्रेज़ी अनुवाद (संयुक्त अनुवादक : आफ़ताब अहमद और मैट रीक)

मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी के उपन्यास “मृगमरीचिका” का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मिराजेज़ ऑफ़ दि माइंड’(संयुक्त अनुवादक : आफ़ताब अहमद और मैट रीक)

पतरस बुख़ारी के उर्दू हास्य-निबंधों और कहानीकार सैयद मुहम्मद अशरफ़ की उर्दू कहानियों के अंग्रेज़ी अनुवाद ( संयुक्त अनुवादक : आफ़ताब अहमद और मैट रीक ) कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित।

सम्प्रति: हिन्दी-उर्दू लैंग्वेज प्रोग्राम, दि डिपॉर्टमेंट ऑफ़ मिडिल ईस्टर्न, साउथ एशियन एंड अफ़्रीकन स्टडीज़, कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क से सम्बद्ध।

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रचनाकार: हास्य-व्यंग्य - बच्चे - मूल उर्दू - पतरस बुख़ारी - अनुवाद - डॉ. आफ़ताब अहमद
हास्य-व्यंग्य - बच्चे - मूल उर्दू - पतरस बुख़ारी - अनुवाद - डॉ. आफ़ताब अहमद
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